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कादम्बिनी, जून 2012
पानी अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्मों का हिस्सा अपने शुरुआती दौर से ही बना रहा, कभी बरसात के रूप में, कभी नदियों के रूप में, कभी आंसुओं के रूप में तो कभी बाढ़ और सूखे की तबाही के रूप में।
सिनेमा के गीतों में भी पानी की चर्चा अधिकांशतः मुहावरे के रूप में ही सुनी जाती है। अपनी संगीतमय मधुरता के लिए ही नहीं पानी के मानवीय बिंबों के लिए भी याद किया जाता है। वास्तव में जब भी तरलता और सरलता का चरम परिभाषित करना होता है तो हमारे पास पानी के सिवा विकल्प नहीं होता। पानी आदि तत्व माना जाता है, यह हमारे जीवन ही नहीं, स्वभाव को भी नियंत्रित करता है। इतने के बावजूद पूरे संकोच के साथ यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि हिंदी सिनेमा में पानी की सबसे अधिक अभिव्यक्ति इसके रोमांटिक पहलू को लेकर हुई है। दस साल से भी अधिक हो गए होंगे जब विश्व पर्यावरण दिवस पर अपने प्रधानमंत्री ने कहा था कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। लगभग उसी समय शेखर कपूर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘पानी’ बनाने की घोषणा की थी। पानी तो अभी तक नहीं बन सकी, लेकिन यह भी सच है कि हिंदी सिनेमा ने पानी में भींगने से कभी संकोच नहीं किया। यदि हिंदुस्तान की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भूल भी जाएं, जिसमें दादा साहब फाल्के ने महिला की भूमिका को अभिनेता कर रहे सालुंके के साथ स्नान दृश्य फिल्माया था, पानी अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्म का हिस्सा बना रहा, कभी बरसात के रूप में, कभी नदियों के रूप में कभी आंसुओं के रूप में तो कभी सूखे और बाढ़ की तबाही के रूप में।
देव आनंद की ‘गाइड’ और आमिर खान के ‘लगान’ में जब परदे पर पानी की बूंदे आसमान से बरसते दिखती हैं तो खुशी से सिर्फ पात्र ही उल्लसित नहीं होते, दर्शकों के मन में भी पानी की जीवनदायनी अहमियत का अहसास हो जाता है। इस अहसास को पूर्णता देते हैं पानी की बूंदों के लिए तरसते किसान और फटी हुई धरती की पृष्ठभूमि में अल्लाह मेघ दे, पानी दे की गुहार। जबकि ‘लगान’ के ‘घनन घनन देखो घिर आए बदरा..’ में इसके बाद की खुशी की प्रति ध्वनि सुनी जा सकती है। 1971 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने समय, समाज और सरोकार को पानी से जोड़ते हुए एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाई, ‘दो बूंद पानी’। फिल्म मूलतः राजस्थान में बन रहे गंगा सागर कनाल प्रोजेक्ट की पृष्ठभूमि में है, जिसमें अपना योगदान देने के लिए राजस्थान के एक सूखा ग्रस्त गांव से गंगा सिंह (जलाल आगा) अपना भरा-पूरा परिवार छोड़ कर आ जाता है कि यह प्रोजेक्ट राजस्थान के रेगिस्तान की तकदीर बदल देगा। कनाल तैयार हो जाता है, राजस्थान को पानी मिल जाता है, लेकिन गंगा सिंह को समाज के ही दुष्टों के कारण अपना परिवार खोना पड़ जाता है।
यों तो पानी पर कई फिल्में बनीं, लेकिन कथानक में पानी के सीधे हस्तक्षेप को दर्शाती फिल्मों को याद करें तो सिर्फ ‘मदर इंडिया’ की ही याद आती है, 1957 में बनी इस फिल्म में एक औरत के संघर्ष और जीवट की पृष्ठभूमि में किसानों के लिए पानी की अनिवार्यता भी देखी जा सकती है। फिल्म का अंतिम दृश्य हिंदी सिनेमा के विशिष्ट प्रतीक दृश्यों में माना जाता है जिसमें नहर से आ रहा पानी लाल होकर गांव के खेतों में फैल रहा है, क्योंकि उसमें बिरजू (सुनील दत्त) का खून भी मिला है। समाज विरोधी होने के कारण जिसे उसकी मां ने ही मार डाला है। आमतौर पर हिंदी सिनेमा में पानी का इस्तेमाल कहानी में ट्विस्ट के लिए ही किया जाता रहा है। राजकपूर की ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में पानी का विषम प्रवाह नायक नायिका को एक-दूसरे से करीब लाने में अहम भूमिका निभाता है। इसी तरह ‘हिना’ की कहानी की दिशा भी पानी ही बदल देती है। प्रियदर्शन की ‘विरासत’ में गांव की खूबसूरती देखते-देखते ग़ायब हो जाती है, जब बांध टूटने से पूरा गांव जलप्रलय में डूबने लगता है।
लेकिन अफसोस कि अधिकांश ऐसे दृश्यों में यह या तो प्राकृतिक आपदा के रूप में आती है या संयोग के रूप में। हिंदी में गंगा को लेकर कम-से-कम पचास फिल्में बनी होंगी, लेकिन किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं, इन फिल्मों में गंगा या गंगा की समस्या को ढूंढ़ने की कोशिश पर निराशा हो सकती है। यहां आमतौर पर गंगा का संदर्भ मुहावरे के रूप में ही देखा जा सकता है। दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना’ में इन नदियों का संदर्भ मात्र सांस्कृतिक पहचान के रूप में ही देखा जा सकता है। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘गंगा की सौगंध’ का गीत इस पहचान को मुकम्मल रूप में व्याख्यायित करता है, ‘मानो तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी...।’
सिनेमा ही नहीं, सिनेमा के गीतों में भी पानी की चर्चा अधिकांशतः मुहावरे के रूप में ही सुनी जाती है, गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ का गीत, ‘पानी पानी रे खारे पानी रे, नैनों में भर जा, नींदें खुली कर जा...’ अपनी संगीतमय मधुरता के लिए ही नहीं पानी के मानवीय बिंबों के लिए भी याद किया जाता है। इसी तरह मनोज कुमार ने अपनी फिल्म ‘शोर’ में पानी की विशेषता कुछ इन शब्दों में बयान की थी, ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दे लगे उस जैसा...।’ वास्तव में जब भी तरलता और सरलता का चरम परिभाषित करना होता है तो हमारे पास पानी के सिवा विकल्प नहीं होता। पानी आदि तत्व माना जाता है, यह हमारे जीवन ही नहीं, स्वभाव को भी नियंत्रित करता है। आश्चर्य नहीं कि दीपा मेहता विधवाओं की स्थिति पर फिल्म बनाती हैं तो उन्हें प्रताड़ना और संघर्ष की उस कहानी के लिए ‘वाटर’ से बेहतर टाइटिल नहीं मिलता।
इतने के बावजूद पूरे संकोच के साथ यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि हिंदी सिनेमा में पानी की सबसे अधिक अभिव्यक्ति इसके रोमांटिक पहलू को लेकर हुई है। सिर्फ दृश्यों में ही नहीं, जब भी अवसर मिला सिनेमा ने ‘टिप टिप बरसा पानी और पानी ने आग लगा दी’ जैसे बोलों से भी कतई संकोच नहीं किया। यह अस्वाभाविक नहीं कि अपने तरल स्वभाव की वजह से पानी सिनेमा में हर रूप में दिखा, आंसुओं से लेकर सैलाब तक और प्यार, प्रसन्नता के प्रदर्शन से लेकर शोक की अभिव्यक्ति तक। ‘कभी खुशी कभी गम’ का वह दृश्य भला कैसे भुलाया जा सकता है जब नायक अपनी मजबूरी बताने नायिका के पास जा रहा होता है और उसे रास्ते से ही बरसात के बीच काले छातों की कतार दिखाई देती है और उसे पता चलता है कि नायिका के पिता नहीं रहे।
लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि क्या हिंदी सिनेमा के परदे पर पानी की वास्तविक समस्या भी दिखेगी। क्या यह दिखेगा कि गंगा को बचाने के लिए लोग अब अपनी आहुति भी दे रहे हैं। गंगा ही नहीं भारत की तमाम नदियां सूखती जा रही हैं, शहर ही नहीं गांवों तक में कुओं का जलस्तर अप्राप्य होता जा रहा है, देश की अधिकांश खेती अभी भी यथोचित बारिश के अभाव में शेष रह जाती है। सिनेमा के एजेंडे में यह नहीं है, तो फिर वाकई सिनेमा में पानी का दिखना चिंतित करता है। इस स्थिति में उस दिन की परिकल्पना चिंतित करत है, जब गंगा मैया वाकई जलविहीन हो जाएगी। आज भी बनारस से भागलपुर तक गंगा को देख कर कहा जा सकता है यह कतई अतिशयोक्ति नहीं। तब हमारे गीतकार कैसे रच सकेंगे वह गीत कि ‘गंगा मैया में जब तक कि पानी रहे, मेरे सैंया तेरी जिंदगानी रहे..।’ यदि वाकई परदे पर हम पानी देखते रहना चाहते हैं तो निश्चित रूप से हमें कोशिश करनी होगी पानी को अपनी जिंदगी में कायम रखने की भी।
(लेखक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक हैं)
सिनेमा के गीतों में भी पानी की चर्चा अधिकांशतः मुहावरे के रूप में ही सुनी जाती है। अपनी संगीतमय मधुरता के लिए ही नहीं पानी के मानवीय बिंबों के लिए भी याद किया जाता है। वास्तव में जब भी तरलता और सरलता का चरम परिभाषित करना होता है तो हमारे पास पानी के सिवा विकल्प नहीं होता। पानी आदि तत्व माना जाता है, यह हमारे जीवन ही नहीं, स्वभाव को भी नियंत्रित करता है। इतने के बावजूद पूरे संकोच के साथ यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि हिंदी सिनेमा में पानी की सबसे अधिक अभिव्यक्ति इसके रोमांटिक पहलू को लेकर हुई है। दस साल से भी अधिक हो गए होंगे जब विश्व पर्यावरण दिवस पर अपने प्रधानमंत्री ने कहा था कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। लगभग उसी समय शेखर कपूर ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘पानी’ बनाने की घोषणा की थी। पानी तो अभी तक नहीं बन सकी, लेकिन यह भी सच है कि हिंदी सिनेमा ने पानी में भींगने से कभी संकोच नहीं किया। यदि हिंदुस्तान की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भूल भी जाएं, जिसमें दादा साहब फाल्के ने महिला की भूमिका को अभिनेता कर रहे सालुंके के साथ स्नान दृश्य फिल्माया था, पानी अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्म का हिस्सा बना रहा, कभी बरसात के रूप में, कभी नदियों के रूप में कभी आंसुओं के रूप में तो कभी सूखे और बाढ़ की तबाही के रूप में।
देव आनंद की ‘गाइड’ और आमिर खान के ‘लगान’ में जब परदे पर पानी की बूंदे आसमान से बरसते दिखती हैं तो खुशी से सिर्फ पात्र ही उल्लसित नहीं होते, दर्शकों के मन में भी पानी की जीवनदायनी अहमियत का अहसास हो जाता है। इस अहसास को पूर्णता देते हैं पानी की बूंदों के लिए तरसते किसान और फटी हुई धरती की पृष्ठभूमि में अल्लाह मेघ दे, पानी दे की गुहार। जबकि ‘लगान’ के ‘घनन घनन देखो घिर आए बदरा..’ में इसके बाद की खुशी की प्रति ध्वनि सुनी जा सकती है। 1971 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने समय, समाज और सरोकार को पानी से जोड़ते हुए एक महत्वपूर्ण फिल्म बनाई, ‘दो बूंद पानी’। फिल्म मूलतः राजस्थान में बन रहे गंगा सागर कनाल प्रोजेक्ट की पृष्ठभूमि में है, जिसमें अपना योगदान देने के लिए राजस्थान के एक सूखा ग्रस्त गांव से गंगा सिंह (जलाल आगा) अपना भरा-पूरा परिवार छोड़ कर आ जाता है कि यह प्रोजेक्ट राजस्थान के रेगिस्तान की तकदीर बदल देगा। कनाल तैयार हो जाता है, राजस्थान को पानी मिल जाता है, लेकिन गंगा सिंह को समाज के ही दुष्टों के कारण अपना परिवार खोना पड़ जाता है।
यों तो पानी पर कई फिल्में बनीं, लेकिन कथानक में पानी के सीधे हस्तक्षेप को दर्शाती फिल्मों को याद करें तो सिर्फ ‘मदर इंडिया’ की ही याद आती है, 1957 में बनी इस फिल्म में एक औरत के संघर्ष और जीवट की पृष्ठभूमि में किसानों के लिए पानी की अनिवार्यता भी देखी जा सकती है। फिल्म का अंतिम दृश्य हिंदी सिनेमा के विशिष्ट प्रतीक दृश्यों में माना जाता है जिसमें नहर से आ रहा पानी लाल होकर गांव के खेतों में फैल रहा है, क्योंकि उसमें बिरजू (सुनील दत्त) का खून भी मिला है। समाज विरोधी होने के कारण जिसे उसकी मां ने ही मार डाला है। आमतौर पर हिंदी सिनेमा में पानी का इस्तेमाल कहानी में ट्विस्ट के लिए ही किया जाता रहा है। राजकपूर की ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में पानी का विषम प्रवाह नायक नायिका को एक-दूसरे से करीब लाने में अहम भूमिका निभाता है। इसी तरह ‘हिना’ की कहानी की दिशा भी पानी ही बदल देती है। प्रियदर्शन की ‘विरासत’ में गांव की खूबसूरती देखते-देखते ग़ायब हो जाती है, जब बांध टूटने से पूरा गांव जलप्रलय में डूबने लगता है।
लेकिन अफसोस कि अधिकांश ऐसे दृश्यों में यह या तो प्राकृतिक आपदा के रूप में आती है या संयोग के रूप में। हिंदी में गंगा को लेकर कम-से-कम पचास फिल्में बनी होंगी, लेकिन किसी भ्रम में रहने की जरूरत नहीं, इन फिल्मों में गंगा या गंगा की समस्या को ढूंढ़ने की कोशिश पर निराशा हो सकती है। यहां आमतौर पर गंगा का संदर्भ मुहावरे के रूप में ही देखा जा सकता है। दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना’ में इन नदियों का संदर्भ मात्र सांस्कृतिक पहचान के रूप में ही देखा जा सकता है। अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘गंगा की सौगंध’ का गीत इस पहचान को मुकम्मल रूप में व्याख्यायित करता है, ‘मानो तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी...।’
सिनेमा ही नहीं, सिनेमा के गीतों में भी पानी की चर्चा अधिकांशतः मुहावरे के रूप में ही सुनी जाती है, गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ का गीत, ‘पानी पानी रे खारे पानी रे, नैनों में भर जा, नींदें खुली कर जा...’ अपनी संगीतमय मधुरता के लिए ही नहीं पानी के मानवीय बिंबों के लिए भी याद किया जाता है। इसी तरह मनोज कुमार ने अपनी फिल्म ‘शोर’ में पानी की विशेषता कुछ इन शब्दों में बयान की थी, ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दे लगे उस जैसा...।’ वास्तव में जब भी तरलता और सरलता का चरम परिभाषित करना होता है तो हमारे पास पानी के सिवा विकल्प नहीं होता। पानी आदि तत्व माना जाता है, यह हमारे जीवन ही नहीं, स्वभाव को भी नियंत्रित करता है। आश्चर्य नहीं कि दीपा मेहता विधवाओं की स्थिति पर फिल्म बनाती हैं तो उन्हें प्रताड़ना और संघर्ष की उस कहानी के लिए ‘वाटर’ से बेहतर टाइटिल नहीं मिलता।
इतने के बावजूद पूरे संकोच के साथ यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि हिंदी सिनेमा में पानी की सबसे अधिक अभिव्यक्ति इसके रोमांटिक पहलू को लेकर हुई है। सिर्फ दृश्यों में ही नहीं, जब भी अवसर मिला सिनेमा ने ‘टिप टिप बरसा पानी और पानी ने आग लगा दी’ जैसे बोलों से भी कतई संकोच नहीं किया। यह अस्वाभाविक नहीं कि अपने तरल स्वभाव की वजह से पानी सिनेमा में हर रूप में दिखा, आंसुओं से लेकर सैलाब तक और प्यार, प्रसन्नता के प्रदर्शन से लेकर शोक की अभिव्यक्ति तक। ‘कभी खुशी कभी गम’ का वह दृश्य भला कैसे भुलाया जा सकता है जब नायक अपनी मजबूरी बताने नायिका के पास जा रहा होता है और उसे रास्ते से ही बरसात के बीच काले छातों की कतार दिखाई देती है और उसे पता चलता है कि नायिका के पिता नहीं रहे।
लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि क्या हिंदी सिनेमा के परदे पर पानी की वास्तविक समस्या भी दिखेगी। क्या यह दिखेगा कि गंगा को बचाने के लिए लोग अब अपनी आहुति भी दे रहे हैं। गंगा ही नहीं भारत की तमाम नदियां सूखती जा रही हैं, शहर ही नहीं गांवों तक में कुओं का जलस्तर अप्राप्य होता जा रहा है, देश की अधिकांश खेती अभी भी यथोचित बारिश के अभाव में शेष रह जाती है। सिनेमा के एजेंडे में यह नहीं है, तो फिर वाकई सिनेमा में पानी का दिखना चिंतित करता है। इस स्थिति में उस दिन की परिकल्पना चिंतित करत है, जब गंगा मैया वाकई जलविहीन हो जाएगी। आज भी बनारस से भागलपुर तक गंगा को देख कर कहा जा सकता है यह कतई अतिशयोक्ति नहीं। तब हमारे गीतकार कैसे रच सकेंगे वह गीत कि ‘गंगा मैया में जब तक कि पानी रहे, मेरे सैंया तेरी जिंदगानी रहे..।’ यदि वाकई परदे पर हम पानी देखते रहना चाहते हैं तो निश्चित रूप से हमें कोशिश करनी होगी पानी को अपनी जिंदगी में कायम रखने की भी।
(लेखक प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक हैं)