झाबुआ से पारा, श्यामपुरा, दौलतपुरा, आम्बाखेड़ी, बुड़कुई, सेमलखेड़ी, पाटबरड़ी, शेरपुरा, सेमलपाटी होते हुए हम बोरी पहुंचे। ठाकुर जीतसिंह की हवेली...... किसी जमाने में यहां दूर-दूर तक आदमी तो ठीक बिना अनुमति के परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। रियासत के काल में 250 गांव के लोग इस हवेली के इशारे से संचालित होते थे। और अब इसी हवेली से गांवों में समाज जागृति का बयार बह रही है। आसपास के अनेक आदिवासी, लोकशक्ति जागरण जगाने यहां एकत्र थे। पानी की बूंदें रोकने की गंगोत्री स्वयंसेवी संगठन ‘आसा’ का कामकाज इसी हवेली से चल रहा है।
बोरी से 5 किमी. दूर बसा है ग्राम कोल्याबड़ा। वृक्षों की छांव में बांसों को छीलते आदिवासियों ने हमें बता दिया था कि उनके लिए ग्राम कोष के मायने क्या होते हैं......। गांव में चल रहे पानी आंदोलन की विस्तृत चर्चा के बाद जब हम लोग जाने के लिए तैयार हुए तो ग्रामीणों ने हमें एक कागज पकड़ा दिया। यह पचास रुपये की ग्राम कोष की रसीद थी। इन लोगों का कहना है कि समय की कीमत केवल शहरी लोग ही नहीं, हम गांव वाले भी समझते हैं.....। गांव में पानी की बूंदें रोककर हमारी यह समझ और बढ़ी है। इसलिए जब भी हमारे कामों की जानकारी लेने कोई आता है- हम ग्राम कोष के लिए राशि लेते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक प्रति बस से दो सौ रुपए और प्रति व्यक्ति पचास रुपए की राशि लेते हैं। अभी तक यहां सेंटर फॉर नेचरल मैनेजमेंट के श्री सदानंद, एक्शन एड, एकेएफ., एफएलडीसी. आदि की टीमों सहित अनेक संस्थाओं और व्यक्तियों ने यहां पानी रोकने का जायजा लेने के बाद ग्राम कोष में योगदान दिया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्राम कोष में इन छोटी-सी राशियों सहित अब तक कुल 1 लाख 52 हजार रुपये की राशि जमा हो चुकी है। ग्राम विकास निधि में 34 हजार रुपए जमा हैं। कोल्याबड़ा 13 फलियों वाला विस्तृत क्षेत्रफल में फैला हुआ गांव है। पूरे गांव में तीन जलग्रहण समितियां सक्रिय हैं। ‘आसा’ के पानी रोको अभियान के समाज संगठक श्री विजय सोनी ने हमें अलग-अलग फलियों में घुमाया, जहां वाटरशेड का काम चल रहा है। गांव के नरसिंह, श्रीराम, गजराजसिंह दरियावसिंह और भूचरसिंह बघेल ने बताया कि पानी रोकने के बाद सामुदायिक चेतना आई। सब लोग पहले गांव की सोचते हैं फिर अपनी। पिछले साल पहाड़ी पर चराई रोकने के बाद 50 बैलगाड़ी घास मिली है। इस साल पानी कम गिरने के कारण 15 गाड़ी घास मिली है। पहले गेहूं में तीन पानी देते थे, अब चार बार पानी दिया जा रहा है। तालाब व चेकडेम बनने से सिंचाई सुविधा से अब तक वंचित किसान भी अपने खेतों को पानी दे पा रहे हैं। गांव के लोग कहते हैं- पहले जिसके पास ताकत थी, उसी की चलती थी। अब पानी समितियां जो निर्णय लेती हैं, वह सभी को मान्य होता है। पानी रोकने वाली जमीन पर सात लोगों का अतिक्रमण था। अतिक्रामकों ने पानी-शक्ति के आगे कब्जा हटा लिया। गांव में दो लोगों का सोयाबीन जल गया। इन लोगों को पूरे गांव ने मिलकर सहायता दी। गांव के एक व्यक्ति ने तालाब से ज्यादा पानी अपने खेतों में फिरा लिया, उसे तुरंत ही पचास रुपए का दंड देना पड़ा। जलग्रहण समिति ने तय कर रखा है कि रोकी गई पहाड़ी पर बकरी व गाय-भैंसों के चरने पर उनके मालिकों को क्रमशः पांच सौ और दो सौ रुपए अर्थदंड देना होगा। बकरी की राशि ज्यादा इसलिए कि इसका घुसना आसान और चराई की गति तेज होती है।
पानी रोकने के सभी कार्यों में गांव वालों ने मजदूरी के साथ-साथ श्रमदान भी किया है। 261 परिवारों के इस गांव की आबादी 1600 है। पटेल फलिए में बनाए तालाब से 14 परिवार सिंचाई सुविधा का लाभ ले सकेंगे। इस तरह यहां 27 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई होगी, जिससे 27 परिवार लाभान्वित होंगे। चार कुओं में जलक्षमता वृद्धि से 10 हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई हो रही है। गांव के बुजुर्ग आदिवासी कहते हैं- कोल्याबड़ा में बदलाव आ रहा है। नानी पंचायत (जलग्रहण समिति) गांव का विकास कर रही है। हमने बचपन में यहां घने जंगल देखे हैं। सब लकड़ियां काट डाली गईं। अब तो गोबर ढूंढ़ने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती है।
....गांव के लिए खुशखबरी है कि पानी रोकने के बाद 4-5 खरगोश भी दिखने लगे हैं।
.....हम कोल्याबड़ा से विदा ले रहे हैं। हमें लंबे समय याद रहेगा.....बकरी के पांच सौ रुपए तो भैंस के दो सौ रुपए!! दो भाइयों के सोयाबिन जलने पर पानी की बूंदों के खातिर एक हुआ पूरा गांव मदद करने के लिए आगे आ गया!! सम्पन्न ग्राम कोष, डेढ़ लाख रुपए की जमा पूंजी और हमारा समय भी कीमती है, कृपया पचास रुपए ग्राम कोष में जमा करवाइए.......!!!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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