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योजना, जून 2006
देश में बढ़ती जनसंख्या, बड़े पैमाने पर शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण आजादी के समय जहाँ देश में प्रति व्यक्तिय 5,277 घनमीटर पानी उपलब्ध था वह अब घटकर मात्र 1,869 घनमीटर से भी कम रह गया है। तालाबों और जलाशयों में पानी की निरन्तर हो रही कमी को देखते हुए आने वाले समय में स्थिति और भी गम्भीर हो सकती है।हमारे यहाँ विशेष रूप से पिछले चार दशकों में देश में भूमिगत जल के दोहन पर बहुत जोर दिया गया है। जमीन के अन्दर वाले पानी के अत्यधिक दोहन ने ही वास्तविक रूप में जल संकट को जन्म दिया है। तर्कसंगत तो यही है कि जमीन से उतना ही पानी निकाला जाना चाहिए जिसकी पूर्ति वर्षा के जल से हो सके। उससे अधिक पानी निकालने का अर्थ है कि भावी पीढ़ियों को पानी के अकाल की तरफ ले जाना। भूजल की वर्षा के पानी से प्रतिपूर्ति के मार्ग में आज हमने कई कृत्रिम अवरोध पैदा कर दिए हैं। अधिकांश क्षेत्रों में वनों और वनस्पतियों का विनाश इसका एक प्रमुख कारण है। वर्तमान में वन क्षेत्र सिकुड़ जाने से जमीन के नीचे वर्षा जल के रिसाव में कमी आई है और कई क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषिका उत्पन्न हुई है। हमारी जल प्रणाली को असन्तुलित बनाने में नलकूपों द्वारा जल के अन्धाधुन्ध दोहन की प्रमुख भूमिका रही है। भूजल विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में करीब 43.2 करोड़ घनमीटर का ऐसा भूजल भण्डार है जिसकी प्रतिपूर्ति वर्षा जल से करना आसानी से सम्भव हो जाता है। इसके अलावा भी 19 करोड़ घनमीटर पानी को विशेष प्रयासों द्वारा भूजल भण्डार से जोड़ा जा सकता है। ऐसा भी अनुमान लगाया गया है कि इसके अतिरिक्त भी जमीन के नीचे करीब 108 करोड़ घनमीटर जल का भण्डार है। इस प्रकार कुल मिलाकर भारत में 170 करोड़ घनमीटर भूजल के विशाल भण्डार उपलब्ध हैं लेकिन देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता की दृष्टि से हमारे यह जल भण्डार काफी कम प्रतीत होते हैं। आजादी के बाद से विशेष रूप से इनमें भारी कमी आ रही है। देश में बढ़ती जनसंख्या, बड़े पैमाने पर शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण आजादी के समय जहाँ देश में प्रति व्यक्तिय 5,277 घनमीटर पानी उपलब्ध था वह अब घटकर मात्र 1,869 घनमीटर से भी कम रह गया है। तालाबों और जलाशयों में पानी की निरन्तर हो रही कमी को देखते हुए आने वाले समय में स्थिति और भी गम्भीर हो सकती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि निरन्तर घट रहे भूजल भण्डारों की क्षतिपूर्ति केवल बरसात के जल से हो सकती है लेकिन विडम्बना यह रही है कि बरसात के जल का हम भली प्रकार सदुपयोग नहीं कर पाते। हमारे यहाँ प्रतिवर्ष होने वाली औसतन 1,170 मिलीमीटर वर्षा दुनिया भर का अन्नदाता माने जाने वाले अमेरिका की औसत वर्षा से भी लगभग छह गुना अधिक है। इससे बरसात के दिनों में हमारी लगभग सभी नदियाँ पानी से लबालब भरी रहती हैं। अनेक स्थानों पर तो भीषण बाढ़ का भी आतंक छा जाता है। वर्षा और हिमपात मिलाकर वर्ष भर पानी की कुल मात्रा लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। यह विपुल जलराशि हम पर प्रकृति की कृपा का संकेत है मगर इसका समुचित संरक्षण न करना हमारी अपनी कमजोरी है। 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से लगभग सात करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है, साढ़े ग्यारह करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता हैं और लगभग साढ़े 12 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी धरती सोख लेती है। जिस पानी को धरती सोखती है वह हमारे पेड़-पौधों की प्यास बुझाता है, मिट्टी को नमी प्रदान करता है और कुएँ आदि में भूजल स्तर को बढ़ाता है। नदियों में बहने वाले पानी का कुछ भाग सिंचाई और उद्योग-धन्धे में या पेयजल के रूप में काम में आता है और शेष समुद्र के खारे पानी में मिलकर व्यर्थ हो जाता है। वर्षा तथा हिमपात से प्राप्त इस कुल पानी में से हमारे उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर अर्थात सिर्फ साढ़े नौ प्रतिशत ही आता है। धरती पर गिरने वाला काफी पानी यहाँ के गन्दे पानी से मिलकर प्रदूषित भी हो जाता है जो धरती के अन्दर जाकर ये नदियों के साथ बहकर प्रदूषण में वृद्धि करता है।
यह चिन्ताजनक स्थिति है कि स्वतन्त्रता के पाँच दशक बाद भी हमारे देश में लगभग 9 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत भाग अर्द्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1,750 लाख हेक्टेयर है जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें वर्ष 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी जिसमें उद्योगों लिए 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिए 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है। सन् 1991 में हमारी जनसंख्या 84 करोड़ थी जो अब 105 करोड़ की सीमा को पार कर चुकी है और अब इसके वर्ष 2025 में 153 करोड़ तक पहुँचने की सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यकता की अन्य वस्तुओं के साथ ही पानी की माँग में भी वृद्धि सहज स्वाभाविक है। मगर आपूर्ति की दृष्टि से स्थिति निराशाजनक है। देश के अधिकांश क्षेत्र में भूजल स्तर अत्यधिक दोहन के कारण निरन्तर गिरता जा रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा मई 1996 में उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत एक शपथपत्र के अनुसार दिल्ली में भूजल की गहराई तब 48 मीटर बताई गई थी। तब से अब तक निश्चित रूप से इसमें और भी कई मीटर की बढ़ोत्तरी हो गई है। गुजरात के मेहसाना जिले, तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले और सौराष्ट्र में भूमिगत जल की स्थिति पहले से ही शोचनीय है। राजस्थान में भूजल का स्तर पिछले 10 वर्षों में 5 से 10 मीटर तक नीचे गया है। यहाँ कुल 236 ब्लॉकों में से 66 ब्लॉक पानी की उपलब्धता की दृष्टि से ‘डार्क’ और ‘अतिदोहित’ जोन के रूप में घोषित किए गए हैं। तमिलनाडु में कुल 384 में से 97 तथा पंजाब में 118 में से 70 ब्लॉक ‘अतिदोहित’ और ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ गए हैं। अन्य कई प्रदेशों में इसी प्रकार की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं।
यह चिन्ताजनक स्थिति है कि स्वतन्त्रता के पाँच दशक बाद भी हमारे देश में लगभग 9 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत भाग अर्द्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1,750 लाख हेक्टेयर है जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है।उल्लेखनीय है कि जल भण्डारण की स्थिति का अनुमान लगाने के उद्देश्य से केन्द्रीय जल आयोग द्वारा देश की विभिन्न भागों में 68 महत्त्वपूर्ण जलाशयों की भण्डारण स्थिति की मॉनीटरिंग की जाती है। 294 हजार लाख घनमीटर के पूर्ण जलाशय स्तर पर कुल क्षमता की तुलना में इन जलाशयों में कुल सक्रिय भण्डारण 953 हजार लाख घनमीटर का अनुमान लगाया गया है। जल की उपलब्धता और उसके उपयोग से सम्बन्ध में आकलन हेतु पूरे देश को 4,272 खण्डों में विभाजित किया गया है। इनमें से 283 खण्ड अत्यधिक दोहन वाले हैं जिनमें जल का विकास वार्षिक जलापूर्ति से अधिक हुआ है। 125 खण्ड ऐसे हैं जहाँ भूमिगत जल का 85 प्रतिशत से अधिक विकास हुआ है। अवशेष खण्डों को सामान्य वर्ग के अन्तर्गत रखा गया है। हाल ही में प्रकाशित जल संसाधन विभाग के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में देश के 8 बड़े राज्य ऐसे हैं जिन्होंने अपने भूमिगत जल भण्डार और जलाशय भण्डारण का अतिदोहन कर लिया है। तालिका-1 में ऐसे अतिदोहन वाले राज्यों का वर्गीकरण किया गया है जिससे स्पष्ट है कि देश के 8 ऐसे राज्य अतिदोहन (100 प्रतिशत) और डार्क (100 से 85 प्रतिशत) की श्रेणी में आ गए हैं। वर्तमान समय में जबकि जल संकट एक गम्भीर रूप धारण करता जा रहा है, ऐसी स्थिति में इन आठ राज्यों की स्थिति तो अति गम्भीर परिणामों की ओर संकेत कर रही हैं। इन ब्लॉकों में स्थानीय संस्थाओं और अन्य सम्बन्धित सरकारी तन्त्रों को सतर्क रहने की आवश्यकता है। आज जल भण्डारों के अत्यधिक दोहन से देश के 4,272 ब्लॉकों में से 231 को अत्यधिक दोहन वाले वर्ग में रखा गया है तथा 107 ब्लॉक ‘डार्क’ हैं अर्थात जहाँ भूमिगत जल का 85 प्रतिशत से अधिक दोहन हो चुका है। इसके साथ आन्ध्र प्रदेश में 1,104 ब्लॉकों में से 6 को अत्यधिक दोहित तथा 24 मण्डलों को ‘डार्क’ वर्ग में रखा गया है। इसी प्रकार गुजरात में 184 तालुकाओं में 12 अत्यधिक दोहित और 14 तालुका ‘डार्क’ हैं तथा महाराष्ट्र में 1,503 जल सम्भरों में से 34 ‘डार्क’ हैं। केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड के अनुमान के अनुसार अब तक उपलब्ध भूमिगत जल संसाधनों के 32 प्रतिशत भाग का दोहन किया जा चुका है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से सामान्य रूप से सभी जगह जल स्तर में गिरावट आई है तथा तटवर्ती क्षेत्रों में जमीन के अन्दर खारा पानी घुस गया है। कुछ स्थानों में भूमिगत जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है जिससे यह पीने योग्य नहीं रह गया है, और कुछ मामलों में यह स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक हो गया है।
भूमिगत जल की स्थिति के अतिरिक्त यदि देश में वर्षा से प्राप्त होने वाले जल की स्थिति का अवलोकन करें, जो भूमिगत जल के उन्नयन का स्रोत है, तो पता चलता है कि वर्षा से हमारे देश में लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल प्रतिवर्ष प्राप्त होता है अर्थात यदि वर्षा से प्राप्त होने वाला ही कुल जल रोक लिया जाए तो 40 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर एक मीटर जल खड़ा हो जाएगा। अरबों रुपये खर्च करने के बाद अनेक बड़ी और छोटी योजनाएँ बनाकर हम अब तक केवल 3.8 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल का उपयोग कर सके हैं। वर्षा से प्राप्त शेष जल बाढ़ की स्थिति पैदा करता हुआ, गाँव के गाँव जलमग्न करता हुआ, भयंकर विनाशलीला करता हुआ न केवल समुद्र में पहुँचकर खारा हो जाता है बल्कि कृषि भूमि की उपजाऊ परत को बहाकर समुद्र में उड़ेल देता है। सतही जल के रूप में अभी भी देश में लाखों एकड़ में कई प्राकृतिक जलाशय, झीलें और लाखों किलोमीटर लम्बे नाले मौजूद हैं। इन सभी संसाधनों का यदि वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जाए तो काफी हद तक जल की समस्या पर काबू पाया जा सकता है और भूमिगत जल के दिनोंदिन नीचे जा रहे स्तर को भी ऊपर उठाया जा सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है और उसके लिए जिस मात्रा में दोहन किया जा रहा है उससे देश में वर्ष 2050 तक पानी का औसतन खर्च 1,168 अरब घन मीटर पहुँच जाएगा जबकि जल भण्डारण क्षमता 1,123 बिलियन घन मीटर ही होगी। हाल ही में सरकार द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के आधार पर प्रति व्यक्ति कम से कम 500 घन मीटर वार्षिक पानी की आवश्यकता है। अर्थात इसमें कमी होने पर हमारी व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकती। हालांकि स्वास्थ्य, आर्थिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से कम से कम 1,000 घन मीटर पानी प्रति व्यक्ति वार्षिक तौर पर उपलब्ध होना चाहिए। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार अगर अभी से जल संचयन पर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले दशकों में भारत का 30 प्रतिशत हिस्सा जल विहीन हो जाएगा और 16 प्रतिशत जनसंख्या इससे बुरी तरह प्रभावित होगी।
भारत सरकार द्वारा तैयार की गई मानव विकास रिपोर्ट, 2001 के अनुसार देश में पंजाब और दिल्ली के सर्वाधिक लोग सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल का प्रयोग करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों के करीब 92 प्रतिशत से अधिक परिवारों को सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था उपलब्ध है। दिल्ली में कुल 95.78 प्रतिशत जनसंख्या के पास स्वच्छ पेयजल के साधन उपलब्ध बताए गए हैं। तीसरा स्थान चण्डीगढ़ का हैं। दूसरी तरफ स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता में केवल सबसे पिछड़ा राज्य पाया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले केरल में केवल 18.89 प्रतिशत लोगों के पास सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल के साधन उपलब्ध हैं। लक्षद्वीप में तो केवल 11.9 प्रतिशत परिवारों के पास ही सुरक्षित पेयजल के साधन उपलब्ध हैं। स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल के सम्बन्ध में देश में पेयजल की सुविधा के विरतण में भारी असमानता भी है। भूजल के अत्यधिक दोहन एवं उसके अवैज्ञानिक प्रयोग के परिणामस्वरूप वर्तमान में पानी में फ्लोराइड और आर्सेनिक जैसे प्राकृतिक प्रदूषकों और कीटनाशकों जैसे रासायनिक प्रदूषकों की मात्रा बढ़ रही है। दुर्भाग्य की बात यह है कि इसमें से अनेक प्रदूषक तत्वों की पुख्ता वैज्ञानिक जाँच और पुष्टि करना भी प्रायः सम्भव नहीं हो पाता है। केन्द्र सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार पश्चिम बंगाल में लगभग 1,000 बस्तियों में रहने वाले लोग पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी से प्रभावित हैं। आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर भारत की कुल 28,000 बस्तियों में 1.4 करोड़ लोग पानी में फ्लोराइड की मौजूदगी का सामना कर रहे हैं। देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र तथा पूर्वी भागों में लौह तत्व की अधिकता पाई जाती है जिससे 58000 बस्तियों में 2.9 करोड़ लोग प्रभावित हैं। गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु में पानी में खारेपन की समस्या गम्भीर हैं।
जनसंख्या के बढ़ते दबाव और आधुनिक वैज्ञानिक युग के लोगों के जीवन स्तर में हो रहे सुधार के फलस्वरूप जल की खपत वैसे तो संसार के लगभग सभी देशों में तेजी से बढ़ रही है लेकिन हमारे यहाँ जनसंख्या के बढ़ते दबाव और जीवन की बढ़ती गुणवत्ता के कारण यह समस्या अधिक विकराल हो रही है। साथ ही साथ बढ़ते औद्योगीकरण और पर्यावरण प्रदूषण से उपलब्ध जल का बहुत बड़ा भाग उपयोग योग्य नहीं रह जाने के कारण सतही जल की तुलना में भूमिगत जल पर निर्भरता अधिक बढ़ी है। पृथ्वी के अन्दर जल स्तर में निरन्तर हो रही गिरावट में भूमिगत जलस्रोतों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने हेतु सोचने के लिए मजबूर किया है। इससे पहले कि भविष्य में जल संकट मानव जाति के लिए एक विशाल समस्या बने, एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर इसके लिए दूरगामी योजना बनाना और उसका क्रियान्वयन अपरिहार्य होगा। जल संसाधन के सन्दर्भ में हमारा देश संसार के गिने-चुने सम्पन्न देशों में आता है भले ही हम उपलब्ध जल का अनुकूलतम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। भूमिगत जल के भण्डार भी उपलब्ध हैं लेकिन इसकी गहराई निरन्तर बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल के अतिरिक्त सतही जल भी देश में काफी मात्रा में उपलब्ध है लेकिन इसका वास्तविक उपयोग बहुत कम है। साथ ही इसका 70 प्रतिशत भाग तो बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग को सुनिश्चित करने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा नई राष्ट्रीय जल नीति की घोषणा की गई है।
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद द्वारा 1 अप्रैल, 2002 को आम सहमति से राष्ट्रीय जल नीति, 2002 को स्वीकृति प्रदान की गई। इस नीति में उपयुक्त रूप जो विकसित सूचना व्यवस्था, जल संरक्षण के परम्परागत तरीकों, जल के प्रयोग के गैर-परम्परागत तरीकों और माँग के प्रबन्धन को महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। इसमें पर्याप्त संस्थागत प्रबन्धन के जरिये जल के पर्यावरण पक्ष और उसकी मात्रा एवं गुणवत्ता के पहलुओं का समन्वय किया गया है। इस नीति में किसी परियोजना को बनाते समय लाभ प्राप्त करने वालों और जल सम्बन्धी परियोजनाओं में भागीदारी दृष्टिकोण एवं निवेश करने वालों का ध्यान रखने पर जोर दिया गया है। नयी जल नीति में संसाधनों के एकीकृत प्रबन्धन और विकास के उद्देश्य से संस्थागत उपाय करने के साथ-साथ नदी जल और नदी भूमि सम्बन्धी अतिरिक्त विवादों के समाधान के लिए ‘नदी बेसिन संगठन’ गठित करने पर बल दिया गया है। संशोधित जल नीति, 2002 जिसने 1987 की जल नीति का स्थान लिया है, में सबके लिए पेयजल की व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है।
हमारी राष्ट्रीय जल नीति में जल को मानव जीवन तथा पशुओं के लिए पारिस्थितिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए, आर्थिक तथा अन्य सभी विकासात्मक गतिविधियों को संचालित करने के और जल की निरन्तर कमी होते जाने के कारण इसके उपयोग की उपयुक्त, सर्वहितकारी तथा मितव्ययी योजनाओं का समुचित प्रकार से नियोजन तथा प्रबन्धन किया जाना आवश्यक बताया गया है और देश के सभी भागों में जल के समुचित व्यवस्थाएँ करने पर जोर दिया गया है।जल संकट के वर्तमान दौर में हालांकि राष्ट्रीय जल नीति, 2002 हमारे लिए मात्र सान्त्वना का ही एक रूप कही जा सकती है। यह सैद्धान्तिक तौर पर एक ऐसा आश्वासन है जिससे देश में जल संसाधन के विकास और प्रबन्धन को एकीकृत स्वरूप देने का रास्ता साफ हो गया है। इस नीति के क्रियान्वयन के माध्यम से जल के यथोचित इस्तेमाल और परिमाणात्मक व गुणवत्ता की दृष्टि से पर्यावरणीय पक्षों की ओर ध्यान सुनिश्चित किय जाएगा, लेकिन किस प्रकार? यह स्पष्ट नहीं है। यह सचमुच ही एक बड़ी विडम्बना है कि जिस ग्रह का 70 प्रतिशत हिस्सा पानी से घिरा है, वहाँ स्वच्छ जल की उपलब्धता एक बड़ा प्रश्न है। भारत जैसे विकासशील और घनी आबादी वाले देश के लिए यह और भी कठिन चुनौती है कि बढ़ती जनसंख्या और घटते जल संसाधनों के चलते वह कैसे सभी देशवासियों को गुणवत्तायुक्त पीने का पानी उपलब्ध करा पाएगा। जल का संकट केवल इतना नहीं कि सतत दोहन के कारण भूजल स्तर लगातार गिर रहा है बल्कि उसमें शामिल होता घातक रासायनिक प्रदूषण, फिजूलखर्ची की आदत जैसे अनेक कारक सभी लोगों तक उसकी आसान पहुँच में बाधाएँ खड़ी कर रहे हैं। यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से भविष्य में पानी को लेकर होने वाली सम्भावित लड़ाइयों का खाका खींचा जा रहा है और कहा जा रहा है कि यदि कभी तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही लड़ा जाएगा। विडम्बना इस बात की है कि नदी घाटी सभ्यताओं से विकसित हुए देश में जहाँ गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी और गोदावरी जैसी नदियों में अथाह जल प्रवाहित होता है, वहाँ के राज्य पानी का घोर संकट झेलते हैं। कारण सिर्फ इतना है कि उपलब्ध जल के उचित वितरण की कोई व्यवस्था देश में नहीं हो पाई है। न तो ऐसे बाँध बहुतायत में बनाए गए हैं जो इन नदियों के प्रचुर जल को व्यर्थ समुद्र में बह जाने से रोकें और वर्षा के दिनों में मिलने वाले पानी का संचय कर सकें और न ही लोगों को इस बारे में सचेत किया गया है कि पानी की फिजुलखर्ची की उनकी आदत इस संकट को कितना बढ़ा रही है।
हमारी राष्ट्रीय जल नीति में जल को मानव जीवन तथा पशुओं के लिए पारिस्थितिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए, आर्थिक तथा अन्य सभी विकासात्मक गतिविधियों को संचालित करने के और जल की निरन्तर कमी होते जाने के कारण इसके उपयोग की उपयुक्त, सर्वहितकारी तथा मितव्ययी योजनाओं का समुचित प्रकार से नियोजन तथा प्रबन्धन किया जाना आवश्यक बताया गया है और देश के सभी भागों में जल के समुचित व्यवस्थाएँ करने पर जोर दिया गया है। सरकारी तौर पर इनमें से कुछ व्यवस्थाएँ की भी जा रही हैं और कुछ को किए जाने के प्रयास भी चल रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस जल नीति में जिन व्यवस्थाओं और कार्यक्रमों को लागू करके देश के जल संसाधनों के उपयुक्त और व्यापक प्रयोग की संकल्पना की गई है। उन्हें उस रूप में लागू करने के लिए समुचित रूप से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं लेकिन वर्तमान संकट को देखते हुए अब गम्भीरतापूर्वक इन प्रावधानों को लागू किया जाना नितान्त अनिवार्य है।
वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर आज ऐसी प्रौद्योगिकी की जरूरत है जिससे कृषि क्षेत्र में मौजूदा पानी का 10 से 50 प्रतिशत, औद्योगिक क्षेत्र में 40 से 90 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में लोगों की आदतों में सुधार के जरिये 30 से 35 प्रतिशत बचाया जा सकता है। यह भी प्रामाणिक तथ्य है कि पंजाब जैसे राज्य में जहाँ किसानों को बिजली और डीजल आदि पर सब्सिडी हासिल है, भूजल का तीव्र दोहन जारी है जो जल संकट की समस्या को और गहन कर रहा है। हमें ध्यान में रखना होगा कि पानी एक सामुदायिक धरोहर है, इसलिए उसके समुचित और विकेन्द्रीत वितरण की व्यवस्था बनाने का कोई विकल्प नीतियों में शामिल किया जाना उपेक्षित है। फिर भी यदि राष्ट्रीय जल नीति पानी बचाए रखने और उसके ठीक-ठाक इस्तेमाल की पहल कर पाई और सम्भावित संकट से उबरने का कोई रास्ता खुल सका तो निश्चय ही देशवासियों के लिए राहत की बात होगी। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि हमें अब सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद ही सही, सरकार देश की सभी बड़ी-बड़ी नदियों को जोड़कर राष्ट्रीय जलग्रिड बनाने हेतु प्रयासरत है। यह पानी की आपूर्ति की दिशा में एक शुभ संकेत कहा जा सकता है।
वर्तमान जल संकट का कुशलापूर्वक सामना करने हेतु जल संरक्षण पर ध्यान दिया जाना अत्यावश्यक है और जल संरक्षण की दिशा में वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु केवल जल नीति बना देने से या फिर छिट-पुट सरकारी प्रयासों से काम चलने वाला नहीं है बल्कि इस हेतु अब गहन रणनीति तैयार करके बहुस्तरीय प्रयास किया जाना आवश्यक हो गया है। उद्योगों द्वारा जलस्रोतों के लिए किए जा रहे अनियन्त्रित दोहन को रोकना एवं उनके द्वारा औद्योगिक कचरे को जलस्रोतों में मिलाने से रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाना भी नितान्त अपरिहार्य है। इस सम्बन्ध में यद्यपि कानून भी है लेकिन आवश्यकता है उनके प्रभावी क्रियान्वयन की। सच्चाई यह है कि इन कानूनों में कमियाँ होने और इनके अव्यवहारिक होने के कारण इनका भली-भाँति क्रियान्वयन नहीं हो सका है और ये पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुए हैं। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना और भूमिगत जल के अन्धाधुन्ध दोहन और जल के अवांछनीय प्रयोग को रोकने हेतु जनसामान्य को जानकारी देना भी अब अधिक प्रासंगिक हो गया है क्योंकि अभी तक लोगों को इस विषय में समुचित और तथ्यपरक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त, वर्तमान परिस्थितियों में अब भूमिगत जल के विकल्पों की खोज किया जाना भी अत्यावश्यक हो गया है। इसके विकल्प के रूप, में वर्षा से प्राप्त जल को जलाशयों में एकत्रित कर उनका अधिकतम उपयोग करना ही इस दिशा में एक उपयोगी प्रयास हो सकता है। संक्षेप में जल संरक्षण हेतु निम्नांकित व्यावहारिक उपायों पर अमल किया जाना सार्थक परिणाम दे सकता हैः
1. भूमिगत जल के अनियन्त्रित दोहन को रोकना एवं उद्योगों द्वारा औद्योगिक कचरे को जलस्रोतों में मिलाने से रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। हालांकि इस हेतु देश में कानून मौजूद हैं लेकिन उनको अधिक व्यावहारिक बनाते हुए उनके प्रभावी क्रियान्वयन किए जाने की महती आवश्यकता है।
2. वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को हर हालत में रोका जाना चाहिए जिससे भूमिगत जल के स्तर को तेजी से घटने से रोका जाना सम्भव हो सकेगा। साथ ही भूमिगत जल को नष्ट होने से बचाने के लिए ढलाव के क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण कराया जाना चाहिए। इससे पानी का बहाव रूकने के साथ-साथ भूक्षरण भी कम होगा तथा भूगर्भीय जलस्रोतों का पुनः भण्डारण हो सकेगा।
3. भूमिगत जल के विकल्पों की खोज किया जाना आवश्यक हो गया है। इस हेतु तालाबों, झीलों और नदियों में उपलब्ध जल को प्रदूषित होने से बचाकर उसका अधिकतम उपयोग करने हेतु जन सामान्य को जानकारी देते हुए प्रोत्साहित करने पर बल दिया जाना चाहिए।
4. वर्षा के जल का अधिकतम संग्रहण एवं संरक्षण किया जाना इस दिशा में अच्छे परिणाम दे सकता है। वर्तमान में इस दिशा में समुचित तकनीकें भी विकसित की जा चुकी हैं लेकिन इसके लिए स्थानीय जन सहयोग में परम्परागत तकनीकों का प्रयेाग करना ही अधिक व्यावहारिक होगा। एक आकलन के अनुसार यदि देश की कुल भूमि का 5 प्रतिशत अथवा 150 लाख हेक्टेयर भूमि क्षेत्र का गहराई तक पानी के संरक्षण के लिए प्रयोग किया जाए तो वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए 50 से 100 प्रतिशत क्षमता के दोहन पर 370 से 750 लाख हेक्टेयर मीटर जल मिल सकता है।
5. घरेलू कार्यों में भी जल के आवश्यकता से अधिक उपयोग को नियन्त्रित किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए घरों में आवश्यक रूप से जल मीटर लगाए जाने चाहिए तथा जल का अधिक उपयोग करने वालों पर कर का भार अधिक किया जाना चाहिए। इससे जल के अनावश्यक उपयोग में कमी आएगी।
6. कृषि में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों आदि के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाना अत्यावश्यक है। इनके अनियन्त्रित और गैर सूझ-बूझ के प्रयोग के कारण भूमिगत जल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है जिसे रोकने के लिए आवश्यक प्रयास किए जाने चाहिए।
7. अधिक से अधिक मात्रा में छोटे-बड़े बाँध बनाकर भारी मात्रा में बर्फ के पिघलने और वर्षा से प्राप्त होने वाले जल को एकत्रित कर उसे बहुउदेश्यीय प्रयोग के लिए रोका जाना चाहिए। इससे पानी का संकट तो दूर होगा ही साथ ही प्रतिवर्ष बाढ़ और सूखा के कारण करोड़ों-अरबों की जन-धन की होने वाली हानि को भी रोका जाना सम्भव हो सकेगा।
8. तालाबों आदि के चारों ओर पक्के घाट बनाए जाने चाहिए। इससे वर्षा के समय होने वाला मिट्टी का कटाव रूक जाएगा तथा आसपास दलदल भी नहीं बन पाएगी। जल क्षेत्रों के आसपास समुचित मात्रा में वृक्षारोपण कराया जाना भी आवश्यक है।
9. जल क्षेत्रों में साबुन, डिटर्जेण्ट आदि के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाने के व्यावहारिक पहलू पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि ये पदार्थ जल को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
10. चेकडैम बनाकर भी वर्षा से प्राप्त जल को बहकर चले जाने से रोका जाना चाहिए। इससे विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं को बेहतर बनाने में खास योगदान प्राप्त हो सकेगा।
11. शहरी क्षेत्रों में वर्षा के जल को रिचार्जिंग के उद्देश्य से सभी बड़े-बड़े भवनों को उनके मानचित्र स्वीकृति के साथ-साथ वर्षा के पानी को शहर के आसपास के जल क्षेत्र तक पहुँचाने हेतु पक्की नाली की व्यवस्था किया जाना आवश्यक कर दिया जाना चाहिए। इससे वर्षा से प्राप्त जल का काफी भाग भूमिगत जल के साथ मिल सकेगा और जल स्तर को तेजी से घटने से रोकना सम्भव हो सकेगा।
12. उद्योगों एवं घरेलू उपयोग के बाद निकले हुए दूषित जल को साफ करने के लिए सस्ती विधियों की खोज और उनके उपयोग को बढ़ावा दिया जाना जाना चाहिए। इससे प्राप्त जल को कृषि आदि कार्यों के लिए प्रयोग में लाने से इसकी उपयोगिता बढ़ेगी साथ ही इससे बढ़ने वाला प्रदूषण रोकने में भी सहायता प्राप्त होगी।
13. कृषि, घरेलू ऊर्जा तथा उद्योगों के घातक अवशिष्टों के विसर्जन के लिए जलस्रोतों से हटकर कोई अन्यत्र व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि इन अवशिष्टों से जलस्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
14. विद्युत तापगृहों द्वारा विषाक्त किए जाने वाले भूमिगत जल को बचाने के लिए भी कठोर उपाय किए जाने चाहिए। उल्लेखनीय है कि इन विद्युत गृहों से प्रतिदिन निकलने वाली राख वर्षां तक जमीन पर बेकार पड़ी रहती है जिसमें मिली हुई धातुएँ जमीन के अन्दर प्रवेश करके भूमिगत जल को विषाक्त बना देती हैं। अतः इस राख के शीघ्र निस्तारण हेतु प्रभावी उपाय किए जाने चाहिए ताकि भूमिगत जल को विषाक्त होने से बचाया जा सके।
15. जल संकट के निवारण में स्वयंसेवी संस्थाओं, संचार तथा प्रसार माध्यमों का विशेष योगदान हो सकता है। इसके लिए उन्हें जल संकट के सभी सम्भावित दुष्परिणामों तथा इससे जुड़े मुद्दों, जैसे पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारी, गरीबी, आदि के बारे में तथ्यपरक जानकारी पहुँचाने के विशेष पहल करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
आशा है कि उपर्युक्त सुझाव देश में जल समस्या के निराकरण में निश्चित रूप से मददगार साबित होंगे। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारत में जल संरक्षण और जलापूर्ति की समस्या को हमारी आपूर्ति एवं वितरण सम्बन्धी अर्थव्यवस्था ने अधिक विकराल रूप दे दिया है। अभी भी यदि हम इस दिशा में ईमानदारी और निष्ठापूर्वक समन्वित प्रयास कर सकें तो इस समस्या को समय रहते ही सुलझाया जा सकता है।
(लेखक राज्य नियोजन संस्थान, उ.प्र. के संयुक्त निदेशक हैं)
इस प्रकार स्पष्ट है कि निरन्तर घट रहे भूजल भण्डारों की क्षतिपूर्ति केवल बरसात के जल से हो सकती है लेकिन विडम्बना यह रही है कि बरसात के जल का हम भली प्रकार सदुपयोग नहीं कर पाते। हमारे यहाँ प्रतिवर्ष होने वाली औसतन 1,170 मिलीमीटर वर्षा दुनिया भर का अन्नदाता माने जाने वाले अमेरिका की औसत वर्षा से भी लगभग छह गुना अधिक है। इससे बरसात के दिनों में हमारी लगभग सभी नदियाँ पानी से लबालब भरी रहती हैं। अनेक स्थानों पर तो भीषण बाढ़ का भी आतंक छा जाता है। वर्षा और हिमपात मिलाकर वर्ष भर पानी की कुल मात्रा लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जाती है। यह विपुल जलराशि हम पर प्रकृति की कृपा का संकेत है मगर इसका समुचित संरक्षण न करना हमारी अपनी कमजोरी है। 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी में से लगभग सात करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है, साढ़े ग्यारह करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी नदियों में बह जाता हैं और लगभग साढ़े 12 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी धरती सोख लेती है। जिस पानी को धरती सोखती है वह हमारे पेड़-पौधों की प्यास बुझाता है, मिट्टी को नमी प्रदान करता है और कुएँ आदि में भूजल स्तर को बढ़ाता है। नदियों में बहने वाले पानी का कुछ भाग सिंचाई और उद्योग-धन्धे में या पेयजल के रूप में काम में आता है और शेष समुद्र के खारे पानी में मिलकर व्यर्थ हो जाता है। वर्षा तथा हिमपात से प्राप्त इस कुल पानी में से हमारे उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर अर्थात सिर्फ साढ़े नौ प्रतिशत ही आता है। धरती पर गिरने वाला काफी पानी यहाँ के गन्दे पानी से मिलकर प्रदूषित भी हो जाता है जो धरती के अन्दर जाकर ये नदियों के साथ बहकर प्रदूषण में वृद्धि करता है।
यह चिन्ताजनक स्थिति है कि स्वतन्त्रता के पाँच दशक बाद भी हमारे देश में लगभग 9 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत भाग अर्द्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1,750 लाख हेक्टेयर है जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है। एक अनुमान के अनुसार हमें वर्ष 2025 तक 770 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होगी जिसमें उद्योगों लिए 120 घन किलोमीटर और ऊर्जा उत्पादन के लिए 71 घन किलोमीटर पानी शामिल है। सन् 1991 में हमारी जनसंख्या 84 करोड़ थी जो अब 105 करोड़ की सीमा को पार कर चुकी है और अब इसके वर्ष 2025 में 153 करोड़ तक पहुँचने की सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। ऐसी स्थिति में आवश्यकता की अन्य वस्तुओं के साथ ही पानी की माँग में भी वृद्धि सहज स्वाभाविक है। मगर आपूर्ति की दृष्टि से स्थिति निराशाजनक है। देश के अधिकांश क्षेत्र में भूजल स्तर अत्यधिक दोहन के कारण निरन्तर गिरता जा रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड द्वारा मई 1996 में उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत एक शपथपत्र के अनुसार दिल्ली में भूजल की गहराई तब 48 मीटर बताई गई थी। तब से अब तक निश्चित रूप से इसमें और भी कई मीटर की बढ़ोत्तरी हो गई है। गुजरात के मेहसाना जिले, तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले और सौराष्ट्र में भूमिगत जल की स्थिति पहले से ही शोचनीय है। राजस्थान में भूजल का स्तर पिछले 10 वर्षों में 5 से 10 मीटर तक नीचे गया है। यहाँ कुल 236 ब्लॉकों में से 66 ब्लॉक पानी की उपलब्धता की दृष्टि से ‘डार्क’ और ‘अतिदोहित’ जोन के रूप में घोषित किए गए हैं। तमिलनाडु में कुल 384 में से 97 तथा पंजाब में 118 में से 70 ब्लॉक ‘अतिदोहित’ और ‘डार्क जोन’ की श्रेणी में आ गए हैं। अन्य कई प्रदेशों में इसी प्रकार की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं।
यह चिन्ताजनक स्थिति है कि स्वतन्त्रता के पाँच दशक बाद भी हमारे देश में लगभग 9 फीसदी क्षेत्र पूरी तरह सूखा है और 40 प्रतिशत भाग अर्द्धशुष्क है। देश में कुल फसली क्षेत्र 1,750 लाख हेक्टेयर है जिसकी सिंचाई के लिए 260 घन किलोमीटर पानी की आवश्यकता होती है। पानी की कम उपलब्धता के कारण केवल 1,450 लाख हेक्टेयर भूमि में फसल बोई जाती है।उल्लेखनीय है कि जल भण्डारण की स्थिति का अनुमान लगाने के उद्देश्य से केन्द्रीय जल आयोग द्वारा देश की विभिन्न भागों में 68 महत्त्वपूर्ण जलाशयों की भण्डारण स्थिति की मॉनीटरिंग की जाती है। 294 हजार लाख घनमीटर के पूर्ण जलाशय स्तर पर कुल क्षमता की तुलना में इन जलाशयों में कुल सक्रिय भण्डारण 953 हजार लाख घनमीटर का अनुमान लगाया गया है। जल की उपलब्धता और उसके उपयोग से सम्बन्ध में आकलन हेतु पूरे देश को 4,272 खण्डों में विभाजित किया गया है। इनमें से 283 खण्ड अत्यधिक दोहन वाले हैं जिनमें जल का विकास वार्षिक जलापूर्ति से अधिक हुआ है। 125 खण्ड ऐसे हैं जहाँ भूमिगत जल का 85 प्रतिशत से अधिक विकास हुआ है। अवशेष खण्डों को सामान्य वर्ग के अन्तर्गत रखा गया है। हाल ही में प्रकाशित जल संसाधन विभाग के एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में देश के 8 बड़े राज्य ऐसे हैं जिन्होंने अपने भूमिगत जल भण्डार और जलाशय भण्डारण का अतिदोहन कर लिया है। तालिका-1 में ऐसे अतिदोहन वाले राज्यों का वर्गीकरण किया गया है जिससे स्पष्ट है कि देश के 8 ऐसे राज्य अतिदोहन (100 प्रतिशत) और डार्क (100 से 85 प्रतिशत) की श्रेणी में आ गए हैं। वर्तमान समय में जबकि जल संकट एक गम्भीर रूप धारण करता जा रहा है, ऐसी स्थिति में इन आठ राज्यों की स्थिति तो अति गम्भीर परिणामों की ओर संकेत कर रही हैं। इन ब्लॉकों में स्थानीय संस्थाओं और अन्य सम्बन्धित सरकारी तन्त्रों को सतर्क रहने की आवश्यकता है। आज जल भण्डारों के अत्यधिक दोहन से देश के 4,272 ब्लॉकों में से 231 को अत्यधिक दोहन वाले वर्ग में रखा गया है तथा 107 ब्लॉक ‘डार्क’ हैं अर्थात जहाँ भूमिगत जल का 85 प्रतिशत से अधिक दोहन हो चुका है। इसके साथ आन्ध्र प्रदेश में 1,104 ब्लॉकों में से 6 को अत्यधिक दोहित तथा 24 मण्डलों को ‘डार्क’ वर्ग में रखा गया है। इसी प्रकार गुजरात में 184 तालुकाओं में 12 अत्यधिक दोहित और 14 तालुका ‘डार्क’ हैं तथा महाराष्ट्र में 1,503 जल सम्भरों में से 34 ‘डार्क’ हैं। केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड के अनुमान के अनुसार अब तक उपलब्ध भूमिगत जल संसाधनों के 32 प्रतिशत भाग का दोहन किया जा चुका है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से सामान्य रूप से सभी जगह जल स्तर में गिरावट आई है तथा तटवर्ती क्षेत्रों में जमीन के अन्दर खारा पानी घुस गया है। कुछ स्थानों में भूमिगत जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है जिससे यह पीने योग्य नहीं रह गया है, और कुछ मामलों में यह स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक हो गया है।
तालिका-1: प्रमुख राज्यों में जल का अतिदोहन करने वाले जिले और ब्लॉक | ||||
राज्य | जिलों की संख्या | ब्लॉक/मण्डलों/तालुकों/जल सम्भरों की संख्या | अतिदोहित व डार्क ब्लॉकों की संख्या | अतिदोहित व डार्क ब्लॉक प्रतिशत में |
आन्ध्र प्रदेश | 23 | 1104 | 30 | 2.71 |
गुजरात | 19 | 184 | 26 | 14.13 |
हरियाणा | 16 | 108 | 51 | 47.23 |
कर्नाटक | 19 | 175 | 18 | 10.29 |
पंजाब | 12 | 118 | 70 | 59.32 |
राजस्थान | 30 | 236 | 66 | 22.73 |
तमिलनाडु | 21 | 384 | 97 | 25.26 |
उत्तर प्रदेश | 63 | 895 | 41 | 4.58 |
भारत में पाए जाने वाले सम्पूर्ण जल संसाधनों पर दृष्टिपात करें तो विदित होता है कि यहाँ की नदी प्रणाली में 1,869 घन कि.मी. जल होने का अनुमान है। इसमें से लगभग 690 घन कि.मी. जल प्रयोग में लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देश में भूमिगत जल का भी समुचित मात्रा में भण्डार उपलब्ध है। भूमिगत जल के रूप में हमारे यहाँ 433.86 घन कि.मी., अर्थात 433.86 लाख हेक्टेयर मीटर जल प्रतिवर्ष होने का अनुमान लगाया गया है। इसमें से वर्तमान में 71.3 लाख हेक्टेयर मीटर पानी का उपयोग प्रतिवर्ष घरेलू एवं औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए किया जाता है। देश में सिंचाई के लिए प्रतिवर्ष लगभग 362.6 लाख हेक्टेयर जल उपलब्ध है। वर्तमान में यहाँ प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता मात्र 1,869 घन मीटर है जबकि वर्ष 1951 में यह 5177 घन मीटर थी। अर्थात गत 50 वर्षों में यह घटकर लगभग एक तिहाई रह गई है। तालिका-2 में दिए गए विवरण से स्पष्ट होता है कि जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के फलस्वरूप वर्ष 2050 तक यह घटकर 1,235 घन मीटर प्रति व्यक्ति वार्षिक रह जाएगी।
भूमिगत जल की स्थिति के अतिरिक्त यदि देश में वर्षा से प्राप्त होने वाले जल की स्थिति का अवलोकन करें, जो भूमिगत जल के उन्नयन का स्रोत है, तो पता चलता है कि वर्षा से हमारे देश में लगभग 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल प्रतिवर्ष प्राप्त होता है अर्थात यदि वर्षा से प्राप्त होने वाला ही कुल जल रोक लिया जाए तो 40 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर एक मीटर जल खड़ा हो जाएगा। अरबों रुपये खर्च करने के बाद अनेक बड़ी और छोटी योजनाएँ बनाकर हम अब तक केवल 3.8 करोड़ हेक्टेयर मीटर जल का उपयोग कर सके हैं। वर्षा से प्राप्त शेष जल बाढ़ की स्थिति पैदा करता हुआ, गाँव के गाँव जलमग्न करता हुआ, भयंकर विनाशलीला करता हुआ न केवल समुद्र में पहुँचकर खारा हो जाता है बल्कि कृषि भूमि की उपजाऊ परत को बहाकर समुद्र में उड़ेल देता है। सतही जल के रूप में अभी भी देश में लाखों एकड़ में कई प्राकृतिक जलाशय, झीलें और लाखों किलोमीटर लम्बे नाले मौजूद हैं। इन सभी संसाधनों का यदि वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जाए तो काफी हद तक जल की समस्या पर काबू पाया जा सकता है और भूमिगत जल के दिनोंदिन नीचे जा रहे स्तर को भी ऊपर उठाया जा सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि जिस तरह से जनसंख्या बढ़ रही है और उसके लिए जिस मात्रा में दोहन किया जा रहा है उससे देश में वर्ष 2050 तक पानी का औसतन खर्च 1,168 अरब घन मीटर पहुँच जाएगा जबकि जल भण्डारण क्षमता 1,123 बिलियन घन मीटर ही होगी। हाल ही में सरकार द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के आधार पर प्रति व्यक्ति कम से कम 500 घन मीटर वार्षिक पानी की आवश्यकता है। अर्थात इसमें कमी होने पर हमारी व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकती। हालांकि स्वास्थ्य, आर्थिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से कम से कम 1,000 घन मीटर पानी प्रति व्यक्ति वार्षिक तौर पर उपलब्ध होना चाहिए। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार अगर अभी से जल संचयन पर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले दशकों में भारत का 30 प्रतिशत हिस्सा जल विहीन हो जाएगा और 16 प्रतिशत जनसंख्या इससे बुरी तरह प्रभावित होगी।
तालिका-2: भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के अनुमान | ||
वर्ष | कुल जनसंख्या (करोड़ में) | प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता (घन मीटर में) |
1901 | 23.8 | 8192 |
1947 | 33.4 | 5694 |
1951 | 36.1 | 5177 |
1991 | 84.3 | 2308 |
2001 | 102.7 | 1869 |
2010 | 114.6 | 1704 |
2025 | 133.3 | 1465 |
2050 | 158.1 | 1235 |
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में इस समय लगभग 80 प्रतिशत बीमारियाँ शुद्ध जल की कमी के कारण उत्पन्न हो रही हैं। पिछड़े और विकासशीलों देशों में तपेदिक, डायरिया, पेट और सांस की बीमारियाँ तथा कैंसर सहित अनेक रोगों की जड़ शुद्ध पेयजल का अभाव है। इसी कारण करोड़ों लोग चर्म और आँख के रोगों से ग्रस्त हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार वर्ष 1991 में पेरू में जो हैजा फैला था उसका भी प्रमुख कारण शुद्ध पेयजल का अभाव था। भारत में किए गए एक अध्ययन के अनुसार एक हजार नवजात शिशुओं में से लगभग 127 बच्चे हैजा, डायरिया तथा प्रदूषित जल से उत्पन्न अन्य रोगों से मर जाते हैं। एक वर्ष से 5 वर्ष की आयु के लगभग 15 लाख बच्चे प्रतिवर्ष प्रदूषित जल के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। राजस्थान के बड़े क्षेत्र में फ्लोराइडयुक्त दूषित जल पीने से यहाँ के निवासी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसे भयानक अस्थि रोगों के शिकार हो रहे हैं जिनका कोई उपचार नहीं है। हमारे यहाँ जनसंख्या के एक बड़े भाग को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है।
भारत सरकार द्वारा तैयार की गई मानव विकास रिपोर्ट, 2001 के अनुसार देश में पंजाब और दिल्ली के सर्वाधिक लोग सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल का प्रयोग करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों के करीब 92 प्रतिशत से अधिक परिवारों को सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था उपलब्ध है। दिल्ली में कुल 95.78 प्रतिशत जनसंख्या के पास स्वच्छ पेयजल के साधन उपलब्ध बताए गए हैं। तीसरा स्थान चण्डीगढ़ का हैं। दूसरी तरफ स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता में केवल सबसे पिछड़ा राज्य पाया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी माने जाने वाले केरल में केवल 18.89 प्रतिशत लोगों के पास सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल के साधन उपलब्ध हैं। लक्षद्वीप में तो केवल 11.9 प्रतिशत परिवारों के पास ही सुरक्षित पेयजल के साधन उपलब्ध हैं। स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल के सम्बन्ध में देश में पेयजल की सुविधा के विरतण में भारी असमानता भी है। भूजल के अत्यधिक दोहन एवं उसके अवैज्ञानिक प्रयोग के परिणामस्वरूप वर्तमान में पानी में फ्लोराइड और आर्सेनिक जैसे प्राकृतिक प्रदूषकों और कीटनाशकों जैसे रासायनिक प्रदूषकों की मात्रा बढ़ रही है। दुर्भाग्य की बात यह है कि इसमें से अनेक प्रदूषक तत्वों की पुख्ता वैज्ञानिक जाँच और पुष्टि करना भी प्रायः सम्भव नहीं हो पाता है। केन्द्र सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार पश्चिम बंगाल में लगभग 1,000 बस्तियों में रहने वाले लोग पानी में आर्सेनिक की मौजूदगी से प्रभावित हैं। आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर भारत की कुल 28,000 बस्तियों में 1.4 करोड़ लोग पानी में फ्लोराइड की मौजूदगी का सामना कर रहे हैं। देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र तथा पूर्वी भागों में लौह तत्व की अधिकता पाई जाती है जिससे 58000 बस्तियों में 2.9 करोड़ लोग प्रभावित हैं। गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु में पानी में खारेपन की समस्या गम्भीर हैं।
जनसंख्या के बढ़ते दबाव और आधुनिक वैज्ञानिक युग के लोगों के जीवन स्तर में हो रहे सुधार के फलस्वरूप जल की खपत वैसे तो संसार के लगभग सभी देशों में तेजी से बढ़ रही है लेकिन हमारे यहाँ जनसंख्या के बढ़ते दबाव और जीवन की बढ़ती गुणवत्ता के कारण यह समस्या अधिक विकराल हो रही है। साथ ही साथ बढ़ते औद्योगीकरण और पर्यावरण प्रदूषण से उपलब्ध जल का बहुत बड़ा भाग उपयोग योग्य नहीं रह जाने के कारण सतही जल की तुलना में भूमिगत जल पर निर्भरता अधिक बढ़ी है। पृथ्वी के अन्दर जल स्तर में निरन्तर हो रही गिरावट में भूमिगत जलस्रोतों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने हेतु सोचने के लिए मजबूर किया है। इससे पहले कि भविष्य में जल संकट मानव जाति के लिए एक विशाल समस्या बने, एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर इसके लिए दूरगामी योजना बनाना और उसका क्रियान्वयन अपरिहार्य होगा। जल संसाधन के सन्दर्भ में हमारा देश संसार के गिने-चुने सम्पन्न देशों में आता है भले ही हम उपलब्ध जल का अनुकूलतम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। भूमिगत जल के भण्डार भी उपलब्ध हैं लेकिन इसकी गहराई निरन्तर बढ़ती जा रही है। भूमिगत जल के अतिरिक्त सतही जल भी देश में काफी मात्रा में उपलब्ध है लेकिन इसका वास्तविक उपयोग बहुत कम है। साथ ही इसका 70 प्रतिशत भाग तो बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग को सुनिश्चित करने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा नई राष्ट्रीय जल नीति की घोषणा की गई है।
राष्ट्रीय जल नीति, 2002
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद द्वारा 1 अप्रैल, 2002 को आम सहमति से राष्ट्रीय जल नीति, 2002 को स्वीकृति प्रदान की गई। इस नीति में उपयुक्त रूप जो विकसित सूचना व्यवस्था, जल संरक्षण के परम्परागत तरीकों, जल के प्रयोग के गैर-परम्परागत तरीकों और माँग के प्रबन्धन को महत्त्वपूर्ण तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। इसमें पर्याप्त संस्थागत प्रबन्धन के जरिये जल के पर्यावरण पक्ष और उसकी मात्रा एवं गुणवत्ता के पहलुओं का समन्वय किया गया है। इस नीति में किसी परियोजना को बनाते समय लाभ प्राप्त करने वालों और जल सम्बन्धी परियोजनाओं में भागीदारी दृष्टिकोण एवं निवेश करने वालों का ध्यान रखने पर जोर दिया गया है। नयी जल नीति में संसाधनों के एकीकृत प्रबन्धन और विकास के उद्देश्य से संस्थागत उपाय करने के साथ-साथ नदी जल और नदी भूमि सम्बन्धी अतिरिक्त विवादों के समाधान के लिए ‘नदी बेसिन संगठन’ गठित करने पर बल दिया गया है। संशोधित जल नीति, 2002 जिसने 1987 की जल नीति का स्थान लिया है, में सबके लिए पेयजल की व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गई है।
हमारी राष्ट्रीय जल नीति में जल को मानव जीवन तथा पशुओं के लिए पारिस्थितिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए, आर्थिक तथा अन्य सभी विकासात्मक गतिविधियों को संचालित करने के और जल की निरन्तर कमी होते जाने के कारण इसके उपयोग की उपयुक्त, सर्वहितकारी तथा मितव्ययी योजनाओं का समुचित प्रकार से नियोजन तथा प्रबन्धन किया जाना आवश्यक बताया गया है और देश के सभी भागों में जल के समुचित व्यवस्थाएँ करने पर जोर दिया गया है।जल संकट के वर्तमान दौर में हालांकि राष्ट्रीय जल नीति, 2002 हमारे लिए मात्र सान्त्वना का ही एक रूप कही जा सकती है। यह सैद्धान्तिक तौर पर एक ऐसा आश्वासन है जिससे देश में जल संसाधन के विकास और प्रबन्धन को एकीकृत स्वरूप देने का रास्ता साफ हो गया है। इस नीति के क्रियान्वयन के माध्यम से जल के यथोचित इस्तेमाल और परिमाणात्मक व गुणवत्ता की दृष्टि से पर्यावरणीय पक्षों की ओर ध्यान सुनिश्चित किय जाएगा, लेकिन किस प्रकार? यह स्पष्ट नहीं है। यह सचमुच ही एक बड़ी विडम्बना है कि जिस ग्रह का 70 प्रतिशत हिस्सा पानी से घिरा है, वहाँ स्वच्छ जल की उपलब्धता एक बड़ा प्रश्न है। भारत जैसे विकासशील और घनी आबादी वाले देश के लिए यह और भी कठिन चुनौती है कि बढ़ती जनसंख्या और घटते जल संसाधनों के चलते वह कैसे सभी देशवासियों को गुणवत्तायुक्त पीने का पानी उपलब्ध करा पाएगा। जल का संकट केवल इतना नहीं कि सतत दोहन के कारण भूजल स्तर लगातार गिर रहा है बल्कि उसमें शामिल होता घातक रासायनिक प्रदूषण, फिजूलखर्ची की आदत जैसे अनेक कारक सभी लोगों तक उसकी आसान पहुँच में बाधाएँ खड़ी कर रहे हैं। यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से भविष्य में पानी को लेकर होने वाली सम्भावित लड़ाइयों का खाका खींचा जा रहा है और कहा जा रहा है कि यदि कभी तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वह पानी के लिए ही लड़ा जाएगा। विडम्बना इस बात की है कि नदी घाटी सभ्यताओं से विकसित हुए देश में जहाँ गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी और गोदावरी जैसी नदियों में अथाह जल प्रवाहित होता है, वहाँ के राज्य पानी का घोर संकट झेलते हैं। कारण सिर्फ इतना है कि उपलब्ध जल के उचित वितरण की कोई व्यवस्था देश में नहीं हो पाई है। न तो ऐसे बाँध बहुतायत में बनाए गए हैं जो इन नदियों के प्रचुर जल को व्यर्थ समुद्र में बह जाने से रोकें और वर्षा के दिनों में मिलने वाले पानी का संचय कर सकें और न ही लोगों को इस बारे में सचेत किया गया है कि पानी की फिजुलखर्ची की उनकी आदत इस संकट को कितना बढ़ा रही है।
हमारी राष्ट्रीय जल नीति में जल को मानव जीवन तथा पशुओं के लिए पारिस्थितिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए, आर्थिक तथा अन्य सभी विकासात्मक गतिविधियों को संचालित करने के और जल की निरन्तर कमी होते जाने के कारण इसके उपयोग की उपयुक्त, सर्वहितकारी तथा मितव्ययी योजनाओं का समुचित प्रकार से नियोजन तथा प्रबन्धन किया जाना आवश्यक बताया गया है और देश के सभी भागों में जल के समुचित व्यवस्थाएँ करने पर जोर दिया गया है। सरकारी तौर पर इनमें से कुछ व्यवस्थाएँ की भी जा रही हैं और कुछ को किए जाने के प्रयास भी चल रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इस जल नीति में जिन व्यवस्थाओं और कार्यक्रमों को लागू करके देश के जल संसाधनों के उपयुक्त और व्यापक प्रयोग की संकल्पना की गई है। उन्हें उस रूप में लागू करने के लिए समुचित रूप से प्रयास नहीं किए जा रहे हैं लेकिन वर्तमान संकट को देखते हुए अब गम्भीरतापूर्वक इन प्रावधानों को लागू किया जाना नितान्त अनिवार्य है।
वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनजर आज ऐसी प्रौद्योगिकी की जरूरत है जिससे कृषि क्षेत्र में मौजूदा पानी का 10 से 50 प्रतिशत, औद्योगिक क्षेत्र में 40 से 90 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में लोगों की आदतों में सुधार के जरिये 30 से 35 प्रतिशत बचाया जा सकता है। यह भी प्रामाणिक तथ्य है कि पंजाब जैसे राज्य में जहाँ किसानों को बिजली और डीजल आदि पर सब्सिडी हासिल है, भूजल का तीव्र दोहन जारी है जो जल संकट की समस्या को और गहन कर रहा है। हमें ध्यान में रखना होगा कि पानी एक सामुदायिक धरोहर है, इसलिए उसके समुचित और विकेन्द्रीत वितरण की व्यवस्था बनाने का कोई विकल्प नीतियों में शामिल किया जाना उपेक्षित है। फिर भी यदि राष्ट्रीय जल नीति पानी बचाए रखने और उसके ठीक-ठाक इस्तेमाल की पहल कर पाई और सम्भावित संकट से उबरने का कोई रास्ता खुल सका तो निश्चय ही देशवासियों के लिए राहत की बात होगी। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि हमें अब सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद ही सही, सरकार देश की सभी बड़ी-बड़ी नदियों को जोड़कर राष्ट्रीय जलग्रिड बनाने हेतु प्रयासरत है। यह पानी की आपूर्ति की दिशा में एक शुभ संकेत कहा जा सकता है।
जल संसाधनों के संरक्षण हेतु व्यावहारिक सुझाव
वर्तमान जल संकट का कुशलापूर्वक सामना करने हेतु जल संरक्षण पर ध्यान दिया जाना अत्यावश्यक है और जल संरक्षण की दिशा में वांछित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु केवल जल नीति बना देने से या फिर छिट-पुट सरकारी प्रयासों से काम चलने वाला नहीं है बल्कि इस हेतु अब गहन रणनीति तैयार करके बहुस्तरीय प्रयास किया जाना आवश्यक हो गया है। उद्योगों द्वारा जलस्रोतों के लिए किए जा रहे अनियन्त्रित दोहन को रोकना एवं उनके द्वारा औद्योगिक कचरे को जलस्रोतों में मिलाने से रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाना भी नितान्त अपरिहार्य है। इस सम्बन्ध में यद्यपि कानून भी है लेकिन आवश्यकता है उनके प्रभावी क्रियान्वयन की। सच्चाई यह है कि इन कानूनों में कमियाँ होने और इनके अव्यवहारिक होने के कारण इनका भली-भाँति क्रियान्वयन नहीं हो सका है और ये पूरी तरह से निष्क्रिय साबित हुए हैं। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोकना और भूमिगत जल के अन्धाधुन्ध दोहन और जल के अवांछनीय प्रयोग को रोकने हेतु जनसामान्य को जानकारी देना भी अब अधिक प्रासंगिक हो गया है क्योंकि अभी तक लोगों को इस विषय में समुचित और तथ्यपरक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त, वर्तमान परिस्थितियों में अब भूमिगत जल के विकल्पों की खोज किया जाना भी अत्यावश्यक हो गया है। इसके विकल्प के रूप, में वर्षा से प्राप्त जल को जलाशयों में एकत्रित कर उनका अधिकतम उपयोग करना ही इस दिशा में एक उपयोगी प्रयास हो सकता है। संक्षेप में जल संरक्षण हेतु निम्नांकित व्यावहारिक उपायों पर अमल किया जाना सार्थक परिणाम दे सकता हैः
1. भूमिगत जल के अनियन्त्रित दोहन को रोकना एवं उद्योगों द्वारा औद्योगिक कचरे को जलस्रोतों में मिलाने से रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। हालांकि इस हेतु देश में कानून मौजूद हैं लेकिन उनको अधिक व्यावहारिक बनाते हुए उनके प्रभावी क्रियान्वयन किए जाने की महती आवश्यकता है।
2. वनों की अन्धाधुन्ध कटाई को हर हालत में रोका जाना चाहिए जिससे भूमिगत जल के स्तर को तेजी से घटने से रोका जाना सम्भव हो सकेगा। साथ ही भूमिगत जल को नष्ट होने से बचाने के लिए ढलाव के क्षेत्र में सघन वृक्षारोपण कराया जाना चाहिए। इससे पानी का बहाव रूकने के साथ-साथ भूक्षरण भी कम होगा तथा भूगर्भीय जलस्रोतों का पुनः भण्डारण हो सकेगा।
3. भूमिगत जल के विकल्पों की खोज किया जाना आवश्यक हो गया है। इस हेतु तालाबों, झीलों और नदियों में उपलब्ध जल को प्रदूषित होने से बचाकर उसका अधिकतम उपयोग करने हेतु जन सामान्य को जानकारी देते हुए प्रोत्साहित करने पर बल दिया जाना चाहिए।
4. वर्षा के जल का अधिकतम संग्रहण एवं संरक्षण किया जाना इस दिशा में अच्छे परिणाम दे सकता है। वर्तमान में इस दिशा में समुचित तकनीकें भी विकसित की जा चुकी हैं लेकिन इसके लिए स्थानीय जन सहयोग में परम्परागत तकनीकों का प्रयेाग करना ही अधिक व्यावहारिक होगा। एक आकलन के अनुसार यदि देश की कुल भूमि का 5 प्रतिशत अथवा 150 लाख हेक्टेयर भूमि क्षेत्र का गहराई तक पानी के संरक्षण के लिए प्रयोग किया जाए तो वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए 50 से 100 प्रतिशत क्षमता के दोहन पर 370 से 750 लाख हेक्टेयर मीटर जल मिल सकता है।
5. घरेलू कार्यों में भी जल के आवश्यकता से अधिक उपयोग को नियन्त्रित किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए घरों में आवश्यक रूप से जल मीटर लगाए जाने चाहिए तथा जल का अधिक उपयोग करने वालों पर कर का भार अधिक किया जाना चाहिए। इससे जल के अनावश्यक उपयोग में कमी आएगी।
6. कृषि में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों आदि के प्रयोग को नियन्त्रित किया जाना अत्यावश्यक है। इनके अनियन्त्रित और गैर सूझ-बूझ के प्रयोग के कारण भूमिगत जल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है जिसे रोकने के लिए आवश्यक प्रयास किए जाने चाहिए।
7. अधिक से अधिक मात्रा में छोटे-बड़े बाँध बनाकर भारी मात्रा में बर्फ के पिघलने और वर्षा से प्राप्त होने वाले जल को एकत्रित कर उसे बहुउदेश्यीय प्रयोग के लिए रोका जाना चाहिए। इससे पानी का संकट तो दूर होगा ही साथ ही प्रतिवर्ष बाढ़ और सूखा के कारण करोड़ों-अरबों की जन-धन की होने वाली हानि को भी रोका जाना सम्भव हो सकेगा।
8. तालाबों आदि के चारों ओर पक्के घाट बनाए जाने चाहिए। इससे वर्षा के समय होने वाला मिट्टी का कटाव रूक जाएगा तथा आसपास दलदल भी नहीं बन पाएगी। जल क्षेत्रों के आसपास समुचित मात्रा में वृक्षारोपण कराया जाना भी आवश्यक है।
9. जल क्षेत्रों में साबुन, डिटर्जेण्ट आदि के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाने के व्यावहारिक पहलू पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि ये पदार्थ जल को प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
10. चेकडैम बनाकर भी वर्षा से प्राप्त जल को बहकर चले जाने से रोका जाना चाहिए। इससे विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं को बेहतर बनाने में खास योगदान प्राप्त हो सकेगा।
11. शहरी क्षेत्रों में वर्षा के जल को रिचार्जिंग के उद्देश्य से सभी बड़े-बड़े भवनों को उनके मानचित्र स्वीकृति के साथ-साथ वर्षा के पानी को शहर के आसपास के जल क्षेत्र तक पहुँचाने हेतु पक्की नाली की व्यवस्था किया जाना आवश्यक कर दिया जाना चाहिए। इससे वर्षा से प्राप्त जल का काफी भाग भूमिगत जल के साथ मिल सकेगा और जल स्तर को तेजी से घटने से रोकना सम्भव हो सकेगा।
12. उद्योगों एवं घरेलू उपयोग के बाद निकले हुए दूषित जल को साफ करने के लिए सस्ती विधियों की खोज और उनके उपयोग को बढ़ावा दिया जाना जाना चाहिए। इससे प्राप्त जल को कृषि आदि कार्यों के लिए प्रयोग में लाने से इसकी उपयोगिता बढ़ेगी साथ ही इससे बढ़ने वाला प्रदूषण रोकने में भी सहायता प्राप्त होगी।
13. कृषि, घरेलू ऊर्जा तथा उद्योगों के घातक अवशिष्टों के विसर्जन के लिए जलस्रोतों से हटकर कोई अन्यत्र व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि इन अवशिष्टों से जलस्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
14. विद्युत तापगृहों द्वारा विषाक्त किए जाने वाले भूमिगत जल को बचाने के लिए भी कठोर उपाय किए जाने चाहिए। उल्लेखनीय है कि इन विद्युत गृहों से प्रतिदिन निकलने वाली राख वर्षां तक जमीन पर बेकार पड़ी रहती है जिसमें मिली हुई धातुएँ जमीन के अन्दर प्रवेश करके भूमिगत जल को विषाक्त बना देती हैं। अतः इस राख के शीघ्र निस्तारण हेतु प्रभावी उपाय किए जाने चाहिए ताकि भूमिगत जल को विषाक्त होने से बचाया जा सके।
15. जल संकट के निवारण में स्वयंसेवी संस्थाओं, संचार तथा प्रसार माध्यमों का विशेष योगदान हो सकता है। इसके लिए उन्हें जल संकट के सभी सम्भावित दुष्परिणामों तथा इससे जुड़े मुद्दों, जैसे पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारी, गरीबी, आदि के बारे में तथ्यपरक जानकारी पहुँचाने के विशेष पहल करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
आशा है कि उपर्युक्त सुझाव देश में जल समस्या के निराकरण में निश्चित रूप से मददगार साबित होंगे। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारत में जल संरक्षण और जलापूर्ति की समस्या को हमारी आपूर्ति एवं वितरण सम्बन्धी अर्थव्यवस्था ने अधिक विकराल रूप दे दिया है। अभी भी यदि हम इस दिशा में ईमानदारी और निष्ठापूर्वक समन्वित प्रयास कर सकें तो इस समस्या को समय रहते ही सुलझाया जा सकता है।
(लेखक राज्य नियोजन संस्थान, उ.प्र. के संयुक्त निदेशक हैं)