जीवन का कलैण्डर
उपरोक्त सारणी के अनुसार कालावधि वास्तव में बहुत विशाल है। लेकिन यदि प्रकृतिविद् डेविड एटनबरो द्वारा उनकी पुस्तक ‘लाईफ ऑन अर्थ’ में प्रस्तुत किए गए समय के पैमाने को अपनाया जाए तो गुजरे वक्त के विस्तार को सरलता से समझा जा सकता है। उनके अनुसार यदि हम एक ऐसे कलैण्डर को अपनाएं जिसमें साल का हर दिन 10 करोड़ वर्ष के बराबर हो तो इस हिसाब से हम यह याद रख सकते हैं कि धरती पर मानव की उत्पत्ति 31 दिसम्बर की शाम को हुई थी। इस प्रकार से विभेद करने पर आसानी से घटनाओं को याद रखा जा सकता है।
जीवन पथ
अब सवाल यह उठता है कि आखिर पृथ्वी का आग के गोले के रूप में टूटकर अलग होने के बाद से 31 दिसम्बर तक, जब हम एक प्रजाति के रूप में अस्तित्व में आए,
भूवैज्ञानिक समय मापक्रम
महाकल्प | युग | काल | प्रारम्भ (लाख वर्ष पूर्व) |
फैनिरोजॉइक | सीनोजॉइक | नियोजीन (मायोसीन/प्लायोसीन/ प्लीस्टोसीन/ होलोसीन) | 230.0 |
पैलियोजीन | (पैलियोसीन/इयोसीन/ओलिगोसीन) | 655.0 | |
| मीसोजॉइक | क्रिटेशियस | 1455.0 |
|
| जुरैसिक | 2000 |
|
| ट्राइएसिक | 2510 |
| पैलियोजॉइक | परमियन | 3000 |
|
| कार्बोनीफेरस (मिसिसिपियन/पैनसिल्वेनियन) | 3590 |
|
| डेवोनियम | 4160 |
|
| सिलूरियन | 4440 |
|
| ऑर्डोविसियन | 4880 |
|
| कैम्ब्रियन | 5420 |
प्राटीरोजॉइक | नियोप्रोटीरोजॉइक | ईडियाकेरन | 6300 |
की दूरी तय करने के लिए कौन सा रास्ता अपनाया होगा। इसका कोई आसान सा जवाब भी नही है और जब तक पृथ्वी सूरज की तरह आग का गोला बनकर नष्ट नहीं हो जाती, तब तक इस सवाल का कोई एक जवाब हो भी नहीं सकता। इस बीच हम पीछे मुड़कर देखते हैं और यह अनुमान लगाने का प्रयास करते हैं कि शुरूआती दिनों में आरंभिक जीवन को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा होगा।
आरंभिक धरती
इस नए ग्रह के आरंभिक काल में परिस्थितियां आज की स्थितियों से पूरी तरह से अलग थीं। वायुमण्डल में हाइड्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, अमोनिया और मीथेन का बोलबाला था पर यह गैसीय आवरण झीना था। आज के जीवन को कायम रखने वाली ऑक्सीजन का अंश भी उस समय नहीं था। समय के साथ-साथ जलवाष्प सघन हुए और समुद्रों का निर्माण हुआ परन्तु इनका पानी शुरूआती दौर में गरम हुआ करता था। विशालकाय ज्वालामुखी अपने अंदर से राख और लावा उगलते रहते थे और पराबैंगनी किरणों की प्राणघातक मात्रा नए ग्रह पर कहर ढा रही थी। सभी परिस्थितियां जीवन के प्रतिकूल थीं, जैसा कि ऊपरी विवरण से हम समझ सकते हैं। परन्तु धीरे-धीरे स्थितियां बदलीं।
ऐसा माना जाता है कि वायुमण्डलीय गैसों, जलवाष्प, पराबैंगनी विकिरणों और कड़कती बिजली से प्राप्त विद्युत आवेश के परस्पर सम्पर्क में आने से शर्करा, वसा, न्यूक्लिक अम्ल और अमीनो अम्लों जैसे अधिक संश्लिष्ट अणुओं का रासायनिक संश्लेषण हुआ। धीरे-धीरे, लाखों वर्षों के बीतने के साथ, इन रसायनों की मात्रा बढ़ती चली गई। इन अणुओं के बीच आपस में और एक दूसरे के बीच अधिकाधिक पारस्परिक क्रियाएं होती रहीं और जल्द ही इनकी सान्द्रता उस स्तर पर पहुंच गई जिसे डार्विन ने ‘एक छोटा गर्म तालाब’ कहा था या जिसे ‘प्राइमोर्डियल सूप’ या मूल रस कहा गया।
प्राईमोर्डियल सूप
सूप के अन्दर संश्लिष्ट या जटिल अणु, विशेषकर प्रोटीन एवं न्यूक्लिक अम्ल मौजूद थे जो कुछ सामान्य संघटकों की लम्बी श्रृंखला से मिलकर बने थे। अमीनो अम्ल आपस में श्रृंखला की तरह जुड़कर पॉलीपेप्टाइड का निर्माण करते और एकाधिक पॉलीपेप्टाईड आपस में जुड़कर प्रोटीन बनाते। इसी तरह एक शर्करा का अणु, राइबोज या डीऑक्सीराइबोज, लाक्षणिक रूप से फॉस्फोरस एसिड अणु और एक नाइट्रोजनी आधार के साथ संयुक्त होकर एक न्यूक्लियोटाईड की रचना करता। इस प्रकार के न्यूक्लियोटाइड्स के आपस में जुड़ने से न्यूक्लिक अम्ल के एक तंतु का निर्माण होता है। इस दौर में संभावनाएं अत्यधिक थीं, अवसर असीमित थे और घटनाओं के घटने के लिए काल बहुत विशाल था।
क्षमतावान अणु
इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि धरती के शुरूआती दिनों में निर्मित विभिन्न प्रकार के तत्वों में से डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड, जिसे संक्षेप में डीएनए कहा जाता है, की उत्पत्ति ही जीवन की उत्पत्ति की दिशा में गति प्रदान करने वाली थी। डीएनए खुद को गुणित करने में सक्षम था और आज भी है। यह अमीनो अम्लों और इस हिसाब से प्रोटीनों, के निर्माण के लिए ब्लू प्रिंट की तरह कार्य कर सकता था। जीवन के उद्भव के लिए आवश्यक वातावरण तैयार हो चुका था परन्तु दुख की बात ये है कि इस अति महत्वपूर्ण घटना पर प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए कोई बुद्धिमान गवाह मौजूद नहीं था।

वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि अणुओं की स्वतः प्रवर्तित पारस्परिक क्रियाओं के कारण कुछ बहुलक आपस में जुड़े और एक कोश जैसी संरचना का निर्माण हुआ। ये कोश पानी में अघुलनशील थे और कुछ रसायनों के लिए अर्ध पारगम्य थे। इस प्रकार कोश का भीतरी भाग एक स्वतः पूर्ण क्षेत्र था जिसके अन्दर स्वतःप्रवर्तन से निर्मित बड़े अणु संचित रह सकते थे। समय के साथ ये बड़े अणु कोशिकीय अंगों में विकसित हो गए। यह भी माना जाता है कि ‘कार्यकारी अणुओं’ (प्रोटीन, उत्प्रेरक) और ‘सूचना अणुओं’ (न्यूक्लिक अम्ल) के कोशों में भी परस्पर सामंजस्य हुआ होगा जिसके फलस्वरूप पहले ‘प्री-साईट’ (एक तरह की कोशिका की पूर्वज संरचना) का जन्म हुआ।
दूसरे मत के अनुसार कुछ बड़े तथाकथित ‘जीवों’ द्वारा छोटे ‘जीवों’ को निगल लिया गया होगा। इन छोटे जीवों में ऑक्सीजन को उपयोग करने की क्षमता थी और ‘मेहमान’ की क्षमता पर ‘मेजबान’ की निर्भरता के बदले उसे पोषण प्रदान किया जाने लगा। समय के साथ ये ‘मेहमान’ कोशिकांग बन गए जिनका कोशिका से अटूट संबंध हो गया।
आरंभिक जीवन
इस प्रकार की जटिलताओं वाली कोशिकाएं लगभग 1200 लाख वर्ष पूर्व सामने आई थीं। एटनबरो के कलैण्डर के अनुसार ऐसा सितम्बर की शुरूआत में हुआ। और अक्टूबर में, यानि 800-1000 लाख वर्ष पूर्व, जीवन का अगला विकसित रूप, स्पॉन्ज, प्रकट हुआ और इसके बाद तो जैसे एक विस्फोट हुआ और धरती पर विभिन्न प्रकार के अकशेरूकियों की उत्पत्ति हुई।
मतों का ढेर
वास्तव में हम नहीं जानते कि कई वर्षों पूर्व ये पृथ्वी कैसी थी। इस बारे में बहुत से मत सामने आए। ज्यादा बहस इस बात पर केन्द्रित रही है कि उस काल में पृथ्वी का वायुमंडल कैसा रहा होगा और जीवन की उत्पत्ति किस प्रकार हुई होगी।
आरंभिक जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती पर जीवन स्वतः ही उत्पन्न हो गया। यूनानी दार्शनिक-वैज्ञानिक अरस्तू और अन्य का उस समय मानना था कि एफिड या मांहू (एक छोटा कीट) की उत्पत्ति उस ओस से हुई है जो पौधों पर गिरती है। उनका यह भी मानना था कि पिस्सू सड़ी-गली चीजों से पैदा हुए हैं और चूहे गन्दी घास से। परन्तु 1668 में इतालवी फिजिशियन फ्रैन्सेस्को रेडी ने साबित किया कि जब मक्खियों के अण्डे देने से मांस को बचाया गया तो उसमें कीड़े अथवा मैगट नहीं पड़े। सत्राहवीं शताब्दी के बाद से यह मत प्रभावी होने लगा कि कम से कम सभी आसानी से नजर आने वाले जीवों/प्राणियों को यदि लें तो प्रत्येक जीव की उत्पत्ति पहले से मौजूद अन्य जीव से कैसे हुई?
आखिर धरती पर जीवन की पहली शुरूआत कैसे हुई? इस सवाल का जवाब अभी भी स्पष्ट नहीं है। इसे जानने का सर्वोत्तम रास्ता यही है (चूंकि गुजरे वक्त के सफर पर जाना संभव नहीं है) कि प्रारंभिक धरती पर मौजूद परिस्थितियों की प्रतिकृति तैयार करने की कोशिश की जाए और देखें, शायद हम उन स्थितियों को एक परखनली में उतार सकें।
धरती की आरंभिक स्थितियों का प्रायोगिक प्रतिरुप
सन् 1936 में सोवियत संघ के जीव विज्ञानी ए.आई.ओपेरिन ने अपनी पुस्तक ‘द ऑरिजिन आफ लाइफ ऑन अर्थ’ में बताया कि ऑक्सीजन रहित वायुमण्डल में सूर्य के प्रकाश की क्रिया से कार्बनिक अणुओं को निर्मित किया जा सकता है। उनके अनुसार ये अणु कहीं अधिक जटिल रूप में आपस में जुड़ जाते हैं और फिर घुलकर एक बूंद में परिवर्तित हो जाते हैं। ये बूंद अन्य बूंदों से जुड़कर आकार बढ़ाती है और विखण्डन की क्रिया द्वारा छोटी-छोटी (पुत्री) बूंदों में बंटकर ‘प्रजनन’ करती है। लगभग इसी काल में, ब्रिटिश जीवविज्ञानी जे.बी.एस.हैल्डेन ने सुझाव दिया कि धरती पर जीवन से पहले के महासागरों, जो आज के महासागरों से बिल्कुल अलग थे, ने ‘गर्म हल्के सूप’ का निर्माण किया होगा जिसमें जीवन निर्माण के आधार तत्वों (कार्बनिक यौगिकों) का निर्माण हुआ होगा। इस विचार को बायोपॉईसिस कहा गया जिसका तात्पर्य है वह क्रिया जिसमें अजीवित स्वतःप्रतिरूपित अणुओं से जीवित पदार्थ की उत्पत्ति हो।
अमेरिकी रसायनज्ञ स्टैनले मिलर ने पृथ्वी के प्रारंभिक वायुमण्डल पर तडि़त के प्रभाव को जानने के लिए प्रयोग तैयार और निष्पादित किए। उन्होंने पृथ्वी के वायुमण्डल के आरंभिक संघटन से मिलते-जुलते मिश्रण में एक विद्युत चिंगारी छोड़ी। यह विद्युत् मीथेन, पानी, अमोनिया और हाइड्रोजन (प्रारंभिक धरती के वायुमण्डल के समान) के गैसीय मिश्रण से गुजरी। इससे अमीनो अम्लों के एक मिश्रण की उत्पत्ति हुई। अब हम जानते हैं कि अमीनो एसिड द्वारा ही प्रोटीन का निर्माण होता है जो जीवन का

धरती पर जीवन का मूल सुदूर अंतरिक्ष में?
ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो जीवन की उत्पत्ति के लिए ‘पैनस्पर्मिया’ में विश्वास करते हैं। पैनस्पर्मिया सिद्धांत के अनुसार धरती पर जीवन सुदूर अंतरिक्ष से पहुंचा है। हाल के समय में, ब्रिटिश खगोलज्ञ फ्रैड हॉयल और श्रीलंकाई गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ चन्द्रा विक्रमसिंघे ने इस सिद्धांत को अपनी स्वीकृति दी है। वास्तव में पैनस्पर्मिया यह व्याख्या नहीं करता कि जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई; यह सिर्फ उत्पत्ति के फोकस को धरती से दूर कर देता है।
जीवन की उत्पत्ति कैसे और कहां हुई, इस विषय पर अनेक मत होने के बावजूद इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि जीवन का आरंभ पृथ्वी पर ही हुआ और उपलब्ध सभी साक्ष्य यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि जीवन की उत्पत्ति जल में हुई और यह कि प्राणियों से पहले वनस्पतियों का निर्माण हुआ।
जीवाश्मों की खोज
गुजरे हुए भूवैज्ञानिक काल के किसी जीव के अवशेष या किसी प्रकार के संकेत अथवा निशान जीवाश्म कहलाते हैं। जीवाश्म एक कंकाल हो सकता है या फिर भूपटल पर जड़ी हुई और परिरक्षित कोई छाप भी। भूवैज्ञानिक समय मापक्रम को बांटने में बहुधा जीवाश्म महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उदाहरण के लिए डेवोनियन काल को मछलियों का काल कहा जाता है क्योंकि इसी समय के दौरान मछलियों का विकास हुआ था। डेवोनियन के अन्त में पौधों में विकास एवं वृद्धि शुरू हो गई थी। इसे कार्बोनीफेरस काल की शुरूआत के लिए बतौर निशान तय किया गया। जीवन की उपस्थिति के सर्वाधिक पुराने साक्ष्य 3.5 से 3.8 अरब वर्ष पहले के पाए गए हैं।
सबसे पुराने वास्तविक जीवाश्म आस्ट्रेलिया के वारावूना क्षेत्र में पाए गए हैं। इन जीवों में जीवाणु सम्मिलित हैं जिनमें स्वपोषी (ऐसे जीवाणु जिनमें स्वयं के भोजन निर्माण करने की क्षमता होती है) और परपोषी जीव (जो अपना भोजन निर्माण नहीं कर सकते) दोनों ही सम्मिलित हैं। इनकी उपस्थिति हमें अतीत को वैज्ञानिक नजरिए से देखने की गुंजाइश प्रदान करती है।
अप्रत्यावर्तन बिन्दु (द पाइंट आफ नो रिर्टन)
सबसे आरंभिक जीव जलचर थे। ये अपने चारों ओर के पानी से आवश्यक पोषक तत्वों को अवशोषित करते थे। यह माना जाता है कि आदिम जीवाणु युवा धरा पर एकत्रा कार्बन यौगिकों को खाकर अपनी गुजर करता था। परन्तु उनकी संख्या में विस्फोटक वृद्धि ने उपलब्ध संसाधनों की कमी पैदा कर दी होगी। कोई भी जीवाणु जो एक नए खाद्य स्रोत को उपयोग कर सके, अत्यधिक सफल होने वाला था और कुछ सफल भी हो गए। अपने चारों ओर मौजूद रसायनों पर निर्भर रहने की बजाए उन्होंने सौर ऊर्जा एवं हाइड्रोजन को प्रयोग कर अपना स्वयं का भोजन निर्मित करना आरंभ कर दिया। पृथ्वी पर मौजूद ज्वालामुखीय गतिविधियों के चलते हाइड्रोजन की कोई कमी न थी।

प्रकाश संश्लेषण और पूर्वसूचना
प्रकाश संश्लेषण शब्द दो शब्दों, प्रकाश एवं संश्लेषण से मिलकर बना है, जिसमें संश्लेषण का अर्थ है जोड़ना या साथ रखना। ये दरअसल कार्बन डाइऑक्साइड, पानी और अकार्बनिक लवणों से सूर्य के प्रकाश को ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रयुक्त करते हुए हरे पौधों में पाए जाने वाले हरे रंग के क्लोरोफिल नामक पदार्थ की मदद से, कार्बोहाइड्रेट जैसे जटिल कार्बनिक तत्वों के निर्माण की प्रक्रिया है। प्रकाश संश्लेषण की अधिकांश क्रियाओं में ऑक्सीजन एक उपोत्पाद के रूप में मुक्त होती है।
जीवाणु एवं प्रकाश संश्लेषण
प्रकाश संश्लेषण में सक्षम जीवाणु स्पष्ट रूप से हरे पौधों से अलग होते हैं। वे ऑक्सीजन मुक्त नहीं करते; बैंगनी और हरे सल्फर जीवाणु में हाइड्रोजन की प्राप्ति हाइड्रोजन सल्फाइड से होती है और सल्फर उपोत्पाद के रूप में पैदा होता है। आज भी प्रकाश संश्लेषण करने वाले इन पहले जीवाणुओं से दूर के वंशज गंधक के गर्म झरनों के आस-पास पाए जाते हैं।
परन्तु वास्तव में ज्वालामुखी गतिविधियों और गर्म झरनों पर निर्भरता से जीवों को मुक्ति तब मिली जब इनमें से कुछ ने हाइड्रोजन प्राप्त करने के लिए पानी का उपयोग करना शुरू किया। ये जीव जीवाणु से कुछ अधिक विकसित थे - ये थे नीले-हरे शैवाल।
प्रकाश संश्लेषण और शैवाल

वायुमण्डलीय ऑक्सीजन की शर्तों पर जीवन
नीले-हरे शैवालों से पहले पृथ्वी के वायुमण्डल में ऑक्सीजन मुक्त रूप से उपलब्ध नहीं थी। अब जीवों को इस नए ऑक्सीजन मय वायुमण्डल से तारतम्य बैठाने के लिए रासायनिक और जैविक बदलाव विकसित करना बाध्यता हो गई। वे या तो ऐसे क्षेत्रों में बसना शुरू हो गए जहां ऑक्सीजन नहीं थी या उनमें इसे प्रयोग करने की विधियां विकसित हो गईं। नीले-हरे शैवाल ने इसका उपयोग श्वसन क्रिया में करना आरंभ कर दिया। आज ऑक्सीजन वही गैस है जिससे हम सब सांस लेते हैं।
वायुमण्डल में मुक्त ऑक्सीजन अणु सौर विकिरण के प्रभाव के चलते बहुधा ऑक्सीजन के दो अकेले अणुओं में टूट जाता है। यह अकेला नया ऑक्सीजन अणु आक्सीजन (O2) अणु के साथ जुड़कर ओज़ोन (O3) का निर्माण करता है। इस प्रकार ओज़ोन के क्रमिक रूप से एकत्रा होने के कारण लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में ओज़ोन परत का निर्माण हुआ। यह एक सुरक्षा आवरण है जो आज हमें घातक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करता है।
यहां रोचक तथ्य यह है कि पराबैंगनी किरणें नीले-हरे शैवालों की उत्पत्ति के लिए वातावरण तैयार करने में महत्वपूर्ण रही थीं। यह तो इन शैवालों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया का विकसित होना था जिससे जीवन का एक नया मार्ग खुला। एटनबरो के कलैण्डर के मुताबिक यह समय कहीं अगस्त के दूसरे सप्ताह के आसपास रहा होगा।
विकास ने अगली क्रांतिकारी छलांग लगाई और एककोशीय जीवों का उद्भव हुआ जिन्हें हम प्रोटोज़ोआ के रूप में वर्गीकृत करते हैं। परन्तु कोई नहीं जानता कि ये कैसे और कब हुआ।
एक से अनेक
समय बीतने के साथ शैवालों के नए प्रकार सामने आए। भूरे शैवाल, लाल शैवाल और हरे शैवाल इनमें सम्मिलित थे। शैवालों के इन नए रूपों ने विभिन्न तीव्रता वाले प्रकाश को उपयोग किया जो गहरे पानी तक पहुंच सकता था और इस तरह ये अधिक गहराइयों पर स्थापित हो गए। 8,000-12,000 लाख वर्ष पुराने लाल शैवाल के जीवाश्म और 14,000 लाख वर्ष पुराने भूरे शैवाल के जीवाश्म ज्ञात किए जा चुके हैं।

यहां पाए गए कई जीवाश्मों को वर्गीकृत कर पाने में वैज्ञानिक सफलता हासिल नहीं कर सके। जाने-माने वैज्ञानिक स्टीफन जे गोल्ड ने इस पर विचार प्रस्तुत किया कि जीवाश्मों में असाधारण विविधता यह दर्शाती है कि उस समय के जीवन प्रकारा में आज से कहीं अधिक विविधता थी और कई विलक्षण वंशावलियां विकास के दौरान प्रायोगिक तौर पर विकसित र्हुईं और विलुप्त हो गईं।

जल से थल तक





जमीन पर पहले पौधे
ओमान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में खोदे गए कुओं से प्राप्त सूक्ष्म जीवाश्म पानी से जमीन पर पहुंची प्रथम वनस्पतियों के बारे में महत्वपूर्ण सुराग प्रदान करते हैं। ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय के चाल्र्स वैलमैन और उनके सहयोगी पीटर ऑस्टरलॉफ एवं उज्मा मोहिउद्दीन द्वारा जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलाता है कि आज से लगभग 4,750 लाख वर्ष पूर्व वनस्पति जगत ने जमीन पर अपनी जड़ें जमाना शुरू कर दिया था। पहले जमीनी पौधे ऑर्डोविसियन काल में आए थे और ये आज के लिवरवर्ट से मिलते-जुलते थे।
शुरूआती जमीनी वनस्पतियां आकार में सूक्ष्म और देखने में पर्णांग या फर्न जैसी थीं। धरती ने इन्हें कई नए मौके दिए पर यहां कई चुनौतियां भी थीं। जो प्रजातियां यहां जीवन की शुरूआत कर रही थीं उन्हें आवश्यकता थी यहां टिकने की, पानी की लगातार आपूर्ति की और खनिज एवं पोषण अवशोषित करने की क्षमता विकसित करने की।
जमीन पर बसावट की प्रक्रिया
जमीन पर बसावट का काम रातोंरात नहीं हुआ। ये उन शैवालों से प्रारंभ हुआ होगा जो समुद्र के किनारों पर स्थित थे, परन्तु वे जमीन पर पानी से बहुत दूर तक नहीं जा पाए होंगे क्योंकि नमी वाले क्षेत्र से बाहर की शुष्कता में जीवित रहना उनके लिए संभव नहीं रहा होगा। तब आज से लगभग 4,200 लाख वर्ष पहले कुछ वनस्पतियों ने अपने ऊपर एक मोमी आवरण या क्यूटिकल विकसित किया जिससे वे शुष्कता को झेल सकें। परन्तु अभी भी उनकी प्रजनन कोशिकाओं को जल में प्रवाहित किया जाना था इसलिए वे जलीय आवास के ऊपर ही आश्रित रहे।
दिलचस्प बात ये है कि वैज्ञानिक इस बात पर एकमत थे कि जमीनी पौधे आदिकालीन उन शैवालों से ही पनपे हैं जो जमीन पर रहने लायक विकसित हो गए थे, परन्तु 2001 तक वे इस तथ्य को पूरी तरह नहीं जान पाए थे कि ये कैसे हुआ था और आज के जीवित शैवालों में से कौन जमीनी पौधों के सबसे करीब है।
सन् 2001 में अमेरिका के मैरीलैण्ड के वैज्ञानिक चाल्र्स डेल्विच और शोध छात्रा कैनेथ कैरोल ने पता लगाया कि पहली जमीनी वनस्पतियों का सबसे नजदीकी जीवित संबंधी स्वच्छ पानी के हरे शैवालों का एक दल है जिन्हें चारेल्स कहा जाता है। चारेल्स शाखयुक्त, बहुकोशिकीय, क्लोरोफिल का प्रयोग करने वाली वनस्पतियां हैं जो स्वच्छ पानी में पलती हैं। बहुधा इन्हें ‘स्टोनवटर्स’ भी कहा जाता है। क्योंकि कुछ समय बाद वनस्पति चूने पर पपड़ी बनकर जम जाती है। इसका ‘तना’ वास्तव में एक केन्द्रीय वृन्त या डंठल होता है जो कई केन्द्रकों वाली विशाल कोशिकाओं से बना होता है, हालांकि चारेल्स और जमीनी वनस्पति, दोनों के अंश 4000 लाख साल पुराने जीवाश्मों के रिकार्ड में ढूंढे जा सकते हैं, उनके एक समान पूर्वज इससे भी कहीं पहले विलुप्त हो गए होंगे। डेल्विच के कार्य से यह साबित हो गया कि जमीनी वनस्पतियां और चारेल्स दोनों ही एक पूर्वज से विकसित हुए थे जो स्पष्टतया एक संश्लिष्ट जीव था।
जमीन पर जिंदा रहने की जद्दोजहद
आदिकालीन जमीनी वनस्पतियों में जड़ें, पत्तियां या फूल नहीं थे। परन्तु उनमें एक सुस्पष्ट केन्द्रीय नलिका थी जो पोषक तत्वों के परिवहन के काम आती थी। उनमें अंकुरों के ऊपर ‘स्टोमा’


बाद में जमीनी वनस्पतियों ने वास्तविक बीज विकसित कर लिए। ये बीजणुओं से अगला कदम था जिसमें प्राथमिक वनस्पतियों काई और फर्न का फैलाव हुआ वास्तविक बीजों में एक सुरक्षा कवच के भीतर शुरूआती वृद्धि को कायम रखने के लिए भोजन भी उपलब्ध था। इससे वनस्पतियों को पानी के नजदीक रहने के बंधन से छुटकारा मिल गया। सबसे पुराने बीजयुक्त पौधे, जो आज भी जीवित हैं, शंकुवृक्ष या कोनिफर थे जो देवदार (पाईन) और स्प्रूस कुल के सदस्य हैं, इस प्रकार के आवरणरहित या नग्न बीजधारी वनस्पतियों को जिम्नोस्पर्म्स यानी अनावृतबीजी कहा जाता है। जि़म्नोस्पमर्स के साथ जमीन पर रेंगने वाले प्राणि या सरीसृप थे। इन दोनों के फलने-फूलने के समय को मीसोजोइक युग कहा जाता है। अपने स्वर्णिम युग, लगभग 3,000 लाख वर्ष पूर्व, से जीवित रहने वाले बीजधारी वनस्पतियों में कोनिफर सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। इसके काफी समय बाद उद्भव होने वाले साइकैड्स, जिंकगो और नीटेल्स की प्रतिनिधि प्रजातियां आज भी धरती पर पाई जाती हैं। जिंकगो एक जीवित जीवाश्म है। आधुनिक जिंकगो से संबंधित जीवाश्म आज से 2,700 लाख वर्ष पुराने परमियन काल में पाए गए हैं।
जीवन की फुलवारी
जीवन के विकास के दौरान एन्जियोस्पमर्स यानि आवृतबीजी फूलदार पौघों का उद्भव महत्वपूर्ण घटना थी। यह घटना करीब 1,200 वर्ष पूर्व घटित हुई थी। आवृतबीजियों में लगभग सभी खेती वाले पौधे, रेशेदार पौधे और औषधिय पौधे शामिल हैं।

धरती पर पहले जीव
मॉस यानि काई, फर्न यानी पर्णांग और लिवरवटर्स नम धरती पर बसने वाले पहले वनस्पतियों में थे जिनके द्वारा जलीय क्षेत्रों की सीमावर्ती जमीन को हरा गलीचा प्रदान किया गया था। इन्हीं पहले हरे गलीचों में धरती पर बसने वाले पहले जीव रेंगे थे। ये अपरिष्कृत रचनाएं खण्डयुक्त कृमि की तरह की रचनाएं थीं जो आज के कनखजूरे से बहुत अलग नहीं थीं। कॉकरोच, ड्रैगनफ्लाई या चिउरा और बिच्छू ने जमीन पर आज से 4,200 लाख वर्ष पहले ही डेरा डाल दिया था।
जैसा कि वनस्पतियों को जमीन पर बसने के लिए यहां के वातावरण के अनुकूल ढलना पड़ा था, उसी प्रकार जमीन पर बसने वाले प्राणियों को नई समस्याओं से जूझना पड़ा। पानी में श्वसन के लिए आवश्यक गिल की हवा में कोई महत्ता नहीं रह गइ थी। इसलिए श्वसन नलिकाओं का ट्रैकिया नामक एक तंत्रा विकसित हुआ जो आज के कीटों में भी देखा जा सकता है।
जब वनस्पतियों ने वृद्धि में तेजी दिखाई तो प्राणियों को उनकी ऊंचाई से भोजन प्राप्त करने के लिए अपने को ढालने का प्रयत्न करना पड़ा। वैज्ञानिकों का मानना है कि पेड़ों ने एक गहन छतरी बनाकर धरती को सूर्य के प्रकाश से वंचित कर दिया होगा इसलिए वन क्षेत्रों में भूमि की सतह पर तो बिल्कुल हरियाली नहीं रही होगी या थोड़ी बहुत छिटपुट वनस्पतियां दिखाई पड़ती होंगी। प्राणियों के लिए खाद्य ऊंचाई पर मौजूद रहा होगा और भूखा नहीं रहने के लिए प्राणि को पेड़ पर चढ़ने की कला सीखनी पड़ी होगी।
लगभग इसी समय धरती पर अकशेरुकियों का साथ देने के लिए चार पैरों और नम त्वचा वाले रीढ़ की हड्डी वाले प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ होगा। ये प्राणि मांसाहारी थे इसलिए शाकाहारी अकशेरुकियों की सुरक्षा इसी में थी कि वे इनके मार्ग से दूर रहें। ऊंचे पेड़ पर चढ़कर जान बचाना भी एक रास्ता था। इसीलिए आरंभिक कीटों में वृक्षों पर चढ़ने की कला विकसित होने के लिए सभी कारण नजर आते हैं। परन्तु आरंभिक वृक्षों पर चढ़ना अत्यधिक श्रम वाला कार्य था। इसलिए समय के साथ कुछ अकशेरुकियों ने उड़ने की क्षमता का विकास कर लिया। पंखयुक्त कीटों का विकास लगभग 3,000 लाख वर्ष पहले हुआ होगा। हवा में उड़ने वाले वे पहले जीव थे और लगभग 1,000 लाख वर्ष तक उन्होंने हवा पर राज किया। सबसे पुराने उड़ने वाले कीटों में ड्रैगनफ्लाई का नाम आता है जो आज की तरह नाजुक और जालीदार पंखयुक्त नहीं, बल्कि विशालकाय (जिनके पंखों का फैलाव 70 सें.मी. का था) थे। ये धरती पर कभी भी रहे हुए कीटों में सबसे विशाल थे।
धरती पर पहली वनस्पति और पहले प्राणि के बीच अंतःक्रिया
समय के साथ वनस्पतियों ने उड़ने वाले कीटों से फायदा उठाना शुरू कर दिया। प्राचीन वनस्पतियों में प्रजनन बीजाणुओं पर निर्भर


अब उड़नकीटों के साथ एक समर्थ कार्यकर्ता उपलब्ध था जिसे परागण का कार्य सौंपा जा सकता था। इन कीटों का उपयोग डाकिए के तौर पर करते हुए अधिकाधिक लाभ लेने के लिए आवश्यक था कि पराग और मादा कोशिकाएं नजदीक स्थित हों जिससे प्रजनन संबंधी पदार्थ को उठाकर निर्धारित स्थान तक पहुंचाने में आसानी रहे और शायद यही वह कारण था जिसने फूलों के विकास की नींव डाली और जिससे एन्जियोस्पर्म्स यानी आवृतबीजी अस्तित्व में आए।
आरंभिक पुष्प हर उस मेहमान का स्वागत करते थे, जो भी उनके ऊपर उतरता था। परन्तु बहुत ज्यादा अतिथियों का तात्पर्य था कि मेजबान बहुत से अन्य प्रकार के पौधों से भी पराग प्राप्त कर रहा है और इस तरह उसके स्वयं से संबंधित पराग भी दूसरी जगह भटक रहे हैं। एक प्रजाति का पराग दूसरी प्रजाति में जमा होने पर बेकार हो जाता है। इसलिए समय बीतने के साथ एक पुष्प विशेष और इसके लिए विशेष परागण कार्यकर्ता के एक साथ विकास की प्रवृत्ति विकसित हुई। यही वह काल था जब धरती रंगों से भर गई क्योंकि पुष्प परागण एजेन्ट को आकृष्ट करने के लिए रंगों का प्रयोग करने लगे और बदले में उन्हें मधु और पराग देकर पुरस्कृत करने लगे।
कीट हमें दिखाई न देने वाले वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम के रंग देख सकते हैं। एक पुष्प किसी कीट को कैसा दिखाई पड़ता है, यह जानने के लिए वैज्ञानिकों ने ऐसे कैमरे से पुष्पों के चित्र लिए हैं जो पराबैंगनी क्षेत्र में कार्य करता है। यह वर्णक्रम का वह भाग है जिसके लिए कीटों की आंखें संवेदी हैं। परिणाम अविश्वसनीय थे। पंखुडि़यों के ऊपर रंगीन बिन्दियां और छोटी रेखाएं नजर आ रही थीं। इन्हें मधु मार्गदर्शक कहा जाता है। इस प्रकार के निशान मानव आंख के लिए बिना किसी सहायता के अदृश्य रहते हैं। ये निशान लगभग वैसे ही होते हैं जैसे कि किसी हवाई अड्डे के रनवे पर बने होते हैं और ये क्रिया लगभग ऐसी है कि पंखुडि़यां रनवे हैं जिस पर कीटरूपी हवाई जहाज को उतरना है और पौधे ने सुरक्षित रूप से इनके उतरने के लिए इन्तजाम किए हैं।
वैज्ञानिकों में अभी यह बहस का मुद्दा है कि क्या फूलों ने कीटों की आंख के लिए संवेदी रंगों से खुद को विकसित किया या फिर कीटों की आंखों ने फूलों के सभी रंग देख पाने की क्षमता विकसित की। बहरहाल हम इतना जानते हैं कि आधी दूरी फूलों ने तय की और आधी कीटों ने और एक के विकास ने दूसरे के विकास को प्रेरित किया।
आज फूल कई प्रकारों में विकसित हो चुके हैं। डहेलिया और सूरजमुखी जैसे फूल रंगीन तो हैं पर इनमें खुशबू नहीं है। मोगरा जैसा फूल अत्यधिक सुगंध से युक्त है। स्वीट पी अत्यन्त सुन्दर रंग का होने के साथ ही मीठी सी खुशबू लिए होता है। आज भी, फूल रंग और गंध द्वारा मधुमक्खियों और तितलियों को आकर्षित करने के लिए संकेतक का कार्य करते हैं और इस प्रक्रिया में धरती पर रंग-बिरंगी और सुगंधित स्वर्गानुभूति पैदा हुई है।
जमीन पर पहले कशेरुकी


इस दिशा में सुराग ढूंढ रहे वैज्ञानिकों की निगाह एक मछली पर जाकर रूकी जिसे मडस्किपर कहा जाता है। मडस्किपर मछलियां आज भी गरानी यानी मैंग्रोव दलहदलों और कीचड़दार उष्णकटिबंधीय नदी के किनारों तक सीमित हैं। उनमें एक मांसल आधार होता है जो उनके पंखों के अगले जोड़े के अन्दर मौजूद हड्डियों से जुड़ा होता है। ये मछलियां इसका प्रयोग नरम कीचड़ के ऊपर सरकने के लिए

अन्य प्रजातियों ने स्पष्टतया कई रास्ते खोजे। ‘लंगफिश’ की अभी चार अलग-अलग प्रजातियां पाई जाती हैं, हालांकि 3,500 लाख साल पहले ये बहुत अधिक संख्या में पाई जाती थीं। लंगफिश के अध्ययन से कुछ सूत्र हाथ लगे कि किस प्रकार कशेरुकियों ने जमीन पर सांस लेने की समस्या से उबरना सीखा होगा। लंगफिश दलदली क्षेत्रों की निवासी है जो गर्मी में सूख जाते हैं। जब यह दलदल सूखना शुरू होते हैं, लंगफिश खुद को नरम दलदल में दफना लेती है। पूरी गर्मियों में लंगफिश मुंह से हवा अंदर लेती हैं। इस हवा को गले की पंपिंग गति की सहायता से आहारनाल में मौजूद विशेष थैलियों में भेजा जाता है। इन थैलियों में रक्त की प्रचुर आपूर्ति होती है और इनकी दीवारंि ऑक्सीजन के विसरण को झीनी होने देती हैं जिससे पानी नहीं होने के बावजूद श्वसन क्रिया चलती रहती है।
जिन वैज्ञानिकों ने लंगफिश के जीवाश्मों का अध्ययन किया है, उनके अनुसार हालांकि यह हवा को सांस के रूप में लेने का स्पष्ट ढंग है, परन्तु यह कुछ संभव प्रतीत नहीं होता कि लंगफिश या उनके वंशज ही जमीन पर स्थाई रूप से आने वाले पहले कशेरुकी थे। वैज्ञानिकों की निगाह यूस्थीनोप्टेरोन (जो कोलाकैन्थ और लंगफिश दोनों का ही संबंधी था) के जीवाश्म पर पड़ी जिसे धरती पर पहुंचने वाला संभावित जीव माना गया या कम से कम जो सबसे पहले पहुंची वंशावली के बहुत नजदीक तो होगा ही। यूस्थी-नोप्टेरोन एक संभावित जीव इसलिए है क्योंकि इसके नासाछिद्रों को मुंह की ऊपरी छत से जोड़ता हुआ एक रास्ता इसमें विकसित था। यह एक ऐसा गुण था जो सभी जमीनी कशेरुकियों में पाया जाता है।
फिर भी, बहुत सी धारणाओं और जीवन संबंधी प्रमाणों के बावजूद भी अभी तक वैज्ञानिक एक ऐसा जीवाश्म नहीं खोज पाए हैं जो पंखदार मछली और चार पैर वाले प्राणी यानी टेट्रापोड के बीच की कड़ी को दर्शाता हो।
परन्तु 2006 में प्राप्त एक जीवाश्म ने सब कुछ बदल दिया। यह जीवाश्म कनाडा के एलेस्मीयर द्वीप पर पाया गया। यह स्थान आर्कटिक क्षेत्र के उत्तरी ध्रुव से बहुत दूर नहीं है। यह जीवाश्म एक मछली और एक मगरमच्छ के संकर जैसा दिखता था। इस नई खोज को ‘टिक्टालिक’ नाम दिया गया, इसकी व्याख्या एक ‘फिशपॉड’ के रूप में की गई - थोड़ी फिश यानि मछली और थोड़ा पॉड यानी टेट्रापॉड यानि चार पैरों वाला जमीनी प्राणी, और इसे ऐसी प्रजाति के रूप में माना गया जो मछली और टेट्रापोड के बीच की दीवार को धुंधली कर देती है। टिक्टालिक डेवोनियन युग (जिसका काल 4,170 से 3,540 लाख वर्ष पूर्व) में जीवित रहा होगा। इसमें आरंभिक पैरों वाले प्राणियों की तरह खोपड़ी, गर्दन और पसलियां थीं और साथ ही मछलियों के समान अविकसित जबड़े, पंख और शल्क भी थे। इसकी गर्दन गतिशील थी परन्तु गिल के ऊपर का हड्डियों का आवरण समाप्त हो चुका था। इससे प्रतीत होता है कि मछलियां कम से कम कुछ हद तक वायुवीय श्वसन कर सकती थीं, जैसा कि आधुनिक जमीनी चैपाए प्राणियों में होता है।
टिक्टालिक के गुणों को देखकर वैज्ञानिकों को पूरा विश्वास हो गया है कि जमीन पर रहने के लिए अनुकूलन विकास के अचानक फट पड़ने से नहीं हुआ था बल्कि यह एक लम्बी प्रक्रिया थी।
जमीन पर बसावट क्यों?
प्राणी जमीन की ओर रूख करने के लिए मजबूर हुए क्योंकि शायद समय के साथ उनके जलीय आवास सूखने लगे हों, या शायद जमीन पर भोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो या फिर उन दिनों जमीन पर दुश्मनों का अस्तित्व नहीं के बराबर रहा हो। कारण चाहे कुछ भी रहे हों, इससे सभी जीवन क्षेत्रों में नए परिदृश्य खुले, न सिर्फ वास्तविक रूप से बल्कि आंकड़ों के आधार पर भी।
सर्वप्रथम जमीन पर बसने वाले प्राणियों ने अपनी जड़ें पानी में ही जमाए रखीं। इनमें से कई प्राणियों की त्वचा नम थी और उन्हें सांस लेने के लिए पानी में लौटना पड़ता था। आधुनिक एम्फीबियन यानी उभयचरों जैसे मेंढक और टोड, एक ऐसी डिम्भक अवस्था से गुजरते हैं जिसमें वे गिल या गलफड़ों की मदद से सांस लेते हैं। बाद के कशेरुकी, जैसे सरीसृप, जलरोधी त्वचा के साथ काफी हद तक इस निर्भरता से छुटकारा पाने में सफल हुए। इससे उन्हें जल स्रोतों से अधिक दूरी तक घूमने की आजादी मिली और अपनी प्रजाति के लिए अधिकाधिक क्षेत्र घेरने की भी।
इस तरह जीवन अपने जल रूपी अवलम्ब से धरा और बाद में वायु को घेरने के लिए बाहर आया और आज का भरा-पूरा संसार जीवन की उस दृढ़ता का प्रमाण है जिसने आधे मौके दिए जाने के बावजूद और अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने पैर जमाए और फला-फूला।