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जल चेतना तकनीकी पत्रिका, जनवरी, 2013
प्रायः सुनने में आता है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये लड़ा जायेगा। यह कथन या सोच अकारण नहीं है। संसार के विभिन्न हिमनदों पर वैज्ञानिकों द्वारा हाल में किये गए सर्वेक्षणों एवं अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला गया है कि भविष्य में लोगों को भीषण जल संकट का सामना करना पड़ेगा। इन अध्ययनों से पता चला है कि पूरे विश्व में स्थित अनेक हिमनद (ग्लेशियर) काफी तीव्र गति से पिघल रहे हैं। अफ्रीका के पूर्वी भाग में स्थित किलिमंजारो पर्वत पर मौजूद हिमनदों के सन 2015 तक पिघल कर पूरी तरह समाप्त हो जाने की आशंका व्यक्त की गई है। भूवैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययनों से पता चला है कि सन 1912 से सन 2000 के बीच माउंट किलिमंजारो पर स्थित हिमनदों का लगभग 80 प्रतिशत भाग पिघल चुका था। दक्षिण अमरीकी देश पेरू में स्थित हिमनद सन 1963 से सन 2000 के बीच 155 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल कर छोटे होते जा रहे थे। अध्ययनों से पता चला है कि आर्कटिक की बर्फ चादर भी बहुत तेजी से पिघलती जा रही है। इसके कारण इन सभी हिमनदों से निकलने वाली अधिकांश नदियों के सूखने की स्थिति पैदा हो गई है। वैज्ञानिकों के मतानुसार हिमनदों के इस प्रकार तेजी से पिघलने का कारण है बढ़ती भूमण्डलीय गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग)।
भारत के हिमालय क्षेत्र में स्थित हिमनदों की स्थिति भी लगभग वैसी ही है। आज से कुछ समय पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ की मौसम समिति द्वारा तैयार किए गए एक प्रतिवेदन में बताया गया है कि बढ़ती भूमण्डलीय गर्माहट के कारण सन 2030 तक हिमालय पर्वत क्षेत्र में मौजूद हिमनदों का लगभग 80 प्रतिशत अंश पिघल कर समाप्त हो जायेगा। इसकी वजह से सन 2030 के बाद भारत की अधिकांश नदियाँ सूख जायेंगी तथा देश में भीषण जलसंकट पैदा हो जायेगा। भारत में वायुमण्डलीय तापमान में वृद्धि का एक मुख्य कारण उस क्षेत्र में अधिक परिमाण में जीवाश्म ईंधनों (अर्थात खनिज तेल एवं खनिज कोयला) के जलने से उत्पन्न हरित गृह (ग्रीन हाउस) गैसों का उत्सर्जन बताया गया है। उपयुक्त प्रतिवेदन के तकनीकी सारांश में बताया गया है कि यदि वायुमण्डलीय गर्माहट में वृद्धि इसी दर से चलती रही तो सन 2030 ई. तक हिमालय क्षेत्र में मौजूद हिमनदों को क्षेत्रफल वर्तमान लगभग पाँच लाख वर्ग किलोमीटर से घट कर सिर्फ एक लाख वर्ग किलोमीटर रह जायेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ की मौसम समिति द्वारा तैयार किए गए उपयुक्त प्रतिवेदन में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि भारत में प्रति व्यक्ति जल की खपत जो वर्तमान समय में 1900 घन मीटर प्रति वर्ष है वह सन 2025 तक घट कर सिर्फ 100 घन मीटर प्रतिवर्ष रह जायेगी। जल की खपत में इस ह्रास के दो प्रमुख कारण बताये गए हैं। पहला कारण है जनसंख्या में वृद्धि तथा दूसरा कारण है हिमनदों के सूखने की वजह से अधिकांश नदियों में जल की कमी।
कुछ भारतीय वैज्ञानिक भी, जो हिमालय क्षेत्र के हिमनदों के अध्ययन से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं, बताते हैं कि हिमनदों के ह्टासोन्मुख क्षेत्र देखते हुए अनुमान है कि अगले लगभग 20 वर्षों के दौरान बर्फ से ढका क्षेत्र काफी अधिक घट सकता है। ऐसे ही वैज्ञानिकों में एक प्रमुख नाम है अनिल कुलकर्णी का जा स्पेस ऐप्लिकेशन सेंटर अहमदाबाद में तुषार तथा हिमनद परियोजना (स्नो एण्ड ग्लेशियर प्रोजेक्ट) के संयोजक (को और्डिनेटर) थे। इनके मतानुसार यदि वायुमण्डलीय तापमान में औसत 0.5 डिग्री सेल्शियस की भी वृद्धि होती है तो हिमालय क्षेत्र के अधिकांश हिमनद ऐसे हैं जहाँ नई बर्फ का निर्माण बंद हो जायेगा।
हिमनदों के क्षेत्रफल में ह्रास के कारण अधिकांश झरनों तथा नदियों की प्रवाह प्रणाली में परिवर्तन आ जायेगा। इस प्रकार का परिवर्तन आने पर शुरू-शुरू में कुछ अधिक जल प्रवाहित होगा क्योंकि बर्फ की अधिक मात्रा पिघलेगी। इसके फलस्वरूप हमारे देश में कई नदियाँ अपना मार्ग बदल सकती हैं। उसके बाद कुछ दशकों तक धीरे-धीरे प्रवाहित होने वाले जल का परिमाण घटता जायेगा, क्योंकि हिमनद क्षेत्र के घटने से कम बर्फ पिघलेगी। इसके कारण जल की उपलब्धता घटती जायेगी।
कुछ वैज्ञानिकों ने विचार व्यक्त किया है कि हिमालय क्षेत्र के हिमनदों के पिघलने की दर वस्तुतः उस दर से बहुत अधिक है जिसका वैज्ञानिक लोग अभी तक अनुमान लगाते आए हैं। इस कथन की पुष्टि कुछ साक्ष्यों से होती है। सन 1950-1960 से प्रारम्भ होने वाले दशकों में कई देशों द्वारा परमाणु परीक्षण किए गए। इन परीक्षणों से उत्सर्जित विकिरण पूरे संसार में फैल गया। इस विकिरण का कुछ अंश संसार में मौजूद विभिन्न हिमनदों में फँस गया जिनमें हिमालय क्षेत्र के हिमनद भी शामिल थे। परन्तु कुछ समय पूर्व हिमालय क्षेत्र के हिमनदों में वेधन (ड्रिलिंग) से प्राप्त हीर (कोर) की जब जाँच की गई तो उसमें उपयुक्त परमाणु परीक्षणों से उत्सर्जित विकिरण की फंसी हुई मात्रा उस मात्रा की तुलना में नगण्य थी जो संसार के अन्य हिमनदों में बेधन से प्राप्त हीर में पाई गई थी। इस साक्ष्य से यह अनुमान लगाया गया कि हिमालय के हिमनदों में मौजूद उस बर्फ की अधिकांश मात्रा पिघल कर समाप्त हो गई जिसमें विकिरण का अंश फँसा हुआ था। यदि वैज्ञानिकों का यह तर्क सही है तो अनुमान लगाया जा सकता है कि बहुत निकट भविष्य में ही इस क्षेत्र के अधिकांश हिमनद पिघलकर समाप्त हो जायेंगे। इसके फलस्वरूप गंगा सहित उत्तर भारत की अधिकांश नदियाँ सूख जायेंगी। जिसके कारण इस क्षेत्र में रहने वाले लगभग 50 करोड़ लोगों को भीषण संकट का सामना करना पड़ेगा।
हमारे देश में पानी की उपलब्धता धीरे-धीरे घटती जा रही है। यहाँ 55 से 60 प्रतिशत लोग भूमिगत जल का उपयोग कर रहे हैं। इसके कारण भूमिगत जल भण्डार धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है। हाल के वर्षों में भूमिगत जल-स्तर काफी तेजी से नीचे की ओर खिसका है। केन्द्रीय भूमिगत जल प्राधिकरण द्वारा कराए गए एक अध्ययन से पता चला है कि भारत के 18 राज्यों 286 जिलों में सन 1982 से सन 2002 तक के 20 वर्षों में भूमिगत जल स्तर में औसत 4 मीटर से अधिक की गिरावट आ गई है। इस समस्या का प्रमुख का कारण है भूमिगत जल का बहुत अधिक दोहन। पेयजल के अलावा सिंचाई हेतु भी अधिकांश क्षेत्रों में भूमिगत जल का उपयोग किया जा रहा है। सर्वेक्षणों से पता चला है कि भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के कारण पंजाब के कई क्षेत्रों में भूमिगत जल और कुएँ सूख गए हैं। उपलब्ध आँकड़ों से पता चला है कि इस राज्य के लगभग 50 प्रतिशत कुएँ तथा नलकूप सूख चुके हैं। गुजरात तथा तमिलनाडु की स्थिति भी चिन्ताजनक बताई गई है।
भूमिगत जल-स्तर नीचे खिसकने से न सिर्फ जल की उपलब्धता में कमी आयेगी, अपितु इससे अन्य खतरे भी हैं। जल-स्तर नीचे खिसकने के कारण भूगर्भीय निर्वात (वैक्युम) पैदा हो सकता है जिसकी वजह से भूसतह के फटने या धसने का खतरा पैदा हो जाता है। पाया गया है कि यदि भूमिगत जल स्तर एक मीटर नीचे खीसकता है तो उस स्थान पर एक हजार किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर का दाब बढ़ जाता है। इसके कारण भूसतह धस सकती है। इसके फलस्वरूप जान-माल का काफी अधिक नुकसान हो सकता है।
भूमिगत जल-स्तर के नीचे खिसकने के अलावा भी जल संकट को बढ़ाने वाली एक अन्य प्रमुख समस्या है जल के प्रदूषण की। जल को प्रदूषित करने में कई प्रकार के पदार्थ अपना योगदान देते हैं। कोल वाशरी तथा अन्य कई प्रकार के कारखानों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के प्रदूषक पदार्थ किसी नदी अथवा अन्य जल-स्रोत में डाल दिये जाते हैं जिसके कारण जल का प्रदूषण बहुत अधिक हो रहा है। उदाहरणार्थ झारखण्ड की प्रमुख नदी दामोदर के किनारे अनेक कोल वारशरी तथा अन्य कारखाने स्थित हैं जिनसे निकलने वाले विषैले पदार्थ इस नदी के जल में मिलते रहते हैं। यही कारण है कि आज दामोदर भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। अधिकांश नगर किसी न किसी नदी के किनारे स्थित हैं। इन नगरों के आवासीय क्षेत्र में स्थित घरों से निकलने वाला मल-जल इन नदियों में ही आकर मिल जाता है जिसके कारण इन नदियों का जल प्रदूषित होता रहता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार मुम्बई में उत्पन्न गंदगी का सिर्फ 13 प्रतिशत उद्योगों से आता है जबकि शेष 87 प्रतिशत घरेलू गंदगी तथा मल-मूत्र आदि है। इसी प्रकार कलकत्ता में उत्पन्न गंदगी का अधिकांश भाग आवासीय घरों से आता है।
सम्पर्क : डाॅ. विजय कुमार उपाध्याय
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