लेखक
भारत के प्राचीन समाज ने नदियों, पर्वतों, समुद्रों, बादलों, वृक्षों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों को इंसान का नहीं- ईश्वर का दर्जा दे रखा था! फिर यह सोचनीय है कि हम नदियों को इसांन का दर्जा देने की कवायद कर- पुरखों के सामने कितने बौने साबित हो रहे हैं? कहाँ थी उनकी सोच और दूरदृष्टि। और कहाँ आ खड़े हुए हैं हम, प्राकृतिक संसाधनों को समाप्त करते-करते। ईश्वर का विराट स्वरूप क्या है? उसका दर्शन हम इस धरती पर कैसे कर सकते हैं? मध्य प्रदेश विधानसभा ने नर्मदा नदी को इंसान का दर्जा दिये जाने का संकल्प पिछले दिनों पारित किया है। विधानसभा के पूर्व कैबिनेट ने भी इस आशय का एक प्रस्ताव पास किया था। इसके पूर्व उत्तराखण्ड हाई कोर्ट ने गंगा और यमुना के लिये भी ‘लीगल पर्सन’ याने कानूनी हैसियत की माफिक का दर्जा देने के निर्देश प्रदान किये हैं। इसके पीछे मूल भाव यही है कि इन नदियों के साथ छेड़छाड़ करने वाले को उतना ही दोषी माना जाये जितना किसी इंसान के साथ घटित होने वाली घटना पर कानूनी दायरे में आने पर उसे सजा का प्रावधान होता है।
नदियों के संरक्षण की दिशा में इन फैसलों और प्रस्तावों की मोटे तौर पर तो सराहना ही की जानी चाहिए। ये पर्यावरण की दिशा में उठाए गए उचित कदम हो सकते हैं। लेकिन इन सन्दर्भों में यह भी देखा जाना जरूरी है कि भारत की फिलासफी आखिर क्या रही है?
हमारे पुरखों का प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कितना दूरगामी दृष्टिकोण वाला चिन्तन रहा है? हमारे परम्परागत माध्यम यानी प्राचीन मीडिया अर्थात हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, रामचरित मानस, महाभारत, स्मृतियाँ और अन्य ग्रन्थ- प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये किस तरह के सन्देशों का संचार करते रहे हैं?
इन सवालों के जवाबों का लब्बोलुआब यही रहेगा कि भारत के प्राचीन समाज ने नदियों, पर्वतों, समुद्रों, बादलों, वृक्षों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों को इंसान का नहीं- ईश्वर का दर्जा दे रखा था! फिर यह सोचनीय है कि हम नदियों को इसांन का दर्जा देने की कवायद कर- पुरखों के सामने कितने बौने साबित हो रहे हैं? कहाँ थी उनकी सोच और दूरदृष्टि। और कहाँ आ खड़े हुए हैं हम, प्राकृतिक संसाधनों को समाप्त करते-करते।
ईश्वर का विराट स्वरूप क्या है? उसका दर्शन हम इस धरती पर कैसे कर सकते हैं? इन सवालों को खोजने जब हम प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि हम भगवान के दर्शन अपने परिवेश में आसानी से कर सकते हैं! पुराणों में ही कहा गया है- बहती हुई नदियाँ, भगवान की धमनियाँ हैं। नर्मदा, गंगा और यमुना जैसी नदियों को भगवान स्वरूप में विशेष दर्जा मिल सकता है।
पुराणों में इनकी अनेक कथाएँ हैं। लेकिन इन तक जल पहुँचाने वाली सहायक नदियाँ भी तो भगवान की धमनियों का विशाल नेटवर्क ही मानी जाएँगी ना। यह सभी जानते हैं कि नदियों का विशाल जलग्रहण क्षेत्र होता है। यही उनके जीवन का आधार भी होता है। इसमें दो प्रमुख प्राकृतिक संसाधन आते हैं- पर्वत और जंगल। विज्ञान की क ख ग भी यही कहती है कि इन दोनों प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर लिया तो समझो नदियों का संरक्षण कर लिया।
पुराणों में पर्वतों को भगवान की हड्डियाँ बताया गया है। वृक्षों को भगवान का रोम कहा गया है। पृथ्वी भगवान के चरण हैं। अन्तरिक्ष मस्तक। दिशाएँ भगवान की भुजाएँ हैं। समुद्र भगवान की कोख है। तब समझ में आता है- ईश्वर का स्वरूप किसी इंसानी शरीर तक सीमित नहीं है। इंसान के रूप में तो उस परमसत्ता ने अवतार लिये हैं। ये नदियाँ- भगवान से उपजी हैं- कमोबेश इस तरह की कथाएँ प्राय: सभी नदियों के बारे में मिलती हैं।
हमारा प्राचीन मीडिया और दर्शन दो कदम और आगे भी बढ़ा है। उदाहरण के लिये हम भविष्य पुराण और अग्नि पुराण के सन्दर्भ ले सकते हैं। नदियाँ तो भगवान हैं ही, लेकिन यदि आप तालाब, कुएँ, कुंड, बावड़ियाँ आदि जल संसाधन भी तैयार कर रहे हैं तो हमारे पुरखे इस बात के लिये चिन्तित रहे कि इन्हें भी ईश्वर का दर्जा दिया जाये
अग्नि पुराण, भविष्य पुराण व अन्य ग्रन्थों में इस तरह के पूरे-के-पूरे अध्याय हैं जिसे प्राण-प्रतिष्ठा का नाम दिया गया है। इसमें कहा गया है कि तालाब, कुएँ, बावड़ी आदि बनाने के दरमियान उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाये यह प्रक्रिया ठीक वैसी ही होती है जैसे पत्थर की मूर्ति को देवालय में ईश्वर में बदलने की। हमारे पुरखों का सद् सन्देश रहा- पर्वत और नदियाँ तो ईश्वर हैं ही, लेकिन यदि कहीं पानी को एकत्रित भी कर रहे हों तो उस संरचना को भी ईश्वर का दर्जा दे दो।
आज भी हम जो देखते हैं, जल संसाधनों के पास बने हुए प्राचीन मन्दिरों को- वे सब सदियों पहले भारत के दर्शन की अवधारणा पर ही आधारित रहे हैं। श्रीमद् भगवत पुराण के प्रथम स्कन्द में यह कहा गया है कि जो आँखें भगवान का स्मरण दिलाने वाली नदियों के दर्शन नहीं कराती हैं- वह मोर पंख से बनी हुई आँखों की आकृति के समान निरर्थक हैं। यही कारण है कि आज भी नदियों को देखकर भारतीय जनमानस प्रणाम करता है और नदी दर्शन के साथ-साथ अपने आराध्य को भी स्मरण करता है।
विष्णु पुराण, भागवत पुराण आदि में गोवर्धन पर्वत पूजा का आह्वान हमारे भगवान श्रीकृष्ण करते हैं। सन्देश स्पष्ट है- यदि पर्वतों का संरक्षण कर लिया तो समूचे परिवेश के पर्यावरण का संरक्षण हो जाये। पर्वत, नदी परिवार के एक अहम सदस्य होते हैं। प्राकृतिक संसाधनों को ईश्वर का दर्जा दिये जाने के पीछे भी हमारे प्राचीन मनीषियों का मुख्य सन्देश यही रहा होगा- अपने परिवेश के पर्यावरण को ईश्वर मानकर उनका दीर्घकालिक संरक्षण और संवर्धन करो।
हम बहुत आधुनिक हो गए हैं। लेकिन मन्दिर और मस्जिद के मुद्दे पर लड़ाई करने से कभी पीछे नहीं हटते। क्या किसी नदी या पर्वत को लेकर हम लड़े हैं जो ईश्वर अथवा उसका अंश है। यह सन्देश भी तो हमारे धर्मग्रन्थों का ही है! लेकिन महाभारत काल में एक बावड़ी की पवित्रता को लेकर विशाल युद्ध हो चुका है- ऐसा हमारे पुराणों में उल्लेख है। हम भगवान को शायद मन्दिर और मूर्ति में ही देखते हैं। उसका अस्तित्व तो नदी के प्रवाह में है। जंगल के घनेपन में है। पर्वतों के मुस्कुराने में है। बादलों के बरसने में है। शीतल और मस्त पवन के बहने में है। आनन्दित दिशाओं में भी है। तब क्या हमारे प्राचीन दर्शन को नजीर मानकर हम यह कह सकते हैं कि नदियों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को इंसान का नहीं- ईश्वर का दर्जा दिया जाना चाहिए।
यह हमारी नदियों के प्रति पारम्परिक आस्था का आदर होगा। हमारे न्यायालय भगवान श्रीकृष्ण और राधा के हवाले से ‘लिव-इन’ की पारम्परिक नजीर देते हैं तो क्या वे इन वैदिक और पौराणिक आधारों पर ये नजीर नहीं दे सकते कि नदियों को इन्सान नहीं- ईश्वर का दर्जा दिया जाये।