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कुरुक्षेत्र, फरवरी 2018
जैविक खेती तेजी से बढ़ता सेक्टर है। जैविक खेती उन क्षेत्रों के लिये सही विकल्प है, जहाँ कृषि रसायनों के प्रभाव से उपजाऊ जमीनें बंजर होती जा रही हैं। आजकल शहरों में तेजी से लोकप्रिय हो रहे ऑर्गेनिक अनाज, दालें, मसाले, सब्जियाँ व फल जैविक खेती की सम्भावनाओं को और बढ़ावा दिला रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऑर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिये नाबार्ड सहित कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थान कार्यरत हैं। सरकार पूर्वोत्तर राज्यों को जैविक खेती का केन्द्र बनाने पर जोर दे रही है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सिक्किम देश का पहला राज्य है, जहाँ पूर्णतया जैविक खेती की जा रही है।सरकार ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है। पिछले कई महीनों से कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय और कृषि वैज्ञानिक किसानों की आय बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में जैविक खेती की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
जैविक खेती को बढ़ावा देने और कृषि रसायनों पर निर्भरता को कम करने के लिये परम्परागत कृषि विकास योजना की शुरुआत की गई है। परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत सरकार मिट्टी की सुरक्षा और लोगों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिये जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है। इसे कलस्टर आधार पर प्रत्येक 50 एकड़ पर क्रियान्वित किया जा रहा है। इसका लक्ष्य तीन वर्षों की अवधि में 2015-16 से 2017-18 में 5 लाख एकड़ क्षेत्रफल को शामिल करते हुए 10,000 क्लस्टर्स को बढ़ावा देना है।
मृदा, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को सशक्त बनाए रखने के लिये जैविक खेती नितान्त आवश्यक है। इससे न केवल उच्च गुणवत्तायुक्त, स्वास्थ्यवर्द्धक एवं पौष्टिक खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ेगी, बल्कि खेती में उत्पादन लागत कम करने में भी मदद मिलेगी। साथ ही मृदा उर्वरता में सुधार के साथ-साथ किसानों की आमदनी में भी इजाफा होगा। उपरोक्त के अलावा इस योजना को कार्यान्वित करने के लिये पारम्परिक संसाधनों का इस्तेमाल करके पर्यावरण अनुकूल कम लागत की प्रौद्योगिकियों को अपनाकर जैविक खेती को बढ़ावा देना है।
अधिक आय प्राप्त करने के लिये जैविक उत्पादों को बाजार के साथ जोड़ा जाएगा। जैविक खेती से तैयार फसल उत्पाद सेहत के लिये काफी उपयोगी हैं। आज के परिदृश्य में जैविक खेती का महत्त्व इसलिये भी काफी बढ़ता जा रहा है क्योंकि किसान पारम्परिक खेती से ज्यादा-से-ज्यादा उत्पादन लेने के लिये रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशियों का अत्यधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। अनेक अनुसन्धानों में पाया गया है कि जैविक खेती से तैयार फसल उत्पादों में पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद होते हैं जो हम सब की सेहत के लिये आवश्यक हैं। जैविक खेती तेजी से बढ़ता सेक्टर है। जैविक खेती उन क्षेत्रों के लिये सही विकल्प है, जहाँ कृषि रसायनों के प्रभाव से उपजाऊ जमीनें बंजर होती जा रही हैं।
आजकल शहरों में तेजी से लोकप्रिय हो रहे ऑर्गेनिक अनाज, दालें मसाले, सब्जियाँ व फल जैविक खेती की सम्भावनाओं को और बढ़ावा दिला रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऑर्गेनिक फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिये नाबार्ड सहित कई सरकारी व गैर-सरकारी संस्थान कार्यरत हैं। सरकार पूर्वोत्तर राज्यों को जैविक खेती का केन्द्र बनाने पर जोर दे रही है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सिक्किम देश का पहला राज्य है, जहाँ पूर्णतया जैविक खेती की जा रही है।
सिक्किम फूलों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। लगभग 75 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले इस राज्य को राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश के अनुसार प्रमाणित जैविक खेती में परिवर्तित कर दिया गया है। इस प्रकार यह पूर्णतः ताजा जैविक उत्पादन कर सकता है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये हाल ही में सिक्किम के गंगटोक शहर में राष्ट्रीय जैविक खेती अनुसन्धान संस्थान की स्थापना की गई है।
जैविक खेती से तात्पर्य
जैविक खेती से तात्पर्य फसल उत्पादन की उस पद्धति से है जिसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशियों, व्याधिनाशियों, शाकनाशियों, पादप वृद्धि नियामकों और पशुओं के भोजन में किसी भी रसायन का प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि उचित फसल चक्र, फसल अवशेष, पशुओं का गोबर व मलमूत्र, फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश, हरी खाद और अन्य जैविक तरीकों द्वारा भूमि की उपजाऊ शक्ति बनाए रखकर पौधों को पोषक तत्वों की प्राप्ति कराना एवं जैविक विधियों द्वारा कीट-पतंगों और खरपतवारों का नियंत्रण किया जाता है।
जैविक खेती एक पर्यावरण अनुकूल कृषि प्रणाली है। इसमें खाद्यान्नों, फलों और सब्जियों की पैदावार के दौरान उनका आकार बढ़ाने या वक्त से पहले पकाने के लिये किसी प्रकार के रसायन या पादप नियामकों का प्रयोग भी नहीं किया जाता है। जैविक खेती का उद्देश्य रसायनमुक्त उत्पादों और लाभकारी जैविक सामग्री का प्रयोग करके मृदा स्वास्थ्य में सुधार और फसल उत्पादन को बढ़ावा देना है। इससे उच्च गुणवत्ता वाली फसलों के उत्पादन के लिये मृदा को स्वस्थ और पर्यावरण को प्रदूषणमुक्त बनाया जा सकता है।
मृदा के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों पर जैविक खेती व परम्परागत खेती का प्रभाव | |||
क्रम संख्या | मृदा गुण | प्रतिशत में | |
जैविक खेती | परम्परागत खेती | ||
1. | पी.एच. या अम्लता | 7.26 | 7.55 |
2. | विद्युत चालकता, (डेसी मी) | 0.76 | 0.78 |
3. | कार्बनिक कार्बन | 0.585 | 0.405 |
4. | नाइट्रोजन (किग्रा/हे.) | 256 | 185 |
5. | फास्फोरस (किग्रा/हे.) | 50.5 | 28.5 |
6. | पोटाश (किग्रा/हे.) | 459.5 | 426.5 |
7. | नाइट्रोजन (प्रतिशत में) | 0.068 | 0.050 |
8. | कार्बनिक बायोमास (मिग्रा/किग्रा मिट्टी) | 273 | 217 |
9. | एजोबैक्टर (1000/ग्राम मिट्टी) | 11.7 | 0.8 |
10. | फास्फोबैक्टीरिया (1,00,000/किग्रा मिट्टी) | 8.8 | 3.2 |
जैविक खेती के प्रमुख अवयव
मिट्टी का चुनाव
जैविक खेती की सफलता खेत की मिट्टी के प्रकार और उसके उपजाऊपन पर निर्भर करती है। यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि जिस खेत में आप जैविक खेती करना चाहते हैं, उसकी मिट्टी स्वस्थ व उपजाऊ होनी चाहिए। कुछ कीटनाशी वर्षों तक मिट्टी व पानी में मौजूद रहते हैं। ये फसल उत्पादों के माध्यम से नर्वस सिस्टम पर प्रतिकूल असर डाल सकते हैं जिनके कारण कैंसर जैसी गम्भीर बीमारी भी हो सकती है। अतः जहाँ तक हो सके, कीटनाशियों से दूर रहना चाहिए। जैविक खेती शुरू करने से पहले जमीन को दो साल के लिये ऑर्गेनिक खाद्य पदार्थों के उपयुक्त नहीं माना जाता है। ताकि इस अवधि के दौरान फसलें मिट्टी में मौजूद सभी हानिकारक व विषैले तत्वों का अवशोषण कर सकें। इस तरह मिट्टी के अकार्बनिक रासायनिक तत्व पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं।
प्रजातियों का चुनाव
जैविक खेती के लिये किसी फसल की कोई भी प्रजाति लगाई जा सकती है। परन्तु ऐसा अनुभव किया गया है कि देशी प्रजातियाँ जैविक खेती के लिये अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होंगी। क्योंकि उनकी उर्वराशक्ति की माँग कम होती है। कुछ फसलें नाजुक व कीट और बीमारियों से जल्दी ग्रसित होती हैं। जहाँ तक हो सके, फसलों की रोग-रोधी प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए। प्रायः ऐसी फसलों के बीजों के पैकेट पर रोग-प्रतिरोधक लिखा होता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैविक खेती में पराजीनी फसलों और उनकी प्रजातियों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
जैविक खाद
देश में प्रयोग की जाने वाली जैविक खादों में गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मी कम्पोस्ट, मुर्गी खाद, पशुओं के नीचे का बिछावन, सूअर एवं भेड़-बकरियों की खाद तथा गोबर गैस खाद प्रमुख हैं। साधारणतया गोबर एवं कम्पोस्ट की एक टन खाद से औसतन 5 किग्रा. नाइट्रोजन, 2-5 किग्रा फास्फोरस एवं 5 किग्रा पोटाश मिल जाती है। परन्तु दुर्भाग्यवश हम इनका 50 प्रतिशत ही प्रयोग कर पाते हैं। अधिकतर गोबर का प्रयोग किसान भाई उपलों के रूप में जलाने के लिये करते हैं।
कुछ बायोडायनमिक खादें जैसे गोमूत्र, पशुओं के सींग की खाद, हड्डी की खाद का प्रयोग भी जैविक खेती में किया जा रहा है। फसल अवशेष, खरपतवारों, शाक सब्जियों की पत्तियों एवं पशुओं के गोबर को मिलाकर केंचुओं की सहायता से बनाए हुए खाद को वर्मी कम्पोस्ट या केंचुआ खाद कहते हैं। इस विधि द्वारा कार्बनिक अवशेषों को एक लम्बे ढेर में रखकर केंचुएँ आइसीनिया फीटीडा में छोड़ दिये जाते हैं। करीब 45 दिन में वर्मी कम्पोस्ट बनकर तैयार हो जाती है।
जैविक खादें मृदा की गुणवत्ता में सुधार करने के साथ-साथ मुख्य, द्वितीय और सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता को भी बढ़ाते हैं। किसी फसल में जैविक खादों की दी गई मात्रा का केवल 30 प्रतिशत ही प्रथम वर्ष में उपयोग होता है, शेष मात्रा अगली फसल द्वारा उपयोग की जाती है। जैविक खादों में ह्यूमिक पदार्थ होने के कारण मृदा में फास्फोरस की उपलब्धता भी बढ़ जाती है।
जैविक उर्वरक
फसलों का अच्छा उत्पादन लेने में जैविक उर्वरकों का प्रयोग लाभदायक सिद्ध हो रहा है। इनमें राइजोबियम कल्चर, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, पी.एस.बी., अजोला, वैसीकुलर माइकोराइजा, नील-हरित शैवाल, बायो एक्टीवेटर आदि प्रमुख हैं। टिकाऊ खेती एवं मृदा स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिये जैविक उर्वरकों का प्रयोग अति आवश्यक है। जैविक उर्वरक कम खर्च पर आसानी से उपलब्ध हैं तथा इनका प्रयोग भी बहुत सुगम है। जैविक उर्वरकों के प्रयोग से विभिन्न फसलों की उपज में 10 से 25 प्रतिशत तक वृद्धि होती है। इनको जैविक खेती प्रबन्धन का मुख्य अवयव माना जाता है।
राइजोबियम व एजोटोबैक्टर वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन (78 प्रतिशत) को यौगिकीकरण द्वारा भूमि में जमा करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं। पी.एस.बी. मृदा में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर पौधों के लिये फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाते हैं जिससे अगली फसलों को भी लाभ पहुँचता है। इसके अलावा जीवाणु उर्वरक पौधों की जड़ों के आस-पास (राइजोस्फीयर) वृद्धि कारक हार्मोंस उत्पन्न करते हैं जिससे पौधों की वृद्धि व विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
जैविक उर्वरकों का चयन फसलों की किस्म के अनुसार ही करना चाहिए। जैविक उर्वरक प्रयोग करते समय पैकेट के ऊपर उत्पादन तिथि, उपयोग की अन्तिम तिथि व संस्तुत फसल का नाम अवश्य देख लें। प्रयोग करते समय जैविक उर्वरकों को धूप व गर्म हवा से बचाकर रखना चाहिए।
हरी खादों का प्रयोग
हरी खाद का प्रयोग करने से मृदा में कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश जैसे मुख्य तत्वों के अलावा सभी द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा व उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। हरी खाद के लिये मुख्यतः दलहनी फसलों का प्रयोग किया जाता है। इनमें सनई, ढैंचा, लोबिया, मूँग, ग्वार व सोयाबीन प्रमुख हैं। इन फसलों से हरी खाद बनाने में मात्र दो माह का समय लगता है। ये सभी फसलें अल्प-अवधि वाली व तेजी से बढ़ने वाली हैं। इन फसलों को फूल आने से पूर्व मिट्टी पलटने वाले हल की मदद से या हैरो से मिट्टी में दबा दिया जाता है।
हरी खाद की फसल को लगभग 10 दिन का समय सड़ने में लगता है। इसके बाद खेत को तैयार करके अगली फसल की बुआई व रोपाई कर दी जाती है। हरी खादों के प्रयोग से खेत में 20-30 किग्रा नाइट्रोजन आसानी से सुरक्षित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त फास्फोरस, पोटाश व सूक्ष्म पोषक तत्वों का भण्डार भी बढ़ाया जा सकता है।
बहुउद्देशीय पेड़-पौधों जैसे बबूल, नीम व ग्लीरीसीडिया की पत्तियाँ एवं टहनियों का प्रयोग भी हरी खाद के रूप में किया जा सकता है। किसान भाइयों को तीन-चार साल में एक बार हरी खाद की फसलों को अवश्य उगाना चाहिए। इससे भूमि की उर्वराशक्ति तो बढ़ती ही है साथ ही मृदा स्वास्थ्य में भी सुधार होता है।
दलहनी फसलों का प्रयोग
वर्ष में एक बार दाल वाली फसल अवश्य उगानी चाहिए। भारत की आधे से अधिक आबादी के लिये दालें न केवल पौष्टिकता का आधार हैं, बल्कि प्रोटीन और आवश्यक अमीनो अम्लों की आपूर्ति का सबसे सस्ता स्रोत भी है। साथ ही भोजन में दालों की पर्याप्त मात्रा होने से प्रोटीन की कमी से होने वाले कुपोषण को भी रोका जा सकता है। दाल वाली फसलों की जड़ों में राइजोबियम जीवाणु की गाँठें होती हैं, जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम करती हैं।
गेहूँ की कटाई के बाद मूँग की फसल लेनी चाहिए। मूँग की फलियों की दो तुड़ाई करने के बाद फसल की जुताई कर मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसके प्रयोग से मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है जो अन्ततः सड़ने के बाद मृदा में मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ द्वितीयक एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की भी आपूर्ति करती है। इससे भूमि की उर्वराशक्ति तो बढ़ती ही है। साथ ही मृदा स्वास्थ्य में भी सुधार होता है।
फसल अवशेष प्रबन्धन
साधारणतया किसान भाई फसल उत्पादन में फसल अवशेषों के योगदान को नजरअन्दाज कर देते हैं। उत्तर-पश्चिम भारत में धान-गेहूँ फसल चक्र के अन्तर्गत फसल अवशेषों का प्रयोग आम बात है। कृषि में मशीनीकरण और बढ़ती उत्पादकता की वजह से फसल अवशेषों की अत्यधिक मात्रा उत्पादित होती जा रही है। फसल कटाई उपरान्त दानें निकालने के बाद प्रायः किसान भाई फसल अवशेषों को जला देते हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य भागों में भी यह काफी प्रचलित है।
फसल अवशेषों के जलाए जाने से निकलने वाले धुएँ से पर्यावरण प्रदूषण तो बढ़ता ही है। साथ ही, धुएँ की वजह से हृदय और फेफड़े से जुड़ी बीमारियाँ भी बढ़ती हैं। फसल अवशेषों का प्रयोग जैविक खेती में करके मृदा में कार्बनिक कार्बन की मात्रा में सुधार किया जा सकता है। इसी प्रकार सब्जियों के फल तोड़ने के बाद इनके तने, पत्तियाँ और जड़ें खेत में रह जाती हैं जिनको जुताई करके मृदा में दबाने से खेत के उपजाऊपन में सुधार होता है।
फसल अवशेषों में खलियाँ, पुआल, भूसा व फार्म अवशिष्ट प्रमुख हैं। यद्यपि फसल अवशेष का पोषक तत्व प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। परन्तु अधिकांशतः फसल अवशेषों को खेत में जला दिया जाता है या खेत से बाहर फेंक दिया जाता है। फसल अवशेष पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने के साथ-साथ मृदा की भौतिक, रासायनिक और जैविक क्रियाओं पर भी अनुकूल प्रभाव डालते हैं।
खरपतवार नियंत्रण
जहाँ तक हो सके, जैविक खेती में खरपतवारों का नियंत्रण निराई-गुड़ाई द्वारा ही करना चाहिए। इसके अलावा गर्मियों में गहरी जुताई, सूर्य की किरणों द्वारा सोलेराईजेशन, उचित फसल प्रबन्धन व प्रति इकाई क्षेत्र पौधों की पर्याप्त संख्या अपनाकर खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है। साथ ही खरपतवारों को खाने वाले परजीवी व अन्य जीवाणुओं का प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा, जैविक खेती में मुख्य फसल बोने से पहले खरपतवारों को उगने का अवसर देकर भी समाप्त किया जा सकता है।
इस विधि में पहले खेत की सिंचाई कर देते हैं जिससे नमी पाकर अधिकांश खरपतवार उग आते हैं। फिर खेत में हल चलाकर इन खरपतवारों को नष्ट कर दिया जाता है। फसलों जैसे सब्जियों, फलों व कपास में ड्रिप सिंचाई तकनीक अपनाकर भी खरपतवारों के प्रकोप को कम किया जा सकता है। इस विधि में मुख्य फसल की जड़ों के आस-पास पानी बूँद-बूँद करके आवश्यकता पड़ने पर ही दिया जाता है। कभी-कभी मुख्य फसल के साथ कम अवधि वाली फसलों को अन्तःफसल के रूप में उगाकर भी खरपतवारों की संख्या को कम किया जा सकता है।
कीट एवं रोग नियंत्रण
जैविक खेती के अन्तर्गत कीट व रोगों का नियंत्रण भी जैविक साधनों द्वारा ही किया जाना चाहिए। अलग-अलग सब्जियों, फलों व फूलों वाली फसलों में विभिन्न प्रकार के कीट-पतंगे पाये जाते हैं। ये कीट-पतंगे पत्तियों, कलियों, तना एवं फलों का रस चूसते हैं या उनको कुतरकर खा जाते हैं। इससे फसलों की गुणवत्ता खराब हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप किसानों को बाजार में पैदावार का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। इसके लिये नीम की निबोली के पाउडर का एक ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव किया जा सकता है। आजकल नीमगोल्ड, नीम का तेल, निमोलीन आदि नीम वृक्ष से तैयार जैविक कीटनाशी बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं।
ट्राइकोग्रामा सब्जियों में कीड़ों की रोकथाम के लिये उत्तम पाया गया है। ट्राइकोग्रामा एक सूक्ष्म अंड परजीवी है जो तनाछेदक, फलीछेदक व पत्ती खाने वाले कीटों के अंडों पर आक्रमण करते हैं। ट्राईकोकार्ड पोस्टकार्ड की तरह ही एक कार्ड होता है जिस पर लगभग 20 हजार परजीवी ट्राईकोग्रामा पलते हैं। यह कार्ड कपास, गन्ना, धान जैसी फसलों में लगने वाले बेधक कीड़ों के नियंत्रण हेतु खेतों में लगाया जाता है।
इसी प्रकार ट्राइकोडर्मा एवं न्यूमैरिया भूमिजनित फफूँद वाली बीमारियों जैसे विल्ट, कोलर रोट व नर्सरी में पौधों का सड़ना की रोकथाम हेतु अच्छे सिद्ध हुए हैं। बीजोपचार के लिये 6 से 8 ग्राम चूर्ण प्रति किग्रा बीज व भूमि उपचार के लिये 2 से 3 किग्रा चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर व वर्मी कम्पोस्ट में मिलाकर डालने से विभिन्न भूमिजनित फफूँद रोगों की रोकथाम की जा सकती है।
जैविक खाद्य पदार्थों की प्रमुख विशेषताएँ
जैविक खाद्य पदार्थों में आमतौर पर विषैले तत्व नहीं होते हैं क्योंकि इनमें कृषि रसायनों, कीटनाशियों, पादप हार्मोन और संरक्षित रसायनों जैसे नुकसान पहुँचाने वाले पदार्थों का प्रयोग नहीं किया जाता है जबकि सामान्य खाद्य पदार्थों में कृषि रसायनों का प्रयोग किया जाता है। ज्यादातर कीटनाशियों में ऑर्गेनो-फास्फोरस जैसे रसायनों का प्रयोग किया जाता है जिनसे कई तरह की बीमारियाँ होने का खतरा रहता है।
जैविक रूप से तैयार किये गए खाद्य पदार्थ स्वास्थ्य के लिये काफी लाभप्रद हैं। सामान्य खाद्य पदार्थों की अपेक्षा इनमें अधिक पोषक तत्व पाये जाते हैं क्योंकि इन्हें जिस मिट्टी में उगाया जाता है, वह अधिक उपजाऊ होती है।
जैविक खाद्य पदार्थ शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। साथ ही इनको लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। जैविक खेती द्वारा उगाए जाने वाले फलों एवं सब्जियों में ज्यादा एंटी-ऑक्सीडेंट्स होते हैं क्योंकि इनमें कीटनाशी अवशेष नहीं होते हैं।
आजकल लोगों में एंटीबायोटिक को लेकर जागरुकता बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि खाद्य पदार्थों को खराब होने से बचाने के लिये एंटीबायोटिक दिये जाते हैं। जब हम ऐसे खाद्य-पदार्थों को खाते हैं, तो हमारा इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है। जैविक रूप से उगाए खाद्य पदार्थों की वजह से हम इस नुकसान से बच सकते हैं। इसके अलावा, जैविक खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में शुष्क पदार्थ पाये जाते हैं। साथ ही जैविक सब्जियों में नाइट्रेट की मात्रा 50 प्रतिशत कम होती है जो मानव स्वास्थ्य के लिये अच्छी है।
बाजार में प्रचलित कुछ ऑर्गेनिक ब्रांड
आजकल बाजार में कई ब्रांड के जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं जिनमें कुछ बड़े ऑर्गेनिक ब्रांडों के नामों में ऑर्गेनिक इण्डिया, प्योर एंड श्योर, फैब इण्डिया, नवधान्य, डाउन टू अर्थ, 24 मंत्रा, ग्रीन सेस, सात्विक, सन ऑर्गेनोफूड्स, ऑर्गेनिका, सनराइज, ऑर्गेनिक तत्व इत्यादि शामिल हैं। उपरोक्त के अलावा भी बाजार में कई बड़े ब्रांड उपलब्ध हैं। इंटरनेट पर इनका नाम सर्च करके इनकी वेबसाइट से अपने नजदीकी स्टोर का पता लगा सकते हैं। organicfacts.net.in और organicshop.in आदि साइट्स पर देश के जाने-माने ऑर्गेनिक फूड स्टॉल्स की जानकारी मिल सकती है जिनका हम अपनी जरूरत के अनुसार चुनाव कर सकते हैं। देश के कई बड़े रिटेल स्टोर्स जैसे रिलायंस, हाइपर सिटी, बिग बाजार, स्पेंसर्स और ईजी डे पर भी जैविक खाद्य पदार्थ मिलते हैं।
जैविक खाद्य पदार्थों की पहचान
सामान्यतः बाजार में अनेक प्रकार के फल, सब्जियाँ, मसाले, दालें, खाद्य तेल और अनाज उपलब्ध हैं जो देखने में कुछ ज्यादा ही चमकदार व ताजा लगते हैं। परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि ये सभी जैविक खाद्य पदार्थ हैं। ऑर्गेनिक खाद्य पदार्थ प्रमाणीकृत होते हैं इन पर प्रमाणीकृत लेबल लगे होते हैं। इनका स्वाद भी सामान्य खाद्य पदार्थों से थोड़ा अलग होता है। जैविक खेती से तैयार किये गए मसाले की गन्ध सामान्य मसालों की अपेक्षा तेज होती है। दूसरे, जैविक सब्जियाँ पकने में ज्यादा समय नहीं लेती हैं। जिन खाद्य पदार्थों पर नैचुरल या फार्म फ्रेश लिखा हो तो इनके बारे में यह जानना जरूरी है कि वे वास्तव में जैविक खाद्य पदार्थ हैं या नहीं। ये अपने आप में संरक्षित रसायन-मुक्त हो सकते हैं। परनतु हो सकता है कि इनमें कीटनाशियों का प्रयोग किया गया हो या वे आनुवांशिक रूपान्तरित फसल से प्राप्त किये गए हो।
जैविक उत्पादों का निर्यात
जैविक खेती से पैदा होने वाले फसल उत्पादों का निर्यात यूरोपियन संघ, अमेरिका, कनाडा, स्विट्जरलैंड, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका और अरब देशों की मंडियों में हो रहा है। इन जैविक उत्पादों की प्रमाणिकता का होना जरूरी है। जैविक खाद्य पदार्थों की प्रमाणिकता किसी भी अच्छी प्रमाणिक एजेंसी से करवाने पर निर्यात में कोई बाधा नहीं है। जैविक खेती द्वारा उगाए गए बासमती धान आदि के निर्यात की अपार सम्भावना है। इनका मूल्य भी घरेलू मंडी के मूल्य की अपेक्षा कई गुना ज्यादा मिलता है।
अन्तरराष्ट्रीय जैविक कृषि गतिविधि संघ (आई.एफ.ओ.ए.एम.) प्रमाणिक एजेंसी के मार्क से अमेरिका और यूरोप की मंडियों में व्यापार में कोई बाधा नहीं है। हर एक देश के लिये कोई एक या दो प्रमाणिक एजेंसी कार्य करती हैं। कौन-सी प्रमाणिक एजेंसी किस देश के लिये प्रमाणिकता देकर मार्क लगाती है। इसकी अधिक जानकारी एपीडा, एन.सी.यू.आई. बिल्डिंग, खेलगाँव, नई दिल्ली-110016, फोन नं. 26513504, 26514572 और 26534180 से प्राप्त की जा सकती है।
जैविक खेती व किसानों की आय
ऑर्गेनिक फूड का प्रचलन दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। जैविक खाद्य पदार्थ अपने उत्कृष्ट पौष्टिक गुणों के कारण अन्तरराष्ट्रीय बाजार में बहुत लोकप्रिय हैं। सेहत का सीधा सम्बन्ध खान-पान से है। स्वस्थ रहने के लिये लोग अब तेजी से जैविक खाद्य पदार्थ अपना रहे हैं। इन्हें सेहत के हिसाब से काफी अच्छा माना जाता है। शहरी क्षेत्रों में जैविक उत्पादों की बिक्री की अधिक सम्भावना है। साथ ही जैविक उत्पादों के निर्यात को बढ़ाकर किसानों की आय को बढ़ाया जा सकता है।
जैविक खेती में फसलों का उचित प्रकार से प्रबन्धन किया जाये तो अच्छी आमदनी प्राप्त हो सकती है। आजकल जैविक खाद्य पदार्थों में मौसमी फल व सब्जियों की ज्यादा माँग रहती है। साथ ही चावल, गेहूँ, शहद, ग्रीन टी की माँग भी दिनोंदिन बढ़ रही है। जैविक खाद्य पदार्थों की कीमत सामान्य खाद्य पदार्थों की अपेक्षा 40 से 50 प्रतिशत तक ज्यादा रहती है। सामान्यतः जैविक खाद्य पदार्थों की पैदावार सामान्य रूप से उगाए गए खाद्यपदार्थों की अपेक्षा कम है जबकि माँग अधिक है। इसके अलावा अधिकांश किसान जैविक खेती की बजाय पारम्परिक तरीके से ही खेती करते हैं। वर्षों तक कीटनाशीयुक्त खाद्य पदार्थों के खाने से सेहत खराब होने के सामने जैविक खाद पदार्थों की कीमत ज्यादा नहीं है।
जैविक खेती में प्रमाणीकरण
प्रमाणीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रमाणीकरण एजेंसी द्वारा एक लिखित आश्वासन दिया जाता है कि एक स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित उत्पादन अथवा प्रसंस्करण प्रणाली का विधिवत ढंग से मूल्यांकन किया गया है। विभिन्न राज्यों में अनेक संस्थाएँ जैविक प्रमाणीकरण का कार्य कर रही हैं।
यद्यपि देश के कई क्षेत्रों के किसान अपनी पैदावार की गुणवत्ता को प्रमाणित कराने के लिये ऐसी मान्यता प्राप्त संस्थाओं से अनभिज्ञ हैं जिनके माध्यम से पैदावार को उपभोक्ता तक पहुँचा सकें या उसका निर्यात कर सकें। इनकी सूची एवं जानकारी के लिये कृषि एवं प्रसंस्करित खाद उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) नई दिल्ली www.apeda.gov.in और राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र, http:/ncof.dacnet.nic.in की वेबसाइट देखें।
निष्कर्ष
आज देश के कई प्रदेशों में फलों व सब्जियों की जैविक खेती का भविष्य उज्जवल नजर आता है। ऑर्गेनिक फूड को लेकर लोगों में काफी जागरुकता बढ़ी है। ऑर्गेनिक फल व सब्जियाँ बाजार में मिलने वाले अन्य सामानों की अपेक्षा थोड़े अधिक दाम पर मिलते हैं। फिर भी सेहत की भलाई के लिये लोग इन्हें खरीद रहे हैं। साथ ही, जैविक खाद्य पदार्थ विदेशी मुद्रा अर्जित करने का भी मुख्य कृषि उत्पाद है।
जैविक खेती के बारे में अधिक जानकारी व उत्पादों की बिक्री के लिये सस्य विज्ञान सम्भाग, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली व राष्ट्रीय जैविक खेती केन्द्र, सेक्टर 19, हापुड़ रोड, कमला नेहरू नगर, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश-201002, फोन नं. 120-2764906 व 2764212 से सम्पर्क किया जा सकता है। इसके अलावा, किसान भाई राष्ट्रीय-स्तर पर एपीडा, नई दिल्ली, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, नई दिल्ली तथा राज्य स्तर पर जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिये खाद्य एवं प्रसंस्करण विभाग, उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभागों से जानकारी प्राप्त की जा सकती है। पूसा संस्थान, नई दिल्ली में 9-11 मार्च, 2018 को आयोजित किसान मेले में भी जैविक खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
लेखक परिचय
डॉ. वीरेन्द्र कुमार
(लेखक जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।)
ईमेल : v.kumardhama@gmail.com