भारतीय संस्कृति शोध पर आधारित है। भारतीय संस्कार, रीति-रिवाज तथा परंपराएं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती हैं, ये शब्द भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के महानिदेशक डा. के. एन. श्रीवास्तव ने सरस्वती नदी शोध संस्थान द्वारा कुरुक्षेत्र में आयोजित अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा।
सरस्वती के पुनर्प्रवाह हेतु सतत प्रयत्नशील सरस्वती नदी शोध संस्थान द्वारा ‘सरस्वती नदी-एक परिदृश्य’ शीर्षक के अन्तर्गत दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय अधिवेशन का आयोजन गत माह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के राधाकृष्ण सदन में किया गया। इस अधिवेशन में देश-विदेश के अनेक भूवैज्ञानिक, पुरातत्वविद तथा इतिहासकार शामिल हुए। सरस्वती उपासक अनेक विद्वानों ने इस अधिवेशन में अपने शोध व अध्ययन के आधार पर एक तरफ जहां सरस्वती नदी के पुनर्प्रवाह को सुनिश्चित कहा, वहीं भारतीय इतिहास की अनेक उलझी गुत्थियों का सच भी प्रस्तुत किया। इस अधिवेशन की यह विशेषता रही कि प्रस्तुत किए गए सभी अध्ययन वैज्ञानिक व ऐतिहासिक तौर पर प्रामाणिक तथा तथ्यों पर आधारित थे।इस अधिवेशन में सरस्वती नदी के तमाम पहलुओं पर मंथन हुआ। भूवैज्ञानिक, पुरातत्वविद तथा इतिहासकार इस अवधारणा पर एकमत दिखाई दिए कि सरस्वती नदी को पुन: प्रवाहित करना असंभव नहीं है। इसरो तथा ओएनजीसी के वैज्ञानिक प्रमाणित कर चुके हैं कि सरस्वती आज भी धरती में कहीं गहरे बह रही है जिसको सरकारी नियोजन व कार्यान्वयन के सहयोग से पुनर्प्रवाहित किया जा सकता है। राजस्थान के जैसलमेर तथा हरियाणा के कलायत आदि स्थानों पर सरस्वती के जल भंडारों की पुष्टि हो चुकी है। कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का आशीर्वाद इस आयोजन को मिला। उन्होंने कहा कि सरस्वती हमारी समृद्ध सभ्यता व संस्कृति की अनमोल धरोहर है जिसका संरक्षण व संर्वधन हमारा धर्म बनता है। उन्होंने विशेषज्ञों के शोधपत्रों पर आधारित स्मारिका का विमोचन भी किया।
अधिवेशन के मुख्य अतिथि हरियाणा के वित्त एवं सिंचाई मंत्री कैप्टन अजय यादव ने सरस्वती नदी के पुनर्प्रवाह के लिए सरस्वती नदी शोध संस्थान के प्रयासों की सराहना की। उन्होंने कहा कि हरियाणा सरकार इस पुनीत कार्य में संस्थान की हर संभव सहायता करेगी। उन्होंने सरस्वती की खुदाई के दौरान आने वाली तमाम कानूनी दिक्कतों को प्राथमिकता के आधार पर दूर करवाने का भरोसा दिया।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक के.एन.श्रीवास्तव ने कहा कि सरस्वती की खुदाई से हरियाणा, गुजरात व राजस्थान में इसके तटों पर सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े स्थलों को विकसित व प्रचारित करने में मदद मिलेगी। श्रीकृष्ण संग्रहालय, कुरुक्षेत्र के उप निदेशक राजेश पुरोहित द्वारा सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग को प्रोजेक्टर के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। उन्होंने सरस्वती के प्रवाह में आने वाले अनेक केंद्रों सहित कुछ पुरास्थलों व बौद्ध स्तूपों का विवरण प्रस्तुत करते हुए पर्यटन के विकास की संभावनाओं पर प्रकाश डाला। सरस्वती नदी शोध संस्थान के अध्यक्ष श्री दर्शनलाल जैन ने आगंतुकों को स्मृति चिह्न भेंट कर अभिनंदन किया। कुमुद बंसल ने आभार जताया। इस अधिवेशन में डा. ए. आर. चौधरी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कुलपति डा. डीडीएस संधू के साथ डा. डीएस मित्रा, डा. वीएम के पुरी, डा. एस कल्याणरमन, डा. ज्ञानेश्वर चौबे, डा. महावीर सिंह, रामेंद्र सिंह, ऋषि गोयल, डा. श्रीप्रकाश मिश्र, धुम्मन सिंह आदि उपस्थित थे।
अधिवेशन में सरस्वती नदी के अलावा अनेक अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर भी विस्तार से चर्चा हुई। जिनसे सरस्वती नदी की प्रामाणिकता व पुनर्प्रवाह जुड़ा है।
सिंधु घाटी लिपि पर शोध योजना तैयार
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक डा. के. एन. श्रीवास्तव ने कहा कि एएसआई सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि के अध्ययन की दिशा में अग्रसर है और उन्होंने इसके लिए योजना तैयार कर ली है। इसके लिए देश में सात सेंटर आफ एक्सीलेंस बनाए जाएंगे। इनके माध्यम से सिंधु घाटी सभ्यता पर अब तक हुए अध्ययनों को एक स्थान पर संग्रह तथा उनके मध्य समन्वय स्थापित किया जाएगा। श्रीवास्तव जी ने यह भी बताया कि इन सेंटरों में इतिहास व पुरातत्व के विद्वानों के निर्देशन में स्कालरों को शोध संबंधी संसाधन व सुविधाएं प्रदान की जाएंगी। इन सेंटरों में कार्यरत शोधार्थियों को स्कालरशिप भी दी जाएगी। उल्लेखनीय है कि एएसआई प्राचीन ब्राह्मी व खोष्टी लिपि के अध्ययन से भारतीय सभ्यता की प्राचीनता प्रमाणित कर चुका है।
विश्व धरोहर में शामिल होंगे हड़प्पा कालीन पांच पुरास्थल
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा हड़प्पा कालीन पांच पुरास्थलों को वर्ष 2011 में विश्व धरोहर में शामिल होने के लिए चुना गया है। चुने गए पुरास्थलों में हरियाणा के फतेहाबाद जिले में स्थित बनावली, गुजरात के धौलावीरा, लोथल व सूरतकोटडा और राजस्थान के कालीबंगा शामिल हैं। यूनेस्को द्वारा प्रतिवर्ष प्रत्येक देश के दो स्मारकों व स्थलों को ही विश्व धरोहर का दर्जा प्रदान किया जाता है। अत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण इन पांचों स्थलों को हड़प्पन साइट के एक सर्किट के तौर पर प्रस्तावित करेगा। इस प्रकार भारत के ये पांचों ही पुरातात्विक स्थल एक ही नामांकन में विश्व धरोहर में शामिल हो जाएंगे।
आर्य भारत के मूल निवासी
आर्य इस देश के मूल निवासी थे, वे कहीं बाहर से नहीं आये थे। युवा वैज्ञानिक ज्ञानेश्वर चौबे ने विज्ञान पर आधारित अपने शोध अध्ययन के निष्कर्ष के रूप में यह बात कही। डा. चौबे एस्टोनिया (फिनलैंड के एक द्वीप) के तारतू विश्वविद्यालय से अपना शोध कार्य पूरा कर चुके हैं। उन्होंने जीन व डीएनए तकनीक के माध्यम से किए प्रयोगों के आधार पर पाया कि आर्य भारतीय थे। तारतू विश्वविद्यालय के एस्टोनियन बायो सेंटर से ‘पापुलेशन ओरिजन एंड माइग्रेशन आफ साउथ एशिया’ विषय पर किए गए इस शोध में डा. चौबे ने भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका व नेपाल के लगभग 12 हजार 500 लोगों के डीएनए लिए। चौबे द्वारा किए गए प्रयोगों के परिणाम चौंकाने वाले हैं। शोध में सम्मलित किसी भी नमूने से साबित नहीं होता कि कोई जीन बाहर का है। उन्होंने कहा कि उनके शोध से साबित होता है कि आर्यों का उद्गम दक्षिण एशिया के इन्हीं देशों में हुआ।
डा. चौबे का कहना है कि तीन से चार हजार वर्ष पूर्व सरस्वती नदी विलुप्त होने के पश्चात बड़ी संख्या में लोग गंगा के तटीय इलाकों में स्थानांतरित हुए। पटना से लेकर कोलकाता तक का जनसंख्या घनत्व इसी का नतीजा है। डा. चौबे अपने डीएनए आधारित शोध के बारे में बताते हैं कि 35 हजार साल पहले पूरे विश्व की आधी आबादी भारत में बसती थी। इस पद्धति से 60 हजार साल तक के जीन का आकलन संभव है। डीएनए आधारित इस पद्धति में लोगों के थूक के नमूने लिए जाते हैं।