1. शुद्ध पेयजल
स्वस्थ शरीर के लिये स्वच्छ व निर्मल जल अत्यधिक आवश्यक है। वर्तमान में जल-प्रदूषण एक गम्भीर समस्या का रूप ले चुकी है। अधिकतर जल स्रोत, नदी, नाले जल प्रदूषण से प्रभावित है। जिसका स्पष्ट प्रभाव गर्मी व बरसात के दिनों में दिखाई पड़ता है जबकि अधिकतर गाँव पानी से फैलने वाली बीमारियों जैसे-पीलिया, पेचिश, टाइफाइड, हैजा आदि रोगों से पीड़ित रहते हैं।
जल स्रोत के जल समेट क्षेत्र के संरक्षण एवं संवर्धन के साथ यह आवश्यक है कि जल प्रदूषण के सम्भावित कारणों की पहचान कर उनका निदान किया जाय। ग्रामवासी आसानी से अपने जल स्रोत के जल की गुणवत्ता व जल प्रदूषण को पहचानने की समझ विकसित कर सकते हैं।
जन सहभागिता से जल स्रोतों के रखरखाव व जल की गुणवत्ता के लिये निम्न स्तरों पर कार्य करना आवश्यक हैः
1. गाँव में
i. ग्रामीण समुदाय में स्वच्छ पेयजल के उपयोग व जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाने के लिए नुक्कड़ नाटक, जन सभाओं, पद यात्राओं आदि माध्यमों द्वार जन चेतना जगाना।
ii. दीर्घ अवधि में अवघटित होने वाले पदार्थों जैसे-प्लास्टिक के उपयोग को हतोत्साहित करके अल्प अवधि में अपघटित होने वाले वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहित करना।
iii. घर के कूड़ा करकट, गोबर आदि के लिए कम्पोस्ट गड्ढों का निर्माण कर जैविक खाद बनाना।
iv. गाँव में शौच के लिए खुली जगह का प्रयोग न करके शौचालयों का निर्माण व उपयोग को प्रोत्साहित करना।
v. कपड़े व बर्तन धोने के लिए सोख्ता गड्ढों का निर्माण व उपयोग को प्रोत्साहित करना।
vi. जल स्रोत के पानी की जाँच नियमित अवधि में करने की व्यवस्था करना।
vii. समय-समय पर गाँवों में सफाई अभियान संचालित करना।
viii. पीने के लिए शुद्ध पेयजल का उपयोग करना तथा यदि पेयजल अशुद्ध हो तो उसकी सफाई (छानकर, उबालकर) करके उपयोग करने की आदत डालना।
ix. गाँवों में निकास नालियों का निर्माण करना तथा यह सुनिश्चित करना कि गन्दी नालियों का पानी जल स्रोतों को प्रदूषित न करे।
2. जल स्रोत के जल समेट क्षेत्र में
i. जल समेट क्षेत्र में पशु-चुगान व मल-मूत्र विसर्जन पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो क्योंकि गोबर व मानव मल-मूत्र वर्षा के साथ बहकर या भूमि में अवशोषित होकर जल स्रोतों को बीमारी पहुँचाने वाले कीटाणुओं से संक्रमित कर देते हैं।
तालिका 2 : जल गुणवत्ता व प्रदूषण परीक्षण (स्रोतः ग्राम पर्यावरण कार्य योजना)
अनुभव | परीक्षण | कारक | प्रदूषण स्रोत | प्रभाव | रोकथाम |
रंग | गंदलापन | पानी में घुले ठोस गाड़े पदार्थ। सूर्य की रोशनी में चमकना | मल त्याग, पशु चुगान, वनस्पति कटान, भू-कटाव सड़कों का निर्माण सम्बन्धी बहाव | जल धाराओं में आई तलछट कीटनाशक, छोटे जीव-जन्तु, जैवीय ऑक्सीजन की मात्रा की पानी में कमी | वनस्पति कटान, पशु चुगान, मल त्याग पर प्रतिबन्ध स्रोत की नियमित सफाई |
स्वाद | नाइट्रेट फास्फेट और अन्य रसायन | रसायनिक पदार्थ | कीटनाशक, रसायनिक खाद मल, अवशिष्ट डिटरजैंट | पानी में ऑक्सीजन की कमी, जल पौध वृद्धि | कीटनाशक, रसायनिक खाद व जल स्रोत पर कपड़े धोने व नहाने पर प्रतिबन्ध |
स्वाद एवं गंध | जैविक कारक | बीमारियाँ फैलाने वाले जीवाणु, विषाणु व परजीवी | पशुलिष्ठा, मानव विष्ठा के रोगाणु | हैजा, पेचिश पीलिया, टाइफाइड | मल त्याग, पशु चरान पर प्रतिबन्ध |
स्वाद व गंध | रसायनिक प्रदूषण | विषैले तत्व | कीटनाशक, पॉलीथीन औद्योगिक कचरा आदि | विभिन्न प्रकार के टॉक्सिक अवयवों द्वारा विषाक्तता और कैंसर | रसायनिक पदार्थों, कूड़े करकट से स्रोत की सुरक्षा |
ii.. जल समेट क्षेत्र कूड़ा करकट, रासायनिक पदार्थों के फेंकने पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो।
iii. यदि जल समेट क्षेत्र के अन्तर्गत कृषि भूमि हो तो उस भूमि में रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाईयों के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो।
iv. जल समेट क्षेत्र में वनस्पतियों को नुकसान पहुँचाने व आग लगाने पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो।
जल स्रोतों में
i. जल स्रोत (नौला/धारा) की नियमित सफाई की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिये।
ii. नौले से पेयजल को निकालने की स्वच्छ प्रबन्ध व्यवस्था बनायी जाये ताकि नौले के पानी को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।
iii. नौले/धारे से पानी के अलग-अलग उपयोग हेतु अलग-अलग व्यवस्था करना जैसे- जल स्रोत के पास पशुओं के पीने के लिए अलग से व्यवस्था करना।
iv. यदि नौले, धारे के पास नहाने, कपड़े व बर्तन धोने की परम्परा हो तो स्रोत से दूर अलग से स्नानागार व सोख्ता गड्ढे की व्यवस्था करना।
v. यदि स्रोत दूर हो और स्रोत का पानी पाइपों द्वारा गाँव में ले जाया जा रहा हो तो जल स्रोत पर फिल्टर टैंक बनाना व इस टैंक की नियमित सफाई व्यवस्था करना।
vi. यदि स्रोत के आसापास बरसाती नाला बहता हो तो निकास नालियाँ बनाना, ताकि बरसाती पानी से जल स्रोत प्रदूषित न हो।
vii. जल स्रोत में नियमित रूप से कीटाणुनाशक दवाईयों का छिड़काव करना।
viii. यदि गाँव के समीप ही जल गुणवत्ता जाँच करने की सुविधा उपलब्ध हो तो जल की सम्पूर्ण जाँच नियमित रूप में करना।
2. सागवाड़ा सिंचाई
उत्तरांचल में सिंचित खेती के अन्तर्गत क्षेत्रफल काफी कम (लगभग 10 प्रतिशत) है अधिकतर खेती वर्षा पर निर्भर करती है। अधिकतर पहाड़ों की तलहटी में बसे गाँवों, तराई-भाबर वाले क्षेत्रों में गूलों, नहरों व नलकूपों द्वार सिंचाई होती है, जबकि बारानी क्षेत्र के किसान अपने घरों के आस-पास की सीमित भूमि (सागबाड़े) में ‘लोटा टपक विधि’ द्वारा सिंचाई करके शाक-सब्जी, मसाले आदि फसलें अपने निजी उपयोग के अलावा नगदी के लिए उगाते हैं। सागबाड़े में फसल का क्षेत्रफल मुख्यतः निम्न पर निर्भर करता हैः
1. पानी के स्रोतों (नौला, धारा मंगेरा) में उपलब्ध पानी की मात्रा।
2. पानी का ढुलान, संग्रहण व खेत में कार्य हेतु उपलब्ध मानव श्रम।
3. बाजार की उपलब्धता, यातायात की सुविधाएँ।
4. घर के आसपास उलब्ध भूमि।
5. सब्जी उत्पादन हेतु आवश्यक ढ़ाँचागत सुविधाएँ।
लोटा टपक सिंचाई विधि में प्रत्येक परिवार गाँव में उपलब्ध जल स्रोतों से पानी लाकर बड़े बर्तनों (ड्रम, कनस्तर आदि) में जमा करते हैं तथा सागबाड़े में बोये/रोपे गये पौधों को प्रतिदिन, दिन में दो बार (सुबह एवं शाम) पानी तब तक देते हैं जब तक कि पौधा अपनी जड़ें पूर्ण रूप से नहीं जमा लेता है। इसके उपरान्त पौधों को जरूरत पड़ने पर ही पानी दिया जाता है।
जिन गाँवों के जल स्रोतों का प्रबन्धन अच्छा होने से पानी की उपलब्धता अच्छी है उन गाँवों के किसान सब्जी का उत्पादन नकदी फसल के रूप में करने लगे हैं। नैनीताल जिले के गर्मपानी क्षेत्र में किये गये अध्ययन के अनुसार गर्मी के मौसम में उगाई जाने वाली कुछ नकदी सब्जियों में प्रति नाली पानी की आवश्यकता का विवरण तालिका- 3 में दिया गया है।
तालिका -3: लोटा टपक विधि द्वारा सिंचित कुछ नकदी सब्जियों से प्रतिनाली पानी का आवश्यकता
क्र.स. | विवरण | शिमला मिर्च | टमाटर | फूल गोभी | छोटी मिर्च | योग |
1. | बोने/रुपाई का समय | मार्च-अप्रैल का महीना | मार्च-अप्रैल | मार्च-अप्रैल | अप्रैल-मई |
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2. | फसल कटाई | जून-सितम्बर | जून-अगस्त | जुलाई-अगस्त | अगस्त-सितम्बर |
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3. | पौध प्रति नाली | 920 | 500 | 500 | 1,300 | 3,220 |
4. | औसतन प्रति दिन प्रति पौध पानी की उपलब्धता (मि.लि.) | 500 | 500 | 500 | 500 |
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5. | सिंचाई की अवधि (दिन) | 12 | 12 | 12 | 10 |
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6. | प्रतिनाली कुल पानी की आवश्यकता (ली.) | 5,520 | 3,000 | 3,000 | 6,500 | 18,020 |
7. | प्रतिनाली प्रतिदिन पानी की आवश्यकता (ली.) | 460 | 250 | 250 | 650 | 1,610 |
वारानी गाँवों में सागबाड़े के अन्तर्गत सिंचित क्षेत्र में वृद्धि करने के लिये निम्न उपाय किये जाने आवश्यक हैंः
1. जल स्रोतों के संरक्षण एवं प्रबन्धन की व्यवस्था।
2. पानी का संग्रहण एवं उचित उपयोग।
3. वर्षा के जल का यथासम्भव संग्रहण।
4. परम्परागत लोटा टपक सिंचाई विधि में वैज्ञानिकों द्वारा विकसित टपक सिंचाई विधि का यथोचित समावेश।
यदि पानी के स्रोतों का संरक्षण, संवर्धन, भण्डारण एवं समुचित उपयोग किया जाए तो वारानी गाँवों में भी सब्जी, मसाले, जड़ी-बूटी, सुगन्धित फूल, बागवानी की खेती करके गाँवों की आर्थिक स्थिति में गुणात्मक वृद्धि की जा सकती है।
लोटा टपक सिंचाई से नकदी फसल उत्पादन
नैनीताल जिले के गर्मपानी क्षेत्र में सब्जी उत्पादन आजीविका का प्रमुख साधन है। इस क्षेत्र के घाटी में बसे गाँवों में गुलों, नहरों द्वारा सिंचाई होती है जबकि ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बसे गाँव परम्परागत ‘लोटा टपक’ विधि से सिंचाई करके सब्जी उत्पादन करते हैं। गर्मपानी क्षेत्र में बसा एक गाँव है आटाखास जहाँ कुल 20 परिवार निवास करते हैं। गाँव का एक मुख्य जल स्रोत है जिसका उपयोग ग्रामवासी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही साथ सब्जियों में सिंचाई के लिये करते हैं। सन 1995 से पूर्व इस स्रोत के संरक्षण, रखरखाव व जल वितरण की कोई ठोस अवस्था न हो पाने के कारण सब्जी उत्पादन हेतु प्रयाप्त पानी नहीं मिल पाता था। जिसके कारण गाँव में जल उपयोग को लेकर काफी विवाद थे। ग्रामवासियों ने सन 1995 से स्थानीय चिराग संस्था के सहयोग से जल स्रोत के ऊपर स्थित सम्पूर्ण वन पंचायत क्षेत्र का संरक्षण व संवर्धन प्रारम्भ किया। साथ ही साथ इस स्रोत के पानी का संग्रहण, वितरण और रखरखाव का कार्य स्वजल परियोजना के अन्तर्गत किया गया। जल स्रोत के निरन्तर संरक्षण, पानी के भण्डारण व वितरण की समुचित व्यवस्था बनने के फलस्वरूप वर्तमान में सब्जी उत्पादन हेतु प्रति परिवार पानी की उपलब्धता में लगभग 10 प्रतिशत वृद्धि हुई। पानी की उपलब्धता बढ़ने से प्रत्येक परिवार की वार्षिक आय में भी औसतन 10 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अब ग्रामवासी सब्जी उत्पादन के साथ-साथ अन्य नकदी फसलों के उत्पादन की ओर भी अग्रसर हो रहे हैं।
कार्य योजना का आर्थिक आँकलन
जल समेट क्षेत्र के उपचार में लगने वाले धन का निर्धारण निम्न बिन्दुओं पर निर्भर करता हैः
1. जल समेट क्षेत्र का क्षेत्रफल।
2. जल समेट क्षेत्र में वानस्पतिक आवरण व भूमि में कार्बनिक पदार्थों की स्थिति।
3. जल समेट क्षेत्र में भू-क्षरण की स्थिति।
4. गाँव में आपसी तालमेल, सहयोग एवं आर्थिक सहयोग की स्थिति।
5. जल स्रोत में प्रदूषण स्तर जल स्रोत के रख-रखाव की स्थिति।
उक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर जल स्रोत के समेट क्षेत्र में आवश्यकतानुसार किए जाने वाले उपचारों की प्राथमिकताएँ व उनकी संख्या तय करते हैं इसके आधार पर जल समेट क्षेत्र में किये जाने वाले विभिन्न उपचारों में लगने वाले धन का आँकलन करते हैं। साथ ही गाँव की आम सभा में ग्रामवासियों द्वारा जल समेट क्षेत्र के उपचार एवं प्रबन्धन में नकद अंशदान व श्रमदान सुनिश्चित करते हैं।
नोट- ग्रामवासियों का अंशदान व श्रमदान कुल लागत का कम से कम 20 प्रतिशत होना चाहिए। परती भूमि विकास समिति द्वारा सहयोगी संस्थाओं को 1 हेक्टेयर जल स्रोत अभयारण्य के उपचार व प्रबन्धन के लिए दिए गए आर्थिक सहयोग के आधार पर लागत का विवरण तालिका - 4 में दिया गया है।
तालिका 4: जल स्रोत अभयारण्य विकास पर लागत का विवरण
i. घेरबाड़ का कार्य ग्रामवासियों द्वारा सामूहिक सुरक्षा के माध्यम से किया जाएगा।
ii. ग्रामवासियों का श्रमदान व अंशदान कुल उपचार लागत का 20 प्रतिशत अतिरिक्त।