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डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट, 01 दिसम्बर 2015
भारत जैसे-जैसे विकास करेगा, वैसे-वैसे उत्सर्जन भी बढ़ेगा। ऐसे में यदि उसने अपने ऊपर कोई बाध्यकारी समझौता लागू किया तो यह उसके हितों के खिलाफ होगा। बावजूद इसके दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिये भारत ने अपनी ओर से महत्त्वपूर्ण पहल की है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने के लिये भारत ने संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण निकाय ‘यूएनएफसीसीसी’ को, जो ऐच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता सहयोग यानी आईएनडीसी लक्ष्य पेश किया है, वह काफी व्यापक, सार्थक और प्रगतिशील है...
जलवायु परिवर्तन पर 21वां शिखर सम्मेलन फ्रांस की राजधानी पेरिस में शुरू हो गया है। इस सम्मेलन में भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी समेत दुनिया भर के करीब 150 राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और राष्ट्राध्यक्ष शामिल हो रहे हैं। 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर तक चलने वाले पेरिस जलवायु सम्मेलन का लक्ष्य पिछले 20 से भी अधिक साल में पहली बार जलवायु पर एक दीर्घकालीन कानूनी बाध्यकारी और सार्वभौम समझौता करना है। साथ ही इसका लक्ष्य ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इस दौरान देशों में बढ़ते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, प्रदूषित होती नदियाँ, ऊर्जा की अधिक खपत और पानी की बचत जैसे कई मुद्दों पर विस्तार से चर्चा होगी। सम्मेलन से पहले जिस तरह से दुनियाभर के 160 देशों ने एच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता सहयोग जताया है, उससे इस बार यह उम्मीद जगी है कि पेरिस जलवायु सम्मेलन पहले के जलवायु सम्मेलनों के बनिस्बत ज्यादा फायदेमंद साबित होगा और सभी देश एक बेहतर नतीजे पर पहुँच पाएँगे।पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से पहले भारत ने अपनी ओर से जो लक्ष्य तय किया है, उसके मुताबिक भारत साल 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता में 35 फीसदी तक की कटौती करेगा। इसके साथ ही उसकी यह कोशिश होगी कि इस अवधि में ऊर्जा उत्पादन क्षमता में नवीकरणीय ऊर्जा की भागीदारी लगभग 40 फीसदी तक हो। एक लिहाज से देखें तो भारत का यह लक्ष्य उसके वर्तमान कटौती लक्ष्य से कोई 75 फीसदी ज्यादा है। इस प्रतिबद्धता को हासिल करने के लिये भारत ने अपनी तरफ से नेशनल एडॉप्टेशन फंड की स्थापना की भी बात कही है। यही नहीं, राष्ट्रमंडल में कमजोर देशों को स्वच्छ ऊर्जा लागू करने और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने में मदद करने के लिये उन्हें 25 लाख डालर की मदद मुहैया कराने का वादा भी किया है।
भारत के मसौदे में जो तीन प्रमुख घोषणाएँ हैं, उसमें एक तो यह है कि अगले पन्द्रह वर्षों में यहाँ ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2005 के स्तर से 33 से 35 प्रतिशत कम किया जाएगा। अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाकर वह इसे हासिल करेगा। वर्ष 2030 तक कुल बिजली खपत का 40 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हासिल करने की कोशिश की जाएगी। कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता घटाने, नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के साथ भारत 2030 तक 2.5 से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने के लिये अतिरिक्त पेड़ लगाकर जंगलों को बढ़ाएगा। 175 गीगावाट बिजली नवीनीकरण ऊर्जा के तौर पर उत्पादित की जाएगी। बड़ी नदियों की सफाई से भी उत्सजर्न कम किया जाएगा।
भारत जलवायु परिवर्तन के वैश्विक मंचों पर हमेशा यह बात कहता रहा है कि चूँकि विकसित देशों में कार्बन उत्सर्जन कहीं ज्यादा है, इसलिए बड़ी जिम्मेदारी उनकी होती है। अपनी यह जिम्मेदारी वे विकासशील देशों पर जबरदस्ती नहीं थोप सकते। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत चली वार्ताओं के दौर में विकसित देशों ने गरीब और विकासशील देशों को धन और तकनीक दोनों देने का वादा किया था। ताकि वे अपने-अपने यहाँ जलवायु परिवर्तन रोकने के उपाय कर सकें। यह मदद पिछली संधि में अपनाए गए ‘समान, लेकिन अलग-अलग दायित्व’ के सिद्धान्त से जुड़ी हुई थी। इस सिद्धान्त का साफ-साफ यह अर्थ है कि चूँकि धनी देशों ने ऐतिहासिक रूप से अधिक प्रदूषण फैलाया है, लिहाजा जलवायु परिवर्तन रोकने में उन्हें अधिक बड़ी भूमिका निभानी होगी। उन्हें विकासशील देशों को कोष मुहैया कर और कम कीमत पर प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराकर ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने में व्यापक भूमिका निभानी चाहिए।
इसके अलावा पृथ्वी को बचाने के लिये आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल और नवाचार का लाभ भी उन्हें गरीब देशों को देना होगा। विकसित देशों से भारत का इस बारे में यह कहना है कि वे अपने यहाँ एक तंत्र तैयार करें, जो तकनीक और नवोन्मेष को महज निजी फायदे के लिये नहीं, बल्कि जनहित के प्रभावी औजार में बदल दें। कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिये प्रयास और भी करने होंगे। मसलन सारी दुनिया को बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों को अपनाना होगा। सौर और पवन ऊर्जा के क्षेत्र में वैश्विक समन्वय मौजूदा वक्त की जरूरत है। यही नहीं नवीकरणीय ऊर्जा की तकनीक भी सभी देश आपस में बाँटें। जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों के तहत आने वाले पाँच सालों में ऊर्जा शोध और विकास के बजट को दोगुना करने की जरूरत है।
अच्छी बात यह है कि ‘मिशन इनोवेशन’ के तहत भारत, चीन और अमेरिका समेत कुल 20 देशों ने 20 अरब डालर इकट्ठा करने की प्रतिबद्धता जताई है। जिसमें से आधी राशि अमेरिका की ओर से आएगी। जाहिर है कि अतिरिक्त संसाधन नई तकनीकों में व्यापक विस्तार लाएंगे, जिससे कि भविष्य का वैश्विक विद्युत मिश्रण तय होगा, जोकि स्वच्छ, संवहनीय और विश्वसनीय होगा। जलवायु सम्मेलनों में अक्सर विकसित देशों खासकर अमेरिका का दवाब बना रहता है। किसी भी अन्तरराष्ट्रीय समझौते के प्रति उसका नजरिया यह है कि बिना उसकी मौजूदगी और सहमति के कोई समझौता न हो और कोई समझौता उस पर बाध्यकारी न हो। यही वजह है कि कार्बन उत्सर्जन की ऐतिहासिक जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए बराबरी की कोई व्यवस्था नहीं बन पाई है।
पेरिस जलवायु सम्मेलन की कामयाबी भी आखिर में इस बात पर निर्भर करती है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका का क्या रुख रहता है? जहाँ तक पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका का सवाल है, भारत के पास दुनिया की कुल भूमि का 2.5 फीसदी हिस्सा है। जबकि उसकी जनसंख्या दुनिया की कुल आबादी की 17 फीसदी है। दुनिया का कुल साढ़े 17 फीसदी पशुधन हमारे देश के पास है। देश की 30 फीसदी आबादी अब भी गरीब है, 20 फीसदी के पास आवास नहीं है, 25 फीसदी के पास बिजली नहीं है। जबकि करीब 9 करोड़ लोग पेयजल की सुविधा से वंचित हैं। इतना ही नहीं, खाद्य सुरक्षा के दबाव में देश का कृषि क्षेत्र कार्बन उत्सर्जन घटाने की हालत में नहीं है।
देश में भोजन का अधिकार कानून लागू करने के लिये उसे और भी ज्यादा ऊर्जा की दरकार है। भारत जैसे-जैसे विकास करेगा, वैसे-वैसे उत्सर्जन भी बढ़ेगा। ऐसे में यदि उसने अपने ऊपर कोई बाध्यकारी समझौता लागू किया, तो यह उसके हितों के खिलाफ होगा। अमेरिका और तमाम विकसित देश जो सभी देशों को एक डंडे से हांकना चाहते हैं, उनसे क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या भारत को विकास के उस स्तर तक पहुँचने का कोई हक नहीं है, जहाँ अमीर देश पहले ही पहुँच चुके हैं? और इस क्रम में यदि भारत में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, तो क्या उस पर नियंत्रण की वही कसौटियाँ अमल में लाई जाएँगी, जो तरक्की कर चुके देशों के लिए जरूरी है?
जाहिर है, ऐसा कोई बाध्यकारी समझौता जो सभी पर एक समान लागू हो, भारत के साथ नाइंसाफी होगा। बावजूद इसके दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिये भारत ने अपनी ओर से महत्त्वपूर्ण पहल की है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाने के लिये भारत ने संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण निकाय ‘यूएनएफसीसीसी’ को, जो ऐच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता सहयोग यानी आईएनडीसी लक्ष्य पेश किया है, वह काफी व्यापक, सार्थक और प्रगतिशील है। मसौदे से जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की हमारी प्रतिबद्धता साफ मालूम चलती है। कार्बन उत्सर्जन से निपटने की भारत की कार्ययोजना चीन और अमेरिका जैसे बड़े उत्सर्जकों की तुलना में काफी बेहतर है। कार्बन उर्त्सजन कटौती पर हमारे देश का रोडमैप सबके साथ इंसाफ की हिमायत करता है। जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया के लिये आज एक बड़ी चुनौती है और इस चुनौती से निपटने के लिये सभी देशों को अपनी-अपनी ओर से गम्भीर प्रयास करने होंगे। अगर हम अभी भी ऐसा नहीं कर पाए, तो आने वाले दिनों में सारी दुनिया को जलवायु परिवर्तन की मुश्किलों का सामना करना होगा।
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