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भगीरथ, जुलाई-सितंबर, 2010, केन्द्रीय जल आयोग, भारत
आजादी के बाद के छः दशकों में निःसंदेह हमने बहुत विकास की गाथाएँ लिखी हैं, इसके विपरीत उसकी कीमत पर खोया भी बहुत कुछ है। यह किस तरह का विकास है कि हमारा जीवनदाता जल स्वयं संकट में पड़ गया है। जल ही नहीं हमारा राष्ट्रीय पशु ‘बाघ’ संकट में पड़ गया है।, हमारे पेड़, जंगल और पर्यावरण संकट में पड़ गए हैं और-तो-और हमारे जीवनमूल्य खतरे में पड़ गए हैं। कहीं-न-कहीं आजादी की सार संभार में हमसे भयंकर चूक अवश्य हुई है अन्यथा विकास की कीमत पर संकटों को आमंत्रित नहीं करते।
ताजे पानी की घटती उपलब्धता आज की सबसे ज्वलंत समस्या है। कहाँ तो कुछ वर्ष पूर्व यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि सन 2025 तक संसार के एक तिहाई लोग पानी के भयावह संकट से जूझेंगे लेकिन उस संभावित विषम परिस्थिति ने तो समयपूर्व अभी से दस्तक दे दी। यानि 2025 तक शायद यह संकट दो तिहाई आबादी को अपनी चपेट में ले लेगा।
जल के संकट से उबरने का सही तरीका यह है कि पानी को पानी की तरह न बहाया जाए वरन अमृत की तरह उपयोग किया जाए। माना कि मानसून पर किसी का जोर नहीं चलता इसलिए जितना भी पानी आसमान से बरसता है उसके संरक्षण के लिये पहले से खाका बनाकर ठोस रणनीति पर काम किया जाए तो संकट का हल निकल सकता है।
जल-संकट विशेषज्ञ कनाडा की माउथी बारलो लिखती हैं- 20वीं शताब्दी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुना हो गई है लेकिन पानी का उपयोग सात गुना बढ़ गया है। सन 2030 में हमारी जनसंख्या में तीन अरब नए लोग और जुड़ चुके होंगे, तब मनुष्यों की जल आपूर्ति में 80 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता यहाँ अतिरिक्त पानी कहाँ से आएगा?
इस अतिरिक्त जल संकट से निजात कैसे मिलेगी यह वाकई विचारणीय और चिंताजनक प्रश्न है। दुखद पहलू तो यह है कि जल तो क्या उसकी वाहिनी नदियाँ भी संकट के दोराहे पर आकर खड़ी हो गई हैं। पहले जब जनसंख्या कम थी तब गंदगी भी कम होती थी और नदियाँ अपना उपचार स्वयं कर लेती थीं लेकिन अब गंदगी की मात्रा में इतना इजाफा हो गया है कि उससे बोझिल नदियाँ स्वयं का उससे निपटने में अक्षम पाने लगी हैं। परिस्थितियाँ बिलकुल उलट गई हैं, पहले जहाँ हम नदियों से मनुहार करते थे- हे पुष्यसलिला माँ हमारे पापों को धो दो, हमारे तन मन की मलीनता धो दो, वहाँ अब नदियाँ हमसे कहने लगी हैं- बेटे मुझे गंदा मत करो, मुझे बचा लो।
जल संरक्षण वर्तमान समय की सबसे महती जरूरत है। भारत में करीब एक करोड़ कुएँ होंगे लेकिन उनमें से पैंतीस प्रतिशत निष्क्रिय हैं। थोड़े से प्रयासों से इन कुओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है। भूजलस्तर गिरने का तो यह आलम है कि देश के कुछ हिस्सों में यह एक मीटर प्रतिवर्ष की दर से गिर रहा है।
अब तक जल संकट के मामले में बड़े और अव्यावहारिक विचारों से बंधे रहेंगे यानी जैसे बड़े बाँध, बड़ी नहरों को तवज्जो देते रहेंगे तब तक शायद हम जल के मोर्चे पर कोई ठोस समाधान कारक कार्य नहीं कर पाएँगे। जल के बड़े काम का रहस्य अनेक छोटे-छोटे कामों में समाहित है उसी से भूजलस्तर उठ सकेगा। वास्तव में जल संरक्षण के छोटे-छोटे कामों की कोशिशों से ही लगातार मृतप्राय हाती जा रही नदियाँ फिर से जीवित हो सकेंगी, पारंपरिक जलकोष बच कर जल को संकट से मुक्ति प्रदान करा सकेंगे।
जल के लिये हो रही इस मुसीबत का मूल कारण उसके प्रबंध में भारी चूक है। यदि वाकई गंभीरतापूर्वक सोचा जाता तो सीमेंटेड सड़कों का जाल बिछाने में हम रोड़े अटकाते। विकास के नाम पर अंधाधुंध काटे जा रहे सड़क किनारे के असंख्य पेड़ों को बचाने के लिये विरोध मुखर करते। आज तो आलम यह है कि भूमाफिया तालाब के किनारे तक की जमीन को नहीं बख्श रहे हैं और उस पर रिहायसी इलाके स्थापित कर रहे हैं।
जल को संकट से मुक्ति दिलाने हेतु यह अनिवार्य शर्त है कि जितना पानी हम जमीन से उलीच रहे हैं उतना उसे हर हालत में वापस लौटाएँ यानी वर्षा के पानी को उसके उदर में समाने दें।
दुखद आश्चर्य का विषय है कि हमें जीवित रखने वाला, हमारे प्राणों को संकट से उबारने वाला जल अब स्वयं अपने अस्तित्व के लिये संघर्षरत है। मनुष्य और जल परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं, जल बचेगा तभी मनुष्य बचेगा और मनुष्य प्रयास करेगा तभी जल बचेगा।
98डी.के.-1, स्कीम 74-सी, विजय नगर, इन्दौर-452010