‘जल साक्षरता अभियान’ मुश्किल

Submitted by Shivendra on Sun, 01/25/2015 - 14:38
Source
नया इण्डिया, 25 जनवरी 2015
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून,
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून।


केन्द्र सरकार की ओर से ‘जल साक्षरता अभियान’ चलाने की घोषणा की गई है। यह विचार कोई बुरा नहीं है। जैसे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। नदियों को पवित्र बनाए जाने के लिए विचार और प्रयास आरम्भ हुए हैं औद्योगिक विकास के लिए नई नीति बनी है। यदि इसी कड़ी में भारत सरकार ‘जल साक्षरता अभियान’ चलाना चाहती है तो निश्चित ही उसकी यह एक अभिनव पहल है। लेकिन सवाह कई सारे हैं। पानी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए भक्तिकाल में सन्त रहीम दास यह पंक्तियाँ आज से कई वर्ष पहले लिख गए हैं, जिसका अर्थ यही है कि पानी के बिना यह संसार सूना है। इसके बिना मनुष्य तो मनुष्य, जीव जगत और वनस्पति भी अपना उद्धार नहीं कर सकते हैं। जल से ही जीवन, सृष्टि एवं समष्टि की उत्पत्ति और जल प्लावन से ही प्रकृति का विनाश, यह बात हमारे प्राचीन श्रीमद्भागवत महापुराण जैसे कई ग्रन्थों में बताई गई है। जल से जीवन का प्रारम्भ है तो जीवन के महाप्रलय के बाद अन्त भी जल ही है। जीवन-मरण और भरण-पोषण का आधार जल ही है।

अतः कहने का आशय यही है कि हमारी पृथ्वी की सेहत और इस पर बसने वाले जीवन के लिए पानी बिना किसी बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती, परन्तु यही जल जब विषाप्त हो जाता है, तो जीवन देने वाला नीर पूरी दुनिया के लिए मौत का कारण बनकर सामने आता है।

इस वक्त हो यही रहा है कि विश्व की अस्सी प्रतिशत तमाम् बीमारियाँ केवल इसीलिए हो रही हैं, क्योंकि पानी का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। देश के अधिकांश भाग के पानी में प्रदूषण की समस्या उसमें फ्लोराइड तथा अन्य विषैले तत्वों की प्रधानता का पाया जाना इतना अधिक भयावह है कि वह जीवन के लिए घातक सिद्ध रहा है।

पिछले दिनों केन्द्र सरकार की ओर से सम्पूर्ण देश में ‘जल साक्षरता अभियान’ चलाने की घोषणा की गई है। यह विचार कोई बुरा नहीं है। जैसे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। नदियों को पवित्र बनाए जाने के लिए विचार और प्रयास आरम्भ हुए हैं, औद्योगिक विकास के लिए नई नीति बनी है। यदि इसी कड़ी में भारत सरकार ‘जल साक्षरता अभियान’ चलाना चाहती है, तो निश्चित ही उसकी यह एक अभिनव पहल है। लेकिन सवाल है कई सारे हैं, जिनके उत्तर केन्द्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में ढूँढने चाहिए।

देश में इस समय पानी के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था इतनी चरमराई हुई है कि उसके बारे में कुछ भी सार्थक संवाद किया जाना व्यर्थ प्रतीत होता है। एक तरफ राज्यों की राजधानियों के साथ बड़े-बड़े शहर हैं, जहाँ राजनैतिक दबाव के चलते अथाह पानी प्रतिदिन सिर्फ सप्लाई के वक्त ही बर्बाद चला जाता है तो दूसरी ओर भारत की वह तस्वीर है, जहाँ आदमी और जानवर दोनों ही बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं, फिर वनस्पतियों का क्या हाल यहाँ होता होगा, सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है।

केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर आज सही कह रहे हैं कि जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है। जब तक इस विषय पर लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। परन्तु क्या यह काम अल्पावधि में सम्भव है, जबकि राज्यों के आपसी हित-अहित जल के सही बँटवारे को लेकर बार-बार उजागर होते रहते हैं।

केन्द्र सरकार जनहित में नदियों को जोड़ने की परियोजना सामने लेकर आई, तभी से कई प्रदेशों में इसका विरोध आरम्भ हो गया। एनडीए की अटल सरकार चली गई और उसके बाद दस सालों तक देश में संप्रग की मनमोहन सरकार चली, अब जब फिर से एनडीए की नमो सरकार केन्द्र में आई है, तब भी जल बँटवारे और पानी से जुड़े राज्यों की आपसी कलह समाप्त नहीं हुई है।

हाँ, इन दिनों इतना अवश्य हुआ है कि फिर से एनडीए शासन आने से नदियों को जोड़ने की दिशा में तेजी से विचार और कार्य पुनः प्रारम्भ कर दिया गया है। आज इस दिशा में काम करने के लिए मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य पर्यावरण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आगे आए हैं और उसके सार्थक परिणाम भी सहज दिखने लगे हैं।

नदी जोड़ो की इस योजना को प्रमुखता से आगे बढ़ाए जाने से होगा यह कि देश के हर कोने तक जल आपूर्ति की सुचारू व्यवस्था बनाने में हम सफल हो जाएँगे। इसके लिए जो भी कदम आवश्यक हैं, भले ही फिर विरोध के स्वर कितने भी ऊँचे क्यों ना हों, उन्हें नकारते हुए केन्द्र को इस दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते रहना होगा।

जिन राज्यों में ‘राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना’ (एनपीपी) के तहत् अन्तरराज्यीय नदियों को जोड़ने के लिए चिन्हित किए गए 30 सम्पर्कों में से राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) द्वारा तीन सम्पर्कों पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने की प्रक्रिया चल रही है, उसका काम शीघ्र पूरा किया जाना भी बहुत जरूरी हो गया है। जिससे कि देश को इससे 35 मिलियन हेक्टेयर अतिरिक्त सिंचाई क्षमता व 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन का लाभ मिलना शुरू हो जाए। वहीं, जिन भी राज्यों में जैसे तमिलनाडु-केरल ने पाम्बा अछानकोविल वायपर लिंक परियोजना का विरोध है, ओडीशा सरकार महानदी-गोदावरी लिंक परियोजना पर सहमत नहीं हो पा रही है।

कर्नाटक-तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के विभिन्न राज्यों के बीच जल सम्बन्धी जो तमाम विवाद है, पहले उनको हल करने के लिए सरकार को अपने सख्त और लचीले कदम उठाने चाहिए। इसके लिए केन्द्र की सरकार उसी प्रकार राज्य सरकारों को समझाए और राजी करे, जिस प्रकार उसने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर सभी राज्यों को मनाने में सफलता हासिल की है, वह सभी को यह बात प्रमुखता से बताए कि इससे देश की जनसख्या का भविष्य में कितना अधिक भला होने वाला है।

वस्तुतः हमें आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम नदियों को जोड़ने की अवधारणा पर तेजी से काम करें, क्योंकि भारत को प्रकृति ने जितना जल उपयोग के लिए दिया है, अभी वह उसका एक तिहाई भी अपने लिए उपयोग नहीं कर पा रहा है। इस सम्बन्ध में हमें जल के भण्डारण को भी जानना चाहिए।

विश्व का 70 प्रतिशत भू-भाग जल से आपूरित है, जिसमें पीने योग्य जल मात्र 3 प्रतिशत ही है। मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों, और तालाबों का 38 प्रतिशत, मृदनाम (एक्यूफर) 8 प्रतिशत, वाष्प 1 प्रतिशत, नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पतियों में निहित है। इसमें भारत की स्थिति देखें तो आजादी के बाद से लगातार हमारी मीठे जल को लेकर जरूरत कई गुना बढ़ चुकी है।