किसी गांव के एक छोटे से टापरे में रहने वाले रामिया या कालिया को लाभ पहुंचाने वाली सरकारी योजनाओं की गंगोत्री दिल्ली, भोपाल या ऐसे ही कोई महत्वपूर्ण स्थान रहते हैं। अनेक बार ऐसे मामले सामने आए जिसमें योजनाएं अपनी इन गंगोत्री से निकलते समय लक्ष्यपूर्ति का सरकारी लक्ष्य लेकर चलती हैं। सफर कागजों पर ही होता है। सफलता का आधार भी कागजों पर ही तय होता है। वाहवाही के गीत या असफलता का प्रलाप भी कागजी घोड़े ही रहते हैं।
.......समाज की भूमिका तो उन पात्रों की तरह होती है, जो किसी तीर्थस्थल के बाहर पंक्ति में विराजमान रहते हैं। इनके हाथ में पात्र रहते हैं। जब दाता बाहर निकलता है तो एक नजर इस पंक्ति की ओर डालता है। फिर थोड़ा चिंतन करता है। उसके पास कितना क्या है और लेने वालों की तादाद कितनी है। और फिर उन्हें अपने पास रखी खाद्य सामग्री, कंबल, नकदी या कुछ और भी देता चला जाता है। यह पंक्तिबद्ध समाज सिर झुकाकर अदब के साथ सामग्री ग्रहण करता रहता है......।
..........कृपया फिर विचार करें कि इसमें समाज की भूमिका क्या कुछ थी?
क्षमा करें, हमारी कई सरकारी योजनाओं की स्थिति का खाका भी कुछ इसी तरह का होता है। समाज को देने की गति व लाभ पर ध्यान केन्द्रित रहता है। समाज की मर्जी क्या है? यह क्रियान्वयन स्तर की चिंता का विषय नहीं रहता।
लेकिन साधुवाद दिया जाना चाहिए कि पानी की बूंदों को रोकने की कोशिश में इस बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह का नजरिया बदला है। समाज के पात्र में अब कुछ डाला भर ही नहीं जा रहा है....। समाज से चर्चा भी की जा रही है। सरकार और समाज का यह संवाद कहीं पहाड़ियों को हजारों सागौन के वृक्षों के पुनरुत्पादन की सौगात दे चुका है। कहीं लूटपाट व राहजनी से अपराधी नाता छोड़ रहे हैं। कहीं तालाब में इकट्ठा पानी भरी गर्मी में भी कुओं को जिंदा कर रहा है। तो कहीं आधी दुनिया का घूंघट पीछे खसक कर समाज बदलाव का नया जज्बा पैदा कर रहा है। मिट्टी व पानी रोकने का मूलमंत्र है- ‘समाज की सहभागिता- समाज ही मालिक है। समाज ही प्रबंधक है। समाज ही मजदूर है.....और समाज ही हितग्राही है।’
अब आइए, यादों की परतें खोलते हैं, जहां समाज केवल हितग्राही है।
लक्ष्यपूर्ति की हांडी हमारे सामने है। इसमें एक-दो चावल को टेस्ट करते हैं.....।
पहला उदाहरण झाबुआ का ही लें। अस्सी के दशक में झाबुआ जिले की यात्राओं के दौरान मन में एक टीस उठा करती थी। केन्द्र सरकार की इंदिरा आवास योजना के तहत पूरे झाबूआ जिले में प्रत्येक विकासखंड में लक्ष्य के मुताबिक इंदिरा आवास बनाए गए थे। इस योजना का मकसद गरीबी की रेखा के नीचे जीवनायापन करने वाले आदिवासियों को बेहतर आवास सुविधा उपलब्ध कराना था। योजना ने अपने हिसाब से फर्राटे भरे......। इंदिरा आवास भी ताबड़तो़ड़ बन गई....। हितग्राहियों को ढूंढ़कर उन्हें दे दिए गए। .....लेकिन अमूमन ये आवास भूतहा बन कर रह गए। कहीं-कहीं गलत कार्यों के अड्डे बन गए। इनके दरवाजे और खिड़कियां चोरी चले गए. आदिवासी वहां रहने के लिए जाने से कतराते रहे....।
दरअसल, यहां भी हितग्राही समाज की भूमिका मात्र लेने भर की रही। समाज के बारे में सर्वत्र उपलब्ध इस जानकारी को तवज्जो क्यों नहीं दी गई कि आदिवासी प्रथम दृष्टया ही इस तरह की आवासीय संरचना को ठुकरा देगा। प्रायः आदिवासी समूह में पंक्तिबद्ध न रहते हुए छितरी हुई संरचना में निवास करते हैं। झाबुआ की भौगोलिक संरचना भी पठारी है। अपने छोटे से खेत के पास ही इनका टापरा होता है। एक गांव कुछ फलियों में बंटा होता है। फलियों का अंतर भी काफी रहता है। अनेक स्थानों पर तो एक फलिए में केवल चार पांच झोपड़े ही रहते हैं। सरकार के कहने पर यदि वे इंदिरा आवास में रहने चले जाएं तो उनकी सामाजार्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ेगा। खेतों की रखवाली कौन करेगा? बस्ती से दो-तीन किलोमीटर दूर रहने क्यों जाएंगे? आदिवासियों के मवेशी कहां रहते? क्योंकि इन आवासों की ‘आल इंडिया डिजाइन’ सरकारी कारिन्दों के रहने जैसी थी, सीमान्त किसान या गरीब आदिवासी के घर जैसी नहीं।
समाज की भागीदारी के बिना संचालित यह योजना पूरे जिले में अमूमन असफल रही। सन 1985 से 1990 तक इस तरह आवासों पर अकेले झाबुआ जिले में 1 करोड़ 39 लाख रुपए खर्च किए गए।
योजना की इस तरह की असफलता के बाद सरकारें चेती और बाद में स्थानीय समाज की जरूरतों के मुताबिक इसमें फेरबदल के निर्देश दिए गए।
अब हम लक्ष्यपूर्ति की हांडी में से दूसरा चावल उठाते हैं.....।
पश्चिमी मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राओं के दौरान इस तरह के अनेक अनुभव सामने आए। निमाड़ के कई गांवों में गरीब आदिवासी इसलिए रोते नजर आए की एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रमों की लक्ष्यपूर्ति के खातिर उन्हें कर्ज देकर बीमार और बूंढ़े बैल थमा दिए। बैल तो हल जोतने की स्थिति में भी नहीं थे। कर्ज से लदा किसान और घर आया बैल ‘एकाकार’ स्थिति में दिखते प्रतीत होते थे। इसी तरह इन्दौर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘स्टेपअप’ योजना में कई विसंगतियां दिखीं। बेटमा में पर्दानशीं महिलाओं को एक ही इलाके में किराना दुकान के ढेरों कर्ज पकड़ा दिए गए। सरकार ने समाज को खैरात देकर अपने कागज भर लिए, वाहवाही लूटी गई कि स्टेपअप से अनेक लोगों की जिन्दगी को ऊपर उठाने का कार्य हो रहा है। लेखक ने 1987 में इन्दौर जिले में स्टोपअप योजना की व्यापक पड़ताल की थी। अनेक लोग ‘स्टेपअप’ से ऊपर उठने के बजाय ‘स्टेपडाउन’ हो गए थे। लेकिन कर्ज वितरण का लाभ केवल सफलता की कहानी कह रहा था।
बहरहाल हांडी के ये चावल बता रहे हैं कि समाज यदि सहभागी नहीं है तो पांच साल में एक करोड़ उनचालीस लाख रुपए तो खर्च हो जाएंगे, लेकिन हकीकत में योजना का लाभ नहीं मिल सकता है। झाबुआ जिले में भूतहा बन पड़े इंदिरा आवासों को सरकार को ‘प्रयोगशाला के मेंढक’ की तरह चीरफाड़ करनी चाहिए। हालांकि पानी की बूंदों को रोकने और जंगल बचाने के लिए समाज को आगे और खुद को पीछे करके इस सरकार ने अपनी पुरानी सरकारों की गलतियों का प्रायश्चित कर लिया है।
किसी विचारक ने ठीक ही कहा है- हर वक्त योजनाएं ऊपर से थोपने पर पाइप लाइन के चोक होने का खतरा है। लक्ष्यपूर्ति की हांडी के इन चावलों को सामने रखकर सरकारों को कहना ही होगा- “समाज का, समाज के लिए, तो समाज द्वारा ही.....।”
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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