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योजना, दिसम्बर, 1995
भूमि विकास के अलावा पौधशालाओं की स्थापना, रोजगार दिलाने वाले काम जैसे पुश्तों, बाँधों और तालाबों का निर्माण, कृषि-वानिकी और चारागाहों के विकास कार्य भी हाथ में लिये जायेंगे। वास्तव में उन्हीं गाँवों को जल संभर परियोजनाओं के लिये चुना जायेगा जहाँ लोग श्रम और कच्चे माल का योगदान करेंगे।
जल संभर दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न राज्यों में लागू किए जा रहे मुख्य कार्यक्रम हैं: सूखे की आशंका वाले क्षेत्र का विकास कार्यक्रम, रेगिस्तान विकास कार्यक्रम और समन्वित बंजर विकास परियोजना।जल-संभर दृष्टिकोण
जल संभर दो समीपवर्ती नदी प्रणालियों के बीच एक विभाजक रेखा है। इस क्षेत्र में प्राकृतिक भूमि जैसे जंगल एवं कृषि योग्य और गैर-कृषि योग्य भूमि शामिल हो सकती है।
इस दृष्टिकोण का लाभ यह है कि जल संभर विकास के लिये आवश्यक विभिन्न गतिविधियों को समन्वित कर दिया जाता है जिससे प्राकृतिक संसाधन-प्रणाली को आवश्यक बढ़ावा मिलता है। इन गतिविधियों में मिट्टी और नमी का संरक्षण, कृषि-वानिकी, वन रोपण, चारागाह विकास, बागवानी, सूअर पालन, बत्तख पालन और मछली पालन शामिल हैं। इन योजनाओं का उद्देश्य सूखे का प्रभाव दूर करना और विभिन्न कृषि-क्षेत्रों में सम्पुष्ट उत्पादन के लिये भूमि, जल और अन्य प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना है। जल संभर दृष्टिकोण में स्थल विशेष के संसाधनों का उपयोग करते हुए उन्हें विकसित और समन्वित करने पर जोर दिया जाता है।
समन्वित जल संभर प्रबंध योजनाओं के लाभ इस बात पर निर्भर करते हैं कि कृषि जलवायु की स्थिति क्या है और मिट्टी में क्या गुण हैं। इससे जमीन के अंदर का पानी बढ़ जाता है जिससे पीने के पानी की उपलब्धता में वृद्धि हो जाती है। इतना ही नहीं, ईंधन की लकड़ी, इमारती लकड़ी, रस्सी की बुनाई तथा लाख बनाने जैसे ग्रामीण उद्योगों के कच्चे माल की उपलब्धता काफी बढ़ जायेगी।
हनुमंत राव समिति की सिफारिशों के आधार पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने विभिन्न क्षेत्रीय विकास कार्यक्रमों के लिये नए मार्गनिर्देश जारी किए हैं। नई कार्यनीति के अन्तर्गत 1995-96 से क्षेत्रों का विकास केवल जल संभर आधार पर किया जायेगा। प्रत्येक जल संभर क्षेत्र लगभग पाँच सौ हेक्टेयर होगा और जहाँ तक सम्भव हुआ एक गाँव के लिये निर्धारित होगा। जल संभर संवारने की योजनाओं में निजी, सामुदायिक और उजड़ी वन भूमि शामिल है। भूमि विकास के अलावा पौधशालाओं की स्थापना, रोजगार दिलाने वाले काम जैसे पुश्तों, बाँधों और तालाबों का निर्माण, कृषि-वानिकी और चारागाहों के विकास कार्य भी हाथ में लिये जायेंगे। वास्तव में उन्हीं गाँवों को जल संभर परियोजनाओं के लिये चुना जायेगा जहाँ लोग श्रम और कच्चे माल का योगदान करेंगे।
नई कार्यनीति गाँवों के सभी व्यक्तियों के आर्थिक विकास पर आधारित होगी। इनमें जमीन के मालिक, भूमिहीन गरीब व्यक्ति और महिलाएँ भी शामिल होंगी। जल संभर क्षेत्र में मूल्य संवर्धित सामान बनाने और परिशोधित करने के पूरक अवसर पैदा करने से ग्रामीण समाज की आर्थिक स्थिति सुधर जाने की आशा है। नई कार्यनीति से ग्रामीणों के लिये उत्पन्न परिसम्पदाओं के न्यायपूर्ण वितरण का मार्ग प्रशस्त होगा।
सम्भावित सूखा क्षेत्रों का विकास
यह कार्यक्रम भारत सरकार ने 1970 में शुरू किया। इसके लिये राशि का आवंटन केन्द्र और राज्य सरकारें आधा-आधा करती हैं। आवंटन खण्ड के आकार के अनुसार किया जाता है। सातवीं पंचवर्षीय योजना के लिये 1992-93 तक इस कार्यक्रम के लिये 7 अरब 69 करोड़ 45 रुपये निर्धारित किये गये जबकि इस अवधि में 98.95 प्रतिशत यानि 7 अरब 61 करोड़ 34 लाख रुपए खर्च किए गए। 1993-94 में राज्यों के हिस्से सहित कुल आवंटन एक अरब 53 करोड़ 34 लाख रुपए था। सातवीं योजना के दौरान 14 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लक्ष्य के 78 प्रतिशत में भूमि विकास, जल संसाधन विकास, वन रोपण और चारागाह विकास का काम हो सका।
भारत सरकार ने 1995-96 से यह विकास कार्यक्रम 386 नए खण्डों में शुरू कर इसके अन्तर्गत देश के 146 जिलों के कुल 945 खंड लाने का निर्णय किया है।
रेगिस्तान विकास
रेगिस्तान विकास कार्यक्रम 1977-78 में आरम्भ किया गया था। इसका उद्देश्य है कि सूखे के प्रतिकूल प्रभाव को कम से कम किया जाए, रेगिस्तान इलाके को फैलने से रोका जाए और अंत में भूमि, जल और वर्षा सहित प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, विकास और उपयोग से पर्यावरण का सन्तुलन बहाल किया जाए।
इस समय यह कार्यक्रम राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के 21 जिलों के 137 खण्डों में लागू है।
इस कार्यक्रम के अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों की भागीदारी का अनुपात 75ः25 है। 1992-93 तक सातवीं योजना के अन्तर्गत इस कार्यक्रम के लिये 4 अरब 72 करोड़ 19 लाख रुपए आवंटित किए गए। इस अवधि में इस कार्यक्रम को लागू करने पर 4 अरब 47 करोड़ 65 लाख रुपए खर्च किए गए।
समन्वित बंजर भूमि विकास
समन्वित बंजर भूमि विकास बोर्ड की देख-रेख में समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना 1985 में शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य सबसे नीचे के स्तर पर आयोजना क्षमता पैदा करना और परियोजना दृष्टिकोण विकसित करना है। चुने हुए जिलों में छोटी-छोटी योजनाएँ तैयार करना, वनेतर बंजर भूमि को ठीक कर विकसित करना तथा कृषि वानिकी और बागवानी जैसे भू-आधारित कामों को बढ़ावा देना इस योजना के आवश्यक अंग हैं। मछली-पालन और चारागाह विकास, मिट्टी और जल-संरक्षण भी इस योजना के हिस्से हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत जमीन के अंदर के जल-क्षेत्र को विकसित किया जाता है। समन्वित बंजर-भूमि विकास परियोजना और राज्य सरकार की वन लगाने की अन्य योजनाओं के अन्तर्गत किसानों को वृक्ष लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।
क्रियान्वयन
समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना 16 राज्यों के 146 जिलों में लागू है। ये राज्य हैं: आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड, उड़ीसा पंजाब और राजस्थान।
राज्य स्तर पर एक-एक जल संभर कार्यक्रम क्रियान्वयन और समीक्षा समिति गठित होगी। समिति की बैठक वर्ष में कम से कम दो बार होगी। वह जल संभर विकास कार्यक्रम पर नजर रखेगी, उसकी समीक्षा तथा मूल्यांकन करेगी। जिला स्तर पर कार्यक्रम को लागू करने, उसके लिये धन जुटाने, प्रशिक्षण देने तथा मार्गनिर्देशों के मूल्यांकन के लिये जिला परिषदें जिम्मेवार होंगी।
परियोजना का वास्तविक क्रियान्वयन परियोजना-क्रियान्वयन एजेंसी करेगी जो जिले में पहले से काम करने वाली मान्यता प्राप्त स्वयंसेवी संस्था होगी। यह एक सरकारी विभाग, विश्वविद्यालय सहकारिता या ऐसी ही कोई अन्य संस्था भी हो सकती है।
जल संभर विकास परियोजना को जल संभर संस्था तैयार करेगी जिसमें ग्रामसभा के सभी सदस्य शामिल होंगे। यह संस्था जल संभर विकास दल के तकनीकी मार्गनिर्देशन में प्रयोक्ता-ग्रुपों और स्वयंसेवी ग्रुपों की मार्फत परियोजना तैयार करेगी। सामान्य मार्गनिर्देशों के अनुसार जल संभर का विकास चार वर्षों में पूरा कर लिया जायेगा।
आदर्श स्थिति वह होगी जब प्रयोक्ता ग्रुप और संगठन, स्वयंसेवी ग्रुप और जल संभर पर सीधे निर्भर व्यक्ति स्वयं जल संभर विकास परियोजनाएँ भेजेंगे। जल संभर नजरिया ग्रामीण विकास कार्यक्रम को सुदृढ़ और सुचारू बनाने के लिये केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अपनाया है। इसका उद्देश्य लोगों की भागीदारी बढ़ाने के अलावा ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को गति प्रदान करना है।
व्याख्याता, रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय