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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 06 जून 2014
देश के करीब 650 जिलों के 158 इलाकों में भूजल खारा हो चुका है, 267 जिलों के विभिन्न क्षेत्रों में फ्लोराइड की अधिकता है और 385 जिलों में नाइट्रेट की मात्रा तय मानकों से काफी ज्यादा है। इसी तरह कई इलाकों के पानी में आर्सेनिक, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम और लौह तत्वों की भारी मात्रा मौजूद है, जो आदमी की सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना खतरे से खाली नहीं। सच बात तो यह है कि स्थिति खतरे के निशान के बिल्कुल करीब पहुंच गई है और यदि समय रहते इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाए गए तो आने वाली पीढ़ियां इसका खामियाजा भुगतेंगी।
बीते एक दशक के अंदर दुनिया ने जलवायु में व्यापक परिवर्तन देखे हैं। हमारे देश में भी बीते साल उत्तराखंड में आई व्यापक त्रासदी जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा थी। जो कि जलवायु परिवर्तन का सीधा संबंध प्रदूषण से है। जलवायु में तेजी से आ रहे इस परिवर्तन पर नियंत्रण की जब भी बात होती है तो कहा जाता है कि इसके लिए लोगों में जागरूकता जरूरी है।लोग जागरूक होंगे तो प्रदूषण कम होगा और प्रदूषण में कमी आएगी तो जलवायु में भी स्वाभाविक परिवर्तन होगा। लोगों में जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता आए, इसके लिए देश में तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास लगातार चल रहे हैं। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि शहरी लोगों में अब जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूकता आ रही है।
पर्यावरण क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संगठन ‘टेरी’ ने हाल ही में आठ शहरों में किए अपने सर्वेक्षण में पाया है कि यहां के 90 फीसदी लोगों को प्रदूषण की वजह से जलवायु में हो रहे बदलाव का अहसास है।
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट यानी टेरी ने देश के बड़े महानगरों दिल्ली, मुंबई, पुणे, गुवाहाटी, कानपुर, जमशेदपुर, कोयंबटूर और इंदौर के 11 हजार 214 लोगों से बातचीत के आधार पर अपनी यह रिपोर्ट तैयार की है। इस अध्ययन में शामिल इन शहरों के 90 फीसद लोगों ने माना कि प्रदूषण की वजह से ही जलवायु में परिवर्तन हो रहा है।
इसी तरह 80 फीसद लोगों ने औसत तापमान में बढ़ोतरी की बात को भी स्वीकार किया। इनका मानना था कि उनके शहर की हवा में प्रदूषण की मात्रा बढ़ी है। दरअसल, इन शहरों में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में प्रदूषण ने आज एक विकराल समस्या का रूप ले लिया है। इसमें भी वायु प्रदूषण की स्थिति और भी ज्यादा खराब है।
वायु प्रदूषण का हाल यह है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की गिनती दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर के रूप में होने लगी है। वायु प्रदूषण को लेकर पिछले दिनों आया विश्व स्वास्थ्य संगठन का एक अध्ययन बताता है कि दिल्ली की हवा में पीएम 25 (2.5 माइक्रोन छोटे पार्टिकुलेट मैटर) में सबसे ज्यादा पाया गया है। पीएम 25 की सघनता 153 माइक्रोग्राम व पीएम 10 की सघनता 286 माइक्रोग्राम तक पहुंच गई है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है।
रिपोर्ट कहती है कि यदि वायु प्रदूषण रोकने के लिए अब भी उचित कदम नहीं उठाए गए तो इसके गंभीर नतीजे सामने आएंगे। टेरी के अध्ययन के मुताबिक, शहरों में कचरा प्रबंधन को लेकर भी लोगों में जागरूकता आ रही है। लगभग 90 फीसद लोगों ने माना कि कचरे का सही प्रबंधन नहीं होने से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। यह स्वीकार करना होगा कि वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण से पहले ही जूझ रहे लोगों की समस्याओं में कचरा और भी इजाफा कर रहा है।
शहरी निर्माण संबंधित, जैव मेडिकल, ई-कचरा, औद्योगिक कचरा और प्लास्टिक आदि मिलाकर देश में हर रोज हजारों टन कचरा निकलता है। इस कचरे में एक बड़ा हिस्सा ई-कचरे का है। दिल्ली देश के उन दस राज्यों में शामिल है, जहां सबसे ज्यादा ई-कचरा निकलता है और दीगर कचरों की तुलना में ई-कचरा ही पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है।
निर्माण संबंधी कचरे और दीगर कचरों का निपटान तो फिर भी आसान है, मगर ई-कचरे का निपटारा खतरे से खाली नहीं, क्योंकि इससें हमेशा खतरनाक और जानलेवा गैसें निकलती रहती हैं, जो इंसान की सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। फिर ई-कचरे की रिसाइकिलिंग में सबसे ज्यादा परेशानी आती है। रिसाइकिलिंग की परेशानियां और इसमें लगने वाली लागत ही वह वजह है कि आज कई विकसित देश अपने यहां का कचरा बड़े पैमाने पर भारत में खपा रहे हैं।
गौरतलब है कि गांव में पैदा होने वाला कचरा जहां खाद के रूप में खेतों के अंदर इस्तेमाल हो जाता है, वहीं शहर में पैदा होने वाले कचरे का पुनर्शोधन या नष्ट करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
महानगरों में कचरे की समस्या से निपटने के लिए कहने को भारत सरकार ने म्यूनिसिपल ठोस कचरा (प्रबंधन और निपटान) नियम 2000 अधिसूचित किए हैं, जिनका मकसद शहरी ठोस कचरे का संग्रह, उसे अलग-अलग करना, भंडारण, उसे निपटान के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का प्रावधान आदि शामिल है। लेकिन इन नियमों पर अमलदारी बमुश्किल ही हो पाती है।
यदि समय रहते कचरे पर नियंत्रण के समुचित उपाय नहीं किए गए तो इसके मानव जीवन और पर्यावरण दोनों पर ही घातक प्रभाव देखने को मिलेंगे। कचरे के नियंत्रण में सरकारी कोशिशों के अलावा आम आदमी की भागीदारी भी जरूरी है। कचरे के खिलाफ एक जन अभियान छेड़ना होगा, क्योंकि जनता को जागरूक किए बिना इस पर आसानी से काबू नहीं पाया जा सकता।
कचरे के उचित प्रबंधन के लिए जहां म्यूनिसिपल ठोस कचरा (प्रबंधन और निपटान) नियमों का सख्ती से अनुपालन जरूरी है, वहीं प्लास्टिक की थैलियों पर भी पूरी तरह से पाबंदी लगानी होगी। इस संबंध में टेरी ने अपने अध्ययन में पाया कि शहरी लोगों में पॉलीथिन थैलियों पर अत्यधिक निर्भरता के बावजूद 86 फीसदी लोगों का मानना है कि इन पर रोक लगनी चाहिए।
इस अध्ययन में एक और महत्वपूर्ण बात निकलकर आई कि पानी की उपलब्धता को लेकर लोग काफी चिंतित दिखे। पर्यावरण संबंधी तमाम सरकारी, गैर-सरकारी अध्ययन लगातार आगाह करते रहे हैं कि जल प्रदूषण की समस्या बढ़ते-बढ़ते इतने भयावह स्तर तक पहुंच गई है कि यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो निकट भविष्य में पीने के पानी के भी लाले पड़ जाएंगे।
खुद जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़े इसी तरह की कहानी बयां करते हैं। मंत्रालय की ओर से पिछले दिनों संसद में पेश आंकड़े बतलाते हैं कि देश के करीब 650 जिलों के 158 इलाकों में भूजल खारा हो चुका है, 267 जिलों के विभिन्न क्षेत्रों में फ्लोराइड की अधिकता है और 385 जिलों में नाइट्रेट की मात्रा तय मानकों से काफी ज्यादा है।
इसी तरह कई इलाकों के पानी में आर्सेनिक, सीसा, क्रोमियम, कैडमियम और लौह तत्वों की भारी मात्रा मौजूद है, जो आदमी की सेहत को नुकसान पहुंचा रही है। ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना खतरे से खाली नहीं। सच बात तो यह है कि स्थिति खतरे के निशान के बिल्कुल करीब पहुंच गई है और यदि समय रहते इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाए गए तो आने वाली पीढ़ियां इसका खामियाजा भुगतेंगी।
अफसोस की बात तो यह है कि इतनी चेतावनियों के बाद भी सरकार के लिए जल प्रदूषण कोई बड़ी समस्या नहीं है। सरकार के विकास के एजेंडे में लोगों को शुद्ध पानी मुहैया कराना तक शामिल नहीं है। जब भी सरकार को बिगड़ते पर्यावरण के लिए कठघरे में खड़ा किया जाता है तो वह अपनी गर्दन यह कहकर बचाती है कि विकास के लिए कुछ कीमत तो चुकानी ही होगी। लेकिन जिसके लिए यह विकास किया जा रहा है, वे इसके बारे में क्या सोचते हैं, यह बात भी टेरी के अध्ययन में सामने निकलकर आई है।
अध्ययन के मुताबिक, 30 फीसद से ज्यादा लोगों का कहना था कि सरकार को विकास से ज्यादा तरजीह पर्यावरण को देनी चाहिए। यानी अब जनता भी चाहती है कि विकास हो, लेकिन पर्यावरण की कीमत पर नहीं। इस अध्ययन ने साबित कर दिया है कि पर्यावरण को लेकर जागरूकता बढ़ रही है। लोगों को इस बात का अहसास है कि जलवायु परिवर्तन क्यों हो राह है? जाहिर है, पर्यावरण के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता अच्छा संकेत है। सरकार यदि इसका इस्तेमाल पर्यावरण को सुधारने में कर पाई तो उसके लिए यह एक बड़ी कामयाबी होगी।