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हिमालय के करीब 50 जीवनदायी हिमनद झीलें अगले कुछ सालों में किनारे तोड़कर मैदानी इलाकों को जलमग्न कर सकती हैं। जिससे करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। उत्तराखण्ड में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा और इस साल मानसून के दौरान उत्तराखण्ड में जिस बड़ी तादाद में बादल फटने की घटनाएँ सामने आई हैं, उस परिप्रेक्ष्य में ये आशंकाएँ सही साबित होती दिख रही हैं, क्योंकि बादल फटने से कई हिमनद भी टूटे हैं। इन हिमनदों के टूटने का असर हम खतलिंग हिमखण्ड में पड़ी दरारों के रूप में देख सकते हैं। टिहरी जिले की घनसाली तहसील में स्थित खतलिंग हिमखण्ड में दरारें चौड़ी हो रही हैं। इन दरारों का दायरा चार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैल गया है। इस कारण यह आशंका उत्पन्न हुई है कि ये दरारें (क्रेवास) एकाएक चौड़ी क्यों हुईं? हिमखण्डों का पिघला पानी कहीं पाताल में गया या फिर भागीरथी नदी में बहा?
जिस ग्लेशियर की दरारें चौड़ी हुई हैं, उसी हिमखण्ड से भागीरथी की सहायक नदी भिलगंगा भी निकलती है। इन दरारों के चौड़े होने का पता तब चला जब सितम्बर-अक्टूबर में ट्रेकस का एक दल ट्रैकिंग के लिये गया हुआ था। ये हिमनद इस तरह से पिघल कर नष्ट होते हैं तो हिमालयीन नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
37 सदस्यीय इस दल के निदेशक प्रदीप राणा व अनिल पवार ने बताया है कि गंगोत्री से टिहरी जिले के गंगी गाँव तक यह ट्रैकिंग मार्ग 110 किमी लम्बा है। उनका दल खतलिंग हिमखण्ड पर ट्रैकिंग के लिये 27 सितम्बर को निकला था, जो आधे रास्ते से लौट आया। लौटने के बाद दूसरे रास्ते से 4 अक्टूबर 16 को इस हिमखण्ड के पास पहुँचा और 5 अक्टूबर को इन दोनों निदेशकों ने हिमखण्ड का परीक्षण किया।
इस परीक्षण में उन्हें कई जगह चौड़ी-चौड़ी दरारें देखने को मिलीं। जो पहले कभी देखने में नहीं आई थीं। इन दरारों में रस्सियों के सहारे जोखिम भरा सफर तय करने के बाद यह दल जैसे-तैसे गंगी गाँव पहुँच गया। उत्तरकाशी में स्थित माउण्ट स्पोर्टस ट्रैकिंग एजेंसी के संचालक और ट्रैकर जयंत पवार ने भी बताया है कि वे हर साल इस पद पर ट्रैकिंग के लिये जाते हैं, तो दरारें तो मिलती हैं, लेकिन इस बार इनकी संख्या ज्यादा है और इनकी गहराई व चौड़ाई भी बढ़ गई हैं।
दूसरी तरफ हिमखण्ड वैज्ञानिक डॉ. कीर्तिकुमार का कहना है कि इस बार जुलाई-अगस्त में गर्मी ज्यादा पड़ी है, इसलिये सम्भव है कि ग्लेशियर तेजी से पिघले हों। उत्तराखण्ड की घनसाली तहसील में पाँच बड़े ग्लेशियर हैं। इन्हें खतलिंग गोमुख मिलम, पिण्डारी और नामिक नामों से जाना जाता है। समुद्र तल से इनकी ऊँचाई 3700 से लेकर 4100 मीटर तक है। इसलिये ग्लेशियर ट्रैकस के लिये हिमखण्ड आर्कषण का केन्द्र हैं।
भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) के स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के हिमखण्ड विशेषज्ञ अनिल बी. कुलकर्णी और उनके दल ने भी हिमालय के हिमखण्डों का सर्वे कर यह जानकारी दी थी कि हिमालय के हिमखण्ड 21 फीसदी से भी ज्यादा सिकुड़ गए हैं।
इस टीम ने 466 से भी ज्यादा हिमखण्डों का सर्वेक्षण किया था। दरअसल जलवायु पर विनाशकारी असर डालने वाली ग्लोबल वार्मिंग हिमखण्डों में दरारों का कारण हैं। अन्य अध्ययनों से भी पता चला है कि 2050 तक भारत का धरातलीय तापमान 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ चुका होगा।
सर्दियों के दौरान यह मध्य भारत में 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा तो दक्षिण भारत में केवल दो डिग्री तक। इससे हिमालय के शिखरों से हिमखण्डों की बर्फ तेजी से पिघलेगी और वहाँ से निकलने वाली नदियों का बहाव तेज हो जाएगा। इन सबका मानसून पर यह असर पड़ेगा कि मध्य भारत में सर्दियों के दौरान वर्षा में 10 से 20 फीसदी तक की कमी आ जाएगी और उत्तरी-पश्चिमी भारत में 30 फीसदी तक की कमी आ जाएगी।
अध्ययन बताते हैं कि 21वीं सदी के अन्त तक भारत में वर्षा 7 से 10 फीसदी बढ़ेगी, लेकिन सर्दियों में यह कम हो जाएगी। होगा यह कि मानसून के समय में तो जमकर बारिश होगी, लेकिन बाकी माह सूखे निकल जाएँगे। पानी कुछ ही दिनों में इतना बरसेगा कि बाढ़ का खतरा आम हो जाएगा और दिसम्बर, जनवरी व फरवरी में वर्षा बहुत कम होगी।
यह भी आशंका जताई जा रही है कि हिमालय के करीब 50 जीवनदायी हिमनद झीलें अगले कुछ सालों में किनारे तोड़कर मैदानी इलाकों को जलमग्न कर सकती हैं। जिससे करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। उत्तराखण्ड में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा और इस साल मानसून के दौरान उत्तराखण्ड में जिस बड़ी तादाद में बादल फटने की घटनाएँ सामने आई हैं, उस परिप्रेक्ष्य में ये आशंकाएँ सही साबित होती दिख रही हैं, क्योंकि बादल फटने से कई हिमनद भी टूटे हैं। इन हिमनदों के टूटने का असर हम खतलिंग हिमखण्ड में पड़ी दरारों के रूप में देख सकते हैं।
इन हिमनदों के वजूद पर यदि असर पड़ता है तो हिमालयीन जो नदियाँ हैं उनके सूखने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। अमेरिका स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च के एक अध्ययन से पता चला है कि गंगा समेत विश्व की 925 बड़ी नदियाँ सूख रही हैं। पिछले 50 सालों में इन नदियों में जलप्रवाह घटा है।
यदि यही सिलसिला बना रहा तो 2050 तक इन नदियों से मिलने वाले पानी में 60 से 90 प्रतिशत तक कमी आ जाएगी। इससे जलसंकट के लिये हाहाकार तो मचेगा ही खाद्य संकट की भयावहता भी सामने आएगी। शोध से यह भी स्पष्ट हुआ है कि यह संकट किसी एक देश या क्षेत्र विशेष की नदियों पर ही नहीं, दुनिया की सभी जीवनदायी नदियों पर गहरा रहा है, क्योंकि इस सूची में चीन की पीली नदी, पश्चिम अफ्रीका की नईजर और अमेरिका की कोलोराडो जैसी नदियाँ भी शामिल हैं।
जीवनदायी नदियाँ भारतीय संस्कृति की धरोहर भी रही हैं। नदियों के किनारे ही ऐसी आधुनिकतम बड़ी सभ्यताएँ विकसित हुई हैं, जो कृषि और पशुपालन पर अवलम्बित रही हैं। लेकिन जब ये सभ्यताएँ औद्योगिक एवं प्रौद्योगिक उत्पदानों के व्यवसाय से जुड़ गई, तब ये अति विकसित और आधुनिक मानी जाने वाली सभ्यताएँ मात्र 50 साल के भीतर ही नदियों जैसी अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा के लिये खतरा बन गई।
साफ है, इस औद्योगिक प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया तो हम अपनी नदियों की विरासत को तो खोएँगे ही हिमालय के हिमखण्ड और हिमनदों पर ही इनका असर पड़ेगा। इस लिहाज से विकास बेशक हो, लेकिन वह पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाला विकास साबित नहीं होना चाहिए। अन्यथा प्रकृति हम से देर-सबेर प्रतिकार जरूर लेगी।
शायद हमें प्राकृतिक संसाधनों का सही मूल्यांकन करना अभी नहीं आया है, क्योंकि प्रकृति की किसी भी सम्पदा को बनने में हजारों-लाखों साल लगते है, लेकिन उसे नष्ट होने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगता? इसलिये विकास के बहाने विनाश की जो रेखा हमने नदियों से लेकर हिमखण्डों तक खींच दी है, उसे यथाशीघ्र नियंत्रित करने की जरूरत है।