होली क्यों

Submitted by admin on Fri, 02/06/2009 - 12:31
होली एक ऐसा त्यौहार है जो ऋतुराज वसंत में आता है । इसी समय सर्दी का अन्त और ग्रीष्म का आगमन होता है । इस समय ऋतु-परिवर्तन से चेचक के रोग का प्रकोप होता है । इस संक्रामक रोग से बचने के लिये पुराने समय में टेसू के फूलों का रंग बनाकर एक-दूसरे पर डालने की प्रथा चलाई गई थी और यज्ञ की सामग्री में भी इन्हीं फूलों की अधिकता रखी गई थी जिससे वायु में उपस्थित रोग के कीटाणु नष्ट हो जायें । पर आज उस टेसू के लाभदायक रंग के स्थान पर हानिकारक विदेशी रंगों का प्रयोग किया जाता है और लोग उनके चटकीलेपन को पसन्द भी करते हैं । अब वह प्रथा बहुत विकृत हो गई है और लड़के तथा नवयुवक बुरे-बुरे रंग सर्वथा अनजान और भिन्न समाज वालों पर भी डाल देते हैं, जिससे अनेक बार खून-खराबी की नौबत तक आ जाती है और रंग की होली के बजाय खून की होली दिखलाई पड़ने लगती है ।

होली को पूर्वजों ने एक सामूहिक सफाई के त्यौहार के रूप में भी माना था । जैसे दिवाली पर प्रत्येक व्यक्ति निजी घर की लिपाई, पुताई और स्वच्छता करता है, उसी प्रकार होली पर समस्त ग्राम या कस्बे की सफाई का सामूहिक कार्यक्रम रखा जाता था । वसंत ऋतु में सब पेड़ों के पत्ते झड़-झड़ कर चारों और फैल जाते है, बहुत कुछ कूड़ा कबाड़ भी स्वभावतः इकट्ठा होता है, उस सबकी सफाई होली में कर दी जाती थी । पर अब लोग उस उद्देश्य को भूलकर दूसरों पर कीचड़ और धूल फेंकने को त्यौहार का अंग समझ बैठे हैं । इससे उल्टा लोगों का स्वाथ्य खराब होता है और अनेक बार आँख आदि में चोट भी लग जाती है ।

प्राचीन समय में होली प्रेम भाव को बढ़ाने वाला त्यौहार था । अगर वर्ष भर में आपस में कोई-झगड़े या मनमुटाव की बात हो गई हो तो इस दिन उसे भुलाकर सब लोग प्रेम से गले मिल लेते थे और पुरानी गलतियों के लिए एक-दूसरे को क्षमा करके फिर से मित्र सहयोगी बन जाते थे अब भी इस दिन एक-दूसरे के यहाँ मिलने को जाते हैं, पर प्रायः नशा करके गाली बककर झगड़ा पैदा कर लेते हैं, जो होली के उद्देश्य के सर्वथा प्रतिकूल है ।

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