जलवायु परिवर्तन और घटते वनों से बढ़ता मानव और वन्यजीव संघर्ष

Submitted by Shivendra on Fri, 03/06/2020 - 13:56

विकास की भूख बहुमूल्य वन्यजीवों को नष्ट कर रही है। जानवरों के लगातार हो रहे शिकार और मानव एवं वन्यजीवों के बीच चल रहे संघर्ष ने कई अहम प्रजातियों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच टकराव तथा संघर्ष लगातार बढ़ रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है इंसानी आबादी का बढ़ता दबाव जो वन्यजीवों के लिये मुसीबत बनता जा रहा है, क्योंकि जंगल कम हो रहे हैं और वन्यजीवों के रहने के प्राकृतिक अधिवास लगातार कम होते जा रहे हैं। ऐसे में मानव-वन्यजीव संघर्ष में कमी लाने के लिये उन कारणों की पड़ताल कर निदान करना ज़रूरी है, जिनकी वज़ह से यह चिंताजनक स्तर पर पहुँच गया है। 

वन्यजीवों और मनुष्यों में इस तरह की घटनाओं की बढ़ती संख्या को जैव विविधता से जोड़ते हुए विशेषज्ञ निरंतर चेतावनी देते हैं कि मानव के इस अतिक्रामक व्यवहार से पृथ्वी पर जैव असंतुलन बढ़ रहा है। विज्ञान तथा तकनीकी के विकास से वन्य जीवों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले भय तथा नुकसान से मनुष्य निश्चित रूप से लगभग मुक्त हो चुका है। वन्यजीव अपने प्राकृतिक पर्यावास की तरफ स्वयं रुख करते हैं, लेकिन एक जंगल से दूसरे जंगल तक पलायन के दौरान वन्यजीवों का आबादी क्षेत्रों में पहुँचना स्वाभाविक है। मानव एवं वन्यजीवों के बीच संघर्ष का यही मूल कारण है। मानव तथा वन्यजीवों के बीच होने वाले किसी भी तरह के संपर्क की वज़ह से मनुष्यों, वन्यजीवों, समाज, आर्थिक क्षेत्र, सांस्कृतिक जीवन, वन्यजीव संरक्षण या पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव मानव-वन्यजीव संघर्ष की श्रेणी में आता है।

वन विशेषज्ञों के अनुसार, मानवजनित अथवा प्राकृतिक परिस्थितियाँ वन्यजीवों को मानव पर आक्रमण करने को विवश करती हैं। जब कभी जंगल बहुतायत में थे तब मानव और वन्यजीव दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में सुरक्षित रहे, लेकिन समय बदला और आबादी भी बढ़ी, फिर शुरू हुआ वनों का अंधाधुंध विनाश। इसके परिणाम में सामने आया, कभी न खत्म होने वाला मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष का सिलसिला। मनुष्य अपनी अनेकानेक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये जंगलों का दोहन करता रहा है, जिसकी वज़ह से मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष की घटनाएँ अधिक सामने आ रही हैं। कृषि का विस्तार, बढ़ती आबादी के लिये आवास, शहरीकरण और औद्योगीकरण में वृद्धि, पशुधन पालन, विभिन्न मानव आवश्यकताओं के लिये वन कटान, चराई के कारण वनों के स्वरूप में बदलाव, बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएँ, झूम (स्थानांतरण) कृषि ऐसी ही कुछ वज़ह हैं।

इसके अलावा जलवायु परिवर्तन ने भी वन्य जीवों को प्रभावित किया है या यूँ कहा जाए कि जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर वन्य जीवों पर पड़ता है तो गलत नहीं होगा। वन्य जीवों के प्रभावित होने से उनके प्राकृतिक पर्यावास नष्ट हो जाते हैं, जिससे वन्यजीव मानव बस्तियों की ओर पलायन करते हैं और इससे मनुष्यों व वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ता है। वैसे तो यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है, लेकिन केंद्र सरकार ने वन्यजीवों और मानवों के बीच आए दिन होने वाले टकराव की घटनाओं को रोकने के लिये वन्यजीव पर्यावासों के एकीकृत विकास की योजना बनाई है। यह अलग से कोई योजना नहीं है, बल्कि इस समस्या से निपटने के लिये केन्द्र द्वारा प्रायोजित वन्यजीव पर्यावास एकीकृत योजना के तहत ही उपशमन और प्रबंधन की व्यवस्था की गई है। इस योजना के तहत, केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को बाघ परियोजनाओं और हाथी परियोजनाओं सहित कई अन्य वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं के लिये वित्तीय सहायता दी जा रही है। इसके अतिरिक्त वन और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से वन निधि प्रबंधन और संरक्षित वन क्षेत्रों में चारे और पानी की उपलब्धता में वृद्धि करने के लिये राज्य सरकारों को सहायता देने की विशेष योजना भी चलाई जा रही है।
 
औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण ने वनों को नष्ट कर दिया  है। वन विभिन्न प्रकार के पक्षियों और जीवों की आश्रय स्थली हैं और जब इनके घरों पर मनुष्यों ने कब्ज़ा करके अपना घर बना लिया है तो वे अपना हिस्सा मांगने हमारे घरों में ही आएंगे। मानव-वन्यजीव संघर्ष भारत में वन्यजीवों के संरक्षण के लिये एक बड़ा खतरा है। वन कटान, पर्यावास की क्षति, शिकार (भोजन) की कमी और जंगल के बीचो-बीच से गुज़रने वाली अवैध सड़कें मानव-वन्यजीव संघर्ष के कुछ अहम कारण हैं। संरक्षित क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाली सड़कों के कारण दुर्गम जंगलों तक भी पहुँचना मनुष्य के लिये आसान हो गया है। इससे शिकारी दल आसानी से वन्यजीवों को अपना शिकार बना लेते हैं।
आजकल शायद ही कोई दिन ऐसा जाता है, जब मानव तथा वन्यजीवों के बीच संघर्ष की खबर सुनने को नहीं मिलती। किसी स्थान पर किसी हिंसक जानवर ने बस्ती में आकर लोगों पर आक्रमण कर दिया होता है, तो कहीं लोग ऐसे जानवर को घेरकर मार देते हैं। मानव और वन्यजीवों के बीच होने वाला संघर्ष इधर कुछ वर्षों से बहुत अधिक बढ़ गया है। ऐसे में इनकी रोकथाम के साथ वन्य जीवों के हमलों की वज़ह और इन पर प्रभावी रोक के उपायों पर गौर करने की आवश्यकता बहुत अधिक है। 

वन्य जीवों के प्रति लोगों को जागरूक कर और वन विभाग के साथ लोगों को मॉक ड्रिल के ज़रिये तकनीकी जानकारियाँ उपलब्ध कराकर इस समस्या पर कुछ अंकुश लगाया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में दावानल (Forest Fire)  की घटनाओं की वज़ह से भी वन्यजीव मानव बस्तियों का रुख करते हैं और मारे जाते हैं। वन्यजीवों के हमले और फॉरेस्ट फायर को विशेष रणनीति के तहत रोका जाना अहम है। 
मानव और वन्यजीव संघर्ष को कम करने लिये जहां कदम उठाने ज़रूरी है, वहीं वन्यजीवों की उपयोगिता को लेकर जागरूकता भी ज़रूरी है। जंगलों में वन्यजीवों का भोजन कम होने की वज़ह से भी वे हमलावर हो रहे हैं।  वन्यजीव प्रभावित क्षेत्रों में बच्चों और पालतू जानवरों को सुरक्षित रखना अहम है। ऐसे में वन्य जीवों से प्रभावित गाँवों में मॉडल प्रोजेक्ट के तहत लोगों को विशेष रूप से जागरूक करने के साथ ही ऐसी घटनाओं को रोकने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। 

ग्रामीणों को मॉक ड्रिल के ज़रिये गुलदार, भालू आदि वन्य जीवों के हमलों से बचने, रेसक्यू करने और इन्हें पकड़ने की तकनीकी जानकारी भी दी जानी चाहिये। जिन राज्यों में हाथियों की संख्या अधिक है वहाँ  ऐसे कॉरीडोर बनाए गए हैं, जो न केवल उनकी व्यवधानरहित आवाजाही को सुनिश्चित करते हैं, बल्कि आनुवंशिक विविधता विनिमय के आदान-प्रदान को भी बढ़ावा देते हैं।  यह कॉरीडोर भूमि का ऐसा सँकरा गलियारा या रास्ता होता है जो हाथियों को उनके वृहद् पर्यावास से जोड़ता है। यह जानवरों के आवागमन के लिये एक पाइपलाइन के तरह का काम  करता है। मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिये ‘क्या करें, क्या न करें’ के संबंध में लोगों को जागरूक बनाने हेतु सरकार द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाता है। संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन में स्थानीय समुदाय का सहयोग सुनिश्चित करने के उद्देश्य से चलाई जाने वाली पर्यावरण विकास गतिविधियों के लिये राज्य सरकारों को सहायता प्रदान की जाती है।

मानव-वन्यजीव संघर्षों से संबंधित समस्याओं को हल करने के लिये वन कर्मचारियों और पुलिस को प्रशिक्षित किया जा रहा है। वन्यजीवों के हमलों को रोकने के लिये संवेदनशील क्षेत्रों के आस-पास दीवारों तथा सोलर फेंस का निर्माण किया जा रहा है। मनुष्य और वन्यजीवों के बीच संघर्ष के इस दौर में वन्यजीव अभयारण्यों और पार्कों के आस-पास रहने वाले लोगों को इस संबंध में जागरूक करना इस लिहाज़ से एक प्रभावी कदम है। देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान, राज्य वन विभागों और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण आदि अनुसंधान संस्थान अत्यधिक उच्च आवृत्ति वाले रेडियो कॉलर, ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम और सैटेलाइट अपलिंकिंग जैसी तकनीकों की मदद से शेर, बाघ, हाथी आदि वन्यजीवों की ट्रैकिंग करते हैं। देश में 661 संरक्षित क्षेत्र हैं जो देश के संपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 4.8%  में फैले हुए हैं। साथ ही देश में 100 नेशनल पार्क, 514 वन्यजीव अभयारण्य, 43 संरक्षित रिज़र्व और 4 सामुदायिक रिज़र्व हैं।

भारत में वन और वन्यजीवों को संविधान की समवर्ती सूची में रखा गया है। एक केंद्रीय मंत्रालय वन्यजीव संरक्षण संबंधी नीतियों और नियोजन के संबंध में दिशा-निर्देश देने का काम करता है तथा राज्य वन विभागों की जिम्मेदारी है कि वे राष्ट्रीय नीतियों को कार्यान्वित करें।  वन्य जीवों के संरक्षण हेतु, भारत के संविधान में 42वें संशोधन (1976) अधिनियम के द्वारा दो नए अनुच्छेद 48-। व 51 को जोड़कर वन्य जीवों से संबंधित विषय के समवर्ती सूची में शामिल किया गया। भारत में संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड एरिया) नेटवर्क में वन राष्ट्रीय पार्क तथा 515 वन्यजीव अभयारण्य, 41 संरक्षित रिजर्व्स तथा चार सामुदायिक रिजर्व्स शामिल हैं। संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन संबंधी जटिल कार्य को अनुभव करते हुए 2002 में राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना (2002-2016)को अपनाया गया, जिसमें वन्यजीवों के संरक्षण के लिये लोगों की भागीदारी तथा उनकी सहायता पर बल दिया गया है।

वन्यजीवों को विलुप्त होने से रोकने के लिये सर्वप्रथम 1872 में वाइल्ड एलीफेंट प्रिजर्वेशन एक्ट पारित हुआ था।  1927 में भारतीय वन अधिनियम अस्तित्व में आया, जिसके प्रावधानों के अनुसार वन्य जीवों के शिकार एवं वनों की अवैध कटाई को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया।  स्वतंत्रता के पश्चात्, भारत सरकार द्वारा इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थापना की गई।  1956 में पुन: भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया । 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। यह एक व्यापक केन्द्रीय कानून है, जिसमें विलुप्त होते वन्य जीवों तथा अन्य लुप्त प्राय: प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है।  वन्य जीवों की चिंतनीय स्थिति में सुधार एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव योजना , 1983 में प्रारंभ की गई। 

वन्यजीव संरक्षण संबंधी पाँच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशनों—कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन एनडेजर्ड स्पीसीज ऑफ वाइल्ड फौना एंड फ्लोरा , इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर , इंटरनेशनल व्हेलिंग कमीशन तथा कन्वेंशन ऑन माइग्रेटरी स्पीशीज़ में भारत की भी भागीदारी है। 1982 में भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) की स्थापना की गई। यह संस्थान मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अंतर्गत एक स्वशासी संस्थान है जिसे वन्यजीव संरक्षण क्षेत्र के प्रशिक्षण और अनुसंधानिक संस्थान के रूप में मान्यता दी गई है।
निश्चित रूप से वन्यजीव संरक्षण बेहद महत्त्वपूर्ण ही नहीं बल्कि एक पर्यावरणीय अनिवार्यता भी है, लेकिन यह भी सच है कि कम होते जा रहे जंगल वन्यजीवों को पूर्ण आवास प्रदान करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। एक नर बाघ को स्वतंत्र विचरण हेतु 60-100 वर्ग किमी. क्षेत्र की ज़रूरत होती है। हाथियों को कम-से-कम 10-20 किमी. प्रति दिन यात्रा करनी पड़ती है, लेकिन जंगलों के लगातार कम होते जाने के कारण वे भोजन और पानी की तलाश में बाहर निकल जाते हैं। जब तक जंगल कटते रहेंगे, मानव-वन्यजीव संघर्ष को टालने की बजाय बचाव के उपाय करना ही संभव हो सकेगा। ऐसे में संघर्ष को टालने का सबसे बेहतर विकल्प है पर्यावरण के अनुकूल विकास अर्थात् ऐसी नीतियाँ बनाने की ज़रूरत है, जिससे मनुष्य व वन्यजीव दोनों ही सुरक्षित रहें।

 


लेखक

डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव

वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश

 

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