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भारतीय धरोहर, सितम्बर-अक्टूबर, 2014
जल संकट के इस गम्भीर दौर में पानी के गणित को समझना होगा। अब हम समझ लें कि भारत में स्थानीय समस्याओं, स्थिति, भूगोल, भूगर्भ की रचना के साथ पानी के संरक्षण, प्रबंधन और संग्रहण को कैसे किया जाए। यह जरूरी है कि सतही जल प्रणालियों को फिर से जिंदा करें। परम्परागत जल स्रोत भूमिगत जल को रिचार्ज करने में चमत्कारिक परिणाम दे सकते हैं।
पानी का व्यवसाय अब एक बड़ा आकार ले चुका है। भारत में वाटर बॉटलिंग उद्योग 50,000 करोड़ रुपए तक पहुँच चुका है। 1100 लाख घनमीटर प्रतिवर्ष पानी की कमी के नतीजे आने वाले वर्षों में दिखेंगे। हम इन खौफनाक हालात के बाद भी पानी का मूल्य और महत्त्व नहीं समझे। इमारतों में सुंदर नक्काशीदार लकड़ी की कारीगरी से हरे भरे जंगले कई गुना अधिक मूल्यवान हैं। हमारी नदियाँ, स्टॉक मार्केट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। देखा जाए तो तेल और खनिजों की तुलना में पानी ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह केवल पानी है जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिये दुनिया की अर्थव्यवस्था में 20 हजार करोड़ की दर से सर्वाधिक योगदान देता है।
कुछ वर्षों पहले धरती पर पानी ही पानी था। सबके लिये पानी। पिछले पचास वर्षों में तेजी से सब-कुछ बदल गया। जनसंख्या की बाढ़ में विकास की रेतीली दीवारें ढह गईं। कुदरत के अनमोल खजाने लूट लिए गए। जीवन का दूसरा नाम पानी धरती पर लोप होने लगा। धरती के समूचे पानी को निचोड़ डाला गया। आबादी की मार से बचे पानी को कृषि और उद्योगों ने तबाह कर डाला। पानी का बेइंतहा, बेलगाम दोहन ही हमारे इस विकराल संकट का कारण बना।सतही पानी की व्यवस्था, रख-रखाव, आपूर्ति और प्रबंधन सरकारी एजेंसियों के पास चला गया। भूमिगत जल को लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया यानी हर कोई धरती का पानी निकालने के लिये आजाद हो गया। ज्यादातर सिंचाई के लिये धरती फोड़कर पानी निकालना आम चलन हो गया। तीन-चौथाई सिंचाई भूमिगत जल से होने लगी। देशभर में दो करोड़ से अधिक ट्यूबवेल्स का इस्तेमाल इसका प्रमाण है। सिंचाई और पानी का गणित तकनीक से सीधा जुड़ा है। इसका सीधा असर ऊर्जा उत्पादन और बिजली आपूर्ति में देखा जा सकता है। सिंचाई हेतु यदि पूँजीगत खर्च देखें तो यह प्रति एकड़ 40 हजार से बढ़कर 2.5 लाख रु. हो चुका है। बाँधों के जरिए पानी के भंडारण के कारण विस्थापन, पुनर्वास, जैव विविधता के नुकसान की भरपाई का खर्च इसमें शामिल नहीं है। सिंचाई के लिये बुनियादी ढाँचे के निर्माण का खर्च बढ़ा पर रखरखाव बिगड़ने लगा। सिंचाई हेतु ढाँचे बिगड़ते गए। क्षमता और वास्तविक इस्तेमाल के बीच अंतर बढ़ता गया। सतही जल व्यवस्था घाटे का सौदा साबित हुई। भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ती गई और प्रबंधन घटता गया। नतीजा हुआ कि भूजल विलुप्त होने की कगार पर आ गया।
तकनीक ने ज्यादा से ज्यादा गहराई से पानी खींचने की तरकीबें खोज डालीं। सब्सिडी से मिलने वाली बिजली ने पानी के दोहन को और अधिक प्रोत्साहित किया। जहाँ बिजली सस्ती थी वहाँ जरूरत से ज्यादा पानी निकालकर बर्बाद किया गया। देश भर में तीन करोड़ ऐसे उपभोक्ताओं पर लगाम लगाना एक बड़ी चुनौती है। लगातार बिगड़ते हालात में पानी के इस्तेमाल पर कानून बनाना ही होगा। पानी के इस्तेमाल को सीमित करना कानून का लक्ष्य हो।
जल संकट के इस गम्भीर दौर में पानी के गणित को समझना होगा। अब हम समझ लें कि भारत में स्थानीय समस्याओं, स्थिति, भूगोल, भूगर्भ की रचना के साथ पानी के संरक्षण, प्रबंधन और संग्रहण को कैसे किया जाए। यह जरूरी है कि सतही जल प्रणालियों के फिर से जिंदा करें। परम्परागत जल स्रोत भूमिगत जल को रिचार्ज करने में चमत्कारिक परिणाम दे सकते हैं।
विडम्बना यह है कि यदि हम भूमिगत जल का दस हिस्सा निकाल रहे हैं तो केवल दो हिस्सा रिचार्ज कर रहे हैं। यह दस दो अनुपात का असंतुलन ही गम्भीर जल समस्याएँ पैदा कर रहा है। पानी की कमी का आलम यह है कि कोलकाता से लेकर ‘रिओ डि जनैरो’ तक पीने का साफ पानी नहीं है। हास्यास्पद तो यह है कि पानी के स्थान पर अल्कोहल की खपत कुछ ही वर्षों में छह गुना बढ़ी है।
पानी का व्यवसाय अब एक बड़ा आकार ले चुका है। भारत में वाटर बॉटलिंग उद्योग 50,000 करोड़ रुपए तक पहुँच चुका है। 1100 लाख घनमीटर प्रतिवर्ष पानी की कमी के नतीजे आने वाले वर्षों में दिखेंगे। हम इन खौफनाक हालात के बाद भी पानी का मूल्य और महत्त्व नहीं समझे। इमारतों में सुंदर नक्काशीदार लकड़ी की कारीगरी से हरे भरे जंगले कई गुना अधिक मूल्यवान हैं। हमारी नदियाँ, स्टॉक मार्केट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। देखा जाए तो तेल और खनिजों की तुलना में पानी ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह केवल पानी है जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिये दुनिया की अर्थव्यवस्था में 20 हजार करोड़ की दर से सर्वाधिक योगदान देता है।
प्रकृति और प्राकृतिक व्यवस्थाएँ किसी आईएसआई मानकों से निर्धारित नहीं होती। प्रकृति के अपने स्वयं के मानक हैं। 1987 में राष्ट्रीय जलनीति के अंतर्गत जल को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित किया गया पर क्या हम इस नीति का पालन भी कर सके। याद रहे भविष्य की अर्थनीति और राजनीति में पानी पहला मुद्दा होगा। पानी के विवेकपूर्ण प्रबंधन के अभाव में संघर्ष बढ़ रहे हैं। व्यक्तिगत विवादों से लेकर अंतरराष्ट्रीय विवादों तक। अब जल के लिये के लिये झगड़े, भारी हिंसा में बदल रहे हैं। अनेक अंतरराज्यीय और अंतरराष्ट्रीय संघर्ष सामने हैं। कर्नाटक का विवाद तमिलनाडु से हरियाणा का पंजाब से, केंद्र का दिल्ली सरकार से और ना जाने कितने नए विवाद पनपने के कगार पर हैं पानी पर सबका अधिकार है, ठीक उसी प्रकार जैसे जीने का अधिकार। आज पानी ताकतवरों के कब्जे में है। एक बड़ी शीतल पेय कम्पनी को खुली छूट है कि वह कर्नाटक, यूपी. और गोवा में बोरवेल्स के जरिए जितना चाहे पानी निकाले। एक कम्पनी को यह भी छूट है वह विदादी (कर्नाटक) में बीस लाख लीटर प्रतिदिन पाँच वर्ष तक निकालती रहे। बारह वर्ष तक टैक्स की छूट अलग से प्राप्त है। गोवा और ठाणे में कुछ कम्पनियों को ऐसी ही सुविधाएँ मिली हैं।
कुदरत पानी जैसे अनमोल खजाने को हमें हर वर्ष लुटाती है। 800 मिमी से 1100 मिमी तक वर्षा के रूप में। इस जल को न तो हम रोक पा रहे हैं और न ही सम्भाल, सहेजकर जमीन के नीचे उतार पा रहे हैं। हमारी समूची जल संचय की प्रणालियाँ उपयोगी नहीं रह पाईं लिहाजा काफी हद तक नकारा साबित हुईं। इसका मतलब तो यही निकला कि हमारे विकास के मॉडल में गम्भीर खामियाँ थीं। इस विकास मॉडल में हमने प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी को बचाए रखने सम्बन्धी पक्षों को लगभग नकार दिया। भारत में शहरी विकास ने हालात को बद से बदतर बना दिया। हमारा विकास तभी सार्थक और तर्कसंगत होता, जब हम प्रकृति और जीवनदायी घटकों से तालमेल बनाए रखते। प्रकृति का विनाश जीवन का विनाश है। अगले कुछ वर्ष अतिसंवेदनशील और निर्णायक होंगे। प्रकृति के नियम, फार्मूले और गणित बहुत सरल हैं। जितना लो, उतना दो। प्रकृति का अपना संगीत, लय, ताल और धुन है, हमें इसी के साथ तालमेल बैठाना सीखना होगा।
100 वर्गमीटर रूफटॉप (घर की छत) से 60000 लीटर पानी मिलता है। एक बड़े शहर में इस दर से करोड़ों लीटर पानी मिल सकता है, जिसका उपयोग भूजल रिचार्ज में होना चाहिए। जरूरत है इसे करने की। एक मीटर जलस्तर नीचे खिसकने पर 0.4% अतिरिक्त बिजली खर्च होगी और पानी तो उतना ही मिलेगा। जल की हार्वेस्टिंग से जलस्तर बढ़ेगा, साथ ही बिजली भी बचेगी। एक हार्वेस्टिंग रचना का जीवनकाल 20-25 वर्ष होता है और इसे बनाने में 8000-10000 रुपये खर्च होते हैं। इससे इकट्ठा पानी की कीमत आँके तो प्रति 1000 लीटर 50 पैसे आती है। सभी बड़े भवनों में ऐसी जल हार्वेस्टिंग रचनाएँ भूमिगत जल को काफी ऊपर उठा सकती हैं।
यहाँ एक बिंदु गौरतलब है कि प्रत्येक ऐसी संरचना के निर्माण के पहले पर्यावरण विशेषज्ञ, इंजीनियर, जल विशेषज्ञ और भूवैज्ञानिक उस क्षेत्र विशेष का अध्ययन कर अपनी राय दें। ऐसी रचनाओं का निर्माण वहीं हो सकता है, जहाँ विशेषज्ञों की राय हो, जहाँ भूमिगत चट्टानें सरंध्र हो यानी पारगम्य या अर्धपारगम्य हों। अपारगम्य चट्टानों वाली भूमि में भूमिगत पानी की रिचार्ज व्यावहारिक नहीं हो सकता। पानी के प्रति नजरिया बदलना अब समय की माँग है। कृषि, सिंचाई, सामुदायिक जल प्रदाय, ऊर्जा, परिवहन, उद्योग, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के अलावा घरेलू उपयोग में पानी को अलग-अलग ढंग से देखा परखा जाता है। वास्तव में पानी के प्रति एक समग्र दृष्टि जरूरी है।
हमारे जल संग्रहण और प्रबंधन में सरकारी प्रयास लगता है, बहुत बेतरतीब और बिखरे हैं। केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, एन.जी.ओ., सामाजिक संस्थाएँ सब अपनी अपनी ढपली अपने अपने राग की तर्ज पर काम कर रहे हैं। अरबों रुपए के नदी एक्शन प्लान के कोई नतीजे नहीं मिले, योजनाएँ शुरू होती हैं, लागू होती हैं एवं खत्म भी हो जाती हैं। योजनाओं के आकार और गति का समस्या के अनुपात से तालमेल नहीं होता। उदाहरण के लिये किसी नदी के बहाव मार्ग के एक नगर के एक करोड़ लीटर गंदे पानी का शुद्धीकरण कर नदी में डालना है। योजना शुरू होते-होते गंदे पानी का डिस्चार्ज दो गुना हो जाता है। फलस्वरूप योजना का खर्च भी बढ़ जाता है। क्रियान्वयन में आनेवाली व्यावहारिक कठिनाइयाँ अलग से। सैकड़ों नगर अरबों लीटर डिस्चार्ज और बिखरती दम तोड़ती योजनाओं के बीच देश भर की नदियाँ बेरौनक हो गई, और मृत होने की बाट जोह रही हैं।
पानी बचा रहे, इसके लिये एकजुट कोशिश, सम्पूर्ण शक्ति, दृढ़निश्चय और नतीजे देने की ललक पैदा करनी होगी। संस्थाओं और विभागों को एक साथ मिलकर स्थानीय समाज की सहमति और सहयोग से जल संरक्षण हेतु साझा योजनाएँ बनानी होंगी। राष्ट्रीय जल बोर्ड, समन्वित जल विकास योजनाओं के लिये राष्ट्रीय आयोग, केंद्रीय जल आयोग, केंद्रीय मृदा एवं अनुसंधान केंद्र, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी, केंद्रीय भूमिगत जल सर्वेक्षण, अनेक सिंचाई परियोजनाएँ बोर्ड, आयोग लोक उपक्रम भारत सरकार द्वारा स्थापित हैं। इसके अलावा राज्य सरकारों के अनेक विभाग, उपक्रम, बोर्ड और संस्थाओं के साथ सैकड़ों सामाजिक तथा पर्यावरणीय संगठन हैं। सबका एक ही उद्देश्य है- पानी मिले और मिलता रहे।
हमारी समस्या रही है कि हम जल संसाधन को संरक्षित और सुरक्षित रखने के लक्ष्य पर केंद्रित नहीं रह पाए। सबके एक लक्ष्य, एक दिशा और संगठित प्रयास देश भर में पानी की तस्वीर बदल सकते हैं। पानी की हार्वेस्टिंग के साथ जलग्रहण क्षेत्रों का विकास और नदियों के पानी का विवेकपूर्ण उपयोग करने सम्बन्धी परियोजनाओं की जरूरत है।
पूरे देश में पानी की जटिल होती स्थिति के मद्देनजर अब पानी के प्रदूषण के ऑडिट की बातें सामने आई हैं। देश के कंट्रोलर और ऑडिटर द्वरा प्रदूषण के ऑडिट की बातें सामने आई हैं। देश के कंट्रोलर और ऑडिटर जनरल के अनुसार नदियों, झीलों और भूमिगत जल के प्रदूषण और संरक्षण पर 2010-11 से ऑडिट शुरू होगा। इस ऑडिट का उद्देश्य प्रदूषण से जुड़े मुद्दे और पानी की कमी से निपटने के कारगर तरीकों को खोजना है। जल समस्याओं के समाधान देना भी एक मकसद है ताकि सरकार इन समस्याओं से निपटने के तरीके खोजें। ऑडिट के पूर्व देश भर के लोगों से सुझाव और सहयोग माँगा गया है। यह दुर्भाग्य ही है कि देश के बीस करोड़ लोगों को शुद्ध पेयजल मुहैया नहीं है, जबकि उत्तरी यूरोप के फिनलैंड में पानी की गुणवत्ता सर्वश्रेष्ठ है। प्रदूषित पेयजल की समस्याएँ एशिया और अफ्रीका में ही हैं। 2050 तक 60 देशों में पानी की कमी का सामना करना होगा। फसलों के उत्पादन के लिये दुनिया में औसत 17 प्रतिशत अधिक पानी लगेगा। विकासशील देशों में 40 प्रतिशत अधिक पानी लगेगा। भारत में 1000 बच्चों में 87 बच्चे जलजनित बीमारियों से मरते हैं। शुद्ध पेय जल यदि जीवनदायक है तो दूसरी ओर प्रदूषित जल जानलेवा है।
मनुष्य के शरीर में 60 प्रतिशत पानी है। इसके अलावा खून का 92 प्रतिशत हिस्सा पानी ही है। ब्रेन और मांसपेशियों में 75 प्रतिशत पानी है। पृथ्वी का बड़ा हिस्सा पानी से भरा है, फिर भी पानी हमसे दूर होता जा रहा है। आज 2011 में 7 अरब आबादी है, जो 2050 में 9.5 अरब होगी भला कहाँ से आएगा पानी इनके लिये? इन हालातों में पानी के लिये संघर्ष होना तय है। 2500 ई.पू. सूमेरियन राज्य के लागाश और उम्मा के बीच इस तरह के संघर्ष का उल्लेख है।
यह सच्चाई है कि 43 प्रतिशत मौतें जल जनित डायरिया से होती हैं। भारत, नेपाल और बांग्लादेश के सात करोड़ लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं। यूँ तो भारत में 4000 अरब घनमीटर वर्षा होती है। किन्तु इसका 1086 अरब घनमीटर ही हम उपयोग कर पाते हैं। एक मोटे हिसाब से 690 अरब घनमीटर सतही जल के रूप में। पानी का गणित तो बहुत बड़ा पर पानी बहुत कम है। हमें उपलब्ध पानी से ही काम चलाना होगा। खेती की तकनीकों और सिंचाई प्रणालियों में बदलाव भी जरूरी है। बारिश से खेतों को 90 प्रतिशत पानी मिलता है पर 10 प्रतिशत ही इस्तेमाल होता है। पानी का गड़बड़ाता गणित समूचे विकास की शक्ल को बदशक्ल न कर दे। अब सलाहों, सुझावों, चर्चाओं और योजनाओं को जमीन पर अमल करने का वक्त है।