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मॉनसून और आने वाले जल संकट से निबटने के लिए सबसे जरूरी यह है कि बारिश के पानी की हर बूंद का संरक्षण किया जाए। इसका भंडारण ताल-तलैया और यहां तक कि हर घर की छत पर किया जाए। इस बारे में विस्तार से बता रही हैं
आखिर 2009 का मॉनसून आ ही गया। पर प्रतिशोध की भावना के साथ। कई जगहों पर बाढ़ आ गई और लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।
बारिश के चित्रों और जलाशय भर जाने की खबर के बीच ऐसा लगता है कि हमारे अर्थशास्त्री इस बात से अनजान हैं कि देर से आए और अपूर्ण मॉनसून का क्या असर होगा। उनका कहना है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का बहुत कम योगदान है इसलिए अगर फसल अच्छी नहीं भी होती है तो भी विकास दर पर इसका कोई असर नहीं होगा।
शेयर बाजार का चढ़ना जारी है और इसके अलावा विकास के सभी मानक सही स्थिति में दिख रहे हैं। किसी कारण से मॉनसून में हुए सुधार की वजह से अगर रबी की फसल अच्छी हो जाती है तो सब ठीक हो जाएगा।
मॉनसून की दुर्दशा पर इस सोच को सबसे सतही और गैरसूचनात्मक कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें इस बात को समझना होगा कि आखिर बारिश की देरी किस तरह से पंगु बनाने वाली है। इसकी वजह से लोग पलायन को मजबूर हुए हैं।
इसकी वजह से लोग साहूकारों के चंगुल में जाने को मजबूर हुए हैं, क्योंकि फसल लग नहीं पाई है। साथ ही लोग अपने मवेशियों को बेचने को भी विवश हुए हैं। यह एक ऐसे अभाव चक्र की शुरुआत है जो लोगों को पंगु बनाएगी। सूखे का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि पानी की कमी हो गई और फसल नहीं हुई बल्कि सूखे की वजह से मवेशियों के लिए चारा भी उपलब्ध नहीं होता है।
मुफलिसी की यह प्रक्रिया इतनी प्रतिकूल है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण बेहद कठिन हो गया है। हर सूखा ग्रामीण आबादी की समस्याओं के समाधान की क्षमता को नष्ट करता है। यह उन्हें मॉनसून की अनिश्चितताओं से लड़ने में कमजोर और अक्षम बनाता है। सूखा कोई अस्थायी घटना नहीं है। यह स्थायी और लंबे समय तक चलने वाला है और यह देश को खोखला बनाने का काम कर रहा है।
यही वजह है कि मॉनसून की नाकामी और पानी की कमी की समस्या से निपटने के लिए हमारे पास दीर्घकालिक योजना होनी चाहिए। हमें ऐसा तब भी करना चाहिए जब मॉनसून पर जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक असर पड़ रहा हो।
दूसरे शब्दों में कहें तो मॉनसून की समस्या से निपटने के लिए हमारे पास अब प्राकृतिक परिवर्तनीयता नहीं है। हमें यह भी समझना होगा कि लोगों की लापरवाही की वजह से हुए जलवायु परिवर्तन ने किस तरह से इस प्राकृतिक परिवर्तनीयता को नष्ट किया है।
दक्षिण एशियाई मीडिया पेशेवरों की एक बैठक में देश के प्रमुख मॉनसून वैज्ञानिक बी.एन. गोस्वामी ने बताया कि जलवायु परिवर्तन का मॉनसून के वर्तमान और भविष्य पर क्या असर पड़ेगा। पहली बात तो यह कि अध्ययन इस बात को साबित कर रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग भारतीय मॉनसून को ज्यादा परिवर्तनीय बना रहा है और इसके बारे में पहले से कोई अनुमान लगाना मुश्किल होता जा रहा है।
1901 से 2004 के बीच की बारिश के आंकड़ों के आधार पर हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि मॉनसून के बारे में कोई भविष्यवाणी करना दुगना मुश्किल हो गया है। उनके अध्ययन के निष्कर्षों के अर्थ बड़े गहरे हैं।
बारिश में कमी की वजह से किसान कमजोर नहीं हो रहे हैं बल्कि वे इस वजह से कमजोर हो रहे हैं कि उन्हें यह पता नहीं होता कि क्या होने वाला है। इसलिए किसान बीज खरीदते हैं और उसकी बुआई पर निवेश करते हैं। किसान अपनी फसल को अपनी आंखों के सामने लहलहाते हुए देखना चाहते हैं।
इसका मतलब यह भी है कि भारत को जलवायु परिवर्तन के मॉनसून पर पड़ने वाले असर की जानकारी जुटाने के लिए भविष्यवाणी मॉडलों और कंप्यूटिंग तकनीक पर ज्यादा समय और संसाधन लगाना होगा। दूसरी बात भी उतनी ही चिंताजनक है। गोस्वामी ने बताया कि भारत के मौसम वैज्ञानिकों को यह सवाल चिंता में डाले हुए है कि आखिर क्यों तापमान बढ़ने के बावजूद गर्मी में होने वाली बरसात में बढ़ोतरी नहीं हो रही है?
जबकि सभी जलवायु परिवर्तन मॉडलों में ऐसी अपेक्षा की जाती है। इसलिए सवाल यह उठता है कि क्या जलवायु परिवर्तन का हमारे देश के मॉनसून पर कोई असर नहीं पड़ रहा है? इसका जवाब हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। उन लोगों ने पिछले 50 सालों से ज्यादा के बरसात पैटर्न के आधार पर जो अध्ययन किया है, उससे साफ है कि सामान्य बारिश वाले मौकों में कमी आई है।
वहीं दूसरी तरफ यह बात सामने आई है कि जोरदार बारिश वाले दिनों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। ये ऐसे दिन हैं जब 100 मिमी से ज्यादा बारिश होती है। चिंता की बात तो यह भी है कि उन दिनों की संख्या में वृध्दि होती जा रही है जब बहुत ही ज्यादा यानी 150 मिमी से ज्यादा बारिश होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो बारिश के स्वरूप में बदलाव हो रहा है।
जब बरसात हो रही है तो जोरदार हो रही है। जरा सोचिए कि जल के भविष्य पर इसका क्या असर पड़ेगा? जोरदार बारिश हो रही है और पानी बहे जा रहा है। किसानों के लिए कम पानी बच रहा है और जमीन के अंदर का पानी भी रिचार्ज नहीं हो रहा है।
इन बदलावों को समझना महत्त्वपूर्ण है। एक तरफ तो देश में बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण की वजह से पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है। वहीं दूसरी तरफ हम उपलब्ध जल में कचरा मिला रहे हैं और उसे प्रदूषण के जरिए खराब कर रहे हैं। साथ ही हम बड़ी सिंचाई परियोजनाओं का ख्वाब सजाने में बेशकीमती वक्त बरबाद कर रहे हैं।
हम इस बात पर बिल्कुल जोर नहीं दे रहे हैं कि हम इस मॉनसून और आने वाले जल संकट से निबटने के लिए क्या कर सकते हैं। इस संकट से निबटने के लिए सबसे जरूरी यह है कि बारिश के पानी की हर बूंद का संरक्षण किया जाए। इसका भंडार टैंक, तालाब और यहां तक कि हर घर की छत पर किया जाए। यह काम हर गांव और हर शहर में किया जाना चाहिए।
इसके बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि हर बूंद का सही उपयोग हो। इसके इस्तेमाल से ज्यादा और अलग-अलग फसल उपजाई जाए और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की उत्पादकता बढ़ाई जाए। इसके अलावा घरों में हो रही पानी की बरबादी को भी रोका जाए।
ऐसा किया जा सकता है। यह बदलते हुए भविष्य का जल एजेंडा है। यह एक ऐसा जल एजेंडा है जिस हमें नहीं भूलना चाहिए, तब भी जब बारिश हो रही हो।