हमसे दूर जाता पानी

Submitted by Hindi on Wed, 03/01/2017 - 13:24
Source
भारतीय धरोहर, सितम्बर-अक्टूबर, 2011

हमसे दूर जाते पानी को रोकने के लिये हमें एक बार फिर पीछे लौटना होगा यानी पानी सँजोने की जाँची-परखी परम्पराओं को फिर से जीवित करना होगा। भारत में पानी के प्रबंधन की परम्पराएँ हजारों वर्ष तक व्यवहार में रही हैं। जल समस्याओं के स्थाई हल निकालने होंगे। पानी के विवेकपूर्ण प्रबंधन हेतु संस्थागत बदलाव भी जरूरी है। यह अत्यंत सतर्कता का समय है।

भारत में दो सौ साल पहले लगभग 21 लाख, सात हजार तालाब थे। साथ ही लाखों कुएँ, बावड़ियाँ, झीलें, पोखर और झरने भी। हजारों छोटी-बड़ी हर समय पानी से भरी नदियाँ भी थीं। आबादी बहुत कम थी। लोग अच्छे थे। संयमी, सदाचारी और कम-से-कम में भी काम चला लेनेवाले। लालच भी न के बराबर था। उनकी पानी की जरूरतें भी कम थीं। जो थीं भी तो वे बहुत मजे से पूरी हो जाती थीं। अब तालाबों सहित ज्यादातर पानी गायब हो रहा है। नदियों की हालत बेहद गम्भीर है। छोटी नदियाँ तो मर गईं, बड़ी नदियाँ भी गहरे संकट में हैं। वे कब तक बह पाएँगी, कहना मुश्किल है।

कुदरत ने भारत को भरपूर पानी दिया था। देश-भर में सबको पानी मुहैया था। देश के कुछ भागों को छोड़कर बाकी हिस्सों में लगभग सामान्य वर्षा होती थी। दुर्भाग्य ही है कि हम इस पानी को संभाल और सहेज नहीं पाए। पहले हमारी पानी के रख-रखाव और संग्रहण की व्यवस्थाएँ भी बेहद अच्छी थीं। स्थानीय मिट्टी, पठार, ढलान, समतल और भूगोल के हिसाब से ही पानी संजोया जाता था। मौसम, परम्पराएँ, लोगों की आदतें, उत्सव, रीति-रिवाज, अंधविश्वास और मान्यताएँ भी कहीं-न-कहीं इस पानी और उसके संरक्षण से जुड़ी थीं। पानी का कारगर प्रबंधन उनके जीवन से गहरे जुड़ा था। राजस्थान का उदाहरण सामने है। वहाँ के लोगों की जीवनशैली, खेती-पाती, आदतें और त्यौहार आदि कम पानी से ही काम चलाने के रहे हैं।

हमारे देश में समाज का प्रत्येक वर्ग पानी से जुड़ा था। हमारी दिनचर्या में सभी जगह पानी शामिल था। हमारी कृषि, उद्योग, बिजली उत्पादन, सुख-समृद्धि और समूचे विकास का आधार पानी ही है। एक वर्ष भी अवर्षा की स्थिति भयावह होती है। समूचे विकास का गणित गड़बड़ा जाता है। अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है। सकल घरेलू उत्पादन की दर सीधे नीचे आ जाती है।

पिछले पचास सालों में हमने हजारों साल जाँची-परखी और स्थापित जल परम्पराओं को खत्म कर दिया। अधिक पानी उपयोग की जीवन शैली अपना ली। कृषि और उद्योगों के विस्तार ने पानी के संसाधनों पर भारी दबाव पैदा कर दिया। पहले सतह का पानी खत्म हुआ, फिर जमीन के नीचे पानी को निचोड़ने के नए-नए तरीके ढूँढ लिये गये। तकनीकों और सस्ती या मुफ्त बिजली ने रही-सही कसर पूरी कर दी। अब गाँवों, नगरों, शहरों, खेतों और उद्योगों में चौतरफा बेलगाम पानी निकालने की होड़ और छीनाझपटी शुरू हो गई है। नई तकनीक ने अधिक से अधिक पानी निकालने के ढंग सिखा दिए। इन बिगड़ते हालात में पानी के लिये जूझते भारत और एक तिहाई दुनिया के लिये शायद यह आखिरी चेतावनी है।

भारत में अब जो पानी मौजूद है, उससे हमारी आधी जरूरतें ही पूरी हो पाएँगी। शेष 50 प्रतिशत के लिये अब पानी नहीं है। पुराने पानी के स्रोत यदि संरक्षित रहते तो ये मुश्किलें न आतीं। पर ऐसा हुआ नहीं। देश की विशाल और बढ़ती आबादी को पेट भरने के लिये अन्न की जरूरत थी। अन्न पैदा करने के लिये उन्नत कृषि और सिंचाई के विस्तार की। सिंचाई हेतु बाँध नहरें बनीं पर बाँधों से ढेरों समस्याएँ भी पनपीं। हम बाँधों की हालत ठीक न रख सके। इनकी जल भरण क्षमता लगातार घटती गई। भूक्षरण, वनों की कटाई, अतिक्रमण, बसाहट और गाद भरने से अधिकांश बाँध बेकार हो गए। इसी के कारण भरपूर जल संसाधनों के बावजूद भी हम जल विद्युत क्षमता को भी 20 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ा पाए। इसके विपरीत विकसित देशों ने 80 प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन किया।

ऐसा नहीं कि हालात सुधर नहीं सकते। पक्का इरादा, जीवन शैली में बदलाव, अच्छी रणनीति और ठोस जमीनी प्रयास करने होंगे। जल प्रबंधन, संग्रहण और संरक्षण को कागजी आदेशों, फाइलों और कार्यशालाओं के दायरे से बाहर निकालकर जमीन पर उतारना होगा। वर्षाजल बहकर न निकल जाए, ये देखना होगा। जहाँ बरसे, इकट्ठा हो, वहीं रोक लेने की पहल चमत्कार कर सकती है। ऐसे चमत्कार भी हमारे देश में ही हुए हैं। अगर ऐसा हो सके तो जमीनी जलस्तर और नीचे जाने से रुकेगा, फिर थमेगा और यही प्रयास यदि जारी रहे तो ये जलस्तर ऊपर भी उठेगा। पानी के बिना विकास के सभी मॉडल अधूरे हैं और बदसूरत भी। ये चकाचौंध भरा चमकीला संसार अंधेरे में डूब जाएगा।

भारत में कहीं-कहीं कम वर्षा से पैदा हालात तो आने वाली समस्याओं की शुरुआत ही हैं। इन समस्याओं के हल ढूँढे जाने चाहिए। अच्छी गुणवत्ता के पर्याप्त पानी की कमी एक बड़ी चिंता है। भारत में पेयजल की हालत देखें तो मालूम हुआ कि यह केवल 10,000 लाख घनमीटर है। इस हिसाब से भारत गम्भीर जल

संकट की ओर बढ़ रहा है। 1000 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता तो सही संकेत देती है। एक ओर पानी तेजी से घट रहा है, दूसरी ओर दोगुनी गति से पानी की जरूरतें बढ़ रही हैं।

खेती-पाती, सिंचाई, उद्योग-धंधे, बढ़ती घरेलू जरूरतों के साथ तेज रफ्तार शहरीकरण, साल-दर-साल आते सूखे के दौर बड़ी मुसीबतों की ओर इशारा करते हैं। भविष्य में इमरजेंसी जैसे हालात पैदा होने की सम्भावनाएँ बन रही हैं। इनसे निपटना चुनौती भरा काम होगा। समस्याओं के अस्थाई हल और महँगे उपाय ठीक नहीं। क्या ट्रेनों और टैंकरों से प्यासे इलाकों में पानी भेजना समस्या का हल है? क्या जल आपूर्ति की यह व्यवस्था सही, दीर्घकालिक या स्थाई है? निःसंदेह नहीं। हमें अपना घोर लापरवाह रवैया बदलना होगा।

पिछले 25-30 वर्षों में मौसम बदलाव ने भी पानी के हालात को बिगाड़ा है। आई.पी.सी.सी. की रिपोर्ट के अनुसार तेजी से पिघलते ग्लेशियरों और सिकुड़ते घटते बर्फीले भंडार पानी की हालत को और भी अधिक बिगाड़ेंगे। मौसम परिवर्तन और उसके असर पर शोध बताते हैं कि कुछ क्षेत्रों में भारी वर्षा होगी तो इसके उलट दूसरी जगहों पर वर्षा का पैटर्न बदलेगा। या तो वर्षा कम होगी या अनियमित होगी। इन हालात में कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे के हालात पनपना निश्चित है।

भारत को अपने जल संसाधनों को सहेजना सीखना होगा। देश में विशाल जल संसाधनों के बावजूद भी जल की कमी है। आजादी के बाद प्राकृतिक संसाधनों के विनाश पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि हमने जल, जंगल, वायु, भूमि के साथ जैव विविधता को भी गम्भीर क्षति पहुँचाई है। हम पर्यावरण विनाश के कारण प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पादन को कम कर रहे हैं। भारत की नदी व्यवस्था खत्म हो रही है। नदियाँ गंदगी का अंबार ढो रही हैं, वे बीमारियों का स्रोत बन रही हैं। हजारों करोड़ की नदी सफाई योजनाओं के बाद भी वे बदबूदार गंदे नाले की शक्ल ले चुकी हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।

अब भी समय है जब पानी और पानी के संसाधनों का चतुराई से प्रबंधन किया जाए। सम्पूर्ण ध्यान पानी के वितरण को बढ़ाने पर न दिया जाए। जरूरत है कि ध्यान इस पर हो कि पानी कैसे बचे या कम पानी का अधिकतम उपयोग कैसे हो। पानी का व्यवसाय भी देश में बड़ा आकार ले चुका है। व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये पानी की माँग और बिक्री बढ़ रही है। कृषि और उद्योगों में पानी का बेरोकटोक दुरुपयोग रुकना चाहिए। सब्सिडी की बिजली ने भी घटिया पम्पसेट चलाने को प्रोत्साहित किया है। इससे भूमिगत पानी के निकालने को बढ़ावा मिला है। इस दोहन से देश के अनेक भागों में पानी का स्तर चिंताजनक ढंग से नीचे जा चुका है। वहाँ के रहने वाले पेयजल के लिये अनेक मुसीबतों का सामना करने के लिये मजबूर हैं। शहरों में पानी का वितरण और परिवहन में ही पानी की एक बड़ी मात्रा रिसकर बर्बाद होती है। वहीं दूसरी ओर घरेलू, व्यावसायिक तथा औद्योगिक क्षेत्रों में पानी के इस्तेमाल पर कोई नियंत्रण नहीं है। उद्योगों में प्रयुक्त पानी की रिसाइक्लिंग हो सकती है। कृषि क्षेत्र में शोध के जरिए कम पानी में होने वाली फसलों को बढ़ावा देना समय की माँग है।

हमसे दूर जाते पानी को रोकने के लिये हमें एक बार फिर पीछे लौटना होगा यानी पानी सँजोने की जाँची-परखी परम्पराओं को फिर से जीवित करना होगा। भारत में पानी के प्रबंधन की परम्पराएँ हजारों वर्ष तक व्यवहार में रही हैं। जल समस्याओं के स्थाई हल निकालने होंगे। पानी के विवेकपूर्ण प्रबंधन हेतु संस्थागत बदलाव भी जरूरी है। यह अत्यंत सतर्कता का समय है। इस समय जल संरक्षण एवं प्रबंधन के मोर्चे पर लापरवाहियों के खामियाजे गम्भीर होंगे। हमारी सामाजिक प्रणाली और विरासत को बिखरने से रोकने के लिये अगले कुछ कदम निर्णायक होंगे।

साभार - और पानी उतर गया