जल प्रबंधन प्रणाली एवं उपेक्षित आदर्श मूल्य

Submitted by Editorial Team on Tue, 07/09/2019 - 11:16
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 दैनिक अंबर, 7 मार्च 2016

जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।

गर्मी आते ही कुछ समाचारों का सिलसिला शुरू हो जाता है जैसे ‘आज फलां जगह पर पानी की किल्लत से धरना, हंगामा हुआ, मटके फोड़े गए, जल विभागाधिकारी का पुतला फूंका गया। इतना ही नहीं आजकल तो मोबाइल टावर टावर पर चढ़कर पानी की पूर्ति करने की धमकी देते हुए भी देखे जा सकते हैं'। क्या यह सब पानी की किल्लत दूर करने के सही कदम हैं? क्या हम आने वाली पीढ़ियों के लिए इस तरह कोई स्थाई हल निकल पाएंगे, बिल्कुल नहीं। हमारे पास ना तो ऐसा सोचने की शक्ति रही है और ना ही इतना दृढ़ निश्चय कि कुछ करके इसका स्थायी समाधान निकाल सकें। 

आज आधुनिक समाज में एक अंग्रेजी शब्द का बहुत प्रचार हो रहा है, वाटर हारवेस्टिंग। यह सब समाज बिना किसी प्रचार के सुव्यवस्थित रूप से कर लेता था। मार्च-अप्रैल के महीनों में फंसल के कार्य से निपटकर जल प्रबंधन के लिए वर्षा आगमन पूर्व ही वाटर हारवेस्टिंग के समस्त कार्य करने शुरू कर लिए जाते थे। तालाबों की सामूहिक रूप से खुदाई, गहराई और पुराने जलाशयों की मरम्मत की जाती थी।

आज सरकार देश की नदियों को आपस में जोड़ने की योजना बना रही है। क्या हम इतना बड़ा प्रबंधन करके मरुस्थल में जल समस्या को दूर कर पाएंगे? हम क्यों भूल जाते हैं कि हम अपनी विरासत में मिली एक सुव्यवस्थित जल प्रबंधन प्रणाली को जानते हुए भी उससे अनजान बने हुए हैं। आज की आधुनिक जीवन शैली में जीते हुए इतना भी समय नहीं निकाल पा रहे हैं कि कुछ समय संपूर्ण प्राणीजन और वनस्पतियों के लिए परंपरागत समाज के जल प्रबंधन के रूप में किए जाने वाले सामाजिक-पुण्यार्थ कार्यों एवं विचारों में व्यतीत कर सकें। जल की समस्या एवं अभाव से राजस्थान का मरूस्थलीय भाग ही नहीं बल्कि पूरा देश त्रस्त है। अनेक प्राचीन जलाशयों के अवशेष, बड़े-बुजुर्गों की कहानियों और विभिन्न ऐतिहासिक लेखन सामग्री से विदित होता है कि मरुस्थलीय क्षेत्र में जल प्रबंधन के समुचित प्रबंधन किए जाते थे।

ये प्रबंधन अप्रैल-मई से शुरू होकर वर्षा के चले जाने तक किए जाते थे। जल की समस्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, परंतु कुछ दिन ही सभी का ध्यान इस तरफ होता है। ऐसा नहीं है कि यह समस्या अचानक आती है बल्कि यह तो सदियों से चली आ रही है और जिस समय यह अपने बारे में सोचने को मजबूर कर देती है, उसका भी समय निश्चित है, मई-जून। पर व्यवहार ऐसा होता है कि यह इस साल की आई हुई नई विपत्ति की समस्या है। जल प्रबंधन के जो कार्य हमें सही समय पर करने चाहिए वे बिल्कुल नहीं हो पाते हैं। इसी कारण अब स्वच्छ एवं पीने के पर्याप्त पानी अभाव पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ जाता है। पहले शायद हमारा समाज बड़े प्रशासन के बिना अपनी इंतजाम करना बखूबी जानता था। इसलिए गर्मी के समय में वह परेशान नहीं होता था।

राजस्थान की परंपरागत जल प्रणाली, टांका।राजस्थान की परंपरागत जल प्रणाली, टांका।

राजस्थान का मरुस्थलीय भाग जहां रेत के ऊंचे-ऊंचे धोरों (टीलों) का सूरज से तपना, वर्षा की कमी और अनियमितता, साथ ही भू-जल का खारेपन के साथ गहराई में मिलना। क्या कसर रह गई थी ऊपर से अकाल दर अकाल का दंश झेलती मरुधरा। फिर भी यहां के समाज ने इन सब परिस्थितियों को अपनी जीवनशैली में, जीवन दर्शन में समाहित कर इसे आत्मसात किया। प्रकृति के विराट रूप में वह एक छोटी-सी बूंद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई घमंड और छोटे-बड़े काम को करने की कोई शर्म नहीं थी। वह इस प्रकृति से लड़ लेगा, उसे जीत लेगा, ऐसा भी घमंड नहीं किया। वह इन परिस्थितियों के आगोश में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था। लेकिन पिछले 50-60 साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें और कार्य किए हैं, जिनसे उनका विनम्र स्वभाव बदला है, उसके मन में शर्म और घमंड स्थान ले लिया है। 

समाज ने पीढ़ियों से परंपरागत जल प्रबंधन को अपनाकर जीवन जीने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है। जल अभाव वाले इस क्षेत्र में सैकड़ों कच्चे-पक्के जोहड़े (तालाब), कुएं-कुईंया और कुण्ड होते थे। समाज के प्रत्येक उत्सव और कार्य इन्हीं जलाशयों के इर्द-गिर्द मनाये जाते थे। इतना ही नहीं राजस्थान की मरूभूमि में तो गांव के नाम भी इन्हीं जोहड़ों के नाम पर ही होते थे। 19वीं शताब्दी में ऐसे दौर की शुरुआत हुई है कि आज अधिकतर जलाशय और उसके आगौर (पायतन) अतिक्रमण के शिकार हो चुके हैं। सरकार द्वारा चलाए गए नरेगा कार्य में कुछ तालाबों की खुदाई करवाई गई थी। परंतु क्या इससे कोई स्थाई समाधान हुआ है, इस पर वर्तमान में समीक्षा करनी होगी। करोड़ों रुपए इस योजना में खर्च होने के बावजूद जल संरक्षण कितना हुआ? इससे न केवल व्यक्ति निराश हो जाता है बल्कि हमारी मेहनती श्रम-साधक को अवश्य पंगु बना दिया है। जबकि सरकारी तंत्र की कार्यशैली जल संकट का लक्षण करवा रही है। 

आज आधुनिक समाज में एक अंग्रेजी शब्द का बहुत प्रचार हो रहा है, वाटर हारवेस्टिंग। यह सब समाज बिना किसी प्रचार के सुव्यवस्थित रूप से कर लेता था। मार्च-अप्रैल के महीनों में फंसल के कार्य से निपटकर जल प्रबंधन के लिए वर्षा आगमन पूर्व ही वाटर हारवेस्टिंग के समस्त कार्य करने शुरू कर लिए जाते थे। तालाबों की सामूहिक रूप से खुदाई, गहराई और पुराने जलाशयों की मरम्मत की जाती थी। जिससे अधिक से अधिक जल का प्रबंध साल भर के लिए हो सके। यहां का समाज सदियों से न केवल जल प्रबंधन को खेल की तरह खेलता आया था, अपितु जलाशयों और उसमें आने वाले जल के स्थान (पायतन) को पूजा-स्थल की भांति स्वच्छ एवं पवित्र रखा जाता था। जल की एक-एक बूंद को मूल्यवान समझकर उपयोग में लाया जाता था। परंतु आज का आधुनिक समाज बिना किसी सोच-समझ के जल बर्बाद कर रहा है।, परंतु इस अनुपात में जल प्रबंधन की चिंता नहीं है।

जल विशेषज्ञों के अनुसार, राजस्थान की टांका प्रणाली को मोरक्को में अपनाया जा रहा है और वहां के सैकड़ों की संख्या में टांके निर्मित किए गए हैं। ‘इंडिया वाटर पोर्टल’ का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया गया है क्योंकि अफ्रीका के मरूस्थलीय क्षेत्रों में ज्यादातर फ्रेंच भाषा ही चलती है। इतना ही नहीं आज से 100 वर्ष पूर्व 1914 में चीन के एक चित्रकार ने राजस्थान के जलाशयों के जलाशयों के चित्रों को अपनी प्रदर्शनी में शामिल किया था। इस तरह के जलाभाव वाले देश हमारी प्राचीन जल प्रणाली को अपनाने के लिए जागरूक हो रहे हैं। हमारा समाज और हमारी अलग-अलग दलों की सरकार इसके प्रति प्रति जागरुक नहीं हैं। आज जरूरत है जागरूक समाज की महत्वपूर्ण एवं उपयोगी परंपरागत जल प्रणाली के प्रबंधन को अपने जीवन के आदर्श मूल्यों और संस्कारों में शामिल करना।

 

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