जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

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पर्यावरण विज्ञान उच्चतर माध्यमिक पाठ्यक्रम

हरित क्रान्ति द्वारा खाद्य आपूर्ति में तिगुनी वृद्धि में सफलता मिलने के बावजूद मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या का पेट भर पाना सम्भव नहीं है। उत्पादन में वृद्धि आंशिक रूप से उन्नत किस्मों की फसलों के उपयोग के कारण हैं जबकि इस वृद्धि में मुख्यतया उत्तम प्रबन्धकीय व्यवस्था और कृषि रसायनों का प्रयोग एक कारण है। हालांकि विकासशील देशों के किसानों के लिये कृषि रसायन काफी महंगे पड़ते हैं व परम्परागत प्रजनन के द्वारा निर्मित किस्मों से उत्पादन में वृद्धि सम्भव नहीं है। तुम पिछले अध्याय में जैव प्रौद्योगिकी जिसके बारे में पढ़ चुके हो, उसमें मुख्यतया आनुवंशिक रूप से रूपान्तरित सूक्ष्मजीवों, कवक, पौधों व जन्तुओं का उपयोग करते हुए जैव भैषजिक व जैविक पदार्थों का औद्योगिक स्तर पर उत्पादन किया जाता है। जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग चिकित्साशास्त्र, निदानसूचक, कृषि में आनुवंशिकतः रूपान्तरित फसलें, संसाधित खाद्य, जैव सुधार, अपशिष्ट प्रतिपादन व ऊर्जा उत्पादन में हो रहा है। जैव प्रौद्योगिकी के तीन विवेचनात्मक अनुसन्धान क्षेत्र हैं-

(क) उन्नत जीवों जैसे-सूक्ष्मजीवों या शुद्ध एंजाइम के रूप में सर्वोत्तम उत्प्रेरक का निर्माण करना।
(ख) उत्प्रेरक के कार्य हेतु अभियांत्रिकी द्वारा सर्वोत्तम परिस्थितियों का निर्माण करना, तथा
(ग) अनुप्रवाह प्रक्रमण तकनीक का प्रोटीन/कार्बनिक यौगिक के शुद्धीकरण में उपयोग करना।
अब हम पता लगाएँगे कि मनुष्य जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग विशेष रूप से स्वास्थ्य व खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में जीवनस्तर के सुधार में किस प्रकार से लगा हुआ है।

कृषि में जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग


खाद्य उत्पादन में वृद्धि हेतु हम तीन सम्भावनाओं के बारे में सोच सकते हैं-

(क) कृषि रसायन आधारित कृषि
(ख) कार्बनिक कृषि और
(ग) आनुवंशिकतः निर्मित फसल आधारित कृषि।

हरित क्रान्ति द्वारा खाद्य आपूर्ति में तिगुनी वृद्धि में सफलता मिलने के बावजूद मनुष्य की बढ़ती जनसंख्या का पेट भर पाना सम्भव नहीं है। उत्पादन में वृद्धि आंशिक रूप से उन्नत किस्मों की फसलों के उपयोग के कारण हैं जबकि इस वृद्धि में मुख्यतया उत्तम प्रबन्धकीय व्यवस्था और कृषि रसायनों (खादों तथा पीड़कनाशिकों) का प्रयोग एक कारण है। हालांकि विकासशील देशों के किसानों के लिये कृषि रसायन काफी महंगे पड़ते हैं व परम्परागत प्रजनन के द्वारा निर्मित किस्मों से उत्पादन में वृद्धि सम्भव नहीं है। क्या ऐसा कोई वैकल्पिक रास्ता है जिसमें आनुवंशिक जानकारी का उपयोग करते हुए किसान अपने खेतों से सर्वाधिक उत्पादन ले सकेंगे? क्या ऐसा कोई तरीका है जिसके द्वारा खादों एवं रसायनों का न्यूनतम उपयोग कर उसके द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों को घटा सकते हैं? आनुवंशिकतः रूपान्तरित फसलों का उपयोग ही इस समस्या का हल है।

ऐसे पौधे, जीवाणु, कवक व जन्तु जिनके जींस हस्तकौशल द्वारा परिवर्तित किये जा चुके हैं। आनुवंशिकतः रूपान्तरित जीव (जेनेटिकली मोडीफाइड ऑर्गेनाइजेशन) कहलाते हैं। जीएमओ का व्यवहार स्थानान्तरित जीन की प्रकृति, परपोषी पौधों, जन्तुओं या जीवाणुओं की प्रकृति व खाद्य जाल पर निर्भर करता है। जीएम पौधों का उपयोग कई प्रकार से लाभदायक है। आनुवंशिक रूपान्तरण द्वारा-

(क) अजैव प्रतिबलों (ठंडा, सूखा, लवण, ताप) के प्रति अधिक सहिष्णु फसलों का निर्माण
(ख) रासायनिक पीड़कनाशकों पर कम निर्भरता करना (पीड़कनाशी-प्रतिरोधी फसल)
(ग) कटाई पश्चात होने वाले (अन्नादि) नुकसानों को कम करने में सहायक
(घ) पौधों द्वारा खनिज उपयोग क्षमता में वृद्धि (यह शीघ्र मृदा उर्वरता समापन को रोकता है)
(ङ) खाद्य पदार्थों के पोषणिक स्तर में वृद्धि; उदाहरणार्थ-विटामिन ए समृद्ध धान उपरोक्त उपयोगों के साथ-साथ जीएम का उपयोग तद्नुकूल पौधों के निर्माण में सहायक है, जिनसे वैकल्पिक संसाधनों के रूप में उद्योगों में वसा, ईंधन व भेषजीय पदार्थों की आपूर्ति की जाती है।

कृषि में जैव प्रौद्योगिकी के उपयोगों में जिनके बारे में तुम विस्तृत रूप से अध्ययन करोगे; वह पीड़क प्रतिरोधी फसलों का निर्माण है जो पीड़कनाशकों की मात्रा को कम प्रयोग में लाती है। बी.टी. (Bt) एक प्रकार का जीवविष है जो एक जीवाणु जिसे बैसीलस थुरीजिएंसीस (संक्षेप में बीटी) कहते हैं, से निर्मित होता है। बीटी जीवविष जीन जीवाणु से क्लोनिकृत होकर पौधों में अभिव्यक्त होकर कीटों (पीड़कों) के प्रति प्रतिरोधकता पैदा करता है जिससे कीटनाशकों के उपयोग की आवश्यकता नहीं रह गई है। इस तरह से जैव-पीड़कनाशकों का निर्माण होता है। उदाहरणार्थ-बीटी कपास, बीटी मक्का, धान, टमाटर, आलू व सोयाबीन आदि।

बीटी कपास- बैसीलस थूरीनजिएंसीस की कुछ नस्लें ऐसी प्रोटीन का निर्माण करती हैं जो विशिष्ट कीटों जैसे- लीथीडोस्टेशन (तम्बाकू की कलिका कीड़ा, सैनिक कीड़ा), कोलियोप्टेरान (भृंग) व डीप्टेरान (मक्खी, मच्छर) को मारने में सहायक है।

बी. थूरीनजिएंसीस अपनी वृद्धि के विशेष अवस्था में कुछ प्रोटीन रवा का निर्माण करती है। इन रवों में विषाक्त कीटनाशक प्रोटीन होता है। यह जीवविष बैसीलस को क्यों नहीं मारता है? वास्तव में बीटी जीवविष प्रोटीन, प्राक्जीव विष निष्क्रिय रूप में होता है, ज्यों ही कीट इस निष्क्रिय जीव विष को खाता है, इसके रवे आँत में क्षारीय पी एच के कारण घुलनशील होकर सक्रिय रूप में परिवर्तन हो जाते हैं। सक्रिय जीवविष मध्य आँत के उपकलीय कोशिकाओं की सतह से बँधकर उसमें छिद्रों का निर्माण करते हैं, जिस कारण से कोशिकाएँ फूलकर फट जाती हैं और परिणामस्वरूप कीट की मृत्यु हो जाती है।

विशिष्ट बीटी जीवविष जींस बैसीलस थूरीनजिएंसीस से पृथक कर कई फसलों जैसे कपास में समाविष्ट किया जा चुका है। जींस का चुनाव फसल व निर्धारित कीट पर निर्भर करता है, जबकि सर्वाधिक बीटी जीवविष कीट-समूह विशिष्टता पर निर्भर करते हैं। जीवविष जिस जीन द्वारा कूटबद्ध होते हैं उसे क्राई कहते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। उदाहरणस्वरूप - जो प्रोटींस जीन क्राई 1 एसी व क्राई 2 एबी द्वारा कूटबद्ध होते हैं वे कपास के मुकुल कृमि को नियंत्रित करते हैं (चित्र 12.1) जबकि क्राई 1 एबी मक्का छेदक को नियंत्रित करता है।

चित्र 12.1 कपास (अ) गोलक शलभ कृमि द्वारा नष्ट व (ब) पूर्णतया परिपक्व कपास गोलकपीड़क प्रतिरोधी पौधा- विभिन्न सूत्राकृमि, मानव सहित जन्तुओं व कई किस्म के पौधों पर परजीवी होते हैं। सूत्रकृमि मिल्वाडेगाइन इनकोगनीशिया तंबाकू के पौधों की जड़ों को संक्रमित कर उसकी पैदावार को काफी कम कर देता है। उपरोक्त संक्रमण को रोकने हेतु एक नवीन योजना को स्वीकार किया गया है जो आरएनए अन्तरक्षेप की प्रक्रिया पर आधारित है। आरएनए अन्तरक्षेप सभी ससीमकेन्द्रकी जीनों में कोशिकीय सुरक्षा की एक विधि है। इस विधि में विशिष्ट दूत आरएनए, पूरक द्विसूत्री आरएनए से बर्धित होने के पश्चात निष्क्रिय हो जाता है जिसके फलस्वरूप दूत आरएनए के स्थानान्तरण (ट्रांसलेशन) को रोकता है। इस द्विसूत्रीय आरएनए का स्रोत, संक्रमण करने वाले विषाणु में पाये जाने वाले पूरक आरएनए जीनोम/पारान्तरेक (ट्रांसपॉजान) के प्रतिकृत के उपरान्त बनने वाले मध्यवर्ती आरएनए हैं।

एग्रोबैक्टीरियम संवाहकों का उपयोग कर सूत्रकृमि विशिष्ट जीनों को परपोषी पौधों में प्रवेश कराया जा चुका है (चित्र 12.2)। डीएनए का प्रवेश इस प्रकार कराया जाता है कि परपोषी कोशिकाओं का अर्थ (सैंस) व प्रति-अर्थ (ऐंटीसैंस) आरएनए का निर्माण करता है। ये दोनों आरएनए एक दूसरे के पूरक होते हैं जो द्विसूत्रीय आरएनए का निर्माण करते हैं; जिससे आरएनए अन्तरक्षेप प्रारम्भ होता है और इसी कारण से सूत्रकृमि के विशिष्ट दूत आरएनए निष्क्रिय हो जाते हैं। इसके फलस्वरूप परजीवी परपोषी में विशिष्ट अन्तरक्षेपी आरएनए की उपस्थिति से परजीवी जीवित नहीं रह पाता है। इस प्रकार पारजीवी पौधे अपनी सुरक्षा परजीवी से करते हैं (चित्र 12.2)।

चित्र 12.2

चिकित्सा में जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग (Use of Biotechnology in Medicine)


पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी विधियों का स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव डाला है; क्योंकि इसके द्वारा उत्पन्न सुरक्षित व अत्यधिक प्रभावी चिकित्सीय औषधियों का उत्पादन अधिक मात्रा में सम्भव है। पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियों का अवांछित प्रतिरक्षात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है जबकि ऐसा देखा गया है कि उपरोक्त उत्पाद जो अमानवीय स्रोतों से विलगित किये गए हैं, वे अवांछित प्रतिरक्षात्मक प्रभाव डालते हैं। वर्तमान समय में लगभग 30 पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियाँ विश्व में मनुष्य के प्रयोग हेतु स्वीकृत हो चुकी हैं। वर्तमान में; इनमें से 12 भारत में विपणित हो रही हैं।

आनुवंशिकतः निर्मित इंसुलिन (Genetically built insulin)


वयस्कों में होने वाले मधुमेह का नियंत्रण निश्चित समय अन्तराल पर इंसुलिन लेने से ही सम्भव है। मानव इंसुलिन पर्याप्त उपलब्ध न होने पर मधुमेह रोगी क्या करेंगे? उस पर विचार करने पर हम इस बात को स्वीकार करेंगे कि हमें अन्य जानवरों से इंसुलिन वियुक्त कर उपयोग में लाना होगा। क्या अन्य जन्तुओं से वियुक्त इंसुलिन मानव शरीर में भी प्रभावी है और उसका मानव शरीर के प्रतिरक्षा अनुक्रिया पर कोई हानिकारक प्रभाव तो नहीं पड़ता है? तुम कल्पना करो कि यदि कोई जीवाणु मानव इंसुलिन बना सकता है तो निश्चय ही पूरी प्रक्रिया सरल हो जाएगी। तुम आसानी से ऐसे जीवाणु को अधिक मात्रा में विकसित कर जितना चाहे अपनी आवश्यकता के अनुसार इंसुलिन बना सकते हो। सोचो क्या इंसुलिन मधुमेही लोगों को मुख से दिया जा सकता है कि नहीं। क्यों?


चित्र 12.3 प्राक-इंसुलिन का सी-पेप्टाइड के अलग होने के बाद इंसुलिन में परिपक्वतामधुमेह रोगियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाला इंसुलिन जानवरों व सुअरों को मारकर उनके अग्नाशय से निकाला जाता था। जानवरों द्वारा प्राप्त इंसुलिन से कुछ रोगियों में प्रत्यूर्जा (एलर्जी) या बाह्य प्रोटीन के प्रति दूसरे तरह की प्रतिक्रिया होने लगती थी। इंसुलिन दो छोटी पालीपेप्टाइड शृंखलाओं का बना होता है, शृंखला ‘ए’ व शृंखला ‘बी’ जो आपस में डाइसल्फाइड बन्धों द्वारा जुड़ी होती हैं (चित्र 12.3)। मानव सहित स्तनधारियों में इंसुलिन प्राक्-हार्मोन (प्राक् - एंजाइम की तरह प्राक्-हार्मोन को पूर्ण परिपक्व व क्रियाशील हार्मोन बनने के पहले संसाधित होने की आवश्यकता होती है) संश्लेषित होता है; जिसमें एक अतिरिक्त फैलाव होता है जिसे पेप्टाइड ‘सी’ कहते हैं। यह ‘सी’ पेप्टाइड परिपक्व इंसुलिन में नहीं होता, जो परिपक्वता के दौरान इंसुलिन से अलग हो जाता है। आर डीएनए तकनीकियों का प्रयोग करते हुए इंसुलिन के उत्पादन में मुख्य चुनौती यह है कि इंसुलिन को एकत्रित कर परिपक्व रूप में तैयार किया जाये। 1983 में एली लिली नामक एक अमेरिकी कम्पनी ने दो डीएनए अनुक्रमों को तैयार किया जो मानव इंसुलिन को शृंखला ए और बी के अनुरूप होती हैं जिसे ई-कोलाई के प्लाज्मिड में प्रवेश कराकर इंसुलिन शृंखलाओं का उत्पादन किया। इन अलग-अलग निर्मित शृंखलाओं ए और बी को निकालकर डाइसल्फाइड बंध बनाकर आपस में संयोजित कर मानव इंसुलिन का निर्माण किया गया।

जीन चिकित्सा (Gene therapy)


यदि एक व्यक्ति आनुवंशिक रोग के साथ पैदा हुआ है, तो क्या इस रोग के उपचार हेतु कोई चिकित्सा व्यवस्था है? जीन चिकित्सा ऐसा ही एक प्रयास है। जीन चिकित्सा में उन विधियों का सहयोग लेते हैं जिनके द्वारा किसी बच्चे या भ्रूण में चिन्हित किये गए जीन दोषों का सुधार किया जाता है। उसमें रोग के उपचार हेतु जीनों को व्यक्ति की कोशिकाओं या ऊतकों में प्रवेश कराया जाता है। आनुवंशिक दोष वाली कोशिकाओं के उपचार हेतु सामान्य जीन को व्यक्ति या भ्रूण में स्थानान्तरित करते हैं जो निष्क्रिय जीन की क्षतिपूर्ति कर उसके कार्यों को सम्पन्न करते हैं।

जीन चिकित्सा का पहले पहल प्रयोग वर्ष 1990 में एक चार वर्षीय लड़की में एडीनोसीन डिएमीनेज (एडीए) की कमी को दूर करने के लिये किया गया था। यह एंजाइम प्रतिरक्षा तंत्र के कार्य के लिये अति आवश्यक होता है। उपरोक्त समस्या जो एंजाइम एडीनोसीन डिएमीनेज के लिये जिम्मेदार है जो इसके लोप होने के कारण होता है। कुछ बच्चों में एडीए की कमी का उपचार अस्थिमज्जा के प्रत्यारोपण से होता है। जबकि दूसरों में एंजाइम प्रतिस्थापन चिकित्सा द्वारा उपचार किया जाता है; जिसमें सुई द्वारा रोगी को सक्रिय एडीए दिया जाता है। उपरोक्त दोनों विधियों में यह कमी है कि ये पूर्णतया रोगनाशक नहीं है। जीन चिकित्सा में सर्वप्रथम रोगी क रक्त से लसीकाणु को निकालकर शरीर से बाहर संवर्धन किया जाता है। सक्रिय एडीए का सी डीएनए (पश्च विषाणु संवाहक का प्रयोगकर) लसीकाणु में प्रवेश कराकर अन्त में रोगी के शरीर में वापस कर दिया जाता है। ये कोशिकाएँ मृतप्राय होती हैं; इसलिये आनुवंशिक निर्मित लसीकाणुओं को समय-समय पर रोगी के शरीर से अलग करने की आवश्यकता होती है। यदि मज्जा कोशिकाओं से विलगित अच्छे जीनों को प्रारम्भिक भ्रूणीय अवस्था की कोशिकाओं से उत्पादित एडीए में प्रवेश करा दिये जाएँ तो यह एक स्थायी उपचार हो सकता है।

आणविक निदान (Molecular diagnosis)


आप जानते हैं कि रोग के प्रभावी उपचार के लिये उसकी प्रारम्भिक पहचान व उसके रोग क्रिया विज्ञान को समझना अति आवश्यक है। उपचार की परम्परागत विधियों (सीरम व मूत्र विश्लेषण आदि) का प्रयोग करते हुए रोग का प्रारम्भ में पता लगाना सम्भव नहीं है। पुनर्योगज डीएन प्रौद्योगिकी, पॉलीमरेज शृंखला अभिक्रया व एंजाइम सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (एलाइजा) कुछ ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा रोग की प्रारम्भिक पहचान की जा सकती है।

रोगजनक (जीवाणु, विषाणु आदि) की उपस्थिति का सामान्यतया तब पता चलता है जब उसके द्वारा उत्पन्न रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। उस समय तक रोगजनक की संख्या शरीर में पहले से काफी अधिक हो चुकी होती है। जब बहुत कम संख्या में जीवाणु या विषाणु (उस समय जब रोग के लक्षण स्पष्ट दिखाई नहीं देते) हो तब उनकी पहचान पीसीआर द्वारा उनके न्यूक्लिक अम्ल के प्रवर्धन (एंप्लीफिकेशन) द्वारा कर सकते हैं। क्या तुम बता सकते हो कि पीसीआर द्वारा डीएनए की बहुत कम मात्रा की पहचान कैसे की जाती है? सन्देहात्मक एड्स रोगियों में एचआइवी की पहचान हेतु पीसीआर आजकल सामान्यतया उपयोग में लाया जा रहा है। उसका उपयोग सन्देहात्मक कैंसर रोगियों के जीन में होने वाले उत्परिवर्तनों को पता लगाने में भी किया जा रहा है। यह एक उपयोगी तकनीकी है जिसके द्वारा बहुत सारी दूसरे आनुवंशिक दोषों की पहचान की जा सकती है।

डीएनए या आरएनए की एकल श शृंखला से एक विकिरण सक्रिय अणु (संपरीक्षित्र) जुड़कर कोशिकाओं के क्लोन में अपने पूरक डीएनए से संकरित होते हैं, जिसे बाद में स्वविकिरणी चित्रण (आटोरेडियोग्राफी) द्वारा पहचानते हैं। क्लोन जिसमें उत्परिवर्तित जीन मिलते हैं। छायाचित्र पटल (फोटोग्रैफिक फिल्म) पर दिखाई नहीं देते हैं; क्योंकि संपरीक्षित्र (प्रोब) व उत्परिवर्तित जीन आपस में एक दूसरे के पूरक नहीं होते हैं।

एंजाइम सहलग्न प्रतिरक्षा शोषक आमापन (एलाइजा) प्रतिजन-प्रतिरक्षी पारस्परिक क्रिया के सिद्धान्त पर कार्य करता है। रोगजनकों के द्वारा उत्पन्न संक्रमण को पहचान प्रतिजनों (प्रोटीनजन, ग्लाइकोप्रोटींस आदि) की उपस्थिति या रोग जनकों के विरुद्ध संश्लेषित प्रतिरक्षी की पहचान के आधार पर की जाती है।

पारजीवी जन्तु (Transgenic animals ट्रांसजेनिक एनिमल्स)


ऐसे जन्तु जिनके डीएन में परिचालन द्वारा एक अतिरिक्त (बाहरी) जीन व्यवस्थित होता है जो अपना लक्षण व्यक्त करता है उसे पारजीवी जन्तु कहते हैं। पारजीवी चूहे, खरगोश, सूअर, भेड़, गाय व मछलियाँ आदि पैदा हो चुके हैं उसके बावजूद उपस्थित पारजीवी जन्तुओं में 95 प्रतिशत से अधिक चूहे हैं। उस तरह के जन्तुओं का उत्पादन क्यों किया जाता है? इस तरह के परिवर्तन से मानव को क्या लाभ है? अब हम कुछ सामान्य कारणों का पता करेंगे-

(क) सामान्य शरीर क्रिया व विकास-पारजीवी जन्तुओं का निर्माण विशेष रूप से इस प्रकार किया जाता है जिनमें जीनों के नियंत्रण व इनका शरीर के विकास व सामान्य कार्यों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है; उदाहरणार्थ- विकास में भागीदार जटिल कारकों जैसे-इंसुलिन की तरह विकास कारक का अध्ययन। दूसरी जाति (स्पीशीज) के जींस को प्रवेश कराने के उपरान्त उपरोक्त कारकों के निर्माण में होने वाले परिवर्तनों से होने वाले जैविक प्रभाव का अध्ययन तथा कारकों की शरीर में जैविक भूमिका के बारे में सूचना मिलती है।

(ख) रोगों का अध्ययन-अनेकों पारजीवी जन्तु इस प्रकार निर्मित किये जाते हैं जिनसे रोग के विकास में जीन की भूमिका क्या होती है? यह विशिष्ट रूप से निर्मित है जो मानव रोगों के लिये नमूने के रूप में प्रयोग किये जाते हैं ताकि रोगों के नए उपचारों का अध्ययन हो सके। वर्तमान समय में मानव रोगों जैसे-कैंसर, पुटीय रेशामयता (सिस्टीक फाइब्रोसिस), रूमेटवाएड संधिशोथ व अल्जाइमर हेतु पारजीवी नमूने उपलब्ध हैं।

(ग) जैविक उत्पाद-कुछ मानव रोगों के उपचार के लिये औषधि की आवश्यकता होती है जो जैविक उत्पाद से बनी होती है। ऐसे उत्पादों को बनाना अक्सर बहुत महंगा होता है। पारजीवी जन्तु जो उपयोगी जैविक उत्पाद का निर्माण करते हैं उनमें डीएनए के भाग (जीनों) को प्रवेश कराते हैं जो विशेष उत्पाद के निर्माण में भाग लेते हैं।

उदाहरण-मानव प्रोटीन (अल्फा-1 एंटीट्रिप्सीन) का उपयोग इंफासीमा के निदान में होता है। ठीक उसी तरह का प्रयास फिनाइल कीटोनूरिया (पीकेयू) व पुटीय रेशामयता के निदान हेतु किया गया है। वर्ष 1977 में सर्वप्रथम पारजीवी गाय ‘रोजी’ मानव प्रोटीन सम्पन्न दुग्ध (2.4 ग्राम प्रति लीटर) प्राप्त किया गया। इस दूध में मानव अल्फा-लेक्टएल्बुमिन मिलता है जो मानव शिशु हेतु अत्यधिक सन्तुलित पोषक तत्व है जो साधारण गाय के दूध में नही मिलता है।

(घ) टीका सुरक्षा - टीकों का मानव पर प्रयोग करने से पहले टीके की सुरक्षा जाँच के लिये पारजीवी चूहों को विकसित किया गया है। पोलियो टीका की सुरक्षा जाँच के लिये पारजीवी चूहों का उपयोग किया जा चुका है। यदि उपरोक्त प्रयोग सफल व विश्वसनीय पाये गए तो टीका सुरक्षा जाँच के लिये बन्दर के स्थान पर पारजीवी चूहों का प्रयोग किया जा सकेगा।

(ङ) रासायनिक सुरक्षा परीक्षण - यह आविषालुता सुरक्षा परीक्षण कहलाता है। यह वही विधि है जो औषधि आविषालुता परीक्षण हेतु प्रयोग में लाई जाती है। पारजीवी जन्तुओं में मिलने वाले कुछ जीन इसे आविषालु पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील बनाते हैं जबकि अपारजीवी जन्तुओं में ऐसा नहीं है। पारजीवी जन्तुओं को आविषालु पदार्थों में लाने के बाद पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। उपरोक्त जन्तुओं में आविषालुता परीक्षण करने से कम समय में परिणाम प्राप्त हो जाता है।

नैतिक मुद्दे


मानव जाति द्वारा अन्य जीवधारियों से हितसाधन बिना विनियमों के और अधिक नहीं किया जा सकता है। सभी मानवीय क्रियाकलापों के लिये जो जीवधारियों के लिये असुरक्षात्मक या सहायक हो उनमें आचरण की परख के लिये कुछ नैतिक मानदंडों की आवश्यकता है।

ऐसे मुद्दों में नैतिकता से इनमें जैववैज्ञानिक महत्त्व भी है। जीवों के आनुवंशिक रूपान्तरण के तब अप्रत्याशित परिणाम निकल सकते हैं जब ऐसे जीवों का पारिस्थितिक तंत्र में सन्निविष्ट कराया जाये।

इसीलिये, भारत सरकार ने ऐसे संगठनों को स्थापित किया है जैसे कि जीईएसी (जेनेटिक इंजीनयरिंग अप्रूवल कमेटी अर्थात आनुवंशिक अभियांत्रिकी संस्तुति समिति); जो कि जी एक अनुसन्धान सम्बन्धी कार्यों की वैधानिकता तथा जन सेवाओं के लिये जीएम जीवों के सन्निवेश की सुरक्षा आदि के बारे में निर्णय लेगी।

जन सेवा (जैसे कि आहार एवं चिकित्सा स्रोतों हेतु) में जीवों के रूपान्तरण/उपयोगिता जो इनके जीवों के लिये अनुमत एकस्व की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

जनमानस में इस बात को लेकर आक्रोश है कि कुछ कम्पनियाँ आनुवंशिक पदार्थों; पौधों व अन्य जैविक संसाधनों का उपयोग कर, बनने वाले उत्पाद व तकनीकी के लिये एकस्व (पेटेंट) प्राप्त कर रहे हैं जबकि यह बहुत समय पहले से विकसित व पहचानी जा चुकी है और किसान तथा विशेष क्षेत्र या देश के लोगों द्वारा इनका उपयोग किया जा रहा है।

धान एक महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न है जिसके बारे में हजारों वर्ष पूर्व एशिया के कृषि के इतिहास में वर्णन मिलता है। एक अनुमान के अनुसार केवल भारत में धान की लगभग 2 लाख किस्में मिलती है। भारत में धान की जो विविधता है, वह विश्व की सर्वाधिक विविधताओं में एक है। बासमती धान अपनी सुगंध व स्वाद के लिये मशहूर है और इसकी 27 पहचानी गई किस्में भारत में उगाई जाती हैं। पुराने ग्रंथों, लोकसाहित्य व कविताओं में बासमती का वर्णन मिलता है, जिससे यह पता चलता है कि यह कई सौ वर्ष पहले से उगाया जाता रहा है। वर्ष 1977 में एक अमेरीकी कम्पनी ने बासमती धान पर अमेरिकन एकस्व व ट्रेडमार्क कार्यालय द्वारा एकस्व अधिकार प्राप्त कर लिया था। इससे कम्पनी बासमती की नई किस्मों को अमेरिका व विदेशों में बेच सकती है। बासमती की यह नई किस्म वास्तव में भारतीय किसानों की किस्मों से विकसित की गई थी। भारतीय बासमती को अर्ध बौनी किस्मों से संकरण कराकर नई खोज या एक नई उपलब्धि का दावा किया था। एकाधिकार के लागू होने के बाद इस एकाधिकार के तहत अन्य लोगों द्वारा बासमती का विक्रय प्रतिबन्धित हो सकता था।

मल्टीनेशनल कम्पनियों व दूसरे संगठनों द्वारा किसी राष्ट्र या उससे सम्बन्धित लोगों से बिना व्यवस्थित अनुमोदन व क्षतिपूरक भुगतान के जैव संसाधनों का उपयोग करना बायोपाइरेसी कहलाता है।

बहुत सारे औद्योगिक राष्ट्र आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न हैं लेकिन उनके पास जैव विविधता एवं परम्परागत ज्ञान की कमी है। इसके विपरीत विकसित व अविकसित विश्व जैव विविधता व जैव संसाधनों से समबन्धित परम्परागत ज्ञान से सम्पन्न है। जैव-संसाधनों से सम्बन्धित परम्परागत ज्ञान का उपयोग आधुनिक उपयोगों में किया जा सकता है जिसके फलस्वरूप इनके व्यापारीकरण के दौरान, समय, शक्ति व खर्च को बचाया जा सकता है।

विकसित व विकासशील राष्ट्रों के बीच अन्याय, अपर्याप्त क्षतिपूर्ति व लाभों की भागीदारी के प्रति भावना विकसित हो रही है। इसके कारण कुछ राष्ट्रों ने अपने जैव संसाधनों व परम्परागत ज्ञान का बिना पूर्व अनुमति के उपयोग पर प्रतिबन्ध के लिए नियमों को बना रहे हैं।

भारतीय संसद ने हाल ही में भारतीय एकस्व बिल (इण्डियन पेटेंट बिल) में दूसरा संशोधन पारित किया है जो ऐसे मुद्दों को ध्यानार्थ लेगा, जिसके अन्तर्गत एकस्व नियम सम्बन्धी आपातकालिक प्रावधान तथा अनुसन्धान एवं विकासीय प्रयास शामिल हैं।

सारांश

सूक्ष्मजीवों, पौधों, जन्तुओं व अनेक उपापचयी कार्यप्रणाली का उपयोग करते हुए जैव प्रौद्योगिकी द्वारा मनुष्य के लिये कई उपयोगी पदार्थों का निर्माण हो चुका है। पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी ने ऐसे सूक्ष्मजीवों, पौधों व जन्तुओं का निर्माण सम्भव कर दिया है जिनमें अभूतपूर्व क्षमता निहित है। आनुवंशिकतः रूपान्तरित जीवों का निर्माण एक या एक से अधिक जीन का, एक जीव से दूसरे जीव में स्थानान्तरण की प्राकृतिक विधि के अतिरिक्त पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए किया गया है।

जीएम पौधों का उपयोग फसल उत्पादन बढ़ाने, पश्च फसल उत्पाद नुकसान में कमी व फसलों का प्रतिबन्धों के प्रति अधिक सहनशील बनाने में अत्यन्त उपयोगी है। ऐसे बहुत जीएम फसल पौधे हैं जिनका खाद्य पौष्टिक स्तर काफी उन्नत है व उन (पीड़क-प्रतिरोधी फसलों) की रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता काफी कम है।

पुनर्योगज डीएनए प्रौद्योगिकी प्रक्रियाओं का स्वास्थ्य सुरक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्व है; क्योंकि इनके द्वारा सुरक्षित व अत्यधिक प्रभावशाली औषधियों का निर्माण सम्भव है। पुनर्योगज चिकित्सीय औषधियाँ मनुष्य के प्रोटीन के समतुल्य हैं। इस कारण से इनका प्रतिरक्षात्मक अवांछित प्रभाव नहीं पड़ता है व इनसे संक्रमण के खतरे भी नहीं होते हैं जैसा कि अमानवीय स्रोतों से विलगित इस प्रकार के पदार्थों से होता है। जीवाणु में रचित मानव इंसुलिन जो संरचनात्मक प्राकृतिक अणु से पूर्णतया समान होता है।

पारजीवी जन्तु मानव रोगों जैसे- कैंसर, पुटीय रेशामयता, रूमेट्वाएड संधिशोथ व अल्जाइमर के लिये नमूने के रूप में उपयोग किए जाते हैं, जिससे हमें रोग के विकास में जीन की भूमिका को पता लगाने में सुविधा होती है।

जीन चिकित्सा द्वारा खासतौर से आनुवंशिक रोगों को दूर करने के लिये व्यक्ति विशेष की कोशिकाओं व ऊतकों में जीन को प्रवेश कराते हैं। इसके कारण खराब उत्परिवर्तित विकल्पों के स्थान पर सक्रिय विकल्पी या जीन टारगेटिंग के द्वारा उपचार होता है, जिनमें जीन प्रवर्धन शामिल हैं। विषाणु जो अपने परपोषी पर आक्रमण कर अपने विभाजन चक्र के लिये अपना आनुवंशिक पदार्थ परपोषी की कोशिकाओं में प्रवेश करता है। इसे संवाहक के रूप में प्रयोगकर स्वस्थ जीन या नए जीन के भाग को स्थानान्तरित किया जा सकता है।

सूक्ष्मजीवों, पौधों व जन्तुओं के व्यवहार के प्रति वर्तमान दिलचस्पी ने गम्भीर नैतिक प्रश्न खड़े कर दिये हैं। भारत सरकार ने इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए हैं।

अभ्यास


1. बीटी (Bt) आविष के रवे कुछ जीवाणुओं द्वारा बनाए जाते हैं लेकिन जीवाणु स्वयं को नहीं मारते हैं; क्योंकि-

(क) जीवाणु आविष के प्रति प्रतिरोधी है।
(ख) आविष अपरिपक्व है।
(ग) आविष निष्क्रिय होता है।
(घ) आविष जीवाणु की विशेष थैली में मिलता है।

2. पारजीवी जीवाणु क्या है? किसी एक उदाहरण द्वारा सचित्र वर्णन करो।

3. आनुवंशिक रूपान्तरित फसलों के उत्पादन के लाभ व हानि का तुलनात्मक विभेद किजिए।

4. क्राई प्रोटींस क्या है? उस जीव का नाम बताओ जो इसे पैदा करता है। मनुष्य इस प्रोटीन को अपने फायदे के लिये कैसे उपयोग में लाता है।

5. जीन चिकित्सा क्या है? एडीनोसीन डिएमीनेज (एडीए) की कमी का उदाहरण देते हुए इसका सचित्र वर्णन करें।

6. ई-कोलाई जैसे जीवाणु में मानव जीन की क्लोनिंग एवं अभिव्यक्ति के प्रायोगिक चरणों का आरेखीय निरूपण प्रस्तुत करें।

7. तेल के रसायनशास्त्र तथा आरडीएनए जिसके बारे में आपको जितना भी ज्ञान प्राप्त है, उसमें आधार बीजों तेल हाइड्रोकार्बन हटाने की कोई एक विधि सुझाओ।

8. इंटरनेट से पता लगाओ कि गोल्डन राइस (गोल्डन धान) क्या है?

9. क्या हमारे रक्त में प्रोटीओजेज तथा न्यूक्लीऐजिज हैं?

10. इंटरनेट से पता लगाओ कि मुखीय सक्रिय औषध प्रोटीन को किस प्रकार बनाएँगे। इस कार्य में आने वाली मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।



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