भारत जैसे बड़े राष्ट्र के लिये एक समय जल संसाधनों का दोहन कर अपनी ऊर्जा आवश्यकताएँ पूरा करना आवश्यक था इसलिये ऐसी नीतियों को बढ़ावा दिया गया जो जल्द से जल्द भारत की आर्थिक-सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। लेकिन क्या इस कोशिश में नीति-निर्माताओं को कुछ हद तक सख्ती से नियंत्रण लगाने की आवश्यकता नहीं थी? आज ज्यादातर जानकार मानते हैं कि भारत में भूमिगत जल की कमी को दूर करने के लिये सरकार को पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 को सख्ती से लागू करना चाहिए
ग्रीष्मकाल में पानी की कमी और उससे पैदा होने वाली परेशानियाँ इस कदर बढ़ रही हैं कि हाल में स्वयं प्रधानमंत्री को देशवासियों से जल संसाधनों और जंगलों को बचाने की अपील करनी पड़ी है। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक होने की आवश्यकता पर बल दिया है। अच्छी बात ये है कि प्रधानमंत्री ने जल संरक्षण के सवाल को पर्यावरण की व्यापक अवधारणा के साथ जोड़कर देखा है। आज प्रकृति प्रदत्त जलस्रोतों और जल संसाधनों को बचाने के लिये हमें एक बहुआयामी सोच की ही आवश्यकता है। इसके लिये हमें न सिर्फ तकनीकी नजरिए से जल की भौगोलिक उपलब्धता और उससे जुड़े मुद्दे समझने होंगे बल्कि जल संसाधनों और पर्यावरण का महत्व दार्शनिक नजरिए से भी समझना होगा।
जल और पर्यावरणः दार्शनिक समझ
जल संरक्षण के प्रति हमारे सामाजिक नजरिए में आया बदलाव समस्या की वास्तविक जड़ है। यह सर्वविदित है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से ही विकसित राष्ट्रों के नेतृत्व में प्राकृतिक स्रोतों का दोहन आर्थिक विकास करने की सोच ने जन्म लिया। हालाँकि इस सोच के पीछे नागरिकों के सामाजिक-आर्थिक जीवन को बेहतर बनाने का ही लक्ष्य रखा गया था, लेकिन विकास की इस सोच पर एक सीमा के बाद कुछ नियंत्रण लगाने की भी आवश्यकता थी। विकसित देशों ने ये नियंत्रण नहीं लगाए।
नतीजा जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं के रूप में निकला। लेकिन आज असल सवाल ये है कि क्या भारत ने भी अपनी विकास की समस्याओं का समाधान निकालने के लिये विकसित देशों के रास्ते को चुना?
यह ध्यान रखने योग्य बात है कि प्राचीन दार्शनिक हिंदू परम्परा में पर्यावरण के सम्मान का जिक्र बार-बार मिलता था। मानव शरीर की रचना में जिन पाँच मूलभूत तत्वों की बात की गई है, उनमें जल भी एक है। इसके अलावा प्रकृति की रचना में ईश्वर और विराट पुरुष की संरचना की बात कही गई है। यदि ईश्वर, विराट पुरुष की इस गूढ़ संरचना की व्याख्या की जाए तो पृथ्वी, जल और अग्नि एक साथ एक परमाणु के अंश हैं और इन सबका मूल कारक वह विराट पुरुष है जो इन सबके साथ सदा विद्यमान रहता है। हालाँकि अन्य धर्मों में भी प्रतीकात्मक रूप से जल के महत्व का वर्णन किया गया है, लेकिन हिंदू सभ्यता में जल के महत्व का वर्णन बार-बार मिलता है।
इन सभी शिक्षाओं का दार्शनिक मंतव्य यही था कि प्रकृति मनुष्य से नहीं, बल्कि मनुष्य प्रकृति से है। भारत में बाद में इन्हीं शिक्षाओं का इस्तेमाल कर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पर्यावरण और विकास के अपने वैकल्पिक मॉडल दिये जो यूरोपीय विकास मॉडलों से सर्वथा भिन्न थे। महात्मा गाँधी ने विकास के पश्चिमी चिंतन को चुनौती देते हुए बताया कि भारतीय सभ्यता और परम्पराओं में ऐसे अनुभवों की प्रचुरता है जिनसे हमारा पर्यावरण और प्रकृति कहीं अधिक सुरक्षित रह सकती है। उन्होंने हर उस स्थिति को ‘अस्वच्छता’ कहा जो पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ती है।
नीतिगत ऊहापोह
क्या पर्यावरण के प्रति हमारे देश में पिछले दो दशकों से बन रही नीतियों में इस पारम्परिक समझ की कोई झलक मिलती है? इस सवाल का उत्तर देना आसान नहीं है। इसके तहत भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन पर अंकुश लगाने का प्रावधान है। जानकारों का मानना है कि भूमिगत जल के घटते स्तर को रोकने के लिये वर्षा के पानी के संरक्षण के ठोस उपाय करने होंगे।लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हम जल जैसे महत्त्वपूर्ण और बुनियादी संसाधन के दक्षतापूर्ण दोहन की नीतियाँ विकसित कर सकेंगे? यह स्पष्ट है कि इसी चेतना के अभाव में भारत में पर्यावरण से सम्बन्धित तमाम नीतियाँ असफल हो जाती हैं। चुनौती ये भी है कि क्या हम एक टेक्नोक्रेटिक और प्रबंधकीय नजरिए से बचते हुए जल संसाधनों के सदुपयोग के बारे में सोच सकेंगे? आज हम नदियों को पानी देने वाले स्रोत के तौर पर देखते-समझते हैं। पश्चिमी विकास मॉडलों ने हमें यही सिखाया है, जबकि भारतीय सामाजिक यथार्थ में नदियाँ सिर्फ हमारी पानी की आवश्यकताओं को ही पूरा नहीं करती, बल्कि हमारे समाज को सांस्कृतिक पहचान भी प्रदान करती हैं। आज भारत में ऐसे शहर बहुत कम संख्या में बचे हैं, जिन्हें नदियाँ खास तरह की संस्कृति प्रदान करती हैं। देश की राजधानी दिल्ली तो इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण पेश करती है, जहाँ यमुना नदी का आम जन-जीवन से कोई सम्बन्ध ही नजर नहीं आता।
वास्तव में आज जल को बचाने के प्रतीकात्मक तरीके विकसित करने की आवश्यकता भी है, जैसा कि प्राचीन और पारम्परिक समाजों में होता था। इन तरीकों को विकसित करने के लिये हमें अपनी परम्पराओं से प्रेरणा लेने में कोई परहेज नहीं करना चाहिए।
पर्यावरण संरक्षण ही जल संरक्षण
यह गौर करने वाली बात है कि जल संरक्षण का सवाल पर्यावरण के व्यापक संरक्षण के सवाल से ही जुड़ा है। हम जल के अलावा पर्यावरण के बाकी घटकों की उपेक्षा कर जल-संरक्षण पर कोई विचार-विमर्श नहीं कर सकते। शायद इसलिए आज यह समझने की आवश्यकता अधिक है कि पर्यावरण संरक्षण कोई एकांगी नहीं, बल्कि बहुआयामी विचार है। आखिर हमारे पर्यावरण में जल प्राकृतिक तौर पर जल चक्र की प्रक्रिया से उपलब्ध होता है। जल चक्र जलीय परिसंचरण द्वारा निर्मित एक चक्र होता है जिसके अंतर्गत जल महासागर से वायुमंडल में, वायुमंडल से भूमि (भूतल) पर और भूमि से पुनः महासागर में पहुँच जाता है।
महासागर से वाष्पीकरण द्वारा जलवाष्प के रूप में जल वायुमंडल में ऊपर उठता है। जहाँ जलवाष्प के संघनन से बादल बनते हैं तथा वर्षण द्वारा जलवर्षा अथवा हिमवर्षा के रूप में जल नीचे भूतल पर आता है और निदयों से होता हुआ पुनः महासागर में पहुँच जाता है। इस प्रकार एक जल-चक्र पूरा हो जाता है। अगर गौर से देखें तो जल चक्र की इस प्रक्रिया में पर्यावरण के अन्य घटक भी शामिल होते हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग के चलते महासागरों के तापमान में तेजी से उतार-चढ़ाव आएगा तो यह स्पष्ट है कि जल के वाष्पन की स्वाभाविक प्रक्रिया पर उसका प्रभाव पड़ेगा। अगर धरती पर उपलब्ध जल कम होगा तो वनों के अस्तित्व के लिये यह स्वयं में खतरा होगा। कुल मिलाकर पर्यावरणीय प्रक्रियाओं में असंतुलन होने से ही उपलब्ध जल संसाधनों पर प्रभाव पड़ता है। अगर पर्यावरण का हर घटक संतुलन की प्रक्रिया में रहे तो जल प्रदूषण भी स्वयं नियंत्रित हो जाएगा।
दक्षतापूर्ण दोहन का सीधा अर्थ है- पर्यावरणीय हितों और आवश्यकताओं के बीच में संतुलन बनाना। इसके लिये कई क्षेत्रों में भारत को अपनी प्राथमिकताएँ नए सिरे से तय करनी होंगी। जल संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और पर्यावरण के प्रति समाज में चेतना फैलानी होगी।
जल संरक्षण के कुछ पर्यावरणानुकूल उपाय
1. वर्षा जल संचयन विधि (रेन वॉटर हार्वेस्टिंग) : पानी का सबसे निर्मल परिष्कृत स्वरूप है, आसमान से आने वाला जल। इसे हम नदी, नाले, समुद्र में बहने से रोक सकते हैं। यह स्रोत है कि एक घंटे की वर्षा भी बारह मास का पानी दे सकती है। इस तरीके का लाभ उठाकर रेगिस्तानी इलाकों-राजस्थान, गुजरात के घरों में, ऊँचे-ऊँचे किलों में वर्षा के पानी को इसी तकनीक का प्रयोग कर जल को रोका जा सकता है। वहाँ कभी-कभी पानी गिरता है, फिर वर्ष भर उसका उपयोग करते हैं। इन घरों में बिना किसी तोड़-फोड़ के छत के जल को एक ही पाइप में संग्रहित कर फिल्टर के माध्यम से घर में स्थित ट्यूबवेल या टैंक में डाला जाता है। यदि छत से पानी के निकास के तीन-चार स्थान हैं तो उन सबको जोड़कर एक पाइप में एकत्र कर इसे फिल्टर से जोड़कर टैंक में जोड़ देते हैं।
वर्षा ऋतु में जब अधिक वर्षा होती है तो अतिरिक्त जल जो भूमि पर बहने लगता है, उसे एकत्रित करना तथा एकत्रित जल को वाष्पीकरण एवं निष्पंदन की हानियों से बचाकर फसलोत्पादन के उपयोग में लेना वॉटर हार्वेस्टिंग कहलाता है। इस प्रकार से एकत्रित पानी का उपयोग शुष्क मौसम में तब किया जाता है, जब फसलों की सिंचाई की आवश्यकता होती है। इस विधि में पानी प्राकृतिक निचले क्षेत्रों तथा तालाबों में एकत्रित किया जाता है। आवश्यकतानुसार ऐसे तालाबों के क्षेत्रफल एवं गहराई बढ़ाई जा सकती है।
2. तैरते पदार्थों का उपयोगः तालाबों में एकत्रित जल की वाष्पीकरण से होने वाली हानि को रोकने के लिये क्षेत्रों में उपलब्ध पानी पर तैरने वाले पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, ताकि जल एवं वायुमंडल का संपर्क टूट जाए और वाष्पीकरण की क्रिया कम-से-कम हो पाए। तालाब की निचली सतह से रिसाव द्वारा जल की हानि को रोकने के लिये अगर संभव हो तो सीमेंट व कंक्रीट की सहायता से पक्का बनवा देना चाहिए अन्यथा तालाब की निचली सतह से जल के रिसाव की हानि कम करने के लिये एक 8-10 सेमी. मोटी भूसे की पर्त लगाकर उसके ऊपर 8-10 सेमी. मोटी पर्त चिकनी मिट्टी की लगा देनी चाहिए।
3. अधिकाधिक वृक्षारोपणः भारत में वृक्षारोपण के महत्व को साल 1952 में बनी पहली राष्ट्रीय वन नीति में रेखांकित किया गया था, लेकिन वृक्षारोपण के लिये तब से लेकर आज तक चली योजनाओं ने कोई बहुत उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं की है। वर्तमान में भारत में 20 प्रतिशत वन क्षेत्र है। एक अनुमान के अनुसार भारत की एक अरब से अधिक आबादी और वनों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये 1000 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में वृक्षारोपण की आवश्यकता होगी। इसलिए वृक्षारोपण का कोई विकल्प नहीं है। आखिर वृक्षारोपण से जन संसाधनों के संरक्षण का क्या सम्बन्ध है? वास्तव में वृक्ष और वन जल प्रदूषण पर काबू पाने में हमारी मदद करते हैं। प्रवाहमान जल की गंदगी को वृक्ष रोक लेते हैं। वे जल के बहाव को धीमा करते हैं जिससे जमीन जल का बहुत सा हिस्सा सोख लेती है और गर्मी के दिनों के लिये सुरक्षित कर लेती है। जल की गति धीमी होने से बाढ़ नियंत्रण में सहायता मिलती है। वृक्षों की जड़े मिट्टी को बाँधे रखती हैं जिससे बड़ी मात्रा में मिट्टी का कटाव नहीं होता।
वास्तव में आज वृक्षारोपण को एक जनांदोलन में बदलने की आवश्यकता है। इस लिहाज से हाल में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा वृक्षारोपण अभियान और नदियों को बचाने के लिये जन जागरूकता कार्यक्रम का शुभारंभ करना एक अच्छी पहल है। पहल का उद्देश्य वृक्षारोपण अभियान से न सिर्फ देश की नदियों के किनारों को मजबूत करना बल्कि बाढ़ और मिट्टी के कटाव की संभावनाएँ भी कम करना है। इसी प्रकार के वृक्षारोपण कार्यक्रम गंगोत्री, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, नवद्वीप और गंगासागर में भी आयोजित किये गये हैं।
जल संरक्षणः कुछ वैश्विक मॉडल
जल संरक्षण के लिये पूरी दुनिया में ऐसे बहुत से वैश्विक मॉडल विकसित हुए हैं, जिन्होंने जल को बचाने और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1. कैलिफोर्निया एकेडमी ऑफ साइंसेज ने अपनी इमारत के ऊपर एक ऐसी हरित छत का निर्माण किया है जो प्रत्येक वर्ष लाखों गैलन पानी के साथ बहने वाले प्रदूषित कचरे को पर्यावरण में जाने से रोकती है, साथ ही पानी की रिसाइक्लिंग कर उसे शहर भर की आवश्यकताओं को पूरा करने योग्य बनाती है।
2. ब्राजील में छतों से गटर में गिरने वाले बारिश के पानी को फिल्टर करने की कुछ अनोखी तकनीकें विकसित की गई हैं। इस तकनीक के जरिए छतों से गिरने वाले पानी को एल्युमीनियम के बड़े पात्र में रखे हुए हजारों पौधों के माध्यम से स्वच्छ बनाया जाता है।
वास्तव में आज वृक्षारोपण को एक जनांदोलन में बदलने की आवश्यकता है। इस लिहाज से हाल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा वृक्षारोपण अभियान और नदियों को बचाने के लिये जन जागरूकता कार्यक्रम का शुभारंभ करना एक अच्छी पहल है।3. अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के प्रयास-अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) ने साल 1990 के दशक से विभिन्न अमेरिकी शहरों में जल के संरक्षण के व्यापक अभियान आरंभ किये थे। इन अभियानों के तहत पानी की कमी को लेकर व्यापक जागरूकता फैलाई गई, लीकेज और आपूर्ति के दौरान बर्बाद होने वाले जल संरक्षण के लिये नीतियाँ विकसित की गईं। पानी के मोटरों की तकनीक को भी उन्नत बनाया गया। नॉर्थ कैरोलीना जैसी जगहों पर घरेलू उद्देश्य से इस्तेमाल होने वाले पानी का भी हिसाब-किताब रखने की नीति विकसित की गई। साल 1990 के दशक से ही न्यूयार्क के घरों में पानी की खपत कम करने वाले शौचालयों का निर्माण कराया गया।
भारत में हाल में राजस्थान के गाँवों में छोटे बाँधों के जरिये जल का संरक्षण करने वाली आकार परियोजना भी काफी चर्चित रही है। इस परियोजना का विचार 18 वर्षीय अनन्या डालमिया का था जिन्होंने स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल कर राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में छोटे बाँधों का निर्माण संभव कर दिखाया। इस परियोजना को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सराहा है।
जल संरक्षण और कार्बन उत्सर्जन
आज पूरी दुनिया में जल संसाधनों के संरक्षण का सवाल ग्लोबल वार्मिंग और कारण उत्सर्जन जैसी समस्याओं से जुड़ा हुआ है। जल संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने ही कालांतर में पेड़-पौधों और वनों को नुकसान पहुँचाया है। वन ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण में कार्बन उत्सर्जन की लगातार बढ़ रही मात्रा से निपटने में खासा सहायक होते हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर कृषि, वनों और बाढ़ों के रूप में सामने आएगा। इन हालात में कृषि में ऐसी फसलों को प्रोत्साहन देना होगा, जो कम पानी माँगती हों।
जैविक कृषि भी जल संरक्षण में काफी हद तक सहायक होती है। पुरानी कुछ फसलें जैसे कोदो, बाजरा, कंगनी और ढलानदार जमीनों में मक्की की तरह हो सकने वाला सूखा धान राहत दे सकते हैं। वनों में भी गहरी जड़ और चौड़ी पत्ती के बहु उपयोगी वृक्ष लगाने चाहिए। इस किस्म के वृक्ष जल संरक्षण करने के साथ-साथ और सूखे से निपटने की भी बेहतर क्षमता रखते हैं।
फल और चारे के रूप में मनुष्यों व पशुओं को खाद्य सुरक्षा भी प्रदान कर सकते हैं। इसके साथ ही अतिवृष्टि से निपटने की हमारी तैयारियाँ भी बेहतर स्तर पर होनी चाहिए। प्राकृतिक जल निकास स्थलों व नदी-नालों के किनारे बेतरतीब भवन निर्माण से हर हालत में बचना होगा। चूँकि जल संरक्षण का मुद्दा पर्यावरण के विभिन्न घटकों से अभिन्न रूप से जुड़ा है, इसलिये भविष्य में कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण लगाने के लिये जल-संरक्षण पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा।
सम्पर्क
लेखक परिचय
लेखक युवा स्तंभकार हैं। दैनिक पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय आदि विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं। विश्वविद्यालय व अन्तरविश्वविद्यालय स्तर पर देशभर में सैकड़ों वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में विजेता रहे हैं। ईमेलः prabhanshukmc@gmail.com
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