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कुरुक्षेत्र, फरवरी 2012
देश में पलायन के कई कारण मौजूद हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण अशिक्षा व बेरोजगारी है। उत्तर प्रदेश व बिहार से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है जो बाहर के महानगरों में काम की खोज में जाते हैं।अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी ये तीन प्रमुख कारण हैं, जो पलायन का कारण बनते हैं। गांवों में न शिक्षा का माहौल है और न ही रोजगार का कोई साधन। इस कारण लोग पलायन को विवश हो जाते हैं। ग्रामीणों को आशा रहती है कि उन्हें महानगरों में जीवन की सभी सुविधाएं मुहैया हो पाएंगी। महानगरों का दिवास्वप्न ही उन्हें गांवों से शहरों की ओर भटकाव कराता है। देश के जो राज्य उग्रवाद प्रभावित हैं, उन राज्यों से पलायन की दर भी ज्यादा है। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिसा व मध्य प्रदेश आदि राज्यों से यह पलायन दर ज्यादा है। इन राज्यों में अशिक्षा, गरीबी व बेरोजगारी चरम पर है। इन राज्यों के ग्रामीण बाहर के महानगरों में काफी संख्या में पलायन करते हैं।
भारत सरकार के जनगणना विभाग के अनुसार देश में वर्ष 1991 से 2001 के बीच करोड़ों की संख्या में ग्रामीणों ने शहरों की ओर पलायन किया। रोजगार की तलाश में सबसे ज्यादा ग्रामीण महानगरों की ओर जा रहे हैं। अगर निवास-स्थान को आधार माना जाए, तो वर्ष 1991 से 2001 के बीच 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपने घरों को छोड़ा। यह आंकड़ा देश की जनसंख्या का 30 प्रतिशत है। इसी तरह वर्ष 1991 की जनगणना की तुलना में वर्ष 2001 में पलायन करने वालों की संख्या में 37 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा हुआ है।
पलायन से संबंधित जो आंकड़े मिले हैं, वे चौंकाने वाले हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ों को आधार माना जाए, तो महाराष्ट्र में आने वालों की संख्या जाने वालों की संख्या से 20 लाख ज्यादा है। इसी तरह हरियाणा में जाने वालों से ज्यादा आने वालों की संख्या 67 लाख और गुजरात में 68 लाख है। इसी तरह उत्तर प्रदेश से जाने वालों की संख्या यहां आने वाली संख्या से 20 लाख से ज्यादा है। बिहार में भी आने वाले लोगों से ज्यादा जाने वालों की संख्या 10 लाख से ज्यादा है। इसका तात्पर्य उत्तर प्रदेश व बिहार से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है जो बाहर के महानगरों में काम की खोज में जाते हैं।
देश में पलायन के कई कारण मौजूद हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण अशिक्षा व बेरोजगारी है। गांवों में शिक्षा का संस्थागत ढांचा नहीं रहने के कारण ग्रामीण शिक्षित नहीं हो पाते हैं। अशिक्षा उन्हें मजदूरी व अन्य काम करने को विवश करती है। ग्रामीण अच्छे व बूरे को नहीं समझ पाते हैं। उन्हें अपने पेट भरने के लिए काम की दरकार होती है। ऐसे में गांवों के गरीब परिवारों को मजदूरी करनी पड़ती है। इन्हें गांव के नजदीक मजदूरी नहीं मिलने के कारण ये महानगरों व बड़े शहरों में पलायन करते हैं। इसके अलावा शिक्षित ग्रामीणों को भी नौकरी नहीं मिल पाती है। उन्हें भी नौकरी के कारण बाहर के शहरों में पलायन करना होता है। सरकार द्वारा भी स्थानीय स्तर पर नौकरी की सुविधाएं मुहैया नहीं करायी गई हैं। इस कारण भी गांवों से लोग महानगरों की ओर पलायन को विवश होते हैं।
देश में पलायन सकारात्मक पहलू के रूप में भी उभरा है। भारत के जिन राज्यों ने उच्च जीडीपी दर को प्राप्त किया है उसका एक कारण पलायन कर आए मजदूर भी हैं। पंजाब में बिहार से आए खेतिहर मजदूरों ने पंजाब को आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। बिहार के कोशी प्रमंडल सहित कई जिलों से खेतिहर किसान बाढ़ के कारण पलायन कर जाते हैं। इन मजदूरों को आसानी से पंजाब व हरियाणा में खेतों में काम मिल जाता है। पिछले 20 वर्षों में पंजाब व हरियाणा ने खाद्यान्न के रूप में जो आत्मनिर्भरता पायी है, उसका सबसे प्रमुख कारण पलायन कर आए खेतिहर किसान हैं। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में किसानों के पास ज्यादा दर में खेती लायक जमीन उपलब्ध है।
इसी तरह गुजरात को आत्मनिर्भर बनाने में पलायन किए गए मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका है। गुजरात जैसे राज्य में बड़े कल-कारखाने स्थापित हैं। इन कारखानों में काम करने वालों की जरूरत होती है। गुजरात में सस्ती दर पर मजदूर मिल जाते हैं। बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों से मजदूर व शिक्षित लोग पलायन कर गुजरात चले जाते हैं, जो गुजरात जैसे राज्य के विकास में अहम योगदान भी निभा रहे हैं।
झारखंड, ओडिसा व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से किशोरियों का पलायन होना दुर्भाग्यजनक है। झारखंड के सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा, पलामू, गढ़वा, पश्चिमी सिंहभूम, संथाल परगना समेत कई अन्य जिलों से बाहर के महानगरों में काम करने के लिए किशोरियों को दलालों के हाथों बेच दिया जाता है। ये किशोरी लड़कियां शहरों में काम करने तो जाती हैं, लेकिन वापस वे कभी घर को नहीं लौट पाती हैं। इस तरह के कई मामले झारखंड के थानों में दर्ज हैं।
लड़कियों की तस्करी का सिलसिला झारखंड में बदस्तूर जारी है। दिसंबर महीने में एक स्वयंसेवी संस्था की मदद से चाई बासा की पांच किशोरियों को दिल्ली के एक व्यवसायी के घर से मुक्त कराकर चाई बासा लाया गया। इस तरह के कई उदाहरण झारखंड में देखने को मिल जाते हैं। यही हाल छत्तीसगढ़ व ओडिसा का भी है। छत्तीसगढ़ व ओडिसा में भी गरीबी व बेरोजगारी ज्यादा है। इन राज्यों में आदिवासियों की संख्या काफी है। इस कारण लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर जाते हैं।
देश में पलायन को रोकने के लिए ग्रामीण-स्तर पर मनरेगा के पारदर्शिता के साथ क्रियान्वयन की जरूरत है। आंध्र प्रदेश व राजस्थान को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में मनरेगा में धांधली व अनियमितता की शिकायत मिलती रहती है। अगर मनरेगा के तहत सभी लोगों को उचित व योग्यता के लायक रोजगार उपलब्ध करा दिया जाए, तो लोग अपने घरों को छोड़कर बाहर के राज्यों में पलायन नहीं करेंगे। इससे उनकी सभ्यता व संस्कृति बचेगी साथ ही उनके पूरे समाज का विकास होगा।
झारखंड में मनरेगा के तहत सभी 24 जिलों में काम कराए जा रहे हैं। इससे लोगों को रोजगार तो मिला है। आंकड़े दर्शाते हैं कि मनरेगा के तहत अगर सही संख्या में लोगों को काम दिया जाए, तो पलायन रूकेगा। झारखंड में वर्ष 2006-10 तक 39,04,756 परिवार रोजगार के लिए निबंधित किए गए हैं। इन सभी लोगों को जॉब कार्ड उपलब्ध कराया गया है। वित्तीय वर्ष 2006-07 से 2009-10 तक चार वित्तीय वर्षों में कुल 64.02 लाख परिवारों को रोजगार उपलब्ध कराते हुए कुल 2872.66 लाख मानव दिवस रोजगार का सृजन कराया गया है।
वित्तीय वर्ष 2009-10 में केंद्र सरकार ने कुल 3103.09 करोड़ रुपये का बजट पारित किया। इसमें केंद्र सरकार ने 3978.97 करोड़ की राशि उपलब्ध करायी है। बाकी की राशि राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गयी है। इस वित्तीय वर्ष में कुल राशि 191628 करोड़ रुपये उपलब्ध हुई। इस बजट से पलायन में कमी आई। साथ ही लोगों को रोजगार भी मिले। झारखंड में इस राशि से 61.66 प्रतिशत अकुशल मजदूरी पर व्यय किया गया। इस वित्तीय वर्ष में 160813 योजनाओं को लिया गया, जिसमें 75767 योजनाएं पूर्ण की गई।
हालांकि मनरेगा के तहत लोगों को 100 दिनों का रोजगार दिया गया। बावजूद इसके झारखंड से पलायन जारी है। पलायन की रफ्तार भले धीमी हो। इस संबंध में झारखंड के वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रो. सुरेन्द्र पांडेय व टीआरआई के रिसर्च स्कॉलर डॉ. यूके वर्मा के अनुसार मनरेगा के तहत रोजगार तो उपलब्ध करा दिए गए हैं लेकिन योग्य व दक्ष लोगों की योग्यता का ध्यान नहीं रखा गया है। इस कारण झारखंड से पलायन जारी है।
बालिकाओं को रोजगार के लिए दलालों के हाथों बेचना व महानगरों में काम के लिए परिवारों द्वारा भेजने के पीछे अशिक्षा व स्थानीय स्तर पर काम का नहीं होना है। इसके तहत काफी प्रयास किए जाने की जरूरत है।
पलायन को रोकने के लिए सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रचार-प्रसार करने की जरूरत है। बिहार, झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़ सहित उग्रवाद प्रभावित राज्यों के सुदूरवर्ती गांवों में विकास के काम थम गए हैं। सुदूरवर्ती गांवों में विकास योजनाओं में काम नहीं होने के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता है। सरकार को इन क्षेत्रों में विकास योजनाओं में गति प्रदान करने की जरूरत है। इसके अलावा सरकार सुदूरवर्ती गांवों में पलायन के दुष्प्रभावों के बारे में बताए।
सरकारी एजेंसियां पलायन कर गए लोगों की कहानियां नुक्कड़-नाटक के माध्यम से बताने की कोशिश करें। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग रंगमंच से भलीभांति परिचित हैं। लोग नुक्कड़-नाटक को देखना भी पसंद करते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार अपनी बातें कहने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार का माध्यम नुक्कड़-नाटक व रंगमंच को बनाए जिससे लोग आसानी से समझ सकें। छोटे शहरों में होर्डिंग्स व पोस्टरों के जरिए भी प्रचार-प्रसार करें। इन विज्ञापनों के जरिए लोग पलायन के दर्द को समझ सकेंगे। सरकार रेडियो व टेलीविजन के माध्यम से लोगों तक अपनी पहुंच बनाए।
जिन सुदूरवर्ती गांवों से युवतियों का पलायन होता है, उन क्षेत्रों में शिक्षा का अलख जगाए। सरकार व गैर-स्वयंसेवी संस्थाएं इन क्षेत्रों में जाकर शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें। इसके अलावा इन क्षेत्रों में शिक्षा का दीप भी जलाए। स्थानीय स्तरों पर कम से कम मैट्रिक तक की शिक्षा उपलब्ध कराने को आगे आए। बिना शिक्षा के समाज को नहीं बदला जा सकता। लोग अगर शिक्षित होंगे, तो पलायन की समस्याओं को भी समझ सकेंगे। सरकार इन क्षेत्रों में शिक्षा की प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च व तकनीकी एवं रोजगारपरक प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान कराए। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को प्रशिक्षण दें, जिससे वे रोजगार से जुड़ सकें और अपनी आमदनी बढ़ा सकें।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
भारत सरकार के जनगणना विभाग के अनुसार देश में वर्ष 1991 से 2001 के बीच करोड़ों की संख्या में ग्रामीणों ने शहरों की ओर पलायन किया। रोजगार की तलाश में सबसे ज्यादा ग्रामीण महानगरों की ओर जा रहे हैं। अगर निवास-स्थान को आधार माना जाए, तो वर्ष 1991 से 2001 के बीच 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपने घरों को छोड़ा। यह आंकड़ा देश की जनसंख्या का 30 प्रतिशत है। इसी तरह वर्ष 1991 की जनगणना की तुलना में वर्ष 2001 में पलायन करने वालों की संख्या में 37 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा हुआ है।
पलायन से संबंधित जो आंकड़े मिले हैं, वे चौंकाने वाले हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के आंकड़ों को आधार माना जाए, तो महाराष्ट्र में आने वालों की संख्या जाने वालों की संख्या से 20 लाख ज्यादा है। इसी तरह हरियाणा में जाने वालों से ज्यादा आने वालों की संख्या 67 लाख और गुजरात में 68 लाख है। इसी तरह उत्तर प्रदेश से जाने वालों की संख्या यहां आने वाली संख्या से 20 लाख से ज्यादा है। बिहार में भी आने वाले लोगों से ज्यादा जाने वालों की संख्या 10 लाख से ज्यादा है। इसका तात्पर्य उत्तर प्रदेश व बिहार से पलायन करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है जो बाहर के महानगरों में काम की खोज में जाते हैं।
पलायन के मुख्य कारण
देश में पलायन के कई कारण मौजूद हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण अशिक्षा व बेरोजगारी है। गांवों में शिक्षा का संस्थागत ढांचा नहीं रहने के कारण ग्रामीण शिक्षित नहीं हो पाते हैं। अशिक्षा उन्हें मजदूरी व अन्य काम करने को विवश करती है। ग्रामीण अच्छे व बूरे को नहीं समझ पाते हैं। उन्हें अपने पेट भरने के लिए काम की दरकार होती है। ऐसे में गांवों के गरीब परिवारों को मजदूरी करनी पड़ती है। इन्हें गांव के नजदीक मजदूरी नहीं मिलने के कारण ये महानगरों व बड़े शहरों में पलायन करते हैं। इसके अलावा शिक्षित ग्रामीणों को भी नौकरी नहीं मिल पाती है। उन्हें भी नौकरी के कारण बाहर के शहरों में पलायन करना होता है। सरकार द्वारा भी स्थानीय स्तर पर नौकरी की सुविधाएं मुहैया नहीं करायी गई हैं। इस कारण भी गांवों से लोग महानगरों की ओर पलायन को विवश होते हैं।
सकारात्मक पहलू भी है पलायन
देश में पलायन सकारात्मक पहलू के रूप में भी उभरा है। भारत के जिन राज्यों ने उच्च जीडीपी दर को प्राप्त किया है उसका एक कारण पलायन कर आए मजदूर भी हैं। पंजाब में बिहार से आए खेतिहर मजदूरों ने पंजाब को आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। बिहार के कोशी प्रमंडल सहित कई जिलों से खेतिहर किसान बाढ़ के कारण पलायन कर जाते हैं। इन मजदूरों को आसानी से पंजाब व हरियाणा में खेतों में काम मिल जाता है। पिछले 20 वर्षों में पंजाब व हरियाणा ने खाद्यान्न के रूप में जो आत्मनिर्भरता पायी है, उसका सबसे प्रमुख कारण पलायन कर आए खेतिहर किसान हैं। पंजाब व हरियाणा जैसे राज्यों में किसानों के पास ज्यादा दर में खेती लायक जमीन उपलब्ध है।
इसी तरह गुजरात को आत्मनिर्भर बनाने में पलायन किए गए मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका है। गुजरात जैसे राज्य में बड़े कल-कारखाने स्थापित हैं। इन कारखानों में काम करने वालों की जरूरत होती है। गुजरात में सस्ती दर पर मजदूर मिल जाते हैं। बिहार, झारखंड व उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों से मजदूर व शिक्षित लोग पलायन कर गुजरात चले जाते हैं, जो गुजरात जैसे राज्य के विकास में अहम योगदान भी निभा रहे हैं।
किशोरियों का पलायन दुर्भाग्यजनक
झारखंड, ओडिसा व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से किशोरियों का पलायन होना दुर्भाग्यजनक है। झारखंड के सिमडेगा, गुमला, लोहरदगा, पलामू, गढ़वा, पश्चिमी सिंहभूम, संथाल परगना समेत कई अन्य जिलों से बाहर के महानगरों में काम करने के लिए किशोरियों को दलालों के हाथों बेच दिया जाता है। ये किशोरी लड़कियां शहरों में काम करने तो जाती हैं, लेकिन वापस वे कभी घर को नहीं लौट पाती हैं। इस तरह के कई मामले झारखंड के थानों में दर्ज हैं।
लड़कियों की तस्करी का सिलसिला झारखंड में बदस्तूर जारी है। दिसंबर महीने में एक स्वयंसेवी संस्था की मदद से चाई बासा की पांच किशोरियों को दिल्ली के एक व्यवसायी के घर से मुक्त कराकर चाई बासा लाया गया। इस तरह के कई उदाहरण झारखंड में देखने को मिल जाते हैं। यही हाल छत्तीसगढ़ व ओडिसा का भी है। छत्तीसगढ़ व ओडिसा में भी गरीबी व बेरोजगारी ज्यादा है। इन राज्यों में आदिवासियों की संख्या काफी है। इस कारण लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर जाते हैं।
मनरेगा में पारदर्शिता लाने की जरूरत
देश में पलायन को रोकने के लिए ग्रामीण-स्तर पर मनरेगा के पारदर्शिता के साथ क्रियान्वयन की जरूरत है। आंध्र प्रदेश व राजस्थान को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में मनरेगा में धांधली व अनियमितता की शिकायत मिलती रहती है। अगर मनरेगा के तहत सभी लोगों को उचित व योग्यता के लायक रोजगार उपलब्ध करा दिया जाए, तो लोग अपने घरों को छोड़कर बाहर के राज्यों में पलायन नहीं करेंगे। इससे उनकी सभ्यता व संस्कृति बचेगी साथ ही उनके पूरे समाज का विकास होगा।
झारखंड में मनरेगा के तहत सभी 24 जिलों में काम कराए जा रहे हैं। इससे लोगों को रोजगार तो मिला है। आंकड़े दर्शाते हैं कि मनरेगा के तहत अगर सही संख्या में लोगों को काम दिया जाए, तो पलायन रूकेगा। झारखंड में वर्ष 2006-10 तक 39,04,756 परिवार रोजगार के लिए निबंधित किए गए हैं। इन सभी लोगों को जॉब कार्ड उपलब्ध कराया गया है। वित्तीय वर्ष 2006-07 से 2009-10 तक चार वित्तीय वर्षों में कुल 64.02 लाख परिवारों को रोजगार उपलब्ध कराते हुए कुल 2872.66 लाख मानव दिवस रोजगार का सृजन कराया गया है।
वित्तीय वर्ष 2009-10 में केंद्र सरकार ने कुल 3103.09 करोड़ रुपये का बजट पारित किया। इसमें केंद्र सरकार ने 3978.97 करोड़ की राशि उपलब्ध करायी है। बाकी की राशि राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गयी है। इस वित्तीय वर्ष में कुल राशि 191628 करोड़ रुपये उपलब्ध हुई। इस बजट से पलायन में कमी आई। साथ ही लोगों को रोजगार भी मिले। झारखंड में इस राशि से 61.66 प्रतिशत अकुशल मजदूरी पर व्यय किया गया। इस वित्तीय वर्ष में 160813 योजनाओं को लिया गया, जिसमें 75767 योजनाएं पूर्ण की गई।
हालांकि मनरेगा के तहत लोगों को 100 दिनों का रोजगार दिया गया। बावजूद इसके झारखंड से पलायन जारी है। पलायन की रफ्तार भले धीमी हो। इस संबंध में झारखंड के वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रो. सुरेन्द्र पांडेय व टीआरआई के रिसर्च स्कॉलर डॉ. यूके वर्मा के अनुसार मनरेगा के तहत रोजगार तो उपलब्ध करा दिए गए हैं लेकिन योग्य व दक्ष लोगों की योग्यता का ध्यान नहीं रखा गया है। इस कारण झारखंड से पलायन जारी है।
बालिकाओं को रोजगार के लिए दलालों के हाथों बेचना व महानगरों में काम के लिए परिवारों द्वारा भेजने के पीछे अशिक्षा व स्थानीय स्तर पर काम का नहीं होना है। इसके तहत काफी प्रयास किए जाने की जरूरत है।
प्रचार-प्रसार की जरूरत
पलायन को रोकने के लिए सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रचार-प्रसार करने की जरूरत है। बिहार, झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़ सहित उग्रवाद प्रभावित राज्यों के सुदूरवर्ती गांवों में विकास के काम थम गए हैं। सुदूरवर्ती गांवों में विकास योजनाओं में काम नहीं होने के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता है। सरकार को इन क्षेत्रों में विकास योजनाओं में गति प्रदान करने की जरूरत है। इसके अलावा सरकार सुदूरवर्ती गांवों में पलायन के दुष्प्रभावों के बारे में बताए।
सरकारी एजेंसियां पलायन कर गए लोगों की कहानियां नुक्कड़-नाटक के माध्यम से बताने की कोशिश करें। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग रंगमंच से भलीभांति परिचित हैं। लोग नुक्कड़-नाटक को देखना भी पसंद करते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार अपनी बातें कहने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार का माध्यम नुक्कड़-नाटक व रंगमंच को बनाए जिससे लोग आसानी से समझ सकें। छोटे शहरों में होर्डिंग्स व पोस्टरों के जरिए भी प्रचार-प्रसार करें। इन विज्ञापनों के जरिए लोग पलायन के दर्द को समझ सकेंगे। सरकार रेडियो व टेलीविजन के माध्यम से लोगों तक अपनी पहुंच बनाए।
शिक्षा की जरूरत
जिन सुदूरवर्ती गांवों से युवतियों का पलायन होता है, उन क्षेत्रों में शिक्षा का अलख जगाए। सरकार व गैर-स्वयंसेवी संस्थाएं इन क्षेत्रों में जाकर शिक्षा का प्रचार-प्रसार करें। इसके अलावा इन क्षेत्रों में शिक्षा का दीप भी जलाए। स्थानीय स्तरों पर कम से कम मैट्रिक तक की शिक्षा उपलब्ध कराने को आगे आए। बिना शिक्षा के समाज को नहीं बदला जा सकता। लोग अगर शिक्षित होंगे, तो पलायन की समस्याओं को भी समझ सकेंगे। सरकार इन क्षेत्रों में शिक्षा की प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च व तकनीकी एवं रोजगारपरक प्रशिक्षण की सुविधा प्रदान कराए। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को प्रशिक्षण दें, जिससे वे रोजगार से जुड़ सकें और अपनी आमदनी बढ़ा सकें।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)