तेरह साल की उम्र में दुल्हन बनकर अपने अट्ठारह साल के पति के साथ मैं पहली बार सीतापुर से कानपुर आई थी। जब शादी की उम्र यह थी, तो मेरी पढ़ाई-लिखाई का कोई सवाल ही नहीं है। तब से लेकर आज तक मैंने अपनी पूरी जिन्दगी घर चलाने और बच्चों के पालन में खपाई है। मेरे नसीब में पक्की स्याही से लिखी गरीबी ने मुझे दैनिक मजदूर बनने के लिये मजबूर कर दिया। जल्द ही मैं मजदूर से राजमिस्त्री बन गई। मेरा मिस्त्री बनना कई लोगों को सुहाया नहीं। पर मुझे इस काम में कोई बुराई नहीं दिखी। वैसे भी गारा बनाने वाले हाथों को कन्नी-बसुली चलाने में बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं होती है।
दो दशक पहले की बात है। मैं अपने परिवार के साथ राजा का पुरवा स्लम इलाके में रहती थी। स्लम इलाकों की हालत आज भी बेहतर नहीं कही जा सकती, उस वक्त तो हम जैसे गन्दगी के ढेर पर रहते थे। हमारे इलाके में करीब 700 परिवार रहते थे, लेकिन एक भी सामुदायिक शौचालय नहीं था। सब लोग खुले में शौच जाते थे। उसी दौरान एक स्थानीय एनजीओ इस दिशा में काम करने के लिये आगे आया।
सौभाग्यवश मुझे भी उससे जुड़ने का मौका मिला। मैंने अपनी मिस्त्रीगीरी के हुनर से अपने मोहल्ले का पहला सामुदायिक शौचालय बनाया। लेकिन यह कर पाना इतना आसान नहीं था। इंचों में मापी जा सकने वाली जमीन के टुकड़ों पर बसर करने वाले लोग शौचालय के लिये जमीन खाली करने के लिये कतई राजी नहीं थे। इसके अलावा उस वक्त लोगों को शौचालय की जरूरत भी समझ नहीं आ रही थी। मैंने लोगों से इस बाबत कई बार बातचीत की। शौचालय बनाने को लेकर मेरा जुनून ही था कि आखिरकार लोगों को मेरी बात माननी पड़ी।
मैं यहीं नहीं रुकी। मैंने कानपुर नगर निगम के तत्कालीन आयुक्त के समक्ष दूसरे स्लम इलाकों के लिये ऐसी ही योजना बनाने की बात कही। अधिकारी मेरे प्रयासों से प्रभावित तो हुए, पर उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि किसी भी मोहल्ले के लोग शौचालय की कुल लागत का एक तिहाई खर्च उठाने को तैयार हों, तो दो तिहाई पैसा सरकारी योजना के तहत लिया जा सकता है।
मुझे अच्छी तरह पता था कि रिक्शा वालों और दिहाड़ी मजदूरों से पैसे इकट्ठा करना कितना मुश्किल काम है। फिर भी किसी तरह पैसों का इन्तजाम हो गया। इसके बाद तो चीजें तेजी से बदलने लगीं। मैंने अपने हाथों से पचास सीटों का एक सामुदायिक शौचालय तैयार किया। उस दौरान मुझे पहली बार यह अन्दाजा हुआ कि जो काम मैं कर रही हूँ, इससे ज्यादा अर्थ पूर्ण काम मेरे लिये इस दुनिया में शायद ही हो। शौचालय बनाकर मैं न सिर्फ पर्यावरण की स्वच्छता में अपना योगदान दे रही हूँ बल्कि महिलाओं की गरिमा के लिये भी काम कर रही हूँ।
मेरे सिर से पति का साया उठ चुका है। मेरी बड़ी बेटी और उसके बच्चे भी मेरे साथ रहते हैं, क्योंकि उसके पति भी इस दुनिया में नहीं हैं। तमाम तरह की दुश्वारियों के बीच मैंने आजीविका के साथ समाज की बेहतरी के शौचालय निर्माण के लिये कभी न नहीं कहा। अट्ठावन की उम्र तक चार हजार से ज्यादा शौचालय बनाने के बाद भी मेरे हाथ थके नहीं हैं। मैंने वही किया है, जो सम्भव है और मैं यह आगे भी करती रहूँगी। मैं चाहती हूँ कि दूसरे लोग भी ऐसी ही सोच के साथ आगे आएँ।
-विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित
Source
अमर उजाला, 30 अक्टूबर, 2018