जलवायु वार्ता में भारत अडिग

Submitted by Shivendra on Fri, 01/17/2020 - 12:21
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योजना, जनवरी 2020

स्पेन के शहर मैड्रिड में जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र की कांन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) की 25वीं बैठक हाल में सम्पन्न हुई। दिसम्बर 2019 में सम्पन्न हुई इस विचार-विमर्श किया। इस बैठक में भारत ने जलवायु खतरों से जुड़े कई अहम मुद्दों पर अपने पक्ष को मजबूती से रखा। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा इन खतरों से निपटने के लिए जलवायु वित्त प्रबंधन का है। इस वित्त प्रबंधन के कई अलग-अलग हिस्से हैं। जैसे कार्बन बाजार का विस्तार करना, जलवायु परिवर्तन से होने वाले क्षति की भरपाई के लिए धन की उपलब्धता, दूरगामी खतरों से निपटने की रणनीति, गरीब और विकासशील देशों को हरित तकनीकों का हस्तांतरण और वैश्विक हरित कोष में विकसित देशों द्वारा सालाना सौ अरब डॉलर का दान प्रदान करना आदि। जलवायु वित्त से जुड़े इन मुद्दों को भारत ने प्रमुखता से उठाया और इसमें उसे कई विकसित एवं विकासशील देशों का साथ मिला। इसी का नतीजा है कि जलवायु क्षतिपूर्ति को कॉप-25 के प्रस्ताव में शामिल भी किया गया है।कार्बन बाजार पर भारत की चिंताओं पर संज्ञान लिया गया। हालांकि अंतत कार्बन बाजार पर फैसला नहीं हो सका। लेकिन भारत ने भी अपने रुख पर अडिग रहते हुए विकसित देशों के हक में भी फैसला नहीं जाने दिया।

भारत ने मजबूती से उठाए जलवायु वित्त से जुड़े हम मुद्दे

इस बैठक में जलवायु वित्त से जुड़े जिन अहम मुद्दों को भारत की तरफ से रखा गया उसमें सबसे अहम था कार्बन कारोबार का। दरअसल, अभी क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान लागू हैं जिसके क्लीन डवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम) के तहत मौजूदा समय में एक कार्बन बाजार संचालित है। इस बाजार में देशों, संस्थाओं एवं निजी कंपनियों को अपने कार्बन क्रेडिट्स की खरीद-फरोख्त करने की इजाजत है। जब कोई कम्पनी हरित तकनीक अपनाती है तो उसके उत्सर्जन में कमी आती है। पूर्व की परम्परागत तकनीक की तुलना में उत्सर्जन की कमी का आकलन कार्बन क्रेडिटस के रूप में किया जाता है। कार्बन आडिट करने वाली कंपनिया प्रमाणित करती हैं कि कितने कार्बन क्रेडिट्स अमुक संस्था ने हासिल किए हैं। जिस देश या कम्पनी को अपने उत्सर्जन कम करने हैं, वह इन क्रेडिट्स को खरीद कर दावा कर सकता है कि उसने उतना ही कार्बन उत्सर्जन इतना कम कर दिया है। प्रदूषक कीमत चुकाकर कार्बन क्रेडिट्स की खरीद करता है।यह बाजार शेयर बाजार की भांति संचालित होता है तथा इसके मुताबिक कार्बन क्रेडिट्स की दरें भी घटती-बढ़ती रहती हैं। लेकिन एक जनवरी 2021 से जब पेरिस समझौते के प्रावधान लागू हो जाएंगे तो क्योटो प्रोटोकाल खत्म हो जाएगा। यह बाजार भी उसके साथ ही खत्म हो जाएगा। इसका नुकसान यह है कि आज दुनिया के पास चार अरब कार्बन क्रेडिट्स हैं। इनमें से करीब 75 करोड़ भारत के पास हैं। वैश्विक बाजार में इसकी कीमत अरबों डॉलर है। विकासशील देश इस बाजार को खत्म नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि यह बाजार हरित तकनीकों को नए अवसर के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित करता है। साथ ही आर्थिक निवेश की प्रतिपूर्ति भी करता है।

भारत की मांग रखी कि पेरिस समझौते के अनुच्छेद छह में कार्बन बाजार के मौजूदा स्वरूप को जारी रखा जाए। अनुच्छेद छह में कार्बन बाजार की बात तो कही गई है लेकिन उसका तौर-तरीका अभी तय नहीं है। भारत समेत तमाम देश चाहते हैं कि जो भी तौर-तरीका बनाया जाए उसमें मौजूदा कार्बन क्रेडिट्स की खरीद-फरोख्त आगे भी जारी रहे। जबकि विकसित देश इस प्रणाली को त्रुटिपूर्ण मान रहे हैं।

कारण कम्पनियाँ आगे हरित तकनीकियों पर कार्य करने को लेकर हतोत्साहित होंगी। उन्हें भारी आर्थिक क्षति होगी। इसलिए इस बाजार को बचाना जरूरी है। दूसरी तरफ विकसित देशों का तर्क है कि इस प्रणाली में कार्बन क्रेडिट्स की दोहरी गणना हो रही है। एक ही उत्सर्जन के आंकड़ों का लाभ क्रेडिट्स बेचने वाला भी लाभ ले रहा है और खरीदने वाला भी। इसलिए इस प्रणाली को बंद किया जाना चाहिए।

इस मुद्दे पर कॉप में सबसे ज्यादा विचार-विमर्श हुआ और इसके चलते कॉप की 13 दिसम्बर को खत्म होने वाली बैठक 15  दिसम्बर तक चलती रही। भारत की तरफ से मुख्य वार्ताकार वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव श्री रविशंकर प्रसाद ने बताया कि कॉप के पहले मसौदे में हमारी बात को शामिल किया गया। लेकिन जब मसौदे पर चर्चा हुई तो विकसित देशों ने अड़ंगा लगाया लेकिन भारत और अन्य विकासशील देश अपने रुख पर अड़े रहे। फिलहाल हमारी उपलब्धि यही रही कि हमने विकसित देशों के हित में भी फैसला नहीं होने दिया। यह मामला टल गया। अब अगले साल कॉप से पूर्व बॉन में एक बैठक होगी जिसमें इस मुद्दे पर फिर चर्चा होगी और कोई रास्ता निकाला जाएगा। भारत अपने रुख पर कायम रहेगा।

हरित पर्यावरण कोष

भारत ने हरित पर्यावरण कोष में एक अरब डॉलर सालाना दिए जाने का मुद्दा उठाया। क्योटो प्रोटोकाल के प्रावधानों के तहत 2020 से हर साल विकसित देशों को इस कोष में 100 अरब डॉलर की राशि देनी थी। ताकि इस राशि से विकासशील एवं गरीब देशों में जलवायु खतरों से निपटने के लिए क्षमता का विकास किया जा सके। गरीब एवं विकासशील देशों के पास समिति संसाधन हैं। उनकी अपनी दूसरी चुनौतियां भी हैं, इसलिए उन्हें मदद की दरकार है। भारत ने कहा कि 2010 से अब तक दस वर्षों में एक खरब डॉलर की राशि इस कोष में आ जानी चाहिए। लेकिन इसकी दो फीसदी राशि ही विकसित देशों ने दी है। इस बार पर भी जोर दिया कि विकसित देश अपने इस वादे को पूरा करें। भारत ने इस मुद्दे को व्यापक रूप में लेते हुए। भारत ने इस मुद्दे को व्यापक रूप में लेते हुए कहा कि विकसित देश 2020 से पूर्व के उत्सर्जन के लक्ष्यों  को भी पूरा करें। भले ही उन्हें कुछ वक्त और दे दिया जाए।

खतरों से किया आगाह

दरअसल, जलवायु परिवर्तन में व्यापक वित्तीय प्रबंधन की जरूरत है। इसके खतरे से निपटने के लिए नए वित्तीय स्रोत तलाशे जाने भी जरूरी हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के अब खतरे दिखने लगे हैं। हर साल तूफान, बाढ़, भारी बारिश आदि के चलते भारी क्षति की भरपाई की जानी चाहिए। भरपाई के लिए नए आर्थिक तंत्र के विकसित किए जाने की जरूरत है। इस मुद्दे पर वारसों इंटरनेशनल मैकेनिज्म बना हुआ है जिसमें जलवायु क्षतिपूर्ति की बात कही गई है। लेकिन यह भरपाई कैसे हो यह विश्व समुदाय को तय करना है। भारत समेत तमाम विकासशील देश चाहते हैं कि इसके लिए विकसित देश आगे आएं। लेकिन विकसित देश जब अपने पहले के वायदे को पूरा नहीं कर रहे हैं तो वे अब आगे ऐसी जिम्मेदारी क्यों लेंगे। उनका तर्क था कि इसकी जिम्मेदारी सम्बन्धित राष्ट्रों को ही उठानी चाहिए। हालांकि कॉप-25 के प्रस्ताव में इस मुद्दे को शामिल किया गया है लेकिन आर्थिक तंत्र विकसित किए जाने को लेकर कोई स्पष्ट राय नहीं दी गई है। सिर्फ यह कहा गया है कि इसके लिए जलवायु संवेदनशील देशों को मदद किए जाने की जरूरत है। भारत ने इस प्रस्ताव पर असंतुष्टि जाहिर की है। भारत चाहता है कि इस पर स्पष्ट प्रस्ताव होना चाहिए और आर्थिक तंत्र विकसित करने पर बात होनी चाहिए। जबकि मौजूद प्रस्ताव सलाह जैसी प्रवृत्ति का महसूस होता है।

हरित तकनीकों का मुद्दा

जलवायु वित्त से ही जुड़ा एक विषय यह था कि हरित तकनीकों का हस्तांतरण कैसे हो। क्योंकि ये तकनीकें बेहद महंगी हैं। पूर्व के समझौतों में यह भी तय हुआ था कि विकसित देश हरित तकनीकों का हस्तांतरण करेंगे, लेकिन इस मामले में प्रगति नहीं हो रही है। भारत ने यहाँ तक कहा कि हम तकनीकें जलवायु खतरों स निपटने के लिए मांग रहे हैं कोई मुनाफा कमाने के लिए नहीं। लेकिन विकसित देशों के अपने तर्क हैं। वे उन्हें बाध्य नहीं कर सकती हैं। हालांकि इस बार भारत ने यह भी जोर दिया कि विकसित देश इन तकनीकों पर संयुक्त शोध आरंभ करें ताकि भविष्य में जो नई तकनीकें विकसित होंगी, उनकी तकनीकी साझा करने में यह समस्या नहीं आनी चाहिए।

दूरगामी एवं बड़े जलवायु खतरों से निपटने के लिए भी वित्त प्रबंधन का एक मुद्दा कॉप के एजेंडे में था। लेकिन इस पर भी कोई राय नहीं बनी। अलबत्ता एक विशेषज्ञ समूह गठित किया गया है जो तीन साल में अपनी रिपोर्ट देगा। दूरगामी खतरों में ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी और वातावरण पर पड़ने वाले अन्य प्रभाव शामिल हैं। इनके लिए अलग से दीर्घकालीक योजनाएं बनाई जानी हैं।

इस प्रकार इस बैठक में जलवायु वित्त से जुड़े प्रमुखता से छाये रहे। लेकिन इसके अलावा जिन अन्य दो मुद्दों पर चर्चा हुई है, उनमें एक पेरिस समझौते का प्रभावी क्रियान्वयन और दूसरा उत्सर्जनों के लक्ष्यों में बढ़ोत्तरी किया जाना है। इन दोनों मुद्दों पर भी सकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को मिली है।

पेरिस समझौते पर सहमति

सभी देशों में इस बात पर सहमति दिखी कि पेरिस समझौते का क्रियान्वयन होना चाहिए। इस दिशा में भारत समेत कई देश पहले ही पहल कर चुके हैं। भारत ने बताया कि उसका लक्ष्य पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन की तीव्रता में 35 फीसदी की कमी लाना है। यह लक्ष्य उसे 2030 तक पूरा करना है लेकिन 21 फीसदी की कमी वह  हासिल कर चुका है। इसी प्रकार 28 देशों के यूरोपीय संघ ने कहा कि वह 2050 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर तक लाकर कार्बन निरपेक्ष बन जाएगा। इसका मतलब है कि उतनी ही कार्बन उत्सर्जन करेगा जितना कार्बन सोखेने की क्षमता होगी। यूरोपीय संघ की इस घोषणा को भी एक प्रगति एक सकारात्मक रिपोर्ट यह आई कि अमरिका जो पेरिस समझौते से अलग हो चुका है, असल में वह अब भी इसके लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। दरअसल, अमरिका की संघीय सरकार के इन्कार के बावजूद वहाँ की राज्य सरकारों, नगर प्रशासन और गैर सरकारी संगठनों, कम्पनियों आदि के द्वारा इस दिशा में कार्य किया जा रहा है। मैरीलैंड विश्वविद्यालय और रॉकी माउंटने इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट कहती है कि इन प्रयासों से भी अमरिका पेरिस समझौते के ज्यादातर लक्ष्यों को हासिल कर लेगा और अपने उत्सर्जनों में 45 फीसदी तक की कमी ला सकता है। इस प्रकार पेरिस समझौते के क्रियान्वयन को लेकर सक्रिय टॉप-5 देशों की सूची में भारत को भी शामिल किया गया है। संयुक्त राष्ट्र के इंटरगर्वेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। दूसरे, एक अन्य रिपोर्ट में जलवायु सजग शीर्ष 10 देशों में भारत को नवां स्थान मिला है। ये रिपोर्ट भारत के कार्य को अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में मान्यता मिलना है।

कार्बन उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को बढ़ाने का प्रस्ताव

संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में इस बात पर जोर दिया गया है कि सभी देश अगले एक साल के भीतर कार्बन उत्सर्जन में कमी के अपने लक्ष्यों को नए सिरे से निर्धारित करें और कटौती के लक्ष्यों में बढ़ोत्तरी करें। दरअसल, हाल में यूएनईपी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कमी के जो लक्ष्य रखे गए हैं, वे ज्यादा कारगर नहीं हैं। क्योंकि इससे तापमान बढ़ोत्तरी दो डिग्री पर नहीं रुकेगी बल्कि सदी के अंत तक 3.2 डिग्री तक पहुँच जाएगी। जबकि पेरिस समझौते के तहत इस दो डिग्री से नीचे रखने पर जोर दिया गया है। आईपीसीसी की रिपोर्ट कहती है कि दो डिग्री भी ज्यादा है। इसे 1.5 डिग्री पर सीमित रखना होगा वर्ना भयानक खतरे हो सकते हैं। इसलिए कॉप के दौरान यह कोशिश की गई कि सभी देश अपने उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्यों को बढ़ाएं। बैठक के दौरान हालांकि 84 देशों की तरफ से यह संकेत दिए गए है कि वे अपने लक्ष्यों को बढ़ाने पर विचार करेंगे। भारत ने कहा कि वह अगले तीन वर्ष के भीतर इन्हें संशोधित करेगा। कुल मिलाकर, कांफ्रेस ऑफ पार्टीज की यह बैठक बहुत अधिक सफल नहीं रही। हालांकि भारत ने कई मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति रहने के बावजूद इसे संतुलित बताया। कॉप की अगली बैठक ग्लास्गो में तय हुई है। उससे पूर्व जर्मनी में एक फालोअप मीटिंग होगी जिनमें तमाम लम्बित मुद्दों पर चर्चा होगी।

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