धूप

Submitted by Hindi on Fri, 12/26/2014 - 13:38
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परिषद साक्ष्य धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
देख रहा हूँ
लम्बी खिड़की पर रक्खे पौधे
धूप की ओर बाहर झुके जा रहे हैं
हर साल की तरह गोरैया
अबकि भी कार्निस पर ला-ला के धरने लगी है तिनके
हालाँकि यह वह गोरैया नहीं
यह वह मकान भी नहीं
ये वे गमले भी नहीं, यह वह खिड़की भी नहीं
कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की

कितने सही हैं ये गुलाब
कुछ कसे हुए और कुछ झरने-झरने को
और हल्की-सी हवा में और भी, जोखम से
निखर गया है उनका रूप जो झरने को हैं
और वे पौधे बाहर को झुके जा रहे हैं
जैसे उधर से धूप इन्हें खींचे लिये जा रही है
और बरामदे में धूप होना मालूम होता है
जैसे ये पौधे बरामदे में धूप-सा कुछ ले आये हों

और तिनका लेने फुर्र से उड़ जाती है चिड़िया
हवा का एक डोलना है: जिसमें अचानक
कसे हुए गुलाब की गमक है और गर्मियाँ आ रही हैं
हालाँकि अभी बहुत दिन हैं-
कितनी सही है मेरी पहचान इस धूप की

और इस गोरैया के घोंसले की कई कहानियाँ हैं
पिछले साल की अलग
और उसके पिछले साल की अलग
एक सुगन्ध है
बल्कि सुगंध नहीं एक धूप है
बल्कि धूप नहीं एक स्मृति है
बल्कि ऊष्मा है, बल्कि ऊष्मा नहीं
सिर्फ एक पहचान है
हल्की-सी हवा है और एक बहुत बड़ा आसमान है
और वह नीला और उसमें धुआँ नहीं है
न किसी तरह का बादल है
और एक हल्की-सी हवा है और रौशनी है
और यह धूप है, जिसे मैंने पहचान लिया है
और इस धूप से भरा हुआ बाहर
एक बहुत बड़ा नीला आसमान है
और इस बरामदे में
धूप और हल्की-सी हवा और एक वसन्त