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करोड़ों साल से अपनी गोद में जीव-जन्तुओं को जीवन देती आई धरती की क्षमता अब चुकती चली जा रही है। मानवीय गतिविधियों का दवाब, अन्धाधुन्ध उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति और बेतहाशा बढ़ती आबादी की अन्धी रफ्तार से धरती जहाँ सहने की शक्ति खो चुकी है, वहीं बहुतेरे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है तो कई प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं और सैकड़ों-हजारों की तादाद में विलुप्ति के कगार पर हैं। गत दिवस उत्तर प्रदेश के अमरोहा कस्बे में तेंदुआ आ घुसा। बीते दिनों बिजनौर के नूरपुर कस्बे में एक गुलदार आ घुसा और जब लोगों ने उसे घेरने का प्रयास किया तो उसने उन पर हमला कर दिया। उससे पहले मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के बाहरी इलाके में बनी एक कालोनी में बाघ घुस आया और काफी देर तक वह वहाँ टहलता रहा। वहीं भोपाल शहर से कुछ किलोमीटर दूर एक बाघ ने गाँव में एक गाय के शिकार की कोशिश की।
कलियासोत बाँध के पास बनी दानिश हिल्स कालोनी के पास एक बाघ घुस आया और उसने एक सुअर पर हमला कर उसे मार डाला। वन विभाग के अधिकारियों की मानें तो पिछले साल भी इस इलाके में एक बाघ काफी समय तक रहा था। इससे इलाके में काफी समय तक दहशत का माहौल रहा था। इससे पहले देश की राजधानी दिल्ली में बीते माह यमुना डायवर्सिटी पार्क में एक तेंदुआ लम्बे अरसे तक देखा गया। उससे पहले हरियाणा के सोहना इलाके के मंडावर गाँव में अरावली की पहाड़ियों से निकलकर एक तेंदुआ घुस आया। इससे गाँव में अफरातफरी मच गई और भीड़ देखकर तेंदुए ने लोगों पर हमला कर दिया जिससे तकरीब 10 से अधिक लोग घायल हो गए।
सूचना पर पहुँची वन विभाग की टीम पकड़ने के लिये जरूरी संसाधनों के अभाव में मूकदर्शक बनी खड़ी रही। नतीजन गुस्साए लोगों ने लाठियों से पीट-पीटकर तेंदुए को मार डाला। असम में भी उसी दौरान एक रॉयल बंगाल टाइगर को आबादी में घुसने के अपराध में स्थानीय लोगों द्वारा उसे क्रूरतापूर्वक मार डाला गया। उसके शरीर के कई अंगों का कटा होना इसका जीता-जागता सबूत है। इस घटना के कुछ दिन पहले ऐसी ही एक घटना गुवाहाटी में भी घटी थी।
अभी हाल-फिलहाल तीन हाथियों की रेल से कटकर मरने की खबर है। अक्सर ऐसा होता है लेकिन सरकार वन्यजीव अभयारण्य या संरक्षित पार्कों के बीच से रेल की पटरियाँ हटाने के सवाल पर बरसों से मौन साधे बैठी है। हर साल काजीरंगा में बाढ़ से गैंडों, हाथियों और अन्य वन्यजीवों के बहने से मौत होती हैं।
उत्तराखण्ड में अक्सर ट्रेन की चपेट में आकर हाथियों व दूसरे जानवरों की मौत होना, गुजरात में गिर अभयारण्य से शेरों का शहरी आबादी में घुसना और अक्सर हाईवे पर परिवार के साथ चहलकदमी करना एक आम बात है। जहाँ तक नागरिकों द्वारा वन्यजीवों को मारे जाने का सवाल है, जाहिर है ऐसी घटनाएँ जनमानस के असुरक्षा बोध की जीती-जागती मिसाल हैं। वह इससे भयग्रस्त हैं कि जंगल से मानव आबादी में आकर जंगली जानवर उनके जीवन को असुरक्षित बना रहे हैं। लेकिन काजीरंगा आदि पार्कों में होने वाली घटनाएँ अधिकारियों की उदासीनता का परिचायक है।
दुख इस बात का है कि इसे देखने का सरकार और प्रशासन के पास समय ही नहीं है। असलियत में ऐसी घटनाएँ अब आम हो चली हैं। आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जहाँ से आये-दिन ऐसी खबरें न आती हों। अब तो सरकार और प्रशासन के रवैए को देखते हुए इस पर फिलहाल अंकुश की बात बेमानी सी प्रतीत होती है।
यदि वैश्विक स्तर पर नजर दौड़ाएँ तो पाते हैं कि करोड़ों साल से अपनी गोद में जीव-जन्तुओं को जीवन देती आई धरती की क्षमता अब चुकती चली जा रही है। मानवीय गतिविधियों का दवाब, अन्धाधुन्ध उपभोग की बढ़ती प्रवृत्ति और बेतहाशा बढ़ती आबादी की अन्धी रफ्तार से धरती जहाँ सहने की शक्ति खो चुकी है, वहीं बहुतेरे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ चुका है तो कई प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं और सैकड़ों-हजारों की तादाद में विलुप्ति के कगार पर हैं।
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की ‘लिविंग प्लानेट’ नामक रिपोर्ट की मानें तो धरती पर उसकी क्षमता से ज्यादा बोझ है। यह बोझ इतनी तेजी से बढ़ता चला जा रहा है कि साल 2030 तक हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये धरती जैसे एक ग्रह की और जरूरत पड़ेगी। इससे आगे के 20 सालों बाद यानी 2050 तक धरती के अलावा दो और ग्रहों की जरूरत होगी। यह जरूरत जीवन स्तर में सुधार के साथ दिनोंदिन बढ़ती ही चली जाएगी।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फाउंडेशन और लंदन के अजायबघर की रिपोर्ट के अनुसार 1970 के बाद के बीते इन सालों में जीवों की संख्या में तकरीब 30 फीसदी से भी अधिक की कमी आई है। जीवों की बाघ सहित करीब 2500 से भी ज्यादा प्रजातियाँ संकट में हैं। क्षेत्रवार आकलन के बाद पता चलता है कि जीवों की संख्या में यह गिरावट और तेज नजर आएगी। उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में जीवों की संख्या में 60 फीसदी तक कमी दर्ज की गई है। यह बेहद चिन्तनीय है।
वन्यजीवों का शहरी आबादी की ओर आने, उन पर बढ़ते जानलेवा हमले की तेजी से सामने आने वाली घटनाएँ और उनकी दिनोंदिन तेजी से घटती तादाद का सबसे बड़ा कारण इंसान है जो अपने स्वार्थ की खातिर इनका शिकार तो करता ही है, बल्कि इनके आवासीय इलाके पर भी उसने कब्जा करना शुरू कर दिया है। इसके अलावा अवैध खनन के चलते सैकड़ों-हजारों एकड़ क्षेत्र में जंगल उजाड़ हो रहे हैं। खनन की मशीनों की धड़धड़ाहट के चलते वन्यजीवों का जीना दूभर हो गया है।
विकास के नशे में मदहोश सरकारों द्वारा औद्योगिक प्रतिष्ठानों, कल-कारखानों, बाँधों, पनबिजली परियोजनाओं, रेल एवं सड़क आदि निर्माण की खातिर दी गई मंजूरी के चलते किये जाने वाले खनन ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। इसके साथ-साथ अधिकारियों-ठेकदारों और खनन माफिया की मिली-भगत से अवैध खनन को और बढ़ावा मिला है। इससे एक ओर वन्यजीवों के आवास की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया, वहीं दूसरी ओर हरियाली खत्म होने से मांसाहारी वन्यजीवों के शिकार की समस्या भी भयावह हुई, नतीजन आहार हेतु उन्हें मजबूरन मानव आबादी की ओर जाना पड़ता है। मानव वन्यजीव संघर्ष, मनुष्यों, उनके बच्चों और उनके मवेशियों पर इनके बढ़ते हमले इसके जीते-जागते सबूत हैं।
यह तो अब जगजाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के चलते जहाँ जंगलों पर खतरे के बादल मँडरा रहे हैं, वहीं जंगलों पर आये खतरे के चलते वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी खतरा मँडरा रहा है। जबकि यह पारिस्थितिकी तंत्र के सन्तुलन में अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं। जहाँ तक हमारे देश का सवाल है आशंका जताई जा रही है कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव हिमालयी क्षेत्र के जंगलों पर पड़ेगा।
अधिकाधिक कटाई से जंगलों का अस्तित्व पहले से ही खतरे में है, मवेशियों द्वारा चराई से वे वैसे ही तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन से देश के 45 फीसदी जंगल और प्रभावित होंगे। नतीजन वन्यजीवों का जीना और दुश्वार हो जाएगा। स्वाभाविक है इन हालातों में वह मानव आबादी की ओर अपना रुख करेंगे ही और अन्ततोगत्वा उस दशा में वे मनुष्यों, मवेशियों पर हमले करेंगे या फिर हरियाणा के सोहना इलाके के मंडावर गाँव में हुई जैसी वारदात के शिकार होकर मारे जाएँगे। सच तो यह है कि यह समूचे देश की समस्या है।
इस पर देश के कर्णधारों को सोचना ही होगा और ऐसे मसलों के सामने आने पर प्रशासन को संवेदनशीलता का परिचय देना होगा। केवल वन्यजीवों की सुरक्षा हेतु बनी योजनाओं के ढिंढोरा पीटने से कुछ नहीं होने वाला। जनमानस का वन्यजीवों के प्रति सोच में बदलाव की भी बेहद जरूरत है। अन्यथा वन्यजीवों के अस्त होते सूर्य को बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।