जलवायु परिवर्तन को कम करती जैविक कृषि

Submitted by Hindi on Fri, 02/10/2017 - 15:26
Source
विज्ञान प्रगति, जनवरी, 2017

वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिंग पूरे विश्व के लिये एक चिन्ता का विषय बन गया है जोकि कृषि पैदावार और उत्पादन पर गम्भीर प्रभाव डाल रहा है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन फसल पैदावार, कीट-पतंगों के विस्तार और कृषि उत्पादन की आर्थिक लागत को प्रभावित कर सकता है। मौसम की चरम सीमा में फसलों को नुकसान हो रहा है और किसानों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है। जैसे-जैसे वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी हो रही है वैसे-वैसे मौसम के प्रतिमान पथभ्रष्ट हो रहे हैं। जलवायु परिवर्तन एवं कृषि के पारस्परिक सम्बन्ध का अध्ययन, कृषि का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान एवं इसको कम करने के उपाय सुझाने में निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है।

जलवायु परिवर्तन को कम करती जैविक कृषि

कृषि का जलवायु परिवर्तन में योगदान


इन्टरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी.) के अनुसार कृषि का वैश्विक ग्रीन हाउस गैसों (जी.एच.जी.) में 10-12 प्रतिशत तक का योगदान है और इस प्रतिशत का आगे जाकर बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है। आई.पी.सी.सी. के अनुसार कृषि क्षेत्र से ग्रीन हाउस गैसें मृदा उत्सर्जन, पशुओं की पाचन क्रिया से, धान उत्पादन, बायोमास के जलने और खाद प्रबन्धन से आती हैं। कुछ एक परोक्ष साधन भी हैं जैसे कि भू-उपयोग में बदलाव, जीवाश्म ईंधन का प्रयोग, यन्त्रीकरण, यातायात और कृषि रसायन और उर्वरक उत्पादन। परोक्ष रूप से जी.एच.जी. के उत्सर्जन का कारण प्राकृतिक वनस्पति में बदलाव और पारम्परिक भू-उपयोग है जिसमें वनों का विनाश और मृदा का क्षरण आता है। मानव क्रिया-कलापों द्वारा मृदा से कार्बन का उत्सर्जन 1850 से लेकर अब तक 10 प्रतिशत तक हुआ है। कई क्षेत्रों में कृषि के लिये वनों का विनाश किया जाता है जिससे कार्बन के भण्डार में भारी क्षति हुई है और भारी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ है। पूरे विश्व में मृदा कार्बन के भण्डारण के लिये मुख्य साधन है जिसकी क्षमता वायुमण्डल में उपस्थित कार्बन से तीन गुणा और वनों की अपेक्षा पाँच गुणा है।

कृषि का मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के उत्सर्जन में मुख्य योगदान है। एक तिहाई कार्बन डाइऑक्साइड कृषि में भू-उपयोग के बदलाव से आती है। लगभग दो तिहाई मीथेन और अधिकांश नाइट्रस ऑक्साइड कृषि क्षेत्र से उत्पन्न होती है। ग्लोबल वार्मिंग कार्बनडाइऑक्साइड की अपेक्षा मीथेन से 21 गुना ज्यादा और नाइट्रस ऑक्साइड से 300 गुना ज्यादा होती है।

जलवायु परिवर्तन तथा जैविक कृषि


जैविक कृषि पोषक तत्वों के शोषण को कम करती है और मृदा में जैविक पदार्थों को बढ़ाती है। परिणामस्वरूप जैविक कृषि में जल को अवशोषित करने और भण्डारण करने के लिये पारम्परिक कृषि की अपेक्षा अधिक शक्ति होती है। इसलिये प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों जैसे कि सूखा, बाढ़ आदि में भी पैदावार की कम हानि होती है और किसानों को जलवायु परिवर्तन एवं इसकी अस्थिरता के प्रति असुरक्षित होने की दर को कम करती है। जैविक कृषि के अन्तर्गत विविध कृषि प्रणालियाँ आती हैं जिससे आय के साधनों की विविधता में बढ़ोतरी होती है तथा जलवायु परिवर्तन और इसकी अस्थिरता जैसे वर्षा के प्रतिमान में बदलाव आदि के प्रतिकूल प्रभावों का सामना किया जा सकता है। जैविक कृषि में कम लागत आती है। अतः कम जोखिम होता है। प्रतिकूल मौसम की दशा में फसल की पैदावार कम होने पर भी किसानों को भारी क्षति नहीं होती है। इसके अलावा जैविक कृषि कार्बनडाइऑक्साइड को मृदा में अवशोषित कराने में भी सहायता करती है।

जैविक खेती एवं कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन


जैविक खेती प्रभावशाली रूप में कार्बनडाइऑक्साइड को कम करती है। इसमें कृषि के स्थानान्तरित होने की अपेक्षा एक ही जगह पर लम्बे समय तक कृषि करने पर जोर दिया जाता है। इस प्रकार की कृषि प्रणाली को चलाने के लिये पारम्परिक कृषि की अपेक्षा कम जीवाश्म ईंधन का प्रयोग होता है। ऐसा निम्नलिखित कारणों से होता है :

1. मृदा की उर्वरता को खेतों से ही पूरा किया जाता है (जैसे-जैविक खाद, दलहन उत्पादन, विस्तृत फसल-चक्र आदि)

2. ऊर्जा की माँग करने वाले कृत्रिम खादों और कीटनाशकों को इस प्रणाली में अस्वीकार किया जाता है।

3. पशुओं के लिये बाहर से आने वाला चारा या फीड आदि नजदीक ही तैयार करने पर जोर दिया जाता है।

जैविक खेती से ऊर्जा सन्तुलन बनाए रखने में सहायता मिलती है। इस तकनीक के द्वारा कृषि की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो जाती है। मीथेन को कम करने में जैविक खेती का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस तकनीक में ऐरोबिक सूक्ष्म जीव और मृदा में उच्च जैविक क्रियाओं को प्रोत्साहन दिया जाता है जिससे मीथेन की ऑक्सीडेशन (जलने की प्रक्रिया) को बढ़ाया जाता है। वायुमण्डल में नाइट्रस ऑक्साइड के बढ़ने का कारण खेतों में अधिक मात्रा में यूरिया खाद का उपयोग है। जैविक खेती नाइट्रस ऑक्साइड को कम करती है क्योंकि :

1. इस तकनीक में कृत्रिम नाइट्रोजन खाद को नकारा जाता है जिससे खेतों में नाइट्रोजन एक सीमा तक ही रहती है साथ ही साथ इससे कृत्रिम खादों को बनाने में लगने वाली ऊर्जा को भी बचाया जा सकता है।

2. कृषीय उत्पाद एक मजबूत पोषण चक्र का हिस्सा होता है जिसमें गैसों की हानि को कम किया जाता है।

3. डेयरी में पशुओं को कम प्रोटीन व अधिक रेशेदार आहार दिया जाता है जिससे कि नाइट्रस ऑक्साइड को वातावरण में जाने की दर को कम किया जा सके।

4. जैवखण्ड (बायोमास) को जीवाश्म ईंधन की जगह एक विकल्प के रूप में प्रयोग किया जाना एक अन्य विकल्प के रूप में देखा जाता है।

जैविक खेती ने इस क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान हासिल किया है। रासायनिक नाइट्रोजन खादों का प्रयोग न करके नाइट्रस ऑक्साइड का विसर्जन कम हुआ है, साथ ही ऊर्जा का भी बचाव हुआ है। जैविक कृषि ग्रीन हाउस गैसों को कम करने में सहायता करती है तथा मृदा व जैवखण्ड में कार्बन का अवशोषण बढ़ाती है। यह जलवायु परिवर्तन से निपटने में पारम्परिक कृषि में बेहतर साबित हुई है।

जैविक खेती के माध्यम से पानी की बचत


जैविक खाद के प्रयोग से खेत के कार्बनिक पदार्थ और जल धारण क्षमता बढ़ जाती है। कवर फसल उगाने से भी जल संसाधनों के संरक्षण के लिये मदद करते हैं।

जैविक खेती के प्रमुख लाभ


जलवायु परिवर्तन को कम करती जैविक कृषि1. जैविक खाद (कम्पोस्ट, पशु खाद, हरी खाद) आदि का उपयोग करने से मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ जाती है। कार्बनिक पदार्थ के स्तर को बनाए रखने के लिये यह मिट्टी की उर्वरता की रक्षा लम्बे समय तक कर सकती है।

2. फलियों और जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण के उपयोग द्वारा नाइट्रोजन आत्मनिर्भरता को बढ़ाती हैं।

3. खरपतवार, बीमारी एवं कीट नियन्त्रण के लिये किसान फसल चक्र प्राकृतिक परभक्षी, जैविक खाद और प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग कर सकते हैं।

4. जैविक खेती से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की वृद्धि भी देखी गई है जो मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाने में सहायक रहती है। जैविक खेती से मिट्टी की संरचना में सुधार हो जाता है जिससे मिट्टी में टपकन 15-20 प्रतिशत बढ़ जाता है जोकि पैदावार वृद्धि का मुख्य कारण है।

5. एक अध्ययन में पाया गया है कि जैविक खेती से फसल उत्पाद में अधिक लाभ होता है बजाए कि अधिक खादों को डालने की खेती से होता है।

6. जैविक खेती से पर्यावरण को लाभ।

7. जैविक खेती में कचरे व फसलों के भूसे से खाद आदि बनाई जाती है। इस उपयोग से वैश्विक ऊष्मता को कम करने में सहायता मिलती है।

 

जैविक कृषि से वैश्विक ऊष्मण को कम करने की सम्भावनाएँ

गैसों के स्रोत

कुल प्रतिशत हिस्सा

जैविक प्रबन्धन के प्रभाव

टिप्पणी यदि कोई हो

कृषि

  

10-12

मृदा से नाइट्रस ऑक्साइड

4.2

कम होना

नाइट्रोजन

मीथेन गैस का उत्सर्जन

3.5

विपरीत प्रभाव

 

जैवखण्ड का जलना

1.3

कम होना

जैव मानकों के अनुसार

धान

1.2

विपरीत प्रभाव

 

देशी खाद प्रबन्धन

0.8

कम होना

 

कृषि के लिये वनों के काटने से प्रत्यक्ष उत्सर्जन

12

कम होना

प्राथमिक पारिस्थिति तन्त्र को सीमित करना

अप्रत्यक्ष उत्सर्जन

खनिजों वाली खादें

1

पूरी तरह से नकारना

खनिजों वाली खादों से बचना

खाद्य श्रृंखला

 

कम होना

ऊर्जा का बचाव

कार्बन को जब्त करना

कृषीय क्षेत्र

 

बढ़ाना

मृदा में जैविक पदार्थों को बढ़ाना

घासनियां

 

बढ़ाना

मृदा में जैविक पदार्थों को बढ़ाना

 

हिमाचल प्रदेश के परिदृश्य में


जैविक कृषि न केवल बेहतर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समायोजित करने के लिये पारिस्थितिक तन्त्र को सक्षम बनाता है बल्कि यह कृषि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिये प्रमुख क्षमता प्रदान करता है। उर्वरक पोषक तत्वों और कीटनाशकों का कम उपयोग पहाड़ी राज्य में जैविक कृषि के लिये आवश्यक है और ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) को कम करने के लिये बड़ा योगदान हो सकता है। राज्य (94,059.7 हेक्टेयर) की कुल फसल क्षेत्र का 10 प्रतिशत मानते हुए सालाना 9855.61 टन कार्बनडाइऑक्साइड के बराबर (104.78 किलो कार्बन बराबर कार्बन डाइऑक्साइड/हेक्टेयर) कम कर सकते हैं, जिसे वर्ष 2020 तक जैविक खेती में परिवर्तित करने का अनुमान है।

जैविक कृषि का ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में प्रभावशाली योगदान है। इससे कार्बन को मृदा व बायोमास में अवशोषित किया जाता है। बहुत सारे ऐसे प्रमाण हैं जिसमें जैविक कृषि को पारम्परिक कृषि की अपेक्षा बेहतर पाया गया है। यहाँ तक की जैविक कृषि से जलवायु परिवर्तन कम करने के साथ-साथ दीर्घकाल तक भू-उपयोग के प्राथमिक लक्ष्य को पूरा करने में सहायता करती है। जैविक खेती प्रभावशाली रूप में ग्रीन हाउस गैसों जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व अन्यों को कम करती है। यह जलवायु परिवर्तन से निपटने में पारम्परिक कृषि से बेहतर साबित हुई है।

सम्पर्क सूत्र :


डॉ. रणबीर सिंह राणा, श्री रमेश एवं श्री रानू पठानिया, सेंटर फॉर जिओइन्फॉर्मेटिक्स सी एस के हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर 176062 (हिमाचल प्रदेश), [मो. : 09418106167; ईमेल : ranars66@rediffmail.com]