हिमालय की तबाही वाली परियोजनाएं

Submitted by admin on Sun, 08/30/2009 - 15:14
Source
ऐन कैथरिन श्नायडर/ भाषांतरः मानषी आशर / Raviwar.com
आज दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के कारण संकट के बादल मंडरा रहे हैं लेकिन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले हिमालय के पर्वतीय इलाकों में बढ़ते तापमान के असर सबसे साफ़ नज़र आ रहे है. एशिया और हिमालय की महानदियों- सिन्धु, गंगा और नू के तेज़ी से पिघलते ग्लेशियर इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं.

हिमालय की इन नदियों को आज भारत, पाकिस्तान, नेपाल और भूटान की सरकारें दक्षिण एशिया के विद्युत उत्पादन केंद्रों में तब्दील करने पर तुली हुई हैं. आज की तारीख में हिमालय की उछलती-कूदती और तेज़ बहाव वाली नदियों पर कई पनबिजली परियोजनाएँ बन चुकी हैं और हज़ारों प्रस्तावित हैं. आने वाले 20 वर्षों में ये चारों देश कम से कम 150000 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिये जलविद्युत परियोजनाओं के केंद्र के रूप में उभरेंगे. लेकिन इन परियोजनाओं के कारण एक ओर जहाँ हिमालय की नदी-घाटियों की अखंडता और इन पर निर्भर आजीविकाओं पर प्रभाव पड़ेगा, वहीं दूसरी ओर ऐसी परियोजनाओं के कई आकस्मिक परिणाम हो सकते हैं, जो जलवायु परिवर्तन से सीधी तरह से जुड़े हुए हैं.

जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियरों के पिघलने तथा नदी जलस्तर के बढ़ने, बाढ़ आने और बादल फटने जैसी घटनाएँ बढ जाएँगी. जैसे-जैसे पानी और नदियों की स्थिति में परिवर्तन आयेगा, जलवायु और मौसम चक्र का पुर्वानुमान लगाना कठिन हो जाएगा.

इसका सीधा प्रभाव स्वयं बांध और जल विद्युत परियोजना की नियोजन प्रक्रिया पर पड़ेगा, जो पूरी तरह से नदी बहाव के पूर्व आंकड़ों पर आधारित होती हैं. मौसम के अनुसार नदी के बहाव का अनुमान लगाना कठिन हो जायेगा. हम केवल एक ही बात का अनुमान लगा पायेंगे और वह ये कि जब ग्लेशियर पिघलेंगे तो पहले पानी का बहाव बढ़ेगा और फिर लम्बे समय में नदियाँ सूख जाएँगी.

आज हिमालय क्षेत्र में बांध और जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण कार्य के लिये जो जानकारियां अनिवार्य हैं, वही हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आने वाले समय में कितने और किस तीव्रता के बाढ़ आयेंगे और बांध की दीवारें इन्हें झेल पाने में कितनी सक्षम होंगी.

दिसम्बर 2008 में छ्पी अपनी रपट ‘माउन्टेन्स ऑफ कांक्रीट’में, पानी के शोधकर्ता, श्रीपद धर्माधिकारी बताते हैं कि हिमालय क्षेत्र में बन रही अधिकतर विद्युत परियोजनाएँ नदियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आंकलन किये बिना ही बनाई जा रही हैं. “दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी इन जोखिमों का आंकलन नहीं किया जा रहा, ना एकल परियोजनाओं के लिये और ना ही एक नदी पर निर्मित सैंकड़ों परियोजनाओं के संचीय प्रभावों के लिये.”

इन क्षेत्रों की सरकारों ने जलवायु परिवर्तन जैसी संकट को अन्देखा कर अपना ध्यान केवल जल विद्युत परियोजनाओं से होने वाले फ़ायदों पर केंद्रित रखा है. नेपाल और भूटान की सरकारें बड़े बांधों के माध्यम से भारत जैसे देश को बिजली बेच कर आय बढ़ाने और ‘हाइड्रो डालर’कमाने की होड़ में हैं. वहीं भारत भी ना केवल अपने पड़ोसी देशों से बिजली खरीदने के लिये तैयार है, बल्कि अपने खुद के पहाड़ी क्षेत्रों को जलविद्युत इलाकों के रूप में तेजी से विकसित कर रहा है.

हालांकि नेपाल में केवल 40% ग्रामीण आबादी के लिये बिजली की आपूर्ति हो पाती है, लेकिन यहाँ लगभग सारी बड़ी विद्युत परियोजनाएँ भारत को बिजली निर्यात करने के उद्देश्य से बन रहीं है. इन में से प्रमुख हैं- पश्चिम सेती, अप्पर कर्नाली और अरुण. आश्चर्य की बात नहीं है कि नेपाल में इन परियोजनाओं को ना केवल विस्थापित और प्रभावित होने वाले समुदायों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि दूसरे बुद्धिजीवी भी इसके खिलाफ हैं, जिनका मानना है कि इन परियोजनाओं से अपेक्षित लाभ भी नेपाल सरकार के हाथ नहीं लगेंगे.

वित्तीय विश्लेषक, रतना सन्सार श्रेष्ठा का कहना है, “ जब पश्चिम सेती जैसी परियोजनाओं का अधिकतर निवेश विदेश से आ रहा है और सरकार का हिस्सा केवल 15% है, तो स्पष्ट है कि नेपाल को मुनाफ़े का छोटा हिस्सा ही मिलेगा. इसके अलावा विदेशी बैंको से लिये गये कर्ज़ का असल और सूद मिलाएं तो नेपाल सरकार की आय के सपने तो पूरे होने से रहे.”

भारत में बिजली की बढ़ती मांग की वजह से जलविद्युत परियोजनाओं को अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है. भारत जैसे देश में ऊर्जा की खपत पूरी नहीं हो पा रही. 2007 में कुल ऊर्जा की मांग 108,886 मेगावाट थी, जिसमें से केवल 90,793 मेगावाट की पूर्ति हो पाई. यानी कुल मिला कर 16% की कमी रही. आज भी भारत में एक बड़े तबके को बिजली नहीं मिल पाती. 2006 के सरकारी आंकड़ो के अनुसार 4 में से 1 भारतीय गाँव बिजली की सुविधा से वंचित है.

परंतु बिजली के इस अभाव का कारण उसके उत्पादन में कमी नहीं है. विशेषकर तब जब भारत में ऊर्जा के निर्माण और वितरण में ही कम से कम 35 से 45 प्रतिशत बिजली का घाटा हो जाता है.

पिछले कुछ समय से ऊर्जा के बढ़ते दामों और घटती सब्सिडी की वजह से भी गरीब लोगों की बिजली तक पहुंच कम हुई है. विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्तरी होने से यह ज़रूरी नहीं है कि बिजली गाँव-गाँव तक पहुँच जायेगी. इसके उलट पहाड़ी क्षेत्रों, जहाँ पर यह विद्युत परियोजनाएँ बन रहीं हैं; में निर्माण कार्य में निवेश ज़्यादा होने से ऊर्जा की कीमत और बढ़ जाएगी.

पाकिस्तान में सिन्धु नदी पर प्रस्तवित दियामर-भाषा बांध हिमालय क्षेत्र में सबसे अधिक निवेश वाली परियोजना है. 4500 मेगावाट की यह योजना 12.6 बीलियन डालर की लागत से बनेगी. पाकिस्तान सरकार पिछ्ले दो वर्षों से इस परियोजना के लिये निवेशकों की तलाश में है परन्तु आज तक वह इसमें असफल रही है.

नवंबर 2008 में पाकिस्तान के राष्ट्रीय आर्थिक काउंसिल ने इस परियोजना के लिये 1.5 बीलियन डालर की राशी मंजूर की थी और देश के जल मंत्री ने घोषणा की थी कि चीनी कम्पनियों द्वारा बाँध का निर्माण किया जायेगा और कुछ अरब देश भी इसमें पूंजी डालेंगे. लेकिन विश्व बैंक द्वारा बांध निर्माण के लिए आर्थिक सहायता देने से इंकार करने का निर्णय पाकिस्तान सरकार के लिए किसी सदमे से कम नहीं साबित हुआ.

दियामर-भाषा बांध ऐसी अकेली परियोजना नहीं है, जिसके लिये पूंजी निवेश के लाले पड़े हुए हैं. विश्व में आर्थिक मंदी के चलते अधिकतर जल विद्युत परियोजनाओं को इस तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. अपनी रपट में श्रीपद धर्माधिकारी दर्शाते हैं कि भारत की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में प्रस्तावित विद्युत क्षेत्र की योजनाओं के लिये लगभग 40 प्रतिशत तक निवेश की कमी हो रही है.

बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ इन प्रस्तावित परियोजनाओं को पूँजी की कमी की मार भी झेलनी पड़ रही है. इसके अलावा विस्थापित और प्रभावित समुदायों द्वारा विरोध और तीव्र आंदोलनों के चलते नेपाल में पश्चिम सेती और भारत में 3000 मेगावाट की दिबांग (अरुणाचल प्रदेश) जैसी बड़ी परियोजनाएँ लटकी पड़ी हैं. दिबांग परियोजना के लिये पर्यावरण जन-सुनवाई को पुरजोर विरोध के कारण कई-कई बार प्रशासन द्वारा निरस्त किया गया है और सिक्किम की राज्य सरकार ने भी हाल में तीस्ता नदी पर प्रस्तावित 4 परियोजनाओं को स्थानीय विरोध की वजह से खारिज कर दिया है.

बढ़ते विरोध के कारण तो स्पष्ट हैं- सरकारों द्वारा सामाजिक व पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों की अनदेखी, विकास की रूपरेखा और निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागेदारी सुनिश्चित ना करना. धर्माधिकारी की रपट का इशारा एक ही तरफ़ है 'हिमालय की हर नदी पर प्रस्तावित, हर परियोजना का पुनः विस्तृत आंकलन अनिवार्य है.'

*ऐन कैथरिन श्नायडर 'इन्टरनैशनल रिवर्स नेटवर्क’ में दक्षिण एशिया, कार्यक्रम निर्माता तथा विश्लेषक हैं.