पानी का अर्थशास्त्र

Submitted by RuralWater on Fri, 05/27/2016 - 09:45

Economics Of Water

संदर्भ - विश्व बैंक की ‘हाई एंड ड्राईः क्लाईमेट चेंज, वाटर एंड दी इकॉनोमी रिपोर्ट’

Reference -‘High and Dry: Climate Change, Water and the Economy Report by World Bank’

.विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि जल संकट के कारण देशों की आर्थिक वृद्धि प्रभावित हो सकती है और लोगों का विस्थापन बढ़ सकता है। यह स्थिति भारत समेत पूरे विश्व में संघर्ष की समस्याएँ खड़ी कर सकती हैं। इस दृष्टि से जलवायु परिवर्तन, जल व अर्थव्यस्था पर विश्व बैंक की हाई एंड ड्राईः क्लाईमेट चेंज, वाटर एंड दी इकॉनोमी रिपोर्ट आई है। इसके अनुसार बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती आय और शहरों के विस्तार से पानी की माँग में भारी बढ़ोत्तरी होगी जबकि आपूर्ति अनियमित और अनिश्चित होगी।

यह जल संकट भारत साहित कई देशों की आर्थिक वृद्धि में तो रोड़ा बनेगा ही, विश्व की स्थिरता के लिये भी बड़ा खतरा साबित होगा। साफ है, भविष्य में देश की अर्थव्यवस्था को पानी प्रभावित कर सकता है। इससे निपटने के लिये बेहतर जल प्रबन्धन की जरूरत तो है ही, पानी की फिजूलखर्ची पर अंकुश की भी जरूरत है।

फिलहाल हमारे देश की सर्वोच्च प्राथमिकता आर्थिक विकास है। किसी भी देश का आर्थिक विकास जीवनदायी जल की बड़ी मात्रा में उपलब्धता के बिना सम्भव नहीं है। इसलिये पानी पर नियंत्रण की जरूरत है।

औद्योगिक विकास दर के सूचकांक को नापे जाते वक्त पानी के महत्त्व को दरकिनार रखते हुए औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। 2006-07 में भारत की विकास दर ने 9.6 तक की ऊँचाइयाँ छुई थी। सकल धरेलू उत्पाद एक ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया था।

यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक ही बनाए रखना है तो एक अध्ययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से 4 गुना अधिक पानी की जरूरत होगी। तभी सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 2031 तक 4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच सकेगा। अब सवाल उठता है कि इतना पानी आएगा कहाँ से और ऐसे कौन से उपाय किये जाएँ जिनसे पानी की वास्तविक बर्बादी पर पूरी तरह रोक लगे।

विश्व बैंक कि रिपोर्ट के अनुसार भारत जैसे जल संकट वाले देश में 2050 तक जीडीपी में 6 फीसदी तक की हानि हो सकती है। भारत में विश्व की 18 फीसदी आबादी है, पर पानी की उपलब्धता 4 फीसदी है। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और शहरीकरण ने जल की आपूर्ति और माँग की खाई को चौड़ा किया है।

बढ़ता वैश्विक तापमान और जलवायु बदलाव जो संकेत दे रहे हैं उससे जल की उपलब्धता में और कमी आने के अनुमान तो हैं ही, देश के जलचक्र के परिवर्तित हो जाने की भी आशंका जताई जा रही है। इन हालातों के चलते भारत में जल समस्या ने विकराल रूप लेना शुरू कर दिया है। तिब्बत के पठार में मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं, जलवायु परिवर्तन के चलते ‘ब्लैक कार्बन‘ जैसे प्रदूषित तत्व ने उत्सर्जित होकर हिमालय के ग्लेशियरों पर जमीं बर्फ की मात्रा को घाटा दिया है।

उत्तराखण्ड में लगी आग से ब्लैक कार्बन की मात्रा और बढ़ गई है। इससे लगता है कि इस सदी के अन्त तक कई ग्लेशियर अपना वजूद खो देंगे। तिब्बत के इन ग्लेशियरों से गंगा और ब्रह्मपुत्र समेत 9 नदियों में जल की आपूर्ति होती है। यही नदियाँ भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के निवासियों को पीने व सिंचाई हेतु जल उपलब्ध कराती हैं।

ऐसी विषम स्थिति में हम अर्थव्यवस्था को बढ़ाए रखना हैं तो पानी के प्रबन्धन के नए उपाय तलाशने होंगे। पानी को केन्द्र की समवर्ती सूची में शामिल करना होगा। यदि पानी के बेहतर प्रबन्धन में हम सफल हो जाते हैं तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में 2 फीसदी वृद्धि होगी और सिंचाई में भी 5 फीसदी तक की वृद्धि सम्भव है।

विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई है। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल यूरोपीय संघ के दबाव में शुरू हो चुका है। पानी को मुद्रा में तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे विश्व व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया है। जिससे पूँजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशील देशों के पानी का असीमित दोहन करके फलती-फूलती रहे।

बोतलबन्द पानी के संयंत्र इसी नजरिए से लगाए गए हैं। 1 लीटर पानी तैयार करने में 3.5 लीटर पानी बेकार चला जाता है। इस लिहाज से इन संयंत्रों पर भी लगाम की जरूरत है। वैसे भारत विश्व स्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। दुनिया के जल का 13 प्रतिशत उपयोग भारत करता है। इसलिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत के जल के बाजारीकरण को आमादा हैं।

पानी का आसानी से बर्बादी का सिलसिला 1970 में नलकूप क्रान्ति के आगमन पर हुआ। वर्तमान में 2 करोड़ 50 लाख से अधिक निजी नलकूप लग चुके हैं। इनमें जो खेतों में सिंचाई के लिये लगाए गए हैं, उनकी तो जरूरत है लेकिन जो घरों और होटलों में लगे हैं उनकी आवश्यकता की पड़ताल करने की जरूरत है। यदि फ्लश शैचालय, बाथटब, तरणताल और वाहनों की धुलाई पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाये तो लाखों लीटर पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। क्योंकि 1.5 लाख लीटर पानी केवल मल बाहने में बर्बाद होता है। आधुनिक विकास और दिनचर्या में पाश्चात्य शैली का अनुकरण जल की बर्बादी के प्रमुख कारण हैं। एक तरफ धन सम्पन्न शहरी आबादी अपना वैभव बनाए रखने के लिये पाश्चात्य शौचालयों, बाथटबों और पंचतारा तालाबों में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा देती हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक आबादी ऐसी है जो तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, मसलन करीब 38 लीटर पानी बमुश्किल जुटा पाती है।

पानी के इसी अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने बड़ी तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले एक बार फ्लश चलाकर इतना पानी बहा देते हैं कि जितना किसान के एक पूरे परिवार को पूरे दिन के लिये हासिल नहीं हो पाता है। जल वितरण की इस असमानता के चलते ही भारत में हर साल 5 लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों को जल प्राप्त करने के लिये जद्दोजहद करना दिनचर्या में शामिल हो गया है।

2008 के बाद तो हालात इतने बदतर हो गए कि देश में 1 हजार से ज्यादा प्रतिवर्ष पानी से जुड़ी हिंसक वारदातें सामने आने लगीं है। आज 30 करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आबादी के लिये निस्तार हेतु पर्याप्त जल सुविधाएँ नहीं है। इस कारण बड़ी संख्या में लोगों को खुले में शौच के लिये मजबूर होना पड़ता है। 2001 से 2011 के बीच भारत में घरों की संख्या बढ़कर 24 से 33 करोड़ हो गई है।

आधुनिक घर जहाँ आलीशान हैं वही उनमें लगे मार्बल और ग्रेनाइट की साफ-सफाई में भी पानी का खर्च बेतहाशा बढ़ा है। पानी की कमी की सबसे ज्यादा मार ग्रामीण और शहरी गरीब महिलाओं पर पड़ती है। करीब पौने चार करोड़ महिलाएँ रोजाना आधा से एक किलो मीटर दूरी तय करके पानी ढोती हैं। सार्वजनिक नलों पर भी घंटों पानी के लिये महिलाओं को संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में रिपोर्ट में कहा भी गया है कि भारत में औसत से कम वर्षा होने पर पानी से जुड़े झगड़ों में 4 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है और विस्थापन बढ़ जाता है।

पानी का आसानी से बर्बादी का सिलसिला 1970 में नलकूप क्रान्ति के आगमन पर हुआ। वर्तमान में 2 करोड़ 50 लाख से अधिक निजी नलकूप लग चुके हैं। इनमें जो खेतों में सिंचाई के लिये लगाए गए हैं, उनकी तो जरूरत है लेकिन जो घरों और होटलों में लगे हैं उनकी आवश्यकता की पड़ताल करने की जरूरत है।

यदि फ्लश शैचालय, बाथटब, तरणताल और वाहनों की धुलाई पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया जाये तो लाखों लीटर पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। क्योंकि 1.5 लाख लीटर पानी केवल मल बाहने में बर्बाद होता है। फ्लश शौचालय को खाद शौचालयों में परिवर्तित करके भी जल की बर्बादी में कमी लाई जा सकती है। साथ ही इसे खाद निर्माण प्रणाली से जोड़ दिया जाय तो खेतों की उर्वरा क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। मानव मल सूखकर गंधहीन खाद में तब्दील हो जाता हैै।

मौजूदा हालातों में हम भले ही आर्थिक विकास दर को औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकिन यहाँ यह ध्यान देने की जरूरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना कोई आधुनिक विकास सम्भव नहीं है।

यहाँ यह भी गौरतलब है कि वैज्ञानिक तकनीकें प्राकृतिक सम्पदा को रूपान्तरित कर उसे मानव समुदायों के लिये सहज सुलभ तो बना सकते हैं, लेकिन प्रकृति के किसी तत्व का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकते हैं। यही स्थिति पानी के साथ है। हम गन्दे-से-गन्दे पानी को शुद्ध तो कर सकते हैं, लेकिन पानी का निर्माण नहीं कर सकते हैं। अभी तक समुद्री पानी को मीठा बनाने के आसान उपाय भी सम्भव नहीं हो पाये हैं। इसलिये जल के सीमित उपयोग के लिये कारगर जलनीति को अस्तिव में लाने की जरूरत है जिससे भारत का आर्थिक विकास और रोजगार गतिशील बने रहे।