मूल रूप से संरक्षण क्रियाएं दो प्रकार की हो सकती हैं - ‘इन-सीटू’ एवं ‘एक्स-सीटू’ संरक्षण। इन-सीटू से तात्पर्य है, ”इसके वास्तविक स्थान पर या इसके उत्पत्ति के स्थान तक सीमित।“ इन-सीटू संरक्षण का एक उदाहरण आरक्षित या सुरक्षित क्षेत्रों का गठन करना है। एक्स-सीटू संरक्षण की कोशिश का उदाहरण एक जर्मप्लाज्म बैंक या बीज बैंक की स्थापना करना है।
संरक्षण योजना की दृष्टि से इन-सीटू संरक्षण प्रयासों को बेहतर माना जाता है। परन्तु कई बार इस प्रकार का संरक्षण कार्य किया जाना संभव नहीं होता है। उदाहरण के लिए यदि किसी प्रजाति का प्राकृतिक आवास पूरी तरह नष्ट हो गया हो तो एक्स-सीटू संरक्षण प्रयास, जैसे एक प्रजनन चिडि़याघर का गठन, अधिक आसान होगा। वास्तव में एक्स-सीटू संरक्षण इन-सीटू संरक्षण को सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण है।
तो, क्या सब कुछ समाप्त हो चुका है? या हमारे पास अभी भी जैव विविधता को बनाए रखने के लिए एक मौका बाकी है। इस विषय की शुरूआत करने के लिए इस दिशा में इन्सानी कोशिशों को देखना बेहतर होगा।
जैव संरक्षण में परम्पराओं भूमिका
कई परम्परावादी समाजों व संस्कृतियों में, प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए अपनी योजनाएं मौजूद हैं। भारत के कई हिस्सों में, ग्रामीण लोग आज भी इनमें से कई संरक्षण योजनाओं को अपनाते हैं।
इनमें मादा पशुओं के शिकार पर पाबंदी, साल के समय विशेष में कुछ विशिष्ट प्रजातियों के शिकार या भोजन के रूप में प्रयोग से बचना (आमतौर से प्रजाति के प्रजनन काल में), धार्मिक क्रियाओं के लिए कुछ प्रजातियों का संरक्षण, वनों के कुछ भाग या जलाशयों का इलाके के मान्य देवी-देवताओं के नाम पर संरक्षण सम्मिलित हैं।
वैज्ञानिकों ने आम आदमी द्वारा संरक्षण विधियों की हमेशा सराहना की है। उन्होंने पारिस्थितिकी तंत्रों में खतरों से जूझ रही प्रजातियों को बचाने के इन रिवाजों की महत्ता को माना है। जनता की ओर से शुरू किए गए संरक्षण प्रयासों में अत्यधिक क्षमता आंकी गई है। जिन क्षेत्रों में इस प्रकार के रिवाज अपनाए जाते हैं वहां हिरन, कृष्ण मृग, मोर और चिंकारा या छोटा गरुड़ जैसे प्राणि बगैर किसी डर के घूमते नजर आते हैं और ग्रामीण अपनी दैनिकचर्या में व्यस्त रहते हैं। दुर्भाग्य से नई विकसित शहरी मान्यताएं और मानसिकताएं एवं तथाकथित वैश्विक संस्कृति ने इस प्रकार के रिवाजों को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
पवित्र प्रजातियां
वनस्पति एवं प्राणी प्रजातियों की एक बड़ी संख्या परम्परागत रूप से सुरक्षित है और भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संरक्षित की जा रही है। बहुत से जीव-जंतु देवी-देवताओं के साथ सम्बद्ध हैं और उन्हीं के साथ पूजे जाते हैं। शेर, हंस, मोर और यहां तक कि उल्लू और चूहे भी तुरन्त दिमाग में आ जाते हैं जो कि देवी दुर्गा और उनके परिवार से संबंधित माने जाते हैं जिनकी दुर्गा पूजा के दौरान पूजा होती है।
परम्परावादी लोग कभी भी तुलसी (ऑसिमम सैंक्टम) या पीपल (फाइकस बंगालेन्सिस) के पौधे को नहीं उखाड़ते, चाहे वह कहीं भी उगा हुआ हो।
प्रायः परम्परागत धार्मिक क्रियाओं या व्रत के दौरान कोई न कोई वनस्पति प्रजाति महत्वपूर्ण मानी जाती है। अधिकांश व्रत विशिष्ट वनस्पति प्रजाति से जुड़े हुए हैं। रोचक तथ्य यह है कि इनमें से कई प्रजातियां औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण हैं।
बंगाल में दीपावली से एक दिन पहले 14 विभिन्न हरी पत्तेदार सब्जियां या शाक खाना एक परम्परा है। हालांकि आज ये चौदह सब्जियां एक साथ मिलाकर पैकेट में बिकती हैं परन्तु इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि चौदह खाने योग्य प्रकारों की पहचान करना, सीखना या उन्हें उगाना एक व्यक्ति की जैव विविधता के बारे में प्रायोगिक ज्ञान को एक लाभदायक रूप में बढ़ाने में सहयक होगा।
गणचिह्न प्रजातियां
इस प्रकार की क्रियाओं की महत्ता तब स्पष्ट समझ में आती है जब हम देशी लोगों की जीवन पद्धति का अध्ययन करते हैं। बहुत से देशी लोग कुछ प्रजातियों के साथ अपनी वंश परंपरा मानते हैं। इन प्रजातियों को गणचिह्न प्रजातियां कहा जाता है। सगोत्रीय व्यक्ति अपनी गणचिह्न प्रजाति का शिकार नहीं करते, हालांकि अन्य वर्ग इनका प्रयोग साधन के रूप में करने के लिए स्वतंत्र है। एक तरह से यह साधनों का टिकाऊ बंटवारा करने का ढंग है और साधनों के लिए लड़ाई होने की संभावना घट जाती है।
सबसे आम पवित्र पशु बाघ, गाय या सांड, मोर, नाग, हाथी, बंदर, भैंस, सियार, कुत्ता, हिरन और कृष्ण मृग हैं। गणचिह्न वनस्पतियों में चावल, अनाज और चंदन की लकड़ी सम्मिलित हैं। कुछ और भी सांस्कृतिक गतिविधियां हैं जिससे सुरक्षा का दायरा बढ़ सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति की मृत्यु असामान्य परिस्थितियों में होती है तो गोत्रा के बडे़-बूढ़े इस असामान्य मृत्यु के लिए जिम्मेदार वस्तु, वृक्ष, पौधे या पशु को वर्जित घोषित कर देते हैं। हालांकि यह निषेध गोत्रा तक ही सीमित रहता है। गोत्रा के सदस्य को वंश परम्परागत निषिद्धता और गोत्रीय निषिद्धता दोनों की देखभाल करनी होती है।
पवित्र क्षेत्र
कई बार एक पूरा क्षेत्र, चाहे यह जंगल का क्षेत्र हो, पहाड़ों की चोटियां हों, नदियां, जलाशय, घास के मैदान हों या फिर बहुधा, एक अकेला वृक्ष ही किसी विशिष्ट देवी-देवता के साथ जोड़कर पवित्र बना दिया जाता है। इसकी यह प्रतिष्ठा इसे मानवीय स्वार्थसिद्धि से परम्परागत सुरक्षा प्रदान करती है। ये जैव विविधता के लिए स्वर्ग बन गए हैं।
ये पुनीत उपवन देश के विभिन्न भागों में भिन्न नामों से जाने जाते हैं। उदहरण के तौर पर केरल में इन्हें ‘कणु’ कहा जाता है। ‘देवारबन/देवारकाडु/नागवन’ कर्नाटक में इनका चर्चित नाम है, तमिलनाडु में ‘कोविलकाडु’ तो महाराष्ट्र में ये ‘देवरहाटी’ के नाम से जाने जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल में नदियों के कुछ हिस्से जिन्हें ‘मच्छियाल’ कहा जाता है, संरक्षित है। इन सुरक्षित क्षेत्रों के ऊपरी या निचले बहाव पर मछली पकड़ने पर पाबंदी होती है। हरिद्वार से ऋषिकेश के मध्य गंगा का विस्तार इसका एक उदाहरण है। भारत भर में धार्मिक क्षेत्रों से जुड़े हुए तालाब, जलप्राणियों के दृष्टिकोण से संरक्षित हैं।
पवित्र उपवन
भारत में पुनीत उपवनों की उपस्थिति 18वीं सदी के आरंभ से रिकार्ड की गई है। उदाहरण के लिए बिश्नोई जनजाति राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आज भी ‘ओरण’ नामक पुनीत उपवनों को बरकरार रखे हुए हैं। बिश्नोइयों के कानून पशुवध और पेड़ काटने को प्रतिबंधित करते हैं, विशेषकर उनके पवित्र खेजड़ी वृक्ष को। खेजड़ी के वृक्ष बालू के टीलों को दृढ़ता प्रदान करते हैं। ‘ओरण’ भारतीय चिंकारा या कृष्ण मृग को भी सुरक्षित प्राकृतिक आवास प्रदान करते हैं।
हालांकि विभिन्न स्थानों पर इन उपवनों के लिए बनाए गए नियमों में अन्तर पाए जाते हैं परन्तु इनकी कुछ बातें समान हैं। इनमें पेड़ काटने, जंगल की धरती से कुछ भी बटोरने और पशुओं के शिकार पर पाबंदी सम्मिलित है।
आज इस प्रकार के पुनीत उपवनों के अवशेष ही स्थानिक और संकटापन्न पौधों और पशुओं की प्रजातियों की अंतिम शरण स्थली हैं। ये प्रजातियों के औषधीय एवं प्राकृतिक खजानों के भंडार हैं जो उगाई जा रही किस्मों में सुधार कर सकते हैं।
सांस्कृतिक मानदण्डों का स्थायित्व
शहरी क्षेत्रों में भी, ज्यादातर परम्परागत रिवाज, दोपहर में सुबह की ओस की तरह गायब हो गए हैं। अभी भी कई तरह के नियंत्रण यादों में रचे-बसे हैं। बंगाल में देवी शोश्ती को मातृत्व की देवी माना जाता है और उसका वाहन बिल्ली को माना गया है। यह विश्वास किया जाता है कि बिल्ली के मारने वाले को देवी के कोप का भागी बनना पड़ता है और शायद ही कोई मां जानते-बूझते इस खतरे को उठाने को तैयार होती है। बिल्ली को जानबूझकर या अनजाने में मारने के प्रायश्चित के रूप में मारी गई बिल्ली के वजन के बराबर सोने की बिल्ली बनवानी पड़ती है। पुराने समय में बिल्लियां कृन्तकों (चूहे आदि) के नियंत्रण में काफी उपयोगी थी जो भंडारित अनाज को चट कर जाते थे। यह एक अलग मुद्दा है कि बिल्लियां आज स्वय पेस्ट या पीड़क बन गई जो गली-गली विचरती रहती हैं और शहरी रसोइयों से भोजन चुराती हैं।
यह वास्तव में आश्चर्यजनक है कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने अपने विश्वासों को अपने खुद के अस्तित्व के लिए संजो कर रखा था। समय के साथ हल्के पड़ते और बदलते सांस्कृतिक मानदण्डों के बावजूद उन विश्वासों के अवशेष आज भी पशुओं एवं वनस्पतियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। जब आज के टिकाऊपन की गूंज के संदर्भ में इनका आकलन किया जाता है तो ये विश्वास इस संदर्भ को सदियों पहले से लेकर चलते हुए नजर आते हैं।
हम भारतीय ही अकेले नहीं थे। पूरी दुनिया में जमीन से जुड़े देशी लोगों ने प्रकृति का सम्मान किया और उसे अपनी आवश्यकता के लिए उपयोग किया न कि लालच के लिए। उदाहरण के लिए जाम्बिया के कुछ आदिवासी जनजातियों में मान्यता है कि एक शहद भरा छत्ता मिलना अच्छे भाग्य का सूचक है। दो छत्ते मिलना सौभाग्य है परन्तु तीन छत्ते मिलना जादू-टोना माना जाता है। इससे आत्म-नियंत्रण पैदा होता है। यह प्राकृतिक संसाधनों के अधिक दोहन पर लगाम कसने का तरीका है। इससे कोई भी प्रजाति नष्ट नहीं होगी और इस प्रकार जैव विविधता को संरक्षण भी मिलता रहेगा है।
वर्तमान चुनौतियों के साथ संरक्षण के प्रयास
आज सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक शहरी संस्कृति के बढ़ते दायरे और हमेशा फैलती हुई बाजारी अर्थव्यवस्था के कारण परम्परागत ज्ञान एवं रिवाज समाप्त होते जा रहे हैं। इन दबावों ने कई समुदायों को अपनी पहचान खोने, जिनसे संरक्षण क्रियाएं जीवित थीं, और अपने पवित्र उपवनों में अल्पकालिक लाभ के लालच में संसाधनों को नष्ट करने के लिए विवश कर दिया है। एक नई पीढ़ी में परम्पराओं और विश्वासों के लिए सम्मान नहीं है और अधिकतर युवा इन परम्परागत रिवाजों को अंधविश्वास के रूप में ही देखते हैं।
सौभाग्यवश, भारत में बहुत से संरक्षणकर्ता, समुदाय, सरकार और गैर-सरकारी संस्थाएं यह जान चुके हैं कि विकास; प्रगति एवं आधुनिकता एवं परम्परागत रिवाजो के साथ-साथ चल सकता हैं। यह विचार तेजी से फैलता जा रहा है कि आधुनिक तंत्र में परम्परागत ज्ञान का होना बहुत आवश्यक है, अनुभवों से साबित हुआ है कि यह संभव है।
भारत के पवित्र उपवनों की सुरक्षा का विचार गति पकड़ता जा रहा है। विद्यालयों एवं समुदायों में पुनीत उपवन जागृति अभियान चलाए जा रहे हैं जिससे लोगों को जैव विविधता के संरक्षण के महत्व के बारे में शिक्षित किया जा सके और परम्पराओं के पुनः प्रचलन को बढ़ावा दिया जा सके।
एन.सी.एल. जैव विविधता सूचना केन्द्र एक वेब-अन्तरापृष्ठीय मल्टीमीडिया डाटाबेस तैयार कर रहा है जिससे पवित्र उपवनों की जैविविधता के स्तर को संग्रहित किया जा सके। इसमें संस्कृति एवं परम्पराएं, संरक्षण इतिहास और इनके साथ जुड़ी वर्जनाओं एवं कथाओं को भी सम्मिलित किया जाएगा।
जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र
जीवमण्डल आरक्षित क्षेत्र का कार्यक्रम 1971 में यूनेस्को के ‘आदमी और जीवमण्डल’ कार्यक्रम के अन्तर्गत आरंभ किया गया था। इस आरक्षित क्षेत्र के निर्माण का उद्देश्य जीवन के सभी प्रकारों का उनकी प्राकृतिक स्थिति में संरक्षण करना और साथ ही इनका अवलंब प्रदान करने वाले तंत्र का भी इसकी संपूर्णता के साथ संरक्षण करना है जिससे यह प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों में बदलावों पर नजर रखने और उनके मूल्यांकन करने के लिए एक संदर्भ तंत्र की तरह कार्य कर सके। विश्व का प्रथम जीवमण्डल रिजर्व 1979 में स्थापित किया गया था और उसके बाद यह दुनिया भर के 95 देशों में 425 स्थानों तक फैल चुका है। वर्तमान में भारत में 14 जीवमण्डल रिजर्व स्थापित हैं।
भारत और जैव विविधता
भारत में जंगल, वन्यजीव आदि से संबंधित अनेक कानून हैं। उदाहरण के लिए हमारे पास भारतीय वन्य अधिनियम, 1927 है, वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 है और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 भी है।
भारत में जीवमण्डल रिजर्व की सूची
क्र. सं. | नाम | स्थापना दिनांक | क्षेत्रफल (वर्ग कि.मी. में) | स्थिति |
1 | अचानकामर - अमरकंटक | 2005 | 3835.51 (अभ्यन्तर 551.55 एवं मध्यवर्ती 3283.86) | म.प्र. के अनूपुर और डिंडोरी जिलों और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के कुछ भागों को मिलाकर बना है। |
2 | अगस्त्यमलाई | 12.11.2001 | 1701 | केरल की नेय्यार, पेप्पारा और शेन्डर्नी वन्यजीव अभ्यारण्य और उनके आसपास का क्षेत्र। |
3 | देहांग-दिबांग | 02.09.1998 | 5111.50 (अभ्यन्तर 4094.80 एवं मध्यवर्ती 1016.70) | अरूणाचल प्रदेश की सियांग और दिबांग घाटियों का भाग। |
4 | डिब्रू-साइखोवा | 28.07.1997 | 765 (अभ्यन्तर 340 एवं मध्यवर्ती 425) | डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया जिलों (असम) के कुछ हिस्से। |
5 | ग्रेट निकोबार | 06.01.1989 | 885 (अभ्यन्तर 705 एवं मध्यवर्ती 180) | अण्डमान एवं निकोबार के सबसे दक्षिणी द्वीप। |
6 | मन्नार की खाड़ी | 18.02.1989 | 10500-खाड़ी का कुल क्षेत्र (द्वीपों का क्षेत्रफल 5.55) | भारत और श्रीलंका के मध्य मन्नार की खाड़ी का भारतीय हिस्सा (तमिलनाडु)। |
7 | कंचनजंघा | 07.02.2000 | 2619.92 (अभ्यन्तर 1819.34 एवं मध्यवर्ती 835.92) | कंचनजंघा पहाड़ों और सिक्किम के भाग। |
8 | मनास | 14.03.1989 | 2837 (अभ्यन्तर 391 एवं मध्यवर्ती 2446) | कोकराझार, बोंगईगांव, बारपेटा, नलबरी, काम्परूप और दरांग जिलों (असम) के भाग। |
9 | नन्दा देवी | 18.01.1988 | 5860.69 (अभ्यन्तर 712.12 एवं मध्यवर्ती 5148.570 तथा परिवर्ती 546.34) | उत्तरांचल के चमोली, पिथौरागढ़ एवं बागेश्वर जिलों के हिस्से।
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10 | नीलगिरी | 01.09.1986 | 5520 (अभ्यन्तर 1240 एवं मध्यवर्ती 4280) | वायानाड, नागरहोल, बान्दीपुर एवं मधुमलाई, नीलाम्बर, साइलेन्ट घाटी तथा सिरूवनी पहाड़ (तमिल नाडु, केरल एवं कर्नाटक)
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11 | नोकरेक | 01.09.1988 | 82 (अभ्यन्तर 47.48 एवं मध्यवर्ती 34.52) | मेघालय के गारो पहाड़ों के भाग। |
12 | पचमढ़ी | 03.03.1999 | 4926 | मध्य प्रदेश के बैतूल, होशंगाबाद एवं छिन्दवाड़ा जिलों के भाग। |
13 | सिमलीपाल | 21.06.1994 | 4374 (अभ्यन्तर 845 एवं मध्यवर्ती 2129 और परिवर्ती 1400) | उड़ीसा के मयूरगंज जिले का हिस्सा। |
14 | सुन्दरवन | 29.3.1989 | 9630 (अभ्यन्तर 1700 एवं मध्यवर्ती 7900) | गंगा और ब्रह्मपुत्रा नदी तंत्रों के डेल्टा का भाग। (पश्चिम बंगाल)। |
भारत जैविक विविधता सम्मेलन (1992) में भागीदारी करने वाला देश भी है। केन्द्र सरकार द्वारा जैविक विविधता अधिनियम, 2002 प्रस्तुत किया गया है।
इसकी निम्न प्रमुख विशेषताएं हैं:
(i) देश के जैविक संसाधनों की अभिवृद्धि का नियमन जिससे जैविक संसाधनों के प्रयोग से प्राप्त लाभों का समान बंटवारा हो सके; एवं जैविक संसाधनों से संबंधित ज्ञान में वृद्धि हो सके।
(ii) जैव विविधता को संरक्षित और टिकाऊ विधि से प्रयोग करना।
(iii) जैव विविधता से संबंधित क्षेत्रीय समुदायों के ज्ञान का सम्मान एवं सुरक्षा करना।
(iv) क्षेत्रीय लोगों के साथ लाभों के समान बंटवारे की सुरक्षा करना, जो स्वयं जैविक संसाधनों के संरक्षक हैं और जैविक संसाधनों के उपयोग से संबंधित ज्ञान एवं सूचनाओं को जानने वाले हैं।
(v) जैविक विविधताओं के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण क्षेत्रों को जैविक विविधता विरासत क्षेत्र घोषित कर इनका संरक्षण एवं विकास करना।
(vi) संकटग्रस्त प्रजातियों की सुरक्षा और पुनर्वास की व्यवस्था।
(vii) जैविक विविधता के कार्यान्वयन की वृहद योजना में राज्य सरकारों के संस्थानों को सम्मिलित करना।
वास्तविक अभिलेख
डिजिटल युग के आगमन के साथ ही धरती पर पाई जाने वाली प्रजातियों के विशुद्ध अभिलेखों को रखने के लिए लम्बे-चैड़े डाटाबेस तैयार किए जा रहे हैं। इस प्रकार के कई डाटाबेस में से कुछ जाने-माने निम्न हैं:
‘विश्व जैव विविधता डाटाबेस’ (डब्ल्यू.बी.डी.) एक लगातार बढ़ता हुआ वर्गीकरण संबंधी डाटाबेस एवं सूचना तंत्र है जो आपको जीवों के अनेकों प्रकार दर्शाने वाले प्रजातीय बैंकों को ऑनलाईन सर्च एवं ब्राउज़ करने की सुविधा प्रदान करता है। डब्ल्यू.बी.डी. के माध्यम से सुगम्य 20 प्रजातीय बैंक वर्गीकरण सम्बन्धी सूचनाएं, प्रजाति का नाम, उपनाम, विवरण, चित्राण और संदर्भों की सूची उपलब्ध कराने के साथ ही ऑनलाइन पहचानने के ढंग और इन्टरएक्टिव भौगोलिक सूचना तंत्र भी उपलब्ध कराते हैं।
‘समस्त प्रजाति तालिका’ का लक्ष्य हमारी वर्तमान पीढ़ी के दायरे में मौजूद पृथ्वी की प्रत्येक जीवित प्रजाति को अभिलेखित करना और इनके जीनीय नमूने प्राप्त करना है। समस्त प्रजाति तालिका का सिद्धांत है, ”यदि हम किसी अन्य ग्रह पर जीवन की खोज करते तो सबसे पहले हम उस ग्रह के जीवन की एक व्यवस्थित तालिका या सारणी तैयार करते। यह वह चीज है जिसे हमने अपने स्वयं के ग्रह पर ही कभी नहीं किया।“
‘आर्काइव’ का मूल लक्ष्य है, ‘पृथ्वी पर जीवन का चित्राण’ यानी 16,119 से अधिक प्राणियों, पौधों एवं शैवालों, जो विलुप्त होने के खतरे में हैं, के जितने संभव हो उतने श्रव्य-दृश्य अभिलेख तैयार करना।“ इस संकल्पना को क्रिस्टोफर पारसन्स ओबी. ई., बी.बी.सी. प्राकृतिक इतिहास इकाई के पूर्व अध्यक्ष ने सबसे पहले रखा।
यह एक गंभीर विचार है कि यदि हम अपनी बची-खुची जैव विविधता को बचाने के लिए अभी जागृत नहीं हुए तो शायद जब हम अपने गैर-इन्सानी भाइयों के पीछे-पीछे शाश्वत विस्मृति का हिस्सा बनें उस समय बस ये वास्तविक तालिकाएं ही बची रह पाएं।