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जल चेतना - तकनीकी पत्रिका, जनवरी 2015
प्रदूषित जल के दुष्प्रभाव से मानव स्वास्थ्य के अतिरिक्त जलीय जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों पर भी प्रभाव पड़ा है। अवसादी प्रदूषण के कारण नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों के गादों में विद्यमान कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायन भारी धातुकण एवं अम्ल आदि विषैले रसायन जल में मिल रहे हैं जिससे जल की गुणवत्ता मे गिरावट आ रही है। मानव एवं जलीय जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है।
पौराणिक काल से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में

पृथ्वी का 75 प्रतिशत भाग जल से आच्छादित है। यह जल नदी, तालाबों, ग्लेशियरों, झीलों (कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, ताप्ति, गोदावरी, गंगा, यमुना, भागीरथी आदि नदियों) सागरों एवं महासागरों के रूप में चारों ओर फैला हुआ है। इसी जल का आज मानव ने अपने विविध कार्यों जैसे पेयजल, सिंचाई, पशुपालन, परिवहन, उद्योग, जल विद्युत एवं मत्स्यपालन आदि में व्यापक विदोहन किया है जिसके कारण औद्योगिकरण एवं नगरीय क्षेत्रों के विस्तारिकरण से जल प्रदूषित हो रहा है और पेयजल की समस्या बढ़ती जा रही है। आज मानव जल की सुचिता एवं महत्त्व को नही समझ सका है।
पौराणिक काल में ऋषि-मनीषि जल की शुद्धता से भली-भाँति परिचित थे। उन्हें पता था कि किस प्रकार सबको शुद्ध करने वाला जल कैसे शुद्ध होता है। सर्वप्रथम सूर्य के वाष्पीकरण की प्रक्रिया में जल आकाश में पहुँचता है। वहाँ से वर्षा के रूप में बरसता है-
यथाः- अमूर्या उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सहः ता नो हिन्वन्त्वरम्ः
ऋग्वेद- 9/23/99

आपो अस्मान मातरः सूदयन्तु घृतेन नो घृतप्व पुनन्तु।
विश्वंहि रिप्रं प्रवहन्ति देवी रूदिदाभ्यः सुचिरापूत एमि।।
अथर्ववेद - 6/51/2
अर्थात मातृवत पोषक जल हमें पावन बनाए। घृत रूपी जल हमारी अशुद्धता का निवारण करे। जल की दिव्यता अपने दिव्य स्रोतों से सभी पापों का शोधन करें। जल से शुद्ध एवं पवित्र बनकर हम ऊर्ध्वगामी हो।
वर्तमान में मानव द्वारा जल संसाधनों के अति दोहन से पृथ्वी के जल भण्डार क्षीण होते जा रहे हैं। हमारे देश में काफी वर्षा होने के बावजूद भी जल संकट ज्यों का त्यों बना हुआ है। इसके लिये वर्षाजल का संचयन करके उसे समुचित उपयोग में लाया जाये। यह वर्षाजल, जल का प्राथमिक स्वरूप एवं जल का प्राथमिक स्रोत है जो कि जल चक्र को बनाए रखता है। नदियाँ, झीलें, भूजल आदि द्वितीयक स्रोत हैं जो कि प्राथमिक स्रोत पर निर्भर रहकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं और प्राथमिक स्रोत की उपेक्षा कर देते हैं। जबकि प्राथमिक स्रोत ऐसा स्रोत है कि जो हमें विशुद्ध अलवणीय, मृदु एवं स्वच्छ जल प्रदान करता है। यह जल अनेक रोगों का नाशक माना गया है। ऋग्वेद में ऐसे जल के बारे में कहा गया है कि -
आप इद्वा उ भेषजीरापों अमीवचातनीः।
आपः सर्वस्य भेषजीस्ता स्तकृण्वन्तु भेषजम्।।
ऋग्वेद- 10/139/6

आप इद् वा उु भेषजीरापों अमीव चातनीः।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुचन्तु।।
अथर्ववेद- 3/9/5
वैदिक काल में ऋषि-मनीषियों ने माना कि यह शुद्ध जल समस्त रोगों की औषधि है। स्नान-पान द्वारा यह जल एक औषधि के रूप में समस्त रोगों को दूर करता है। जो अन्य औषधियों की भाँति किसी एक रोग की नहीं बल्कि समस्त रोगों की औषधि है। हे रोगिन, ऐसे जल से तुम्हारे सभी रोग दूर हों। अतः शुद्ध जल या नदियों का जल अनेक रोग-व्याधियों को नष्ट करने वाला होता है। इसलिये प्राचीन काल से ही शुद्धजल या गंगा जल में स्नान आदि करने की परम्परा रही है जोे हमारी मानसिक, शारीरिक व्याधियाँ दूर कर हमें स्वस्थ्य एवं सुखी जीवन प्रदान करती है। यह स्वच्छ जल हमें सद्वृत्तियों की ओर प्रेरित करता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि -
इदमाप प्र वहत यत्कि च दुरितं मयि।
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्।।
ऋग्वेद- 9/23/22

आपो मौषधीमतीरेतस्या दिशः पान्तु।
अथर्ववेद- 19/19/6
अर्थात औषधि युक्त जल हमारा संरक्षण करे एवं हमें सद्वृत्तियों की ओर प्रेरित करे। हिमाच्छादित पर्वतों से जो जलधाराएँ आगे प्रस्थान करती हैं उनके बारे में अथर्ववेद में वर्णन है कि -
हिमवतः प्रसवन्ति सिन्धौ समह संगमः।
आपो ह महां तद् देवीर्ददन् हृदघोत भेषजम्।।
अथर्ववेद- 6/24/1
अर्थात हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से जो जल धाराएँ बहती हुई समुद्र की ओर प्रस्थान कर रही हैं वे रोगनाशक अमृतमय औषधिय जल धारा हृदय को शान्ति प्रदान करने वाली होती हैं क्योंकि हिमालयी क्षेत्र में अनेक प्राणरक्षक औषधियाँ पाई जाती हैं जिनसे अनेक असाध्य रोग कुष्ठ आदि दूर हो जाते हैं। इन औषधिय तत्वों से युक्त जल से घोर अपराध, पाप, रोग एवं शोक सभी दूर चले जाते हैं। ऐसा अमृतोपम जल सोमरस कहलाता है। विभिन्न हिन्दू धार्मिक अनुष्ठानों के सुअवसर पर पूजापाठ या तांत्रिक अनुष्ठान सभी में सोमयुक्त शुद्ध गंगाजल प्रयुक्त किया जाता है। दिव्य गुणों से युक्त यह जल हमारे लिये कल्याणकारी है। इस जल का पान करते हुए हमें अभिष्ट आनन्द और शान्ति प्राप्त हो। जल की वृष्टि के लिये यज्ञ का प्रावधान है। इसी सन्दर्भ में यजुर्वेद में कहा गया है कि -
वसोः पवित्रमसि शत धांर वसो पवित्रमसि सहस्त्रधारयः।
यजुर्वेद- 9/3

नाप्सु भूतं पुरीषं वाष्टो वनं समुत्सृजेत।
अभेध्य लिप्त मन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।।
मनुस्मृति- 4/56

धौर्व पिता पृथिवि माता सोमा भ्राता दितिस्वसा।
अदृष्टा विश्वदृष्टस्तिष्ठेतेलयता सु कम।।
ऋग्वेद-1/19/6
अर्थात आकाश को पिता, पृथ्वी को माता, चन्द्रमा को भाई तथा अखण्ड प्रकृति को बहन तुल्य प्रेम एवं सौहार्द्र देना चाहिए। प्रत्येक महापुरुष, चाहे वह किसी भी पंथ का रहा हो, उसने भी प्रकृति के महत्त्व को स्वीकार किया। इसी परिप्रेक्ष्य में भगवान महावीर स्वामी जी प्रकृति के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहते है कि जहाँ-जहाँ जब भी मैं जमीन आदि खोदता हूँ, अकारण दल, फल, फूलों को तोड़ता हूँ। तलवार, धनुष आदि हथियार चलाता हूँ। अग्नि विष आदि का प्रयोग करता हूँ, इन्हें दूसरों को देता हूँ। यह सब हिंसा के कार्य है। मेरा संकल्प है कि मैं इन्हें त्याग दूँ।
इस प्रकार प्राचीन काल में ऋषि-मनीषियों एवं सन्त-महात्माओं ने भी प्रकृति एवं जल का अनावश्यक रूप से उपभोग करना अपराध की तरह माना है और जन-जन को यह सन्देश दिया है कि प्रकृति के स्वरूप एवं जल को व्यर्थ में उपभोग नही करना चाहिए। उन्हें अपना सगा-सम्बन्धी माता-बहिन एवं पुत्रवत स्वरूप समझकर स्नेह एवं प्रकृति प्रेम करना चाहिए। लेकिन आज मानव प्रकृति के महत्त्व को नकार रहा है जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति एवं जल के दूषित होने से जमीन में उगने वाली अनेकों प्रकार के पुष्प, फल, साग, सब्जियाँ एवं वनस्पतियाँ प्रभावित होकर उपयोग के लायक नहीं रही हैं। जल की ऐसी दशा हो गई है कि जिस गंगा जल को वेदपुराणों में ‘गंगा माता’ तथा ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ की संज्ञा दी गई है, आज उसी के पुत्रों ने गंगा माता को इतना मैला अथवा दूषित कर दिया है कि कल-कारखानों से निकलने वाला अवशिष्ट पदार्थ, शहरों की समस्त गन्दगी एवं मल-मूत्र की पाइप लाइनें, मरे हुए पशु, मृत मानव देह तथा सड़ा गला कूड़ा-कचरा आदि को गंगा में खुला बहा दिया है जिससे गंगा जल विषाक्त एवं जहरीला हो चुका है।

प्रदूषित जल के दुष्प्रभाव से मानव स्वास्थ्य के अतिरिक्त जलीय जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों पर भी प्रभाव पड़ा है। अवसादी प्रदूषण के कारण नगरीय एवं औद्योगिक क्षेत्रों के गादों में विद्यमान कार्बनिक एवं अकार्बनिक रसायन भारी धातुकण एवं अम्ल आदि विषैले रसायन जल में मिल रहे हैं जिससे जल की गुणवत्ता मे गिरावट आ रही है। मानव एवं जलीय जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि समस्त मानव जाति में जल समस्या को लेकर जन चेतना जागृत की जाये। उन्हें जल के महत्त्व को गहनता से बताना होगा कि जल ही मानव जीवन के लिये अमूल्य निधि है तथा जल के बिना जीवन की कल्पना करना असम्भव है क्योंकि आज मानव ने अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं एवं अनियंत्रित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जल संसाधनों का बेरहमी और अन्धाधुन्ध तरीके से विदोहन करना आरम्भ कर दिया है। सामान्यतः जन धारणा यह रही है कि धरातल के नीचे जल भण्डार असीमिति है और हम जल की जितनी मात्रा ग्रहण करते हैं उसे किसी न किसी रूप में निर्मुक्त कर देते हैं। इससे हमें भूजल हमेशा सुलभ होता रहेगा। यही मानव धारणा यहाँ पर गलत साबित होती है क्योंकि भूजल भण्डार असीमित मात्रा में न होकर केवल सीमित मात्रा में पाये जाते हैं।
हम उपयोग के बाद जितना जल धरातल पर निर्मुक्त करते हैं, वह नदी-तालाबों, नालों से होकर सागर में पहुँच जाता है। वन क्षेत्रों की बेतहाशा कटाई भी इसके लिये जिम्मेदार है, क्योंकि पेड़-पौधों की जड़ों से धरातल का पानी भूमिगत स्रोतों में संचित होता रहता है लेकिन आज मानव ने अपनी सुख-सुविधाओं के क्षण मात्र के लिये वनों एवं पेड़-पौधों को काटकर विशालकाय रेत-कंकरीट की इमारतें खड़ी कर दी हैं जिससे वर्षा ऋतु में जल नदियों, नहरों एवं नालों से बहकर सागर में पहुँच जाता है। स्थानीय भूजल स्रोतों में जल की पर्याप्त मात्र न होने के कारण स्रोत सूखते जा रहे हैं। भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है, जोकि गम्भीर जल संकट का संकेत है। यदि हम भावी जल संकट से उभरना चाहते है तो बढ़ती जनसंख्या को नियन्त्रित करना अति आवश्यक है। वर्षा जल का संरक्षण करके तालाबों, बावड़ियों का निर्माण करके वर्षाजल को संचित करने से भूमिगत स्रोतों को पुनः भरा जा सकता है।

नदियों आदि के जल का दुरुपयोग एवं नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्तियों के लिये सख्त कानून बनाकर सजा का प्रावधान रखा जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह अवगत करवाना चाहिए कि सम्पूर्ण प्राकृतिक जलस्रोतों या जल भण्डार हमारी अमूल्य निधि है। इसकी सुरक्षा एवं सदुपयोग करना हम सभी का परम कर्तव्य है। यही जन चेतना सम्पूर्ण राष्ट्र को जल संकट से बचाकर जल संरक्षण की ओर ले जाने में अवश्य ही सहायक साबित होगी।

1. डाॅ. पुरोहित भगवती प्रसाद उत्तराखण्ड में जल संसाधन प्रबन्ध, पृष्ठ-116।
2. वही - पृष्ठ - 116।
3. डाॅ. रावल एवं रश्मि रावल पर्यावरण चिन्तन (साहित्य सेवा संस्थान) पृष्ठ - 101।
4. डाॅ. आस्थाना मधु पर्यावरण (एक संक्षिप्त परिचय) पृष्ठ - 115
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डाॅ. दीपक डोभाल, असि. प्रोफेसर (इतिहास विभाग), बी.एस.एम. पी.जी. काॅलेज, रुड़की (हरिद्वार)