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समय डॉट लाइव, 28 अक्टूबर 2010
हमारा देश अपनी सनातन सभ्यता व संस्कृति के लिए पहचाना जाता है।
वेदों, उपनिषदों व महाकाव्य और तमाम ग्रंथों से हमें पर्यावरण सुरक्षा व पर्यावरण के प्रति प्रेम की सीख मिलता है। नीम, पीपल, तुलसी आदि कई वृक्ष व पौधे हैं जिन्हें हिन्दू मान्यता में पूजा जाता है। प्राचीन राजव्यवस्था में तो प्रकृति व पर्यावरण को क्षति पहुंचाने को अपराध माने जाने का प्रमाण भी मिलता है। स्वयं कौटिल्य ने इसके लिए कठोर दंड व्यवस्था संबंधी विस्तृत विवरण दिया है।
हमारा देश उत्सवों और त्योहारों का देश है। यहां हर दिन कोई न कोई त्योहार होता है। त्योहार ऊर्जा का संचार करने के साथ ही भाईचारे और स्नेह भाव बढ़ाते हैं। लेकिन धार्मिक भावनाओं के कारण यदि हमारा वातावरण प्रदूषित होता हो तो यह धर्म नहीं है क्योंकि सभी धर्मों में 'बहुजन हिताय' यानी सबके कल्याण की भावना होती है और पर्यावरण प्रदूषण से जनकल्याण संभव नहीं।
आजकल हम जाने-अनजाने धार्मिक क्रिया कलापों द्वारा पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं। पूजा-पाठ और विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों के दौरान अर्पित फूल-मालाएं, यज्ञ की भस्म व अन्य सामग्री द्वारा न चाह कर भी हम पर्यावरण प्रदूषित कर रहे हैं। मूर्ति स्थापना वाले त्योहारों, जैसे गणेश पूजा और दूर्गा पूजा के दौरान तो हम बड़े पैमाने पर पर्यावरण की शुचिता को दरकिनार कर देते हैं। आज धार्मिक उत्सवों में प्लास्टिक का चलन बढ़ता जा रहा है जबकि सभी जानते हैं कि प्लास्टिक हमारे पर्यावरण के लिए किस कदर नुकसानदेह है। यह प्रकृति में वर्षों तक अपघटित नहीं होता और जलाने पर पानी, मिट्टी और हवा को प्रदूषित करता है।
पहले जहां पूजा-पाठ में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग होता था वहीं अब अधिकतर चीजें प्लास्टिक एवं कृत्रिम रूप से तैयार होती हैं। और तो और आज पवित्र प्रतिमाओं पर फूल भी प्लास्टिक के चढ़ाए जा रहे हैं। इसी तरह आजकल देव प्रतिमाओं में प्लास्टर ऑफ पेरिस के अलावा तांबा, क्रोमियम व निकल जैसी भारी धातुएं उपयोग की जाती हैं। जब इन प्रतिमाओं को नदी, तालाबों, झीलों या अन्य जल स्रोतों में प्रवाहित किया जाता है तो वहां का पानी प्रदूषित हो जाता है। इसके निदानस्वरूप यज्ञ की भस्म, फूल-मालाएं, देव प्रतिमाएं आदि नदीं में न प्रवाहित करें। फूल-मालाएं तो खेतों में खाद के रूप में उपयोग की जा सकती हैं। मूर्तियों को पहनाए जाने वाले कपड़े जरूरमंद में बांटे जा सकते हैं। मूर्तियों को पेंट करने लिए प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर रासायनिक रंगों के उपयोग से होने वाले प्रदूषण से बचा जा सकता है।
धार्मिक कार्यों में इको-फ्रेंडली यानी प्रकृति मित्र की भूमिका निभानी होगी। प्रकृति ने हमसे कभी कुछ मांगा नहीं? उसने हमें कुछ न कुछ दिया ही है। फिर हमें प्रकृति के विरुद्ध जाकर पर्यावरण के नाश का अधिकार किसने दिया? पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम नें एक बार छात्रों से पूछा था कि क्या आप मिट्टी बना सकते हैं, पेड़ पौधे बना सकते हैं? यदि नही तो फिर उनके साथ खिलवाड़ करने का भी अधिकार आपको नही है।
वैसे पर्यावरण के खतरों को देखते हुए यह जागरूकता अब दिख रही है। इस साल दुर्गा पूजा के लिए विख्यात पश्चिम बंगाल में करीब दो-तिहाई मूर्तियां इको-पेंट से बनाई गई जिसे एक अच्छी शुरुआत माना गया। सरकार की तरफ से भी पूजा-पांडालों में सौर लाइटों की व्यवस्था पर ध्यान दिया गया ताकि जनमानस में पर्यावरण संरक्षण की भावना को बल मिले। त्योहारों को संवारने के लिए सारे देश में ऐसे ही प्रयोग करने होंगे तभी धार्मिक उत्सवों की मूल भावना बरकरार रह सकेगी।