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किसानों की समस्याएं और सामाजिक कार्यों के चलते 1977 में निर्विरोध वार्ड पंच चुन लिया गया और 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। पूरे गांव की जमीन को एकत्रित कराकर जमीन की चकबंदी कराई और जमीन के टुकड़ों की समस्या को सदा के लिए दूर कर दिया।
मैंने होश संभाला तब पिताजी लाव-चरस से खेती करते थे। साठ बीघा जमीन थी लेकिन दो बीघा जमीन पर भी मुश्किल से खेती होती थी। ‘भारतीय कृषि मानसून का जूआ है।’ यह उन दिनों बिल्कुल सटीक बैठती थी। सातवीं कक्षा में ही बालक कैलाश के हाथ से कागज कलम छूट गये और हल फावड़े ने उसकी जगह ले ली। वक्त हाथ में कैद मिट्टी के कणों की तरह धीरे-धीरे फिसलता रहा। सन 1970 में अलग कुंआ खुदवाया और रेहट लगाकर खेती शुरू की। पहले जहां दो बीघा जमीन पर ही श्वास धौकनी की तरह चलने लगती थी वहीं रेहट ने अब मुश्किलों को कुछ आसान बना दिया। छोटा भाई गिरधारी भी थोड़ा जवान हो गया, उसने भी ऊंट के सहयोग से खेती शुरू कर दी। पहले घर में एक हल था लेकिन अब उसने खेती में मदद की तो पैदावार दस गुना बढ़ गई। वक्त थोड़ा और निकला तो 1974 में डीजल का इंजन लगाकर खेती में नये प्रयोग शुरू कर दिए, जो उस दौर की बड़ी उपलब्धि थी। सन 1977 में ट्रैक्टर खरीदा गया और खेती को जीवन का आधार बना लिया। 1977 में बोरवेल खुदवाकर तेरह सौ मन अनाज पैदा किया, जो एक सपने की तरह लगा।
किसानों की समस्याएं और सामाजिक कार्यों के चलते 1977 में निर्विरोध वार्ड पंच चुन लिया गया और 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। पूरे गांव की जमीन को एकत्रित कराकर जमीन की चकबंदी कराई और जमीन के टुकड़ों की समस्या को सदा के लिए दूर कर दिया। ‘गांव की संसद’ पंचायत में बढ़ते दखल से 1980 में 25 कृषि कनेक्शन गांव में कराए। सन् 1982 में एक बार फिर से वार्ड पंच चुन लिया गया। सम्पन्नता ने अब हमारे घर की ओर रुख किया, लक्ष्मी की कृपा भी रहने लगी थी। सामाजिक कार्यों में सहभागिता और किसान के दर्द से रिश्ते के कारण ही, जो कल तक आलोचक थे आज वे मित्रें की फेहरिश्त में शामिल होने लगे। सभी से रिश्ते और मित्रवत व्यवहार के कारण ही सन 2005 तक थाने में एक भी मुकदमा दर्ज नहीं हुआ, हर समस्या का निदान घर के आंगन में ही होने लगा था। इस बीच, तीनों भाइयों गिरधारी और बोदूराम और शिवराम सहित तीन बहिनों की भी शादी कर दी गई। पिताजी देवीकरण चौधरी और माताजी श्रवणदेवी की आंखें भी खुशी के पल देखने के लिए तरस गई थीं। उन्होंने समृश् और विकास के नए कीर्तिमान देखे। पिताजी 2004 और माताजी 2006 में सदा के लिए छोड़ गए। बड़े फत्र मनीष ने स्नातक करने के बाद पढ़ाई छोड़ खेती में ही भाग्य आजमाना शुरू किया। छोटा बेटा मुकेश भी उसके ही नक्शे कदम पर चलने लगा।
इधर, 1985-1995 में जमीन का कारोबार किया जिसमें अच्छी आमदनी हुई। सन 1985-2001 के बीच ग्रेनाइट की फैक्ट्री बहरोड़ में लगाई। लेकिन फैक्ट्री परेशानी और झंझावतों का तूफान साबित हुई। जमीन के कारोबार में कमाया धन यहां खर्च हो गया और छोटे भाइयों ने भी अब साझे से किनारा कर लिया। एक घर के चार घर बन गए और एकता की माला पल भर में बिखर गई। जिन्दगी की गाड़ी एक बार फिर पटरी से उतरने लगी। समस्याओं के अम्बार और जिन्दगी का हर पल समस्याओं से उलझने लगा। लगने लगा कि जिन्दगी एक बार फिर मकड़ जाल में फंस गई है।
इस दौर में खेती से फिर राहत मिली। पहले रासायनिक खाद से खेती करते थे। सन 1990 में रासायनिक खाद से शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से परेशान होकर विचार किया कि जैविक तरीके से खेती करेंगे। केंचुआ खाद बनाना शुरू किया और 1999 में कीटनाशी बनाकर खेतों में खेती करने लगे। कीटनाशी बनाने में भी नीम, आक, धतूरे का इस्लेमात करने से साइड इफेक्ट का खतरा नहीं रहा। जैविक खेती के लिए 50 किसानों का एक ग्रुप बनाया और देखते ही देखते सफलता की नई इबारत लिखी जाने लगी। तीन साल तक तो मुनाफा नहीं हुआ लेकिन फिर बाजार में चर्चा का विषय बन गया कि अमुक किसान जैविक खेती से उत्पाद तैयार करते हैं। इससे फसल के 10-15 प्रतिशत दाम अधिक मिलने लगे। जैविक खाद से तीसरे साल ही आय बढ़ गई। सिंचाई में लागत कम हो गई।
जैविक आंवले और प्रोसेसिंग से बढ़ती जिन्दगी
जिन्दगी की एक नई सुबह सन् 2001 में एक हेक्टेयर भूमि में जैविक तरीके से चार सौ आंवले के पेड़ लगाकर की। चार साल बाद जब इसमें फल आए तो दिल में खुशियों के झरने फूटने लगे और लगा परवरदिगार मेहनत बेकार नहीं जाने देता, लेकिन बाजार में आंवले के खरीदने वाले नहीं मिले। आंवलों को लेकर बनाए ख्वाबों के महल टूटने लगे, आंखों में तैरते सपनों ने साथ सा छोड़ दिया। निराशा में डूबे परिवार ने मंथन किया, क्यों न इस फल की प्रोसेसिंग की जाए? बड़े बेटे की बहू मीना देवी और सुमिता देवी (एम.एस.सी. गृह विज्ञान) ने राहत बंधाते हुए सुझाव दिया कि आंवले से नए उत्पाद बनाकर बाजार में उतारा जाए। पहले तो यह सुझाव पंसद नहीं आया लेकिन सोचा क्यों न एक कदम इधर भी उठाया जाए। कवि दुष्यंत कुमार के शेर ‘कौन कहता है आसमां में छेद नहीं होता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…’ ने प्रासेसिंग की नई राह में कदम उठाने को प्रेरित किया। प्रोसेसिंग सीखने के लिए उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ सहित अनेक शहरों में गया, वहां आंवले के छोटे-छोटे गृह उद्योग देखे। यहां देखकर लगा कि सपने सच हो सकते हैं। आंवले से बनते लड्डू, जूस, कैंडी, मुरब्बा, अचार, पाउडर, शरबत सहित अनेक उत्पाद देखे। प्रतापगढ़ से ही एक मिस्त्री लेकर गांव आया, खेत में एक कमरा बनवाया और प्रोसेसिंग का 2005 में श्रीगणेश कर दिया। चौधरी एग्रो बायोटेक के नाम से फर्म रजिस्टर्ड कराकर खादी कमीशन से वित्तीय सहायता लेकर काम शुरू कर दिया। धीरे-धीरे लक्ष्मी बरसने लगी और खेती जो कल तक अभिशाप थी यह आशीर्वाद में बदलने लगी। परिवार वालों को भी खेती में ही भाग्य नजर आया।
चंडीगढ़ एग्रीटेक में हर्बल उत्पाद में प्रथम पुरस्कार हासिल किया। तीन दिन में 80 हजार का माल बिक गया। सपने कभी जो बंद आंखों से देखे थे, वे खुली आंखों में साकार होने लगे। सन 2009 में के.एस. बायोट्स के नाम से दूसरी फर्म का गठन किया और स्टेट बैंक आपफ इंडिया से 50 लाख का ऋण लेकर यूनिट शुरू कर दी। पिछले साल 65 लाख का कारोबार हुआ था। इस साल के कारोबार का लक्ष्य एक करोड़ पच्चीस लाख रुपये तय किया है। आंवले से तकदीर संवरने से सन 2007 में ही सौ पेड़ खेत की बाउंड्री के चारों ओर लगाए। आंवले से होती कमाई से एक हैक्टेयर आंवला का खेत और तैयार करवाया। सौ पेड़ ग्वारपाठे के लगाए। बेल से कैंडी, मुरब्बा, शर्बत और ग्वारपाठे से जूस, जैल शैम्पू, साबुन सहित अन्य उत्पाद बनने लगे। बील, आंवला और ग्वारपाठे के प्रासेसिंग में अब मेरे यहां 25-30 लोग काम करते हैं।
प्रगतिशील किसान होने के कारण मुझे केन्द्र सरकार की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में राजस्थान की राज्य सरकार के किसान प्रतिनिधि के रूप में शामिल किया गया। अनेक राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तरीय संगठनों से सम्बद्ध रहा हूं। अब मेरी दृढ़ मान्यता है कि खेती घाटे का सौदा नहीं है। इससे तकदीर बदल सकती है।
सम्पर्क: कैलाश चौधरी ग्राम- कीरत फरा, तहसील- कोटपूतली, जिला- जयफुर, राजस्थान
मैंने होश संभाला तब पिताजी लाव-चरस से खेती करते थे। साठ बीघा जमीन थी लेकिन दो बीघा जमीन पर भी मुश्किल से खेती होती थी। ‘भारतीय कृषि मानसून का जूआ है।’ यह उन दिनों बिल्कुल सटीक बैठती थी। सातवीं कक्षा में ही बालक कैलाश के हाथ से कागज कलम छूट गये और हल फावड़े ने उसकी जगह ले ली। वक्त हाथ में कैद मिट्टी के कणों की तरह धीरे-धीरे फिसलता रहा। सन 1970 में अलग कुंआ खुदवाया और रेहट लगाकर खेती शुरू की। पहले जहां दो बीघा जमीन पर ही श्वास धौकनी की तरह चलने लगती थी वहीं रेहट ने अब मुश्किलों को कुछ आसान बना दिया। छोटा भाई गिरधारी भी थोड़ा जवान हो गया, उसने भी ऊंट के सहयोग से खेती शुरू कर दी। पहले घर में एक हल था लेकिन अब उसने खेती में मदद की तो पैदावार दस गुना बढ़ गई। वक्त थोड़ा और निकला तो 1974 में डीजल का इंजन लगाकर खेती में नये प्रयोग शुरू कर दिए, जो उस दौर की बड़ी उपलब्धि थी। सन 1977 में ट्रैक्टर खरीदा गया और खेती को जीवन का आधार बना लिया। 1977 में बोरवेल खुदवाकर तेरह सौ मन अनाज पैदा किया, जो एक सपने की तरह लगा।
किसानों की समस्याएं और सामाजिक कार्यों के चलते 1977 में निर्विरोध वार्ड पंच चुन लिया गया और 1978 में पंचायत के सभी किसानों की भूमि की पैमाइश कराई। पूरे गांव की जमीन को एकत्रित कराकर जमीन की चकबंदी कराई और जमीन के टुकड़ों की समस्या को सदा के लिए दूर कर दिया। ‘गांव की संसद’ पंचायत में बढ़ते दखल से 1980 में 25 कृषि कनेक्शन गांव में कराए। सन् 1982 में एक बार फिर से वार्ड पंच चुन लिया गया। सम्पन्नता ने अब हमारे घर की ओर रुख किया, लक्ष्मी की कृपा भी रहने लगी थी। सामाजिक कार्यों में सहभागिता और किसान के दर्द से रिश्ते के कारण ही, जो कल तक आलोचक थे आज वे मित्रें की फेहरिश्त में शामिल होने लगे। सभी से रिश्ते और मित्रवत व्यवहार के कारण ही सन 2005 तक थाने में एक भी मुकदमा दर्ज नहीं हुआ, हर समस्या का निदान घर के आंगन में ही होने लगा था। इस बीच, तीनों भाइयों गिरधारी और बोदूराम और शिवराम सहित तीन बहिनों की भी शादी कर दी गई। पिताजी देवीकरण चौधरी और माताजी श्रवणदेवी की आंखें भी खुशी के पल देखने के लिए तरस गई थीं। उन्होंने समृश् और विकास के नए कीर्तिमान देखे। पिताजी 2004 और माताजी 2006 में सदा के लिए छोड़ गए। बड़े फत्र मनीष ने स्नातक करने के बाद पढ़ाई छोड़ खेती में ही भाग्य आजमाना शुरू किया। छोटा बेटा मुकेश भी उसके ही नक्शे कदम पर चलने लगा।
इधर, 1985-1995 में जमीन का कारोबार किया जिसमें अच्छी आमदनी हुई। सन 1985-2001 के बीच ग्रेनाइट की फैक्ट्री बहरोड़ में लगाई। लेकिन फैक्ट्री परेशानी और झंझावतों का तूफान साबित हुई। जमीन के कारोबार में कमाया धन यहां खर्च हो गया और छोटे भाइयों ने भी अब साझे से किनारा कर लिया। एक घर के चार घर बन गए और एकता की माला पल भर में बिखर गई। जिन्दगी की गाड़ी एक बार फिर पटरी से उतरने लगी। समस्याओं के अम्बार और जिन्दगी का हर पल समस्याओं से उलझने लगा। लगने लगा कि जिन्दगी एक बार फिर मकड़ जाल में फंस गई है।
जैविक खेती से बनाई नई राह
इस दौर में खेती से फिर राहत मिली। पहले रासायनिक खाद से खेती करते थे। सन 1990 में रासायनिक खाद से शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से परेशान होकर विचार किया कि जैविक तरीके से खेती करेंगे। केंचुआ खाद बनाना शुरू किया और 1999 में कीटनाशी बनाकर खेतों में खेती करने लगे। कीटनाशी बनाने में भी नीम, आक, धतूरे का इस्लेमात करने से साइड इफेक्ट का खतरा नहीं रहा। जैविक खेती के लिए 50 किसानों का एक ग्रुप बनाया और देखते ही देखते सफलता की नई इबारत लिखी जाने लगी। तीन साल तक तो मुनाफा नहीं हुआ लेकिन फिर बाजार में चर्चा का विषय बन गया कि अमुक किसान जैविक खेती से उत्पाद तैयार करते हैं। इससे फसल के 10-15 प्रतिशत दाम अधिक मिलने लगे। जैविक खाद से तीसरे साल ही आय बढ़ गई। सिंचाई में लागत कम हो गई।
जैविक आंवले और प्रोसेसिंग से बढ़ती जिन्दगी
जिन्दगी की एक नई सुबह सन् 2001 में एक हेक्टेयर भूमि में जैविक तरीके से चार सौ आंवले के पेड़ लगाकर की। चार साल बाद जब इसमें फल आए तो दिल में खुशियों के झरने फूटने लगे और लगा परवरदिगार मेहनत बेकार नहीं जाने देता, लेकिन बाजार में आंवले के खरीदने वाले नहीं मिले। आंवलों को लेकर बनाए ख्वाबों के महल टूटने लगे, आंखों में तैरते सपनों ने साथ सा छोड़ दिया। निराशा में डूबे परिवार ने मंथन किया, क्यों न इस फल की प्रोसेसिंग की जाए? बड़े बेटे की बहू मीना देवी और सुमिता देवी (एम.एस.सी. गृह विज्ञान) ने राहत बंधाते हुए सुझाव दिया कि आंवले से नए उत्पाद बनाकर बाजार में उतारा जाए। पहले तो यह सुझाव पंसद नहीं आया लेकिन सोचा क्यों न एक कदम इधर भी उठाया जाए। कवि दुष्यंत कुमार के शेर ‘कौन कहता है आसमां में छेद नहीं होता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…’ ने प्रासेसिंग की नई राह में कदम उठाने को प्रेरित किया। प्रोसेसिंग सीखने के लिए उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ सहित अनेक शहरों में गया, वहां आंवले के छोटे-छोटे गृह उद्योग देखे। यहां देखकर लगा कि सपने सच हो सकते हैं। आंवले से बनते लड्डू, जूस, कैंडी, मुरब्बा, अचार, पाउडर, शरबत सहित अनेक उत्पाद देखे। प्रतापगढ़ से ही एक मिस्त्री लेकर गांव आया, खेत में एक कमरा बनवाया और प्रोसेसिंग का 2005 में श्रीगणेश कर दिया। चौधरी एग्रो बायोटेक के नाम से फर्म रजिस्टर्ड कराकर खादी कमीशन से वित्तीय सहायता लेकर काम शुरू कर दिया। धीरे-धीरे लक्ष्मी बरसने लगी और खेती जो कल तक अभिशाप थी यह आशीर्वाद में बदलने लगी। परिवार वालों को भी खेती में ही भाग्य नजर आया।
चंडीगढ़ एग्रीटेक में हर्बल उत्पाद में प्रथम पुरस्कार हासिल किया। तीन दिन में 80 हजार का माल बिक गया। सपने कभी जो बंद आंखों से देखे थे, वे खुली आंखों में साकार होने लगे। सन 2009 में के.एस. बायोट्स के नाम से दूसरी फर्म का गठन किया और स्टेट बैंक आपफ इंडिया से 50 लाख का ऋण लेकर यूनिट शुरू कर दी। पिछले साल 65 लाख का कारोबार हुआ था। इस साल के कारोबार का लक्ष्य एक करोड़ पच्चीस लाख रुपये तय किया है। आंवले से तकदीर संवरने से सन 2007 में ही सौ पेड़ खेत की बाउंड्री के चारों ओर लगाए। आंवले से होती कमाई से एक हैक्टेयर आंवला का खेत और तैयार करवाया। सौ पेड़ ग्वारपाठे के लगाए। बेल से कैंडी, मुरब्बा, शर्बत और ग्वारपाठे से जूस, जैल शैम्पू, साबुन सहित अन्य उत्पाद बनने लगे। बील, आंवला और ग्वारपाठे के प्रासेसिंग में अब मेरे यहां 25-30 लोग काम करते हैं।
प्रगतिशील किसान होने के कारण मुझे केन्द्र सरकार की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में राजस्थान की राज्य सरकार के किसान प्रतिनिधि के रूप में शामिल किया गया। अनेक राष्ट्रीय स्तर और राज्य स्तरीय संगठनों से सम्बद्ध रहा हूं। अब मेरी दृढ़ मान्यता है कि खेती घाटे का सौदा नहीं है। इससे तकदीर बदल सकती है।
सम्पर्क: कैलाश चौधरी ग्राम- कीरत फरा, तहसील- कोटपूतली, जिला- जयफुर, राजस्थान