घर की ऐतिहासिक याद

Submitted by Hindi on Wed, 02/18/2015 - 15:28
Source
परिषद साक्ष्य धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
जब हम घर बनाते हैं
तब आकाश को गुफा में बदल रहे होते हैं
उतनी जमीन पर जंगल या खेती को कम कर रहे होते हैं
हमारा स्वभाव एकदम उस घर जैसा होता जाता है
जिसमें जंगल, जानवर और गुफाएं शामिल रही हों

वीराने ने जड़ जमाये किसी खंडहर में
जैसे कोई वनस्पति खिलने-खिलने को हो
हर नये में एक खंडहर होता है पहली बार टूटे दांत-सा
टूटे दांत-सा दिखता घर नये दांत-सा दिखने लग सकता है

हर चीज का जैसे एक आकार होता है
वैसे ही एक निराकार भी
जिसका होना दिखते ही न होना भी कौंध जाता है

जंगल न होता तो स्थतियां इतनी जानी-पहचानी न होतीं
जंगल ने शुरू में ज्ञान की तरह भय दिया
अज्ञान की तरह भोजन
फिर उसी भोजन ने उस भय को बढ़ाया जिसे ज्ञान कहते हैं

जंगल ने सन्नाटे और खामोशी को
एक से एक गंध और एक से एक आवाज दी
भय और भोजन दोनों के लिये गुफाएं दीं
उन सबका स्वभाव लेकर हम चले आये हैं

हर बार के प्रलय में जो हवाएं
चट्टानों के नीचे दबीं उनका बोझ उठाये बची रह सकती है
वे हवाएं ही बनती हैं गुफाएं
शुरुआत के बाहर भी हम घर की तलाश में थे
घर के भीतर भी हम घर की तलाश में हैं
जंगल और जानवर हमारे संस्कार में भरे पड़े हैं

गुफाएं हमारा पीछा कर रही हैं
अब वे ढूंढ़नी नहीं होतीं बनानी होती हैं
गुफाएं किराये पर भी मिल जाती हैं
बनी-बनायी बेची भी जाती हैं

जबकि दूर-दूर तक कहीं जंगल नहीं है
अजब भीड़-भड़क्के हैं और कुछ भी नजर नहीं आता
कुछ पालतू जानवर सड़कों पर ट्रैफिक रोके खड़े हैं
डर का उतना पुराना स्वभाव इतना नया बनकर मौजूद है

न जंगल ढूंढ़ने कहीं जाना है न इतिहास ढूंढ़ने
गुफाएं ढूढ़ने भी
अब पहाड़ों, ढूहों और नदी किनारों में जाने की जरूरत नहीं
जब हम घर बना रहे होते हैं
जब जमीन और आकाश को गुफा में ही बदल रहे होते हैं

मकान बनाते हैं जैसे एक मूर्ति बनाते हैं
जंगलों की, जानवरों की और गुफाओं की एक मिली-जुली मूर्ति
निर्गुण और निराकार के विरुद्ध हम घर बनाते हैं
मंदिर, मस्जिद और गिरजे बनाते हैं
हम शैलियों को भी मजहबी बना देते हैं

घर जमीन पर बनाते हैं तोड़-फोड़ आकाश की करते हैं
घर का मूर्त होना ईंटगारे का इबादत में बदल जाना है
आकाश को आने लिये ढ़ाल लेते हैं
और देखते रहते हैं गुफा का मकान में ढल जाना
घर का गुफा में बदल जाना
स्वभाव के हिंसक पशु इसी में रहते हैं

निरीह आकाश कोहराम से भर उठता है
आकाश की धातु लोहे की छड़ों और ईंटों की हो जाती है
निढाल आसमान हमारी तरह फंसकर साथ रहने चला आता है
सूनेपन को मिटाकर कभी सूनेपन को बढ़ाकर
शून्य भी घर में बदल जाता है

घर में आकाश की धातु सांस लेती है
गहरी नींद में आकाश की धातु पिघलने लगती है
घर में समायी गुफा और गुफा में समाये घर के कारण
आकाश की भी छीछालेदर होती रहती है

आकाश में गढ़ी गयी एक मूर्ति जो जमीन ने पांव गड़ा कर खड़ी है
घर की शैली में ढली
(जैसे शंख के भीतर का आकाश शंख की शैली में)
हमेशा हमारा रास्ता देखती रहती है

उन्हें दूर तक देखती रहती हैं घर की आंखे
जो कभी लौटकर नहीं आते
अपने हृदयाकाश में घर बहुत सारी चीजें छिपाये हुए रहता है

जंगल और जानवरों से भरी गुफाएं घर में रह रही हैं
कहीं न कहीं रहते हुए भी दिल घर पर ही रहता है
घर की याद भी एक अच्छी-खासी बुतपरस्ती है