Source
प्रभात खबर, 11 सितंबर 2012
देश के सभी पहाड़ी नदियों पर जल विद्युत परियोजना के लिए बांध बनाने पर सरकारें आमादा हैं। पहाड़ी नदियों पर जल विद्युत परियोजना का बनना स्थानीय निवासियों के अपनी जमीन तथा रोजगार के लिए एक खतरनाक संकेत है। हमारे देश की नदियां लोगों की जीवन और संस्कृति से गहरी जुड़ी हुई हैं लेकिन इनके वजूद पर खतरा मंडरा रहा है। विकास के नाम पर पहाड़ी क्षेत्र के जल, जंगल, जमीन को बर्बाद कर रहे हैं बता रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला।
स्थानीय लोगों ने शुरू में ही परियोजना के खिलाफ आवाज उठायी। परियोजना का कार्य 2007 में शुरू हुआ और 2008 में इसका विरोध शुरू हो गया, जिसकी अनदेखी करते हुए परियोजना पर निर्माण कार्य जारी रहा। विरोधियों के आवाज उठाने पर अब दुहाई दी जा रही है कि 75 प्रतिशत कार्य हो जाने के बाद कार्य रोकना अनुचित होगा। यह कैसा न्याय है कि पहले कानून लागू करने में देर की गयी। बाद में कहा जा रहा है कि देर हो गयी है इसलिए गैर कानूनी परियोजना का निर्माण पूरा होने दिया जाये। केंद्र सरकार समेत सभी पहाड़ी राज्यों की सरकारें देश की सभी नदियों पर जल विद्युत के उत्पादन के लिए बांध बनाने को संकल्पित हैं। इनका मानना है कि इन परियोजनाओं से आर्थिक लाभ ज्यादा है। आर्थिक विकास का दबाव इतना अधिक है कि आर्थिक लाभ के लिए पर्यावरण ही नहीं, कानून को भी ताक पर रख कर परियोजनाएं बनायी जा रही हैं। इसका एक उदाहरण उत्तराखंड में अलकनंदा नदी पर बनायी जा रही श्रीनगर परियोजना है। अलकनंदा नदी जोशीमठ से लगभग 250 किलोमीटर दूर पहाड़ में बहती है। श्रीनगर परियोजना इस बहाव के बीचोबीच बन रही है और अलकनंदा को 100-100 किमी के दो टुकड़ों में बांट देगी। फलस्वरूप मछलियां नीचे से उपरी हिस्से में स्थित प्रजनन क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पायेंगी। माहसीर जैसी विशेष मछलियां विलुप्त हो जायेंगी।
नागपुर स्थित नेशनल इनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट ने पाया है कि गंगा के पानी की शुद्धता का रहस्य मिट्टी में है। गंगा की मिट्टी में सूक्ष्म रेडियोधर्मिता तथा अधिक मात्रा में तांबा एवं क्रोमियम होता है। इन्हीं तत्वों से गंगाजल की विशेषता उत्पन्न होती है। ऊपर की मिट्टी का प्रवाह नीचे न होने से नीचे के पानी की गुणवत्ता घटेगी। इस परियोजना से निर्मित झील में मरे हुए पशुओं की लाशें सड़ेंगी। झील में मच्छरों की आबादी बढ़ेगी और स्थानीय लोगों में मलेरिया बढ़ने की संभावना प्रबल होगी। स्थानीय लोगों के लिए नदी के एक पार से दूसरे पार जाना कठिन और खर्चीला हो जायेगा। भूस्खलन से लोगों के घरों में दरारें पड़ेंगी।
इन प्रभावों की जानकारी मिलने के बाद कुछ स्थानीय लोगों ने शुरू में ही परियोजना के खिलाफ आवाज उठायी। परियोजना का कार्य 2007 में शुरू हुआ और 2008 में इसका विरोध शुरू हो गया, जिसकी अनदेखी करते हुए परियोजना पर निर्माण कार्य जारी रहा। विरोधियों के आवाज उठाने पर अब दुहाई दी जा रही है कि 75 प्रतिशत कार्य हो जाने के बाद कार्य रोकना अनुचित होगा। यह कैसा न्याय है कि पहले कानून लागू करने में देर की गयी। बाद में कहा जा रहा है कि देर हो गयी है इसलिए गैर कानूनी परियोजना का निर्माण पूरा होने दिया जाये।
सुप्रीम कोर्ट ने तमाम निर्णयों में कहा है कि पर्यावरण एवं आर्थिक विकास में संतुलन बनाने की जरूरत है। आर्थिक विकास पर अधिक जोर देने से पर्यावरण नष्ट होगा, दीर्घकाल में विकास बाधित होगा, साथ-साथ संपूर्ण सभ्यता नष्ट हो सकती है। धर्म संकट है कि पर्यावरण के नाम पर लोगों को अंधेरे और पिछड़ेपन में रहने को नहीं बाध्य किया जा सकता है, न ही नदियों को मरते हुए देखा जा सकता है। जरूरत है जल विद्युत बनाने के ऐसे उपाय खोजे जायें, जिनसे नदी का सौंदर्य कायम रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।
सुझाव है कि नदी के एक हिस्से को बहने दिया जाये। पानी के दूसरे हिस्से को किनारे से निकाल लिया जाये। वर्तमान में नदी के पाट पर बराज बनायी जाती है। बराज से पानी को टनल में बहा कर नीचे पावर हाउस तक लाया जाता है। वहां बिजली बना कर इसे नदी में वापस डाल दिया जाता है। नदी के पाट पर बराज से मछलियों का पलायन और मिट्टी का बहाव अवरुद्ध हो जाता है। बिना बराज बनाये किनारे से पानी को निकालना संभव है। श्रीनगर एवं दूसरी हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए पानी को किनारे से निकाला जा सकता है। इससे नदी के बहाव में बाधा नहीं होगी। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, नदी का सौंदर्य कायम रहेगा। इसके अलावा टूरिज्म एवं सेवा क्षेत्रों में उत्पन्न हो रही रोजगार संभावनाओं को स्थानीय लोग पकड़ सकेंगे।
अंतत: जल विद्युत परियोजनाएं किसी भी तरह से स्थानीय लोगों के हित में नहीं हैं। पर्यावरण के दुष्प्रभाव इन्हें ही झेलने पड़ते हैं। इनके पुश्तैनी रोजगार समाप्त हो जाते हैं। परंतु स्थानीय लोगों का एक वर्ग इन परियोजनाओं से लाभान्वित होता है। कंपनियां प्रभावी लोगों को ठेके देकर खरीद लेती हैं। स्थानीय समाज दो वर्गों में बंट जाता है। एक ओर 90 प्रतिशत मासूम जनता मौन खड़ी रहती है, जो पर्यावरण के दुष्प्रभाव को झेलती है। दूसरी ओर दस प्रतिशत प्रभावी लोग खड़े होते हैं, जो रोजगार एवं ठेके पाते हैं। इन प्रभावी लोगों को खरीद कर कंपनी जनता के बहुमत को दबा देती है। हाइड्रोपावर कंपनियों को ठेके देने में मंत्रियों के लिए कमाई के अवसर खुलते हैं। जैसे ब्रिटिश हुकूमत ने एक वर्ग को नौकरी का लालच देकर स्वतंत्रता सेनानियों पर गोलियां चलायी थी, ठीक वैसे ही स्वतंत्र भारत की सरकारें एक प्रभावी वर्ग को ठेकों का लालच देकर देश के पर्यावरण एवं आर्थिक विकास की संभावनाओं को नष्ट कर रही हैं।
स्थानीय लोगों ने शुरू में ही परियोजना के खिलाफ आवाज उठायी। परियोजना का कार्य 2007 में शुरू हुआ और 2008 में इसका विरोध शुरू हो गया, जिसकी अनदेखी करते हुए परियोजना पर निर्माण कार्य जारी रहा। विरोधियों के आवाज उठाने पर अब दुहाई दी जा रही है कि 75 प्रतिशत कार्य हो जाने के बाद कार्य रोकना अनुचित होगा। यह कैसा न्याय है कि पहले कानून लागू करने में देर की गयी। बाद में कहा जा रहा है कि देर हो गयी है इसलिए गैर कानूनी परियोजना का निर्माण पूरा होने दिया जाये। केंद्र सरकार समेत सभी पहाड़ी राज्यों की सरकारें देश की सभी नदियों पर जल विद्युत के उत्पादन के लिए बांध बनाने को संकल्पित हैं। इनका मानना है कि इन परियोजनाओं से आर्थिक लाभ ज्यादा है। आर्थिक विकास का दबाव इतना अधिक है कि आर्थिक लाभ के लिए पर्यावरण ही नहीं, कानून को भी ताक पर रख कर परियोजनाएं बनायी जा रही हैं। इसका एक उदाहरण उत्तराखंड में अलकनंदा नदी पर बनायी जा रही श्रीनगर परियोजना है। अलकनंदा नदी जोशीमठ से लगभग 250 किलोमीटर दूर पहाड़ में बहती है। श्रीनगर परियोजना इस बहाव के बीचोबीच बन रही है और अलकनंदा को 100-100 किमी के दो टुकड़ों में बांट देगी। फलस्वरूप मछलियां नीचे से उपरी हिस्से में स्थित प्रजनन क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पायेंगी। माहसीर जैसी विशेष मछलियां विलुप्त हो जायेंगी।
नागपुर स्थित नेशनल इनवायरमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट ने पाया है कि गंगा के पानी की शुद्धता का रहस्य मिट्टी में है। गंगा की मिट्टी में सूक्ष्म रेडियोधर्मिता तथा अधिक मात्रा में तांबा एवं क्रोमियम होता है। इन्हीं तत्वों से गंगाजल की विशेषता उत्पन्न होती है। ऊपर की मिट्टी का प्रवाह नीचे न होने से नीचे के पानी की गुणवत्ता घटेगी। इस परियोजना से निर्मित झील में मरे हुए पशुओं की लाशें सड़ेंगी। झील में मच्छरों की आबादी बढ़ेगी और स्थानीय लोगों में मलेरिया बढ़ने की संभावना प्रबल होगी। स्थानीय लोगों के लिए नदी के एक पार से दूसरे पार जाना कठिन और खर्चीला हो जायेगा। भूस्खलन से लोगों के घरों में दरारें पड़ेंगी।
इन प्रभावों की जानकारी मिलने के बाद कुछ स्थानीय लोगों ने शुरू में ही परियोजना के खिलाफ आवाज उठायी। परियोजना का कार्य 2007 में शुरू हुआ और 2008 में इसका विरोध शुरू हो गया, जिसकी अनदेखी करते हुए परियोजना पर निर्माण कार्य जारी रहा। विरोधियों के आवाज उठाने पर अब दुहाई दी जा रही है कि 75 प्रतिशत कार्य हो जाने के बाद कार्य रोकना अनुचित होगा। यह कैसा न्याय है कि पहले कानून लागू करने में देर की गयी। बाद में कहा जा रहा है कि देर हो गयी है इसलिए गैर कानूनी परियोजना का निर्माण पूरा होने दिया जाये।
सुप्रीम कोर्ट ने तमाम निर्णयों में कहा है कि पर्यावरण एवं आर्थिक विकास में संतुलन बनाने की जरूरत है। आर्थिक विकास पर अधिक जोर देने से पर्यावरण नष्ट होगा, दीर्घकाल में विकास बाधित होगा, साथ-साथ संपूर्ण सभ्यता नष्ट हो सकती है। धर्म संकट है कि पर्यावरण के नाम पर लोगों को अंधेरे और पिछड़ेपन में रहने को नहीं बाध्य किया जा सकता है, न ही नदियों को मरते हुए देखा जा सकता है। जरूरत है जल विद्युत बनाने के ऐसे उपाय खोजे जायें, जिनसे नदी का सौंदर्य कायम रहे और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।
सुझाव है कि नदी के एक हिस्से को बहने दिया जाये। पानी के दूसरे हिस्से को किनारे से निकाल लिया जाये। वर्तमान में नदी के पाट पर बराज बनायी जाती है। बराज से पानी को टनल में बहा कर नीचे पावर हाउस तक लाया जाता है। वहां बिजली बना कर इसे नदी में वापस डाल दिया जाता है। नदी के पाट पर बराज से मछलियों का पलायन और मिट्टी का बहाव अवरुद्ध हो जाता है। बिना बराज बनाये किनारे से पानी को निकालना संभव है। श्रीनगर एवं दूसरी हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए पानी को किनारे से निकाला जा सकता है। इससे नदी के बहाव में बाधा नहीं होगी। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा, नदी का सौंदर्य कायम रहेगा। इसके अलावा टूरिज्म एवं सेवा क्षेत्रों में उत्पन्न हो रही रोजगार संभावनाओं को स्थानीय लोग पकड़ सकेंगे।
अंतत: जल विद्युत परियोजनाएं किसी भी तरह से स्थानीय लोगों के हित में नहीं हैं। पर्यावरण के दुष्प्रभाव इन्हें ही झेलने पड़ते हैं। इनके पुश्तैनी रोजगार समाप्त हो जाते हैं। परंतु स्थानीय लोगों का एक वर्ग इन परियोजनाओं से लाभान्वित होता है। कंपनियां प्रभावी लोगों को ठेके देकर खरीद लेती हैं। स्थानीय समाज दो वर्गों में बंट जाता है। एक ओर 90 प्रतिशत मासूम जनता मौन खड़ी रहती है, जो पर्यावरण के दुष्प्रभाव को झेलती है। दूसरी ओर दस प्रतिशत प्रभावी लोग खड़े होते हैं, जो रोजगार एवं ठेके पाते हैं। इन प्रभावी लोगों को खरीद कर कंपनी जनता के बहुमत को दबा देती है। हाइड्रोपावर कंपनियों को ठेके देने में मंत्रियों के लिए कमाई के अवसर खुलते हैं। जैसे ब्रिटिश हुकूमत ने एक वर्ग को नौकरी का लालच देकर स्वतंत्रता सेनानियों पर गोलियां चलायी थी, ठीक वैसे ही स्वतंत्र भारत की सरकारें एक प्रभावी वर्ग को ठेकों का लालच देकर देश के पर्यावरण एवं आर्थिक विकास की संभावनाओं को नष्ट कर रही हैं।