हजारों आत्माओं का पुनर्जन्म

Submitted by admin on Fri, 01/29/2010 - 15:06
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बूँदों की मनुहार ‘पुस्तक’


झाबुआ के काकरादरा में वह सब देखना, किसी चमत्कार से कम नहीं था। अलबत्ता, इस बदलाव की अवधि रातभर की नहीं, बल्कि तीन-चार साल की सतत् मेहनत थी। पूरी तरह जंगलों से वीरान होकर रेगिस्तान का आभास कराने वाली पहाड़ियां, आज सागौन के हजारों वृक्षों से आच्छादित नजर आ रही हैं। कभी जंगल काटने वाले लोगों ने खुद जंगल बचाने की ठान कर काकरदरा में पानी आंदोलन का नया इतिहास रच दिया। फसल उत्पादन में यहां जमीन-आसमान का फर्क नजर आने लगा। लोग इसे जलग्रहण का तीर्थ स्थल मानकर दूर-दूर से देखने आ रहे हैं।

जिला मु्ख्यालय से 12-15 किमी. दूर बसे काकरादरा की पहाड़ियों पर वन महकमा बार-बार पौधरोपण का प्रयास करता था, लेकिन जगंल तैयार नहीं हो पा रहे थे। किसी जमाने में घने जंगल से सराबोर रही यहां की पहाड़ियां रेगिस्तान के माहौल में बदल गईं। काकरादरा के लोग ही दबी जुबान स्वीकार करते हैं कि यहां से जंगल के जंगल काटकर रेलों में डालकर बाहर पहुंचाए जाते रहे। आखिरकार परेशान होकर इस पहाड़ियों पर जंगल लगाने और गांव में पानी रोके जाने के लिए चिन्तन-मनन शुरू हुआ। वन विभाग, जिला ग्रामीण विकास अभिकरण ने काकरादा के आदिवासी समाज के सामने पर्यावरण और पानी रोकने के अभियान से उनकी जिंदगी में आने वाले संभावित बदलावों पर प्रकाश डाला। गांव का एक युवक चैनसिंह अपनी 70-80 लोगों की टोली के साथ आगे आया। सबके सामने इन लोगों ने संकल्प लिया कि अब सरकार नहीं, हम गांव वाले खुद जंगल तैयार करेंगे। हम खुद गांव का पानी गांव में ही रोकने की कोशिश भी करेंगे। फैसले के समय अपनी लूट के दर्द से कराह रही पहाड़ियां भी मानो इन सब बातों पर सहजता से विश्वास नहीं कर रही थी। लेकिन चैनसिंह और उसकी टोली को साधुवाद! कि उसने बंजर पहाड़ियों का विश्वास कायम कर पूरे समाज के लिए संदेश दिया कि लकड़ी काटने वाले हाथ यदि ठान लें तो वे जंगल का जंगल फिर खड़ा कर सकते हैं।

आदिवासी चैनसिंह हमसे मुखातिब हैं – साथ में गांव के कुछ और लोग तथा ग्रामीण विकास अभिकरण के श्री आरके सूर्यवंशी भी हमारे साथ काकरादरा की पहाड़ियों पर खड़े हैं। सागौन के हजारों वृक्ष इन पहाडियों पर पांच से लगाकर सात-सात फुट ऊंचाई तक आ गए हैं। ये लोग चार-पांच साल पहले की स्थिति वाली वीरान पहाड़ियों के चित्र भी बताते हैं। समझाने के लिए एक छोटी पहाड़ी जिसका विकास नहीं किया गया, को भी लक्ष्य करते हैं। चैनसिंह कहता है- ‘अभी तक ये पहाड़ियां और इनका जंगल बचाना सरकारी काम था, अब सरकार ने हमारे ऊपर विश्वास करके इसे हमें सौंप दिया है। जिससे इलाके में 225 हेक्टेयर में जंगल तैयार हुआ है।’

‘क्या आपने वृक्षारोपण किया है?’

‘- नहीं हमने इन पहाड़ियों पर पानी रोकने की प्रक्रिया अपनाई। इसके बाद उसे चराई से पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। इसकी रक्षा के लिए ग्राम वन समिति के सदस्य निगरानी रखते। पशु चराई पकड़े जाने पर मालिक पर पहली बार पांच सौ रुपए व दूसरी बार एक हजार रुपए दंड वसूली का प्रावधान भी किया गया। काकरादरा के लोगों ने तो पूरा सहयोग दिया, लेकिन आसपास के गांव वाले परेशान करते रहे।’ चैनसिंह ने बताया - ‘इस जंगल को बचाने की खातिर हमें पड़ोसी गांव मसुरिया के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा। हम उनके मवेशी इन पहाड़ियों पर चरने नहीं देते। एक-दो बार तो हिंसक संघर्ष भी हुआ। हम पर बैल चोरी का आऱोप भी लगाया गया, जबकि बाद में ये बैल नेगड़िया में बरामद हुए।’ इस जनभागीदारी से तीन चार साल में तो पूरी पहाड़ी की तस्वीर ही बदल गई। बरसों पहले काटे गए वृक्षों की जड़ों को जब लगातार नमी मिली तो वे फूट पड़ीं। बिना कोई वृक्ष लगाए हजारों सागौन, नीम एवं अन्य वृक्षों का पुनरोत्पादन हो गया। इस रेगिस्तान में लगा मानो हजारों आत्माओं का पुनर्जन्म हो रहा है। उन आत्माओं का जिनका कुप्रवृत्ति के चलते जब-तब संहार किया जाता रहा। गांव की नई पीढ़ी इस बदलाव को देखकर रोमांचित हो उठी। बुजुर्ग लोग तीन-चार दशक पुरानी यादों में लौट गए।

‘गांव में पानी रोकने से और क्या-क्या बदलाव आए?’

चैनसिंह कहता है- ‘पानी आंदोलन के तहत आदिवासी समाज ने पूरे गांव की मेड़बंदी भी की। गांव में बह रहे नालों में पानी को जगह-जगह छोटे बंधान बनाकर रोका गया।’

पहले की स्थिति यह थी कि गांव के 20-25 परिवार ही अनाज की पूर्ति अपनी खेती के आधार पर कर पाते थे, बाकी लोगों को बाहर से लाना पड़ता था। गांव में 165 लोगों के परिवार हैं। 795 हेक्टेयर क्षेत्र का वाटरशेड है। पानी रोकने के प्रयासों में सफलता मिलने के बाद जमीन में स्वतः आई नमी, मेड़बंदी औऱ नाले के रोके पानी में इंजन लगाकर उद्वहन सिंचाई करने से कृषि परिदृश्य में मानक तब्दीली आई। पहले केवल 20 हेक्टेयर क्षेत्र में चने की फसल होती थी। अब चार साल बाद की स्थिति में 300 हेक्टेयर क्षेत्र में चने का पैदावार ली जा रही है। पहले गेंहू लगभग नहीं होता था, अब 150 हेक्टेयर में गेंहू बोया जा रहा है।

चैनसिंह व सूर्यवंशी बताते हैं-जल वाटरशेड योजना शुरू की थी, तब घर-घर सर्वेक्षण कर पूछा था कि आप कौन-कौन सी फसलों का उत्पादन कर पा रहे हैं। हमें जानकारी मिली थी कि गांव में कुल 20 क्विंटल चावल का उत्पादन हो रहा है। पानी रोकने के बाद 495 क्विंटल चावल उत्पादित किया गया। इसी तरह 1994 में गेंहू का उत्पादन नगण्य ही रहा। 1998 में 600 क्विंटल गेहूं की पैदावार ली गई। गेहूं का रकबा बढ़ने का बड़ा कारण 12 तथा 24 लोगों के दो समूह बनाकर उद्वहन सिंचाई का लाभ देना है। गांव की आत्म निर्भरता के बाद 80 परिवारों ने अपने क्षेत्र में उत्पादित अनाज को बाहर भी बेचा।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जल आन्दोलन के तहत श्रमदान के बाद मिली मजदूरी के अंश को गांववालों ने समाज के लिए भी संग्रहित करके रख लिय़ा। जैसे बूंदों के संग्रहण से यह प्रेरणा मिल गई। इस तरह काकरादरा के ग्राम कोष में एक लाख रूपए की राशि एकत्रित हो गई। गांव में ‘बैरानी कुलड़ी’ भी सफलतापूर्वक संचालित हो रही है। चैनसिंह सहित तोल्यो पिता लिमजी और जामसिंह पिता तोल्या कहते हैं - ‘अब नई उम्मीद के सहारे हैं। पहले सागौन का विशाल जंगल देखा था, लेकिन मेघनगर से बाद वाले अनास स्टेशन से यहां का जंगल रेल के रास्ते माफियाओं तक पहुंचता रहा। ईश्वर यह सद्बुद्धि कायम रखे कि जंगल फिर से नहीं उजड़ें........!’

और जब ईश्वर की बात चली तो हमारा ध्यान काकरादरा की पहाड़ी पर अकेले बुजुर्ग नीम के वृक्ष की और गया...... आदिवासी समाज ने इसके तनों पर नाड़े बांध रखे थे। अगरबत्तियां लगी थीं। जमीन पर कुछ मटकियां भी रखी थीं।

हमने सवाल दागा- जब पहले पूरा जंगल साफ हो गया था, तब यह नीम का वृक्ष अकेला कैसे बच गया......

जवाब आया-इसे इसलिए नहीं काटा गया, क्योंकि यहां हम लोग पूजा करते हैं, परम्परा के अनुसार मक्का फसल पकने के पहले दूध और मक्का दाने मिलाकर चढ़ाते हैं, इसे ‘नवई’ कहा जाता है

दरअसल ऐसा माना जाता है कि जिन वृक्षों की पूजा की जाती है, वहां देवी का वास होता है, तब इस पर कुल्हाड़ी कैसे चलाएं......। इस नीम की वृक्ष की जन्म पत्रिका शायद यह कहती होगी-तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, अलबत्ता तुम अपने हजारों साथियों का संहार और पुनर्जन्म होते देख सकोगे...और यह वक्त आ गया।

हजारों आत्माओं के पुनर्जन्म की कहानी सुना रहा है काकरादरा.....।

 

बदल-बदले से हैं मिजाज


झाबुआ जिला घूम आइए....! नल्दी से लगे गांव खेड़ी में आप भ्रमण करेंगे तो यहां के खेतों के मिजाज बदले-बदले से नजर आते हैं। यहां की परम्परागत फसल मक्का को छोड़कर किसानों ने पपीता के साथ-साथ मिर्ची औऱ लहसुन की पैदावार शुरू कर दी है। पानी की बूंदें रोकने के लिए देसी पद्धति से नाले को दो जगह बांध दिया गया। इन खेतों के मालिक आदिवासियों का दावा है कि वे अपनी आय कुछ गुना बढ़ाने की स्थिति में आ रहे हैं।

पानी रोकने के पहले यह गांव भी परम्परागत समस्याओं से जूझ रहा था। जलग्रहण कार्यक्रम की शुरूआत के साथ ही यहां आदिवासी समाज जैसे जान गया कि उनके भीतर वह सब कुछ है, जिसकी तलाश वे बाहर किया करते हैं। पानी के लिए ये लोग भटकते रहे, लेकिन एक दिन इस समाज ने कुछ फैसले लिए मसलन, पिटोल रोड की पुलिया से पानी यूं ही बह जाया करता था। इस नाले का नाम उकाला है। जिसा ग्रामीण विकास अभिकरण की पहल पर यहां समाज ने मिलकर एक स्टापडेम बना दिया। उसकी लागत मात्र सत्तर हजार रुपए आई। इसमें 25 फीसदी आदिवासी समाज का श्रमदान रहा, इसके अलावा ग्राम कोष में राशि जमा कराई सो अलग। जिला अभिकरण ने यहां आस्था मूलक कार्यों के तहत एक डीजल पम्पसेट प्रदान किया। इसके संधारण का काम जलग्रहण समिति को सुपुर्द किया गया। स्टॉपडेम का पानी इस पंपसेट की मदद से आदिवासियों के खेतों तक पहुंचाया जाता है। गांव के खेतों के मिजाज आखिर कैसे बदल रहे हैं.....? कहानी “गन्ना” आदिवासी के खेत से शुरू करते हैं। गन्ना ने जल आन्दोलन की नुमाइन्दगी की है। यह सीमान्त किसान जल ग्रहण समिति के अध्यक्ष भी हैं। जलग्रहण कार्यक्रम के पहले गन्ना आदिवासी अपने 0.20 हेक्टेयर के खेत में दो-ढाई क्विटल मक्का की ही उपज ले पाता था। इससे उसे डेढ़ हजार रूपए की आमदनी होती थी। यहां दो लाख रुपए किलो की उन्नत प्रजाति वाले पपीता के बीज बोए गए। दस ग्राम में 600 के लगभग बीज निकले, इसमें से 500 में अंकुरण हुआ और 400 पौधे चले। आठ माह बाद इनमें फल आने लगेंगे। तीन साल तक ये पौधे फल देंगे। गन्ना आदिवासी औऱ अनसिंह कहते हैं- पानी के अभाव से इस खेत से केवल मक्का की फसल ही ले पाते थे। उससे डेढ़ हजार रूपए से ज्यादा नहीं मिलते थे। अब दो फसलें ले रहे हैं। पपीता के भाव और उठाव ठीक है। इसके साथ बोई गई मिर्ची, मेथी और लहसुन की फसल सहित पपीता से मोटे अनुमान के अनुसार हम तीस हजार रुपए वार्षिक आमदनी के आंकड़े छू लेंगे।

इसी तरह गोमा, वीरिया, डामोर और नूरा पिता रामा भाभर के खेतों में भी पपीता के पौधे लगाए गए। ये लोग भी सब्जी सहित डेढ़-दे हजार के मुकाबले 28-30 हजार रुपए वार्षिक प्राप्त करने के प्रति आशान्वित हैं। खेड़ी में आठ किसानों के यहां पानी रोककर पपीते की खेती का प्रयोग किया गया है। पपीता के खेत बताते हुए गन्ना आदिवासी अनसिंह गेमा, नूरा भाभर कहते हैं- ‘पानी रोकने के बाद हमारे सोच और दिनचर्या में भी बदलाव आ गया है। पहले हमारे पास काम नहीं रहता था। अब हम व्यस्त हैं। एक फसल के बजाय हम दो फसल ले रहे हैं। गांव के कुओं का जलस्तर भी बढ़ा है। वाटरशेड के तहत गांव के मवेशियों के इलाज के लिए निःशुल्क स्वास्थ्य शिविर भी लगाया गया है।’

गांव से बिदा लेते समय हमें दूसरा स्टापडेम भी बताया गया। आदिवासी समाज ने उत्प्रेरणा के बाद इसे भी ठेठ देसी पद्धति से बनाया। मिट्टी-पत्थर का इस्तेमाल किया गया। जहां बहुत जरूरी हुआ, वहां दरारों में कुछ सीमेंट डाली गई। एक स्टापडेम की सफलता के बाद गांव वाले इसके निर्माण में भी जुट गए। यहां भी पच्चीस फीसदी श्रमदान किया गया। ग्राम कोष व विकास निधि में राशि जमा कराई गई। आपको आश्चर्य होगा, इसकी लागत केवल 19 हजार रुपए आई। जिला ग्रामीण विकास अभिकरण के सूर्यवंशी कहते हैं, हमारे इंजीनियर तमाम तकनीकी व सीमेन्ट का इस्तेमाल कर इसे बनाते तो यह दो-ढाई लाख रूपए में तैयार होता। इस कम लागत वाले स्टापडेम से हमारा मूल मकसद बरसात की बूंदों को रोकने का काम पूरा हो रहा है। कभी आगे दिक्कत आए तो उसका भी समाधान है। उसमें जमा गाद को हर साल निकालकर किसान अपने खेतों में डालकर दोहरे लाभ ले सकते हैं। इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति का उपयोग पानी भराव की क्षमता को और बढ़ाना रहेगा...।

........आदिवासी समाज के पारम्परिक ज्ञान को नमन्......!!

 

बूँदों की मनुहार

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आदाब, गौतम

2

बूँदों का सरताज : भानपुरा

3

फुलजी बा की दूसरी लड़ाई

4

डेढ़ हजार में जिंदा नदी

5

बालोदा लक्खा का जिन्दा समाज

6

दसवीं पास ‘इंजीनियर’

7

हजारों आत्माओं का पुनर्जन्म

8

नेगड़िया की संत बूँदें

9

बूँद-बूँद में नर्मदे हर

10

आधी करोड़पति बूँदें

11

पानी के मन्दिर

12

घर-घर के आगे डॉक्टर

13

बूँदों की अड़जी-पड़जी

14

धन्यवाद, मवड़ी नाला

15

वह यादगार रसीद

16

पुनोबा : एक विश्वविद्यालय

17

बूँदों की रियासत

18

खुश हो गये खेत

18

लक्ष्य पूर्ति की हांडी के चावल

20

बूँदें, नर्मदा घाटी और विस्थापन

21

बूँदों का रुकना, गुल्लक का भरना

22

लिफ्ट से पहले

23

रुक जाओ, रेगिस्तान

24

जीवन दायिनी

25

सुरंगी रुत आई म्हारा देस

26

बूँदों की पूजा