वनों के कटान, विभिन्न मानवीय गतिविधियों और अधिक कार्बन उत्सर्जन के कारण विश्वभर में जलवायु परिवर्तन तेजी से बढ़ रहा है। जिस कारण असमय बारिश और बर्फबारी देखने को मिलती है। उपजाऊ जमीन बंजर होती जा रही है, तो वहीं अतिवृष्टि के कारण हर साल बाढ़ आती है, जिसमें जान-माल दोनों का ही बड़े पैमाने पर नुकसान होता है, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्रों से अब एक नया खतरा सामने आ रहा है। जिससे निकट भविष्य में बड़े पैमाने पर नुकसान होने की संभावना बनी हुई है।
वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई आपदा (बाढ़) की विभीषिका के बारे में हर किसी को पता है। आपदा से केवल उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरा विश्व प्रभावित हुआ था। हर जगह त्राहि-त्राहि मच गई थी। लोगों का मानना था कि बाढ़ बादल फटने से आई थी, जबकि कई लोग केदारनाथ मंदिर के पीछे कुछ किलोमीटर की दूरी पर, चोराबारी ग्लेशियर में बनी झील टूटना भी आपदा का कारण मानते हैं, लेकिन वास्तव में आपदा का कारण प्रशासन की लापरवाही और ग्लोबल वार्मिंग था। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही झील का किनारा टूटा था और उस पानी ने सब कुछ लील लिया। आपदा इतनी भयावह थी कि जख्म आज भी हरे हैं। हालाकि केदारनाथ के साथ ही विश्वभर के हिमालय क्षेत्रों में सुरक्षा की व्यवस्था पर जोर तो दिया जा रहा है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंक को रोकने के प्रभावी कदम उठते नहीं दिख रहे हैं। जिस कारण अब फिर से हिमालयी क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा मंडराने लगा है। इसकी जानकारी पाॅट्सडैम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में दी है। इस शोधपत्र को प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित भी किया गया है।
शोध के लिए हिमालय के हिमनदों और हिमनदों के पिघलने से पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाने के लिए उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों और स्थलाकृति की मदद से झीलों के माॅडल के लगभग 5.4 अरब सिमुलेशन तैयार किए हैं। जिससे पता चला कि झीलों के किनारे अस्थिर व कमजोर हो गए हैं। जिस कारण हिमालय क्षेत्र की करीब 5 हजार झीलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। सबसे ज्यादा समस्या अधिक पानी वाली झीलें हैं, क्योंकि बाढ़ का अधिक खतरा इन्ही से है। शोधपत्र में जाॅर्ज वेह, ओलिवर कोरुप और एरियन वाल्ज ने से झीलों पर किए गए सिमुलेशन और उसके परिणाम के बारे में भी बताया कि हिमालयी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का व्यापक असर पड़ रहा है। वर्ष 2003 से 2010 तक के आंकड़ें बताते हैं कि सिक्किम हिमालय में 85 नई झीलें सामने आई थीं।
दरअसल हिमालयी क्षेत्रों में झीलें स्वतः ही बन जाती हैं। यहां झीलों का किनारे मोराइन से बनते हैं, जो कि प्राकृतिक तत्व होते हैं। असल में मोराइन में आकार में बड़े ब्लाॅक या बोल्डर से लेकर रेत और मिट्टी तक शामिल होते हैं। जिन्हें ग्लेश्यिर द्वारा फिर से जमा दिया जाता है, लेकिन ये बर्फ और चट्टाने काफी ढीली होती हैं और बर्फ पिघलने पर पानी का रास्ता देती हैं। पानी ज्यादा होने पर मोराइन टूट जाती है, और यही बाढ़ का कारण बनती हैं। अब ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से भविष्य में पूर्वी हिमालय की हिमनद झीलों में बाढ़ का खतरा तीन गुना बढ़ गया है। मोराइन कमजोर पड़ने लगे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिक पानी वाली झीलों से खतरा ज्यादा है। ये हिमालय से नीचे आने वाली धाराओं में बाढ़ का खतरा बढ़ा देंगे। दरअसल, विभिन्न धाराओं के माध्यम से ये पानी बड़ी नदियों में मिलेगा और मैदानी इलाकों में भी बाढ़ का कारण बन सकता है। जिससे करोड़ों लोग प्रभावित होंगे। इसलिए सरकार को ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए गंभीर होकर प्रयास करना होगा, साथ ही जनता को भी योगदान देना होगा। वरना वर्तमान में आरामदायक जीवन जीने के चक्कर में हम भविष्य के अपने जीवन को काल के गाल के झोंक देंगे। जिसकी कल्पना मात्र ही कर किसी को भयभीत कर सकती है। इसीलिए ये समय जागरुक होकर सामुहिक रूप से सकारात्मक प्रयास करने का है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)