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जल चेतना - तकनीकी पत्रिका, जुलाई 2015
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
समं पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधिगच्छति।।
मनुस्मृति में कहा गया है कि सभी जनों को चराचर संसार के समस्त प्राणियों को अपने समान समझते हुए उनके रक्षण व पालन-पोषण को अपना कर्तव्य समझना चाहिए। इस नीति वाक्य को अपने जीवन में उतार कर प्रकृति में व्याप्त सम्पूर्ण वनस्पति-जीव जगत के संरक्षण के साथ जलस्रोतों का अधिक-से-अधिक विकास करना हम सबका दायित्व है। प्रकृति में फैला यह वनस्पति-जीव जगत हमारा पारिस्थितिकीय तंत्र का प्रमुख भाग है। यत्र-तत्र जो कुछ भी व्याप्त है या जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब पारिस्थितिकीय पर्यावरण ही तो है। शाब्दिक दृष्टि से ‘परितः आवरणम्’ इति पर्यावरणम्, अर्थात् इस संसार में हमारे चारों ओर फैला हुआ यह सम्पूर्ण आवरण, जिसमें जगत के चराचर समस्त तत्व विद्यमान हैं अर्थात जिसमें इस भू-धरा की पूरी जैवविविधता समाई हुई है, पर्यावरण के ही अन्तर्गत आते हैं।’ हमारे चारों ओर जो भी प्राकृतिक और मानव द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं वे सब पर्यावरण के पहलू ही हैं। पर्यावरणीय वनस्पति-जन्तु जगत वन के मुख्य अंग हैं। इस कारण पर्यावरणीय जानकारी के लिये वन को समझना अत्यन्त आवश्यक है।
वन शब्द की व्यापकता को देखते हुए इसे परिभाषित करना अत्यधिक कठिन है, फिर भी सूक्ष्म शब्दों में आकलन करने का प्रयास मात्र है। वन की सूक्ष्म शब्दों में परिभाषा इस प्रकार है- ‘सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त उस भू-भाग या क्षेत्र को वन कहते हैं, जिसमें नदी-नाले, पहाड़-चट्टान, पठार, मैदानी भाग के साथ मिट्टी-पत्थर-खनिज एवं जीव-जन्तु, विशाल हिंसक जानवर, आकर्षक-पशु और वृहत स्तर तक फैले विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे (वनस्पति) विद्यमान हों।’ परिभाषा की दृष्टि से वन वह अथाह एवं असीमित खजाना एवं भण्डार है, जिसका आज तक मानव ने पार नहीं पाया है, यह अनन्त है। जिसे संस्कृत भाषा में ‘अरण्य’ कहा जाता है अर्थात जिसमें जीवन भर रहने पर भी पूर्ण रमण (भ्रमण) नहीं किया जा सकता है।
पर्यावरणीय सन्तुलन बनाए रखने के लिये वनों एवं वन्यजीवों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना परम आवश्यक है। क्योंकि वन मानव जीवन के वह अनन्यतम साथी हैं, जो कि प्राकृतिक-सुन्दरता के साथ-साथ पर्यारणीय सन्तुलन एवं भू-स्थिरता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक के शाश्वत सहयोगी हैं। इसलिये सभ्य एवं आदर्श मानव समाज वही है, जो वनों के विकास एवं संरक्षण को अपना आवश्यक कर्तव्य समझता है।
सुखदुःखयोश्च ग्रहणाछिन्नस्य च विरोहणात्। जीव पश्यामि वृक्षाणामचैतन्यं न विद्यते।।
महाभारत के शान्ति पर्व में उल्लेख मिलता है कि सभी पेड़-पौधे सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, कटे वृक्ष में पुनः नवांकुरण होने पर उसके सजीवता का प्रमाण मिलता है। इसलिये वृक्षों को किसी प्रकार की भी क्षति पहुँचाने का प्रयास कर प्राणी उत्पीड़न/हत्या के पाप का भागीदार नहीं बनना चाहिए। वन क्षेत्र के अन्तर्गत विचरण करने वाले वन्यप्राणियों का अवैध आखेट कर कुछ स्वार्थी एवं अय्यासी किस्म के मानवों द्वारा वन के सन्तुलन को बिगाड़ने से जंगल का राजा कहे जाने वाले सिंह/शेर को वन-अस्तित्व की रक्षार्थ मानवों से भिड़ने हेतु मजबूर होना पड़ता है।
विचलित कर प्रकृति को, आपदाओं का ज्वार बढ़ाया है।
वन्य जीवों का आखेट कर शेर को घर-गाँव बुलाया है।।
लेखक ने अपनी पुस्तक श्री कार्तिकेय-दर्शन में लिखा है कि प्रकृति स्वयं हमें सचेत कर कह रही है कि हे मानव! अभी भी सम्भल जा, अभी मौका है, नहीं तो तुझे पछताने का अवसर भी नहीं मिल पाएगा। यदि मैंने भी तुम्हारे बेरूखेपन के बदले पूर्णतः प्रतिफल देने की ठान ली, तो फिर अनर्थ हो जाएगा, लेकिन क्या करें, मानव की विकास की अन्धी दौड़ ने तो उसकी सोचने, समझने व सुनने की शक्ति ही क्षीण कर दी है।
हे बेदर्द मानव! सम्भल जा।
अपनापन छोड़कर हमें सताता है।
क्यों निर्भीक होकर वन में आग लगाता है।।
हे बेदर्द।।
प्रकृति के सब जीवों का अधिकार तूने छीना है।
वन में आग लगाके तूने सताई अपनी आत्मा है।। हे बेदर्द।।
हिमालयी क्षेत्र के अन्तर्गत धरातलीय हलचल का कारण यह भी है कि कुछ वर्षों से विकास के नाम पर निर्मित कल-कारखानों, यातायात आदि के साधनों से निकलने वाले भयानक गैस के प्रभाव एवं वन व सिविल क्षेत्रों में लगने वाली आग लपटों से प्रवाहित धुएँ से वायुमण्डल धूमिल होता जा रहा है। इससे उसकी स्वच्छ वायु प्रदान करने की क्षमता का ह्रास होता जा रहा है, जिससे पृथ्वी के तापमान में निरन्तर वृद्धि हो रही है। तापमान की वृद्धि के कारण कुछ वर्षों से पहाड़ी क्षेत्रों के साथ हिमालय में भी हिमपात की औसतन मात्रा में समयानुकूल नहीं है और विभिन्न गैसों के प्रभाव से हिम पिघलने की दर बढ़ गई है।
जिससे हिमालय में भी प्राकृतिकता की स्थिति विचलित हो रही है। ओजोन परत के क्षीण होने से सूर्य की पैराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर अपना सीधा प्रभाव दिखाती हैं, जिसके प्रभाव से नेत्र व त्वचा सम्बन्धी बीमारियाँ होने की प्रबल सम्भावना रहती हैं। वनों की आग से हानिकारक गैसें बनती हैं, इनसे ग्रीन हाऊस प्रभाव बढ़ता है और पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है, जिससे ग्लोवल वार्मिंग प्रारम्भ हो जाता है, जो कि धरती को भयानक खतरा उत्पन्न करता है।
आग वनों की है दुश्मन, वन अग्नि का करें समापन।
आज राष्ट्र का लक्ष्य यही है, वृक्षों से हो स्वच्छ पर्यावरण।।
वनों में आग लगने के कारणों की ओर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि प्राकृतिक रूप से, मानवीय लापरवाही, अपने स्वार्थवश व शरारतवश इस प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं। वन क्षेत्र में लगने वाली अग्नि तभी दावाग्नि कहलाती है, जब अनियंत्रित रूप से उस में लगी या लगाई गई हो। भारतीय वन अधिनियम 1927 संशोधित 2001 की धारा 26(1) बी, सी तथा धारा 79 और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 09 सपठित 51 के तहत वनाग्नि के सम्बन्ध में किये गए किसी प्रकार के अपराध के लिये कड़े-से-कड़े दण्ड का प्राविधान रखा गया है।
हे इंसान! हमारी भी सुनता जा।
हमे सता के, तू भी परेशान होता जा।।
हे मानव! तेरी इस करनी से, तपन धरती को होती तड़पता जीव है।
छोड़ दे काटना तू हम को, क्योंकि वन ही जल-जीवन की नींव है।।
वनाग्नि के प्रभाव से प्रभावित क्षेत्र में आग की तीव्रता के आधार पर वनस्पति-जन्तु जगत को अनगिनत क्षति पहुँचती है। जिससे निरन्तर भूगर्भ में जलस्रोतों का विनाश हो रहा है, यही स्थिति रही तो, आगामी निकट समय में हमें जल के अभाव में जल बिन मछली की तरह तड़पने हेतु मजबूर होना पड़ेगा। वन एवं पर्यावरण के विकास व संरक्षण से ही जल की निरन्तरता बनाए रखी जा सकती है, जो कि सार्वभौम सत्य है। किसी भी प्राणी के जीवन को बनाए रखने के लिये विभिन्न प्राकृतिकताओं के अन्तर्गत जितना अधिक जल का महत्त्व है, उतना किसी भी अन्योन्य तत्व का नहीं है। अतः यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि- ‘जल ही जीवन है, बिन जल जीवन निरीह है।’
मानवों को प्रकृति की प्रतिकूलता विभिन्न प्रकार की घटनाओं/आपदाओं व असमय फैलने वाले रोगों के रूप में भोगनी पड़ती है। इसलिये हम सबको मिलकर इनकी रक्षा व विकास का संकल्प लेना चाहिए, तभी सब सुरक्षित जीवन जी सकते हैं।
जैव विविधता की यह चर्चा, पास-पड़ोस प्रकृति की रक्षा।
जल संरक्षण हो सबकी इच्छा, काम यही है सबसे अच्छा।।
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शम्भु प्रसाद भट्ट ‘स्नेहिल’, स्नेहिल साहित्य सदन, निकटः पराग दुग्ध डेरी, उफल्डा, (श्रीनगर), जिला- पौड़ी, उत्तराखण्ड, 246174, मो.नं. 9760370593