जल का विवेक-पूर्ण उपयोग (Conscious-use of Water in Hindi)

Submitted by Hindi on Sun, 08/06/2017 - 16:23
Source
भगीरथ - अप्रैल-जून, 2009, केन्द्रीय जल आयोग, भारत

.जल जीवन की अहम आवश्यकता है और इसके अभाव में किसी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए यह वस्तु जो हमारे जीवन का पर्याय है वही अगर कम होने लगे तो यह बात हमारी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर देती है। जो वस्तु हमारे जीवन का अभिन्न और अनिवार्य अंग हो अगर उसे हम अपनी हरकतों से अपने खिलाफ कर लें तो इसे क्या कहा जाएगा?

यह सत्य है कि अप्रत्याशित संकट से जूझने में बहुत मुश्किल आती है। वह अपने पीछे बहुत बड़ी तबाही के निशान छोड़ जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वर्षा की कमी के संकट को अप्रत्याशित कहा जाएगा जिसका पूर्वानुमान हमें छः महीने पहले यानी वर्षाऋतु की समाप्ति तक हो जाता है। यह संकट आकस्मिक इसलिए भी नहीं मान्य किया जा सकता क्योंकि विगत वर्षों से निरंतर हम पेड़ों की कटाई, जंगलों की सफाई आदि ऐसे कार्य को अंजाम देते रहे हैं जो नकारार्थी प्रवृत्ति के कारण वर्षा को अपने आंगन में उतरने को प्रोत्साहित नहीं कर पाते। अब तो यह सर्वविदित है कि पानी का संकट अमूमन प्रत्येक वर्ष झेलना पड़ेगा क्योंकि इसका इस्तेमाल करने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। दूसरी तरफ चौपहिया, दो पहिया और वाहनों की संख्या में वृद्धि हो रही है, आखिर इन सब की सफाई, धुलाई के लिये पानी चाहिए, प्रत्येक वर्ष नए मकान निर्माण करने का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है उसके लिये भी पानी की आवश्यकता होगी, विद्युत की खपत में लगातार वृद्धि हो रही है उसके अतिरिक्त उत्पादन के लिये अन्य वस्तुओं के अलावा पानी की दरकार होगी।

वह दुखद आश्चर्य का विषय है कि पानी की चिंता का समय भी जैसे मुकर्रर हो चुका है, गर्मी के मौसम की दस्तक के साथ ही उसकी कमी की चिंता हमारी रातों की नींद तथा दिन का चैन हराम करने लगती है। वसंत के आगमन और सदी के गमन पश्चात जब नदियों, तालाबों का जल सूखने लगता है, दो-तीन दिन में एक बार टपकने वाले नल भी जब कई बार सूं-सूं की अप्रिय ध्वनि निकालकर खामोश हो जाते हैं और बोरिंग में भी पानी का दबाव कम हो जाता है जब हमारा दिल धक-धक करने लगता है कि लो आ गया पानी की चिंता का मौसम।

समझ से परे है कि जल संरक्षण या पानी के अपव्यय को रोकने की चिंता हम सर्दी या वर्षा के मौसम में क्यों नहीं करते? हमारी फितरत ही ऐसी हो गई है कि जब प्यास लगे तब कुआँ खोदा जाए तात्पर्य यह कि बेवजह, बेमौसम हम किसी बात की परवाह नहीं करना चाहते वर्ना होना यह चाहिए कि संभावित खतरे को देखते हुए हम पहले से कुआँ खोद कर रखें।

हम यह मानकर क्यों नहीं चलते कि गर्मी के मौसम में पानी की कमी हमें आँसू रुलाएगी इसलिए आदत ही बना लें उसके किफायती पूर्ण उपयोग की.... सच पूछा जाए तो हम अपनी रोज-मर्रा की आदतों में आंशिक सुधार लाकर ढेर सारा पानी बचा सकते हैं जो हमें गर्मियों में सुखद अनुभूति प्रदान कर सकता है।

मानव और स्वयं धरती का अस्तित्व बहुत हद तक वर्षा पर निर्भर है। हालाँकि प्रकृति अपने तरीके से सब कुछ संतुलित रखते हुए चलायमान होती है लेकिन कभी-कभी जब उसके कदम डगमगाने लगते हैं तो वापस पटरी पर लाने के लिये प्रयत्न तो करने पड़ते हैं। प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ बंद कर देना एक सार्थक प्रयास होगा उसको रिझाने का।

यह हमारी बहुत बड़ी गलतफहमी थी कि हमने जल के रूप में प्रकृति प्रदत्त ऐसी सौगात पा ली है कि उसका चाहे कितना इस्तेमाल करो वह कभी खत्म नहीं होने वाली। आज जरूरत इस बात की है कि हम जागरूक नागरिक का परिचय देते हुए पानी को पैसे या समय की तरह बहाना बंद करें, हमें पानी का इस्तेमाल स्वर्ण धातु के सदृश करना चाहिए क्योंकि वह भी क्रमशः अमूल्य वस्तु में तब्दील होता जा रहा है।

लेखक परिचय
98, डी.के.-1 स्कीम 74-सी, विजय नगर, इन्दौर-452010