सभी देशों की परिस्थिति एक जैसी नही होने के कारण पर्यावरण अपने अस्तित्व को दिन प्रतिदिन खोता जा रहा है। हरियाली को बचाने के लिए हमे जून महीने की नही बल्कि साल के 12 महीने तैयार रहना होगा। तभी हम धरती की तपिश को कम करने में कामयाबी हासिल कर पायेंगे और अपने खोये हुए हरियाली को बचा सकेंगें।
पर्यावरण के मायने हमारे जिंदगी के बदलावों को दर्शाता है। वे चाहे स्वास्थ्य और कृषि ही क्यों न हो? भारत जैसे देश अपने सनातन सभ्यता व संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। वेदों, स्मृतियों, ऋचाओं, उपनिशदों व हिन्दू महाकाव्य या ग्रंथों से हमें पर्यावरण सुरक्षा व पर्यावरण के प्रति प्रेम व सम्मान का प्रमाण मिलता है। नीम, पीपल, तुलसी आदि ऐसे कई वृक्ष व पौधे हैं जिन्हें हिन्दू मान्यता में पूजा जाता है। शास्त्रों में इनकी महत्तवता का प्रमाण मिलता है। यहां तक कि प्राचीन राजव्यवस्था में तो प्रकृति व पर्यावरण को क्षति पहुंचाने को अपराध माने जाने का प्रमाण भी मिलता है। स्वयं कौटिल्य ने भी इसके लिए कठोर दण्ड व्यवस्था पर विस्तृत विवरण दिया है।
जहां एक ओर पर्यावरण व संस्कृति को बचाना उसे संवारना व उसका सम्मान करना मनुष्य की नैतिक जिम्मेदारी है। जीवनोपयोगी प्राणवायु हमें इन्ही से प्राप्त होती है। मनुष्य व अन्य जीव जन्तुओं के जीवन का आधार है पर्यावरण। जहां एक ओर पेड़ पौधे जंगल छोटे बड़े प्राणियों के लिए निवास स्थान है तो वहीं दूसरी ओर इन्ही के बदौलत हमें कई किस्म के वनोपज जैसे ईमारती लकड़ियां, वनस्पति, चूना लाख, गोंद फल और फूल इत्यादि हमें यहां से प्राप्त होती है। यह प्रकृति व पर्यावरण ही है, जिसकी सहायता से धरती पर बारिश होती है व किसानों के साथ अन्य जीव जन्तुओं के जीवनक्रम को आगे बढ़ाने में भी सहायक होता है। कौन नही चाहता कि उसके आस पास हरियाली व खुशहाली हो। परन्तु आधुनिकीकरण व औधोगिकीकरण के दौर में मनुष्य ने बेतरतीब तरीके से अदूरदर्शिता के चलते वनों की अंधाधुन्ध कटाई की। विकास करना हमारा अधिकार ही है परन्तु प्रकृति व पर्यावरण का बलिदान देकर नही।
प्रकृति ने हमसे कभी कुछ मांगा नहीं? उसने तो हमेशा हमें कुछ न कुछ दिया ही है। हमें प्रकृति के विरूद्ध जाकर अपने पर्यावरण का नाश करने का अधिकार किसने दिया? आज हम मनुष्यों के विकास के अंधी दौड़ का मूल्य ग्लोबल वार्मिंग, अल निनो, सुनामी, अकाल, एसीड रेन और ओजोन की परत में छेद होना के रूप में चुकाने को विवश हैं। हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम नें एक बार छात्रों को संबोधित करते हुए उनसे पूछा कि क्या आप मिट्टी बना सकते हैं? क्या आप पेड़ पौधे बना सकते हैं? तो बच्चों ने जवाब दिया नहीं! यदि नहीं तो फिर आप को उनके साथ खिलवाड़ करने का भी अधिकार नहीं है। इसका अर्थ यह है कि प्रकृति के विरूद्ध कोई भी कार्य हमारे लिए नुकसानदायक ही है। इसमें समझदारी की कोई बात नही है।
पर्यावरण को बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1st earth summit 3 जून से 14 जून 1992 को रिओ दे जेनेरिओ (ब्राजील) में हुआ। फिर समय समय पर ऐसे सम्मेलन होते रहे। ऐसे सम्मलेनों का क्या फायदा जो प्रकृति के मूल्यों को समझे बिना ही निर्णय लिये जाते हों। समूचा विश्व 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाता है। ऐसे महत्तवपूर्ण दिवस सिर्फ पांच सितारा होटलों में ही अच्छे लगते हैं। जमीनी स्तर पर तो कोई कार्य ही नही किया जाता है। जागरूकता अभियान अंग्रेजी में चलाये जाते हैं। भारत ऐसे देश में जहां हिन्दी और अन्य भाषा की बहुलता हो वहां ऐसे अभियानों का कोई प्रामाणिक अर्थ ही नही निकलता हैं।
सरकार के पास कोई ठोस विकल्प नही है। आज के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन विश्व की सबसे ज्वलंत पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है। 2007 में प्रकाशित जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर सरकारी पैनल की चौथी आंकलन रिपोर्ट ने पृथ्वी के भविष्य को गंभीर तस्वीर दर्शाया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तापन का पृथ्वी की जलवायु का घातक प्रभाव पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु अधिक ठोस योजना देने के लिए 1997 के सम्मेलन के सदस्य देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल में विकसित देशों को आश्वस्त किया था कि 2008-2012 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 से नीचे औसतन 5.2 फीसद की दर से कम किया जायेगा। क्योटो प्रोटोकॉल 16 फरवरी 2005 से लागू किए गए हैं। भारत भी इसमें एक पक्षकार है।
ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु संकट जैसे मुद्दे को कोपेनहेगेन में सम्मेलन के दौरान कोई चर्चा ही नही की गई। मायूसी इसीलिए है कि समझौते के नाम पर जो दस्तावेज पेश किए गए, उसमें ग्लोबल वॉर्मिंग को कैसे रोका जाये, इसका कोई उपाय इसमें वर्णित नही है। बाढ़, सूखा जैसी स्थितियों से निपटने और ग्रीन टेक्नोलॉजी अपनाने में मदद के लिए 2020 तक गरीब देशों के लिए 100 अरब डॉलर जुटाने की बात तो कही गयी है लेकिन उस रकम में किस देश का कितना योगदान होगा, इसका कोई जिक्र ही नही किया गया है।
वैज्ञानिकों के निष्कर्षों की चर्चा करें तो उन्होंने धरती पर बढ़ रहे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में पहल की थी। यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज और उसी के अगले कदम पर क्योटो प्रोटोकॉल में निष्कर्ष निकला था कि धरती को बचाने की जिम्मेदारी सबकी है। कोपेनहेगेन में ऐसे तथ्यों की जैसे बलि ही चढ़ा दी गयी। न तो किसी देश के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का काई लक्ष्य तय किया गया और न ही इसे लागू करने के लिए किसी कानूनी प्रावधान पर जोर दिया गया।
पर्यावरण को बचाने में विश्व समुदाय नित नये कानूनों का प्रावधान करते हैं और यही कानून पूरी दुनिया में एक साथ लागू भी करते हैं। परन्तु सभी देशों की परिस्थिति एक जैसी नही होने के कारण पर्यावरण अपने अस्तित्व को दिन प्रतिदिन खोता जा रहा है। हरियाली को बचाने के लिए हमे जून महीने की नही बल्कि साल के 12 महीने तैयार रहना होगा। तभी हम धरती की तपिश को कम करने में कामयाबी हासिल कर पायेंगे और अपने खोये हुए हरियाली को बचा सकेंगें। (चरखा फीचर्स)