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हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, जनवरी 15, 2008, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
गांव में पानी का स्तर नीचे के प्रति जागरुकता फैलाई जाने लगी और हिवरे बाजार के लोगों ने 1997 में ऊंची कीमत देने वाली फसल न पैदा करने का फैसला किया। पर विकास की यह प्रयोगशाला क्या और लोगों को भी तरक्की का यह पाठ पढ़ा सकती है? यह तभी हो सकता है जब हम इस बहस को जिंदा रखें।भारत में बारिश होने या न होने से बड़ा फर्क पड़ता है। बारिश न हो तो एक बड़ा इलाका अकाल की चपेट में आ जाए और हो जाए तो पूरा इलाका हरा-भरा हो जाए। बारिश पर इस निर्भरता को समाप्त करने के लिए क्या उपाय खोजे जाएं? भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए भी बारिश की जरूरत पड़ती है। मौसमी बारिश सिंचाई, पेयजल और दूसरी घरेलू जरूरतों को पूरा करती है। मवेशियों और इनके लिए चारा उगाने के लिए भी बारिश के पानी की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में अब इसकी गारंटी नहीं ली जा सकती कि बारिश का क्या रुख होगा।
मैं यह सवाल इसलिए भी उठा रही हूं कि पिछले दिनों अपनी एक यात्रा के दौरान मुझे इसका जवाब दिख गया। मैंने अहमदनगर जिले के छोटे से गांव हिवरे-बाजार की यात्रा की और देखा कि अपने पर्यावरण को किस हद तक नया जीवन दिया जा सकता है। सूखे की चपेट की आशंका वाले महाराष्ट्र के इस गांव में हजार परिवार रहते हैं। पंद्रह साल पहले यहां के ज्यादातर लोग गरीबी में जी रहे थे और पूरा का पूरा गांव अराजकता की चपेट में था। मगर आज यह गांव बारिश के पानी का इस्तेमाल करने के तरीके सीख कर समृद्धि के नए दौर में जी रहा है। 1972 में जब महाराष्ट्र को पानी के संकट से जूझना पड़ा तो इस गांव में भी ‘नई रोजगार गारंटी स्कीम’ के तहत एक डैम बनाया गया। लेकिन योजना कामयाब नहीं रही और इलाका जल्द ही जल संकट से घिर गया। लोगों में डैम के पानी के लिए झगड़े होने लगे और इस चक्कर में एक हत्या भी हो गई। गांव में देसी शराब का धंधा जोर पकड़ने लगा। लोगों ने आसपास के जंगल काट डाले।
गांव वाले अब भी याद करते हैं कि पेड़ काटने से रोकने पर किस कदर एक फॉरेस्ट गार्ड को बांध कर पिटाई की गई थी। 1990 तक आते-आते गरीबी से लड़ने का एक ही तरीका बच गया और वो था रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन। परंतु अब यहां चारों ओर घने जंगल हैं। ऊंची घास का फैलाव था और हर तरफ हरे-भरे खेत दिखाई पड़ रहे हैं। पिछले साल यहां 541 मिमी. बारिश हुई भी और इस साल महज 300 मिमी.। यह बारिश भी तीन साल के सूखे और जल संकट के बाद आई थी। इसके बावजूद यह पूरा इलाक़ा हरा-भरा कैसे दिखाई दे रहा था?
उन्हीं दिनों राज्य सरकार ने आदर्श ग्राम योजना चलाई थी। यह योजना अन्ना हजारे के रालेगांव सिद्धी मॉडल पर आधारित थी। पेड़ नहीं काटे जाएंगे, चारागाह के लिए निश्चित जगह तय होगी, शराबबंदी होगी, परिवार नियोजन का पालन होगा और गांव के विकास के लिए सब लोग श्रमदान करेंगे।बदलाव की यह कहानी शुरू हुई 1990 के शुरुआती महीनों के दौर में, जब पोपट राव पवार गांव के सरपंच बने। गांव के इस पोस्टग्रेजुएट नौजवान ने अपने लोगों की बेहतरी की ठान रखी थी और उसने इसके लिए अपनी कोशिशें शुरू कर दीं थी। लेकिन शुरुआती कोशिश काम नहीं आई। गांव में रोपे गए शुरुआती पौधों को मवेशियों ने चर लिया और पौधों के लिए जो बाड़ा बनाया गया था उसकी लकड़ियों को गांव वाले जलावन के लिए उठा कर गए।
ऐसे हालात में पोपट राव और उनके साथियों ने दूसरा तरीका आजमाया। उन लोगों ने प्राइमरी स्कूल को हाईस्कूल में बदल दिया और गांव वालों को इस बात के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें। गांव के नब्बे फीसदी बच्चे स्कूल जाने लगे। उन्हीं दिनों राज्य सरकार ने आदर्श ग्राम योजना चलाई थी। यह योजना अन्ना हजारे के रालेगांव सिद्धी मॉडल पर आधारित थी। पेड़ नहीं काटे जाएंगे, चारागाह के लिए निश्चित जगह तय होगी, शराबबंदी होगी, परिवार नियोजन का पालन होगा और गांव के विकास के लिए सब लोग श्रमदान करेंगे। योजना के तहत जंगल की ज़मीन पर पौधे रोपे गए और लोगों का यहां अपने पशुओं को चराने से रोका गया।
फिर 1995 से 1998 तक राज्य सरकार की ‘रोज़गार गारंटी स्कीम’ के तहत गड्ढे और खाइयां खोदने, बांध बनाने और जंगल की जमीन पर पानी रोकने के लिए इंतजाम करने की मजदूरी दी गई। इसके बाद इस स्कीम के तहत चैक डैम बनाए गए और तालाब खोदे गए। ऊबड़-खाबड़ खेतों को समतल किया गया ताकि उनमें पानी रुक सके। इस योजना के तहत लोगों को 70 लाख रुपये की मजदूरी और उपकरण बांटे गए।
सबसे पहले तो घास की पैदावार बढ़ गई और पशुओं को चारा मिलने लगा। इससे इलाके में दूध का उत्पादन बढ़ गया। साल 2007 के अंत तक गांव वाले हर दिन 3,000 लीटर दूध बेचने लगे थे। भूजल स्तर ऊपर आ गया था इसलिए नए कुओं की खुदाई भी शुरू हो गई। हर घर में एक कुंआ था। लेकिन पवार और उनके साथियों ने जल्द ही महसूस किया कि आसानी से पानी मिलने के बाद लोग सामुदायिक हितों की अनदेखी करने लगते हैं। गांव के हर आदमी को लगता था कि उसके घर में कुदे कुएं का पानी उसकी अपना है और वो इस पानी का इस्तेमाल अच्छी कीमत देने वाली फसल पैदा करने में करेगा, भले ही गांव का जल-स्तर कितना ही नीचे पहुंच जाए।
गांव में पानी का स्तर नीचे जाने के प्रति जागरुकता फैलाई जाने लगी और हिवरे बाजार के लोगों ने 1997 में ज्यादा पानी खपत वाली फसल न पैदा करने का फैसला किया। पहला फैसला तो यह लिया गया कि गन्ना न पैदा किया जाए। गांव वालों को इसके लिए प्रेरित करना इतना आसान नहीं था क्योंकि आसपास के गांव वाले निर्यात के लिए फसल पैदा कर अच्छी कमाई कर रहे थे। पवार के मुताबिक, गांव वालों ने एक तरह का वाटर ऑडिट शुरू किया। राज्य सरकार की स्थानीय भुजलस्तर एजेंसियों के साथ मिलकर पानी की उपलब्धता की जांच की जाने लगी। अब गांव वाले पानी की उपलब्धता के हिसाब से फसल उगाने लगे। मिसाल के तौर पर गांव में इतनी बारिश नहीं हुई थी कि हुई थी कि गेंहू की फसल ली जाए। ग्राम सभा ने यह फैसला किया कि गेहूं पैदा न की जाए और गांव वाले इस फैसले को मान भी गए।
मैंने जब उनसे यह पूछा कि आखिरकार वो गेहूं की फसल पैदा करने से खुद को कैसे रोक पाए, उनका जवाब सहज था। उनकी गणित सीधी थी। अगर 100 मिमी. बारिश हो जाए तो गांव में पेयजल का संकट नहीं होगा और एक फसल के लिए पर्याप्त पानी होगा। अगर 200 मीमी. बारिश हो तो पीने के पानी का संकट नहीं होगा और एक पूरी फसल और दो आधी फसल ली जा सकती है। पर विकास की यह प्रयोगशाला क्या और लोगों को भी तरक्की का यह पाठ पढ़ा सकती है? यह तभी हो सकता है जब हम इस बहस को जिंदा रखें।
मैं यह सवाल इसलिए भी उठा रही हूं कि पिछले दिनों अपनी एक यात्रा के दौरान मुझे इसका जवाब दिख गया। मैंने अहमदनगर जिले के छोटे से गांव हिवरे-बाजार की यात्रा की और देखा कि अपने पर्यावरण को किस हद तक नया जीवन दिया जा सकता है। सूखे की चपेट की आशंका वाले महाराष्ट्र के इस गांव में हजार परिवार रहते हैं। पंद्रह साल पहले यहां के ज्यादातर लोग गरीबी में जी रहे थे और पूरा का पूरा गांव अराजकता की चपेट में था। मगर आज यह गांव बारिश के पानी का इस्तेमाल करने के तरीके सीख कर समृद्धि के नए दौर में जी रहा है। 1972 में जब महाराष्ट्र को पानी के संकट से जूझना पड़ा तो इस गांव में भी ‘नई रोजगार गारंटी स्कीम’ के तहत एक डैम बनाया गया। लेकिन योजना कामयाब नहीं रही और इलाका जल्द ही जल संकट से घिर गया। लोगों में डैम के पानी के लिए झगड़े होने लगे और इस चक्कर में एक हत्या भी हो गई। गांव में देसी शराब का धंधा जोर पकड़ने लगा। लोगों ने आसपास के जंगल काट डाले।
गांव वाले अब भी याद करते हैं कि पेड़ काटने से रोकने पर किस कदर एक फॉरेस्ट गार्ड को बांध कर पिटाई की गई थी। 1990 तक आते-आते गरीबी से लड़ने का एक ही तरीका बच गया और वो था रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन। परंतु अब यहां चारों ओर घने जंगल हैं। ऊंची घास का फैलाव था और हर तरफ हरे-भरे खेत दिखाई पड़ रहे हैं। पिछले साल यहां 541 मिमी. बारिश हुई भी और इस साल महज 300 मिमी.। यह बारिश भी तीन साल के सूखे और जल संकट के बाद आई थी। इसके बावजूद यह पूरा इलाक़ा हरा-भरा कैसे दिखाई दे रहा था?
उन्हीं दिनों राज्य सरकार ने आदर्श ग्राम योजना चलाई थी। यह योजना अन्ना हजारे के रालेगांव सिद्धी मॉडल पर आधारित थी। पेड़ नहीं काटे जाएंगे, चारागाह के लिए निश्चित जगह तय होगी, शराबबंदी होगी, परिवार नियोजन का पालन होगा और गांव के विकास के लिए सब लोग श्रमदान करेंगे।बदलाव की यह कहानी शुरू हुई 1990 के शुरुआती महीनों के दौर में, जब पोपट राव पवार गांव के सरपंच बने। गांव के इस पोस्टग्रेजुएट नौजवान ने अपने लोगों की बेहतरी की ठान रखी थी और उसने इसके लिए अपनी कोशिशें शुरू कर दीं थी। लेकिन शुरुआती कोशिश काम नहीं आई। गांव में रोपे गए शुरुआती पौधों को मवेशियों ने चर लिया और पौधों के लिए जो बाड़ा बनाया गया था उसकी लकड़ियों को गांव वाले जलावन के लिए उठा कर गए।
ऐसे हालात में पोपट राव और उनके साथियों ने दूसरा तरीका आजमाया। उन लोगों ने प्राइमरी स्कूल को हाईस्कूल में बदल दिया और गांव वालों को इस बात के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें। गांव के नब्बे फीसदी बच्चे स्कूल जाने लगे। उन्हीं दिनों राज्य सरकार ने आदर्श ग्राम योजना चलाई थी। यह योजना अन्ना हजारे के रालेगांव सिद्धी मॉडल पर आधारित थी। पेड़ नहीं काटे जाएंगे, चारागाह के लिए निश्चित जगह तय होगी, शराबबंदी होगी, परिवार नियोजन का पालन होगा और गांव के विकास के लिए सब लोग श्रमदान करेंगे। योजना के तहत जंगल की ज़मीन पर पौधे रोपे गए और लोगों का यहां अपने पशुओं को चराने से रोका गया।
फिर 1995 से 1998 तक राज्य सरकार की ‘रोज़गार गारंटी स्कीम’ के तहत गड्ढे और खाइयां खोदने, बांध बनाने और जंगल की जमीन पर पानी रोकने के लिए इंतजाम करने की मजदूरी दी गई। इसके बाद इस स्कीम के तहत चैक डैम बनाए गए और तालाब खोदे गए। ऊबड़-खाबड़ खेतों को समतल किया गया ताकि उनमें पानी रुक सके। इस योजना के तहत लोगों को 70 लाख रुपये की मजदूरी और उपकरण बांटे गए।
सबसे पहले तो घास की पैदावार बढ़ गई और पशुओं को चारा मिलने लगा। इससे इलाके में दूध का उत्पादन बढ़ गया। साल 2007 के अंत तक गांव वाले हर दिन 3,000 लीटर दूध बेचने लगे थे। भूजल स्तर ऊपर आ गया था इसलिए नए कुओं की खुदाई भी शुरू हो गई। हर घर में एक कुंआ था। लेकिन पवार और उनके साथियों ने जल्द ही महसूस किया कि आसानी से पानी मिलने के बाद लोग सामुदायिक हितों की अनदेखी करने लगते हैं। गांव के हर आदमी को लगता था कि उसके घर में कुदे कुएं का पानी उसकी अपना है और वो इस पानी का इस्तेमाल अच्छी कीमत देने वाली फसल पैदा करने में करेगा, भले ही गांव का जल-स्तर कितना ही नीचे पहुंच जाए।
गांव में पानी का स्तर नीचे जाने के प्रति जागरुकता फैलाई जाने लगी और हिवरे बाजार के लोगों ने 1997 में ज्यादा पानी खपत वाली फसल न पैदा करने का फैसला किया। पहला फैसला तो यह लिया गया कि गन्ना न पैदा किया जाए। गांव वालों को इसके लिए प्रेरित करना इतना आसान नहीं था क्योंकि आसपास के गांव वाले निर्यात के लिए फसल पैदा कर अच्छी कमाई कर रहे थे। पवार के मुताबिक, गांव वालों ने एक तरह का वाटर ऑडिट शुरू किया। राज्य सरकार की स्थानीय भुजलस्तर एजेंसियों के साथ मिलकर पानी की उपलब्धता की जांच की जाने लगी। अब गांव वाले पानी की उपलब्धता के हिसाब से फसल उगाने लगे। मिसाल के तौर पर गांव में इतनी बारिश नहीं हुई थी कि हुई थी कि गेंहू की फसल ली जाए। ग्राम सभा ने यह फैसला किया कि गेहूं पैदा न की जाए और गांव वाले इस फैसले को मान भी गए।
मैंने जब उनसे यह पूछा कि आखिरकार वो गेहूं की फसल पैदा करने से खुद को कैसे रोक पाए, उनका जवाब सहज था। उनकी गणित सीधी थी। अगर 100 मिमी. बारिश हो जाए तो गांव में पेयजल का संकट नहीं होगा और एक फसल के लिए पर्याप्त पानी होगा। अगर 200 मीमी. बारिश हो तो पीने के पानी का संकट नहीं होगा और एक पूरी फसल और दो आधी फसल ली जा सकती है। पर विकास की यह प्रयोगशाला क्या और लोगों को भी तरक्की का यह पाठ पढ़ा सकती है? यह तभी हो सकता है जब हम इस बहस को जिंदा रखें।