-विपिन दिसावर
‘बिन पानी सब सून’ यह कहावत शहरों के साथ-साथ गांवों और कस्बों और यहां तक कि जंगलों में भी लागू होती है। खासतौर पर संरक्षित वन क्षेत्रों में तो बिना पानी के वहां के आकर्षण को जीवंत रखना संभव ही नहीं है। ऐसे में बेहतर जल प्रबंधन का प्रयास ही कामयाब हो सकता है।
यह बात राजस्थान जैसे सूखे इलाकों में किए गए जल प्रंबधन के प्रयासों की हो तो वह और भी अधिक रोचक बन जाती है। रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान में तैनात सहायक वन अधिकारी गोविंद सागर भारद्वाज ने वहां उपलब्ध संसाधनों की मदद से जल संरक्षण का अदभुत कार्य कर दिखाया है। उन्होंने पार्क में स्थित वर्षों पुरानी बावड़ियों का पुनरुद्धार किया। उन्हें जीवंतता देकर पुन: जल से परिपूर्ण किया। आज ये पुरानी बावड़ियां उद्यान व उसके आसपास के क्षेत्रों में पानी के स्रोत के साथ-साथ यहां आने वाले पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बन गई हैं।
रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान राजस्थान के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र के सवाई माधोपुर व करौली जिले में स्थित है। इसका नामकरण चौहान शासकों द्वारा निर्मित रणथम्भौर किले के नाम पर किया गया है। उद्यान की स्थापना 1980 में की गई थी। उद्यान में भांति-भांति के पक्षियों के अलावा शेर, बाघ, तेंदुए, चीतल, सांभर आदि जंगली जानवर भी हैं। मरुप्रदेश में होने के कारण यहां जल की उपलब्धता सामान्य नहीं है। मानसून के दौरान तो पानी की पर्याप्त मात्रा मिल जाती है लेकिन बरसात के बाद पानी की कमी से जानवरों की स्थिति दयनीय हो जाती है। उद्यान में मुख्यत: जल के छह स्रोत हैं - पद्म तालाब, राजबांध, मिलिक तालाब, लाहपुर झील, गिलाई सागर व मानसरोवर तालाब। लेकिन गर्मियों में ये सभी जल स्रोत सूख जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से राजस्थान में सूखा पड़ रहा था।
2002 में तो स्थिति बहुत खराब हो गई। सवाई माधोपुर में इस बीच दो मानसूनों में बारिश हुई, पर कम मात्रा में। इसका नतीजा यह हुआ कि उद्यान में जल के स्रोत सूखते चले गए। पद्म तालाब, राजबांध, लाहपुर झील व मिलिक तालाब सूख चुके थे। ऐसा पहली बार हुआ था। रही-सही कसर उद्यान को दो हिस्सों में बांटने वाले बकौला नाले के सूखने से पूरी हो गई। उद्यान के सभी जल स्रोत बिल्कुल सूख चुके थे। ऐसे में जानवरों को चिलचिलाती धूप में प्यास बुझाने के लिए उद्यान के आसपास बसे आबादी वाले क्षेत्रों में जाना पड़ा। इसकी उन्हें काफी कीमत भी चुकानी पड़ी, क्योंकि संरक्षित क्षेत्र से बाहर आते ही वे शिकारियों का निशाना बनने लगे, जो अपने आप में काफी चिंताजनक स्थिति थी।
स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उद्यान के अधिकारियों ने जल प्रंबधन की योजना लागू करने का फैसला किया। इसके तहत जल स्रोतों पर निरंतर नजर रखना, नए जल स्रोतों की पहचान करना, नए स्रोतों का निर्माण करना, उद्यान में जल संरक्षण के लिए गङ्ढे बनाकर उसमें पानी भरने जैसे उपाए किए गए। उद्यान में 15-20 कुएं खोदने का कार्य भी शुरू किया गया। किंतु इस प्रयास पर उस समय पानी फिर गया, जब न्यायालय ने इस पर दो महीने के लिए रोक लगा दी। ऐसे में उद्यान के जल प्रंबधन को दुरुस्त करने के लिए पूर्व वन्य अधिकारी एस. अहमद ने खोमचा कुंड की सफाई करने का सुझाव दिया। इसी बीच सहायक वन्य अधिकारी गोविंद सागर भारद्वाज ने उद्यान में स्थित बावड़ियों का पुनरूद्धार करने की इच्छा जताई। उन्होंने सोचा कि राजस्थान में जल संरक्षण की बड़ी समृद्ध परंपरा रही है और इसके तहत वहां काफी संख्या में तालाब और बावड़ियां बनाई गई थीं। आज ये बावड़ियां सरकार और लोगों की उपेक्षा के कारण बेकार पड़ी हैं। उनका जल या तो सूख चुका है या तो उनमें उग आई खर पतवार के कारण वे उपयोगी नहीं रहे।
इसलिए श्री भारद्वाज ने सोचा कि यदि इन्हें ठीक कर लिया जाए तो उद्यान में जल के अतिरिक्त स्रोत विकसित हो जाएंगे। इस अभियान में सबसे पहले उद्यान के दरवाजे के समीप स्थित मोरकुंड का पुनरुद्धार किया गया। इसके लिए श्री भारद्वाज ने राजीव गांधी परंपरागत जल स्रोत पुनरुद्धार योजना के तहत सरकार से आर्थिक मदद भी ली। कुछ दिनों की मेहनत के बाद आए परिणाम चौंकाने वाले थे। मोरकुंड बावड़ी से 12,000 लीटर जल प्रतिदिन प्राप्त होने लगा। इस जल को उद्यान स्थित जल के अन्य स्रोतों तक पहुंचाया गया। मोरकुंड बावड़ी की सफलता से उत्साहित होकर उद्यान के अधिकारियों ने अन्य सात बावड़ियों का भी पुनरुद्धार करने का निश्चय किया। इसमें खेमचा, दूध, झूमर, लोहर, हिंदवार तथा रायपुर बहादुर आदि बावड़ियां शामिल हैं।
जल प्रंबधन के इस अनूठे प्रयास को सफल बनाने का श्रेय रणथम्भौर नेशनल उद्यान में सहायक वन्य अधिकारी गोविंद सागर भारद्वाज को जाता है, जिन्होंने विकट परिस्थितियों में अपनी सूझबूझ से बावड़ियों के ऐतिहासिक व आकर्षक विकल्प को जीवंतता प्रदान की। उन्होंने बताया कि बावड़ियों के पुनरुद्धार के प्रयास में उनकी जीवंतता व आकर्षण को संजोए रखना एक चुनौती थी। यही वजह है कि वर्षों पुरानी इन बावड़ियों को पुन: उपयोग में लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। इस प्रयास में उन्होंने आसपास की आबादी के बड़े-बुजुर्गों के साथ-साथ स्कूली बच्चों का भी सहयोग लिया।
साभार - भारतीय पक्ष
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