Source
जल चेतना - तकनीकी पत्रिका, जुलाई 2015
पर्यावरण के अनुकूल हैं जैविक-शौचालय
जैविक-शौचालयः
गन्दे और बदबूदार सार्वजनिक शौचालयों से निजात दिलाने के लिये जापान की एक गैर सरकारी संस्था ने ‘जैविक-शौचालय’ विकसित करने में सफलता हासिल की है। ये खास किस्म के शौचालय गन्ध-रहित तो हैं ही, साथ ही पर्यावरण के लिये भी सुरक्षित हैं। समाचार एजेंसी ‘डीपीए’ के अनुसार संस्था द्वारा विकसित किये गए जैविक-शौचालय ऐसे सूक्ष्म कीटाणुओं को सक्रिय करते हैं जो मल इत्यादि को सड़ने में मदद करते हैं।
इस प्रक्रिया के तहत मल सड़ने के बाद केवल नाइट्रोजन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को पुनःचक्रित (री-साइकिल) कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है। संस्था ने जापान की सबसे ऊँची पर्वत चोटी ‘माउंट फुजी’ पर इन शैचालयों को स्थापित किया है। गौरतलब है गर्मियों में यहाँ आने वाले पर्वतारोहियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले सार्वजनिक शौचालयों के चलते पर्वत पर मानव मल इकट्ठा होने से पर्यावरण दूषित हो रहा है।
इस प्रयास के बाद ‘माउंट फुजी’ पर मौजूद सभी 42 शौचालयों को जैविक-शौचालयों में बदल दिया गया है। इसके अलावा सार्वजनिक इस्तेमाल के लिये पर्यावरण के लिये सुरक्षित आराम-गृह भी बनाए गए हैं।
कम्पोस्ट टाॅयलेट (शौचालय खाद)
इकोजैनमल एक ऐसी वस्तु है जो हमारे पेट में तो पैदा होती है पर जैसे ही वह हमारे शरीर से अलग होती है हम उस तरफ देखना या उसके बारे मेें सोचना भी पसन्द नहीं करते। पर आँकड़े बताते हैं कि फ्लश लैट्रिन के आविष्कार के 100 साल बाद भी आज दुनिया में सिर्फ 15 प्रतिशत लोगों के पास ही आधुनिक विकास का यह प्रतीक पहुँच पाया है और फ्लश लैट्रिन होने के बावजूद भी इस मल का 95 प्रतिशत से अधिक आज भी बगैर किसी ट्रीटमेंट के नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँचता है।
दुनिया के लगभग आधे लोगों के पास पिट लैट्रिन है जहाँ मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है और आँकडों के अनुसार इनमें से अधिकतर से मल रिस-रिस कर जमीन के पानी को दूषित कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जैसे शहर इसके उदाहरण हैं। इस दुनिया ने बहुत तरक्की कर ली है आदमी चाँद और न जाने कहाँ-कहाँ पहुँच गया है पर हमें यह नहीं पता कि हम अपने मल के साथ क्या करें। क्या किसी ने कोई गणित लगाया है कि यदि सारी दुनिया में फ्लश टाॅयलेट लाना है और उस मल का ट्रीटमेंट करना है तो विकास की इस दौड़ में कितना खर्च आएगा?
दक्षिण अफ्रीका में 1990 के एक विश्व सम्मेलन में यह वादा किया गया था कि सन् 2000 तक सभी को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिया जाएगा। अब सन 2000 में वादा किया गया है कि 2015 तक विश्व के आधे लोगों को आधुनिक शौचालय मुहैया करा दिये जाएँगे। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों ने इस वचनपत्र पर हस्ताक्षर किये हैं और इस दिशा में काम भी कर रहे हैं। भारत के आँकड़ों को देखें तो ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 3 प्रतिशत लोगों के पास फ्लश टायलेट हैं शहरों में भी यह आँकड़ा 22.5 प्रतिशत को पार नहीं करता।
स्टाकहोम एनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट दुनिया की प्रमुखतम पर्यावरण शोध संस्थाओं में से एक है। इस संस्था के उप प्रमुख योरान एक्सबर्ग कहते हैं फ्लश टायलेट की सोच गलत थी, उसने पर्यावरण का बहुत नुकसान किया है और अब हमें अपने आप को और अधिक बेवकूफ बनाने की बजाय विकेन्द्रित समाधान की ओर लौटना होगा। सीधा सा गणित है कि एक बार फ्लश करने में 10 से 20 लीटर पानी की आवश्यकता होती है यदि दुनिया के 6 अरब लोग फ्लश लैट्रिन का उपयोग करने लगे तो इतना पानी आप लाएँगे कहाँ से और इतने मल का ट्रीटमेंट करने के लिये प्लांट कहाँ लगाएँगे?
हमारे मल में पैथोजेन होते हैं जो सम्पर्क में आने पर हमारा नुकसान करते हैं। इसलिये मल से दूर रहने की सलाह दी जाती है। पर आधुनिक विज्ञान कहता है यदि पैथोजेन को उपयुक्त माहौल न मिले तो वह थोड़े दिन में नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य का मल उसके बाद बहुत अच्छे खाद में परिवर्तित हो जाता है जिसे कम्पोस्ट कहते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार एक मनुष्य प्रतिवर्ष औसतन जितने मल-मूत्र का त्याग करता है उससे बने खाद से लगभग उतने ही भोजन का निर्माण होता है जितना उसे साल भर जिन्दा रहने के लिये जरूरी होता है। यह जीवन का चक्र है। रासायनिक खाद में भी हम नाइट्रोजन, फास्फोसरस और पोटेशियम का उपयोग करते हैं। मनुष्य के मल एवं मूत्र उसके बहुत अच्छे स्रोत हैं। विकास की असन्तुलित अवधारणा ने हमें हमारे मल को दूर फेंकने के लिये प्रोत्साहित किया है, फ्लश कर दो उसके बाद भूल जाओ। रासायनिक खाद पर आधारित कृषि हमें अधिक दूर ले जाती दिखती नहीं है। हम एक ही विश्व में रहते हैं और गन्दगी को हम जितनी भी दूर फेंक दें वह हम तक लौटकर आती है।
गाँधी जी अपने आश्रम में कहा करते थे गड्ढा खोदो और अपने मल को मिट्टी से ढक दो। आज विश्व के तमाम वैज्ञानिक उसी राह पर वापस आ रहे हैं। वे कह रहे हैं कि मल में पानी मिलाने से उसके पैथोजेन को जीवन मिलता है वह मरता नहीं। मल को मिट्टी या राख से ढक दीजिए वह खाद बन जाएगी। इसके बेहतर प्रबन्धन की जरूरत है दूर फेंके जाने की नहीं। हमें अपने सोच में यह बदलाव लाने की जरूरत है कि मल और मूत्र खजाने हैं बोझ नहीं। यूरोप और अमेरिका में ऐसे अनेक राज्य हैं जो अब लोगों को सूखे टाॅयलेट की ओर प्रोत्साहित कर रहे हैं। चीन में ऐसे कई नए शहर बन रहे हैं जहाँ सारे-के-सारे आधुनिक बहुमंजिली भवनों में कम्पोस्ट टॉयलेट ही होंगे। भारत में भी इस दिशा में काफी लोग काम कर रहे हैं। केरल की संस्था www.ecosolutions.org ने इस दिशा में कमाल का काम किया है। मध्य प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारियों ने केरल में उनके कम्पोस्ट टाॅयलेट का दौरा किया है।
विज्ञान की मदद से आज हमें किसी मेहतरानी की जरूरत नहीं है जो हमारा मैला इकट्ठा करे। कम्पोस्ट टाॅयलेट द्वारा मल मूत्र का वैज्ञानिक प्रबन्धन बहुत सरलता से सीखा जा सकता है। गाँवों में यह सैकड़ों नौकरियाँ पैदा करेगा, कम्पोस्ट फसल की पैदावार बढ़ाएगा और मल के सम्पर्क में आने से होने वाली बीमारियों से बचाएगा। मल को नदी में बहा देने से वह किसी-न-किसी रूप में हमारे पास फिर वापस आता है। यह शतुरमुर्गी चाल हमें छोड़नी होगी वर्ना हमारी बर्बादी का जिम्मेदार कोई और नहीं होगा।
सच्ची कहानी महिलाओं ने आखिर हासिल कर लिया शौचालय
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 45 किलोमीटर दूर अहमदपुर गाँव की महिलाओं में 25 जनवरी से आत्म-सम्मान की एक नई लहर दौड़ रही है।
इन महिलाओं ने लड़-झगड़ कर गाँव में एक जैविक शौचालय का निर्माण करवा लिया है और अब उन्हें रात-बिरात, मौसम-बेमौसम खुले में शौच नहीं जाना पड़ेगा।
अहमदपुर, माल ब्लाॅक और मलिहाबाद तहसील का हिस्सा हैं यहाँ से तहसील मुख्यालय 21 किलोमीटर दूर है। 825 की जनसंख्या वाले अहमदपुर में सरकारी शौचालय काफी जर्जर हालत में है।
यहाँ के 125 घरों में से केवल आठ ही ऐसे हैं जिनमें शौचालय की व्यवस्था है। लेकिन सर्दी, गर्मी और बरसात में गाँव के बाकी मर्दों, औरतों और बच्चों को शौच के लिये खेतों और आम के बागों में ही जाना पड़ता था।
गर्मी में इनको विशेष दिक्कत होती थी क्योंकि गाँव में आम के बाग अधिक हैं और फसल के समय इनको ठेके पर बेच दिया जाता है। जिससे आम की फसल की निगरानी करने वाले फलों की चोरी के डर से लोगों को बाग में घुसने नहीं देते हैं।
नहीं मिली सरकारी मदद
इन तमाम मुश्किलों के बाद भी जब गाँव के तीन महिला स्वयं सहायता समूहों की 36 सदस्यों ने एक शौचालय बनवाने का फैसला लिया तो गाँव में कोई उन्हें जमीन देने को भी तैयार नहीं हुआ। आखिर में श्रीमती सुशीला के पति श्री रामकुमार ने जमीन दी, तब जाकर शौचालय बना।
जैविक शौचालय की संरक्षक
50 वर्षीय श्रीमती सुशीला को सर्वसम्मति से जैविक शौचालय प्रबन्ध समिति का संरक्षक चुना गया। वह बताती हैं कि उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
लेकिन इन महिलाओं ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने मिलकर गाँव के आन्तरिक प्रतिरोध से लड़कर शौचालय बनवा कर ही दम लिया। उनके इस प्रयास में गैर-सरकारी संस्था ‘वात्सल्य’ ने आरम्भ से अन्त तक अहम भूमिका निभाई।
इस पूरे संघर्ष में तीन महीने लगे। सुशीला बताती हैं कि इस नए, पक्के, शौचालय का इस्तेमाल 18 परिवार ही कर रहे हैं। किसी परिवार में नौ सदस्य हैं तो किसी में सात।
सुशीला के अलावा नन्हीं शौचालय के प्रबन्ध समिति सचिव का काम देखती हैं जबकि श्री सियाराम कोषाध्यक्ष हैं। नन्हीं के मुताबिक तीन और परिवार इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं।
15 रुपए प्रति महीना
इसमें चार शौचालय हैं और एक स्नानघर इसके बगल में ही मर्दों के लिये इसी तरह की व्यवस्था है।
प्रत्येक परिवार, जो इस शौचालय का इस्तेमाल कर रहा है, उसे इसके रख-रखाव के लिये 15 रुपए प्रतिमाह देना होगा। इस राशि में से ही बिजली का बिल भी अदा किया जाएगा।
इसकी सफाई की जिम्मेदारी प्रबन्ध समिति की महिलाओं ने अपने ऊपर ले ली है।
वात्सल्य के अंजनी कुमार सिंह बताते हैं कि इस जैविक शौचालय की विशेषता देश के रक्षा अनुसन्धान संगठन (डीआरडीओ) द्वारा तैयार की गई इसकी आधुनिक तकनीक है, जिसे बायो-डाइजेस्टर कहते है।
45 फुट लम्बे और 18 फुट चौड़े इस शौचालय का मल-मूत्र जीवाणुओं द्वारा साफ पानी में बदल दिया जाता है जिसे क्यारियों की सिंचाई के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।
गाँव की महिलाएँ अभी इस पानी के इस्तेमाल के लिये पूरी तरह सहमत नहीं हैं।
बायो-डाइजेस्टर टैंक के निर्माण में 1.80 लाख रुपए खर्च हुए जबकि इसकी कुल लागत 6.25 लाख रुपए आई। यह सारा खर्च गर-सरकारी संस्था प्लान इण्डिया ने वहन किया।
सम्पर्क करें
डाॅ. रमा मेहता, राजसं, रुड़की
TAGS
bio toilet in indian railways information in Hindi, how bio toilet works information in Hindi, bio toilet in train information in Hindi, bio toilet suppliers information in Hindi Language, bio toilet drdo information in Hindi, bio toilet wiki information in Hindi, bio toilet end product information in Hindi, bio toilet pdf information in Hindi, Bayo tayalet kya hai, drdo bio toilet cost information in Hindi, drdo bio toilet design information in Hindi, drdo bio digester toilet information in Hindi, bio toilets developed by drdo information in Hindi, biodigester toilets designed by drdo information in Hindi, drdo bio digester price information in Hindi, biodigester toilet systems information in Hindi, how does a composting toilet work information in Hindi, eco toilet information in Hindi, waterless composting toilet information in Hindi,