भूमिका
सुनहरी महाशीर जिसे वैज्ञानिक रूप से टौर प्युटिटौरा के रूप में निर्दिष्ट किया जाता है बड़ी साइप्रिनिडस हैं। ये दक्षिण पूर्वी एशिया के जंगलों की ऊष्ट कटिबन्धीय नदियों से लेकर हिमालय की भीमताल जल वाली नदियों एशिया की तेज बहाव वाले पुरातन व स्वच्छ जलस्रोतों में वास करती हैं। अपने सजावटी सौन्दर्य संघर्ष कौशल व बेहतर स्वाद के लिये इस की अत्यधिक माँग है। बड़े शल्कों वाली कार्प महाशीर विश्व भर के शिकारियों के साथ-साथ प्रकृति प्रेमियों को भी आकर्षित करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में सुनहरी महाशीर भारतीय जल प्रणाली की राजा के रूप में वर्णित है, जिसका विस्तार प्रायद्वीपीय भारतीय नदियों के निचले क्षेत्रों का विस्तृत है।
टौर प्युटिटौरा हिमालय क्षेत्र की बहुमूल्यवान देशी मछली के रूप में स्वीकार की जाती है। मध्य हिमालय क्षेत्र की अधिकांश नदियों धाराओं सहित आसाम, जम्मू व कश्मीर, सिक्किम, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन, बर्मा, (म्यांमार), थाईलैंड, कम्बोडिया, लाओस, नेपाल, पाकिस्तान, वियतनाम, इंडोनेशिया, एवं मलेशिया से टौर की लगभग 20 विभिन्न प्रजातियों का पता लगा है। महाशीर ट्रांस-हिमालयी देशों में कृषि सहित मात्स्यिकी विकास के लिये एक सम्भावित मत्स्य प्रजाती है। प्राकृतिक जलस्रोतों में इस मछली की लम्बाई में 2.75 मि.मी. (9 फीट) और भार में 54 किग्रा तक की वृद्धि देखी गई है। वर्तमान में इस आकार-प्रकार की मछली यदा-कदा ही दिखाई देती है।
महाशीर का अर्थ है ‘भारत में बड़े मुखवाला’। इसका उपयुक्त नाम है लम्बी पतले आकार वाली प्राणी जिसे ताजे पानी की सभी शिकारी मछलियों के प्रबलतम लड़ाकू प्राणी के रूप में माना जाता है। भारतीय नदियों की निर्विवाद राजा महाशीर है। प्रचंड एवं तेज बहाव वाले क्षेत्र इसके आवास स्थल हैं इसलिये यह मछली एक कुशल तैराक है। यह मछली विश्व में कार्प परिवार की सबसे बड़ी सदस्य है। यह मछली प्रतिकूल धारा में 20.25 समुद्री मील की रफ्तार से तैर सकती है। इस मछली के जीवन काल के सम्बन्ध में अधिक ज्ञात नहीं है फिर भी विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार यह मछली 20-25 वर्ष की आयु तक जिन्दा रहती है।
स्थानीय शब्दों में महाशीर शब्द का अर्थ ‘बड़ा मुँह’ है जो कि यूरोपीय बार्डल एवं कार्प से निकट सम्बन्धित है। ताजे पानी की शिकारी मछलियों में इसको सबसे शक्तिशाली मछली के रूप में जाना जाता है। इसका शरीर लम्बा और थूथन नुकीली होती है। जबड़े समान आकार के होते हैं। मैक्सीलैरी की अपेक्षा रोस्ट्रल स्पर्शक छोटे होते हैं। यह एक अत्यधिक नखरेबाज और मूडी मछली है। इसके शरीर का रंग सुनहरा, पृष्ठीय हिस्सा भूरा तथा पंख लाल पीले रंग के होते हैं। इसके आवास स्थल उच्च ऑक्सीजन युक्त पानी में स्थित चट्टानों के किनारे होते हैं। हिमालय से निकलने वाली अनेक नदियों में यह महाशीर पाई जाती है। बहुतायत में उपलब्धता के कारण इसका बहुत आर्थिक महत्त्व है। महाशीर की विभिन्न प्रजातियों के उष्टकटिबन्धीय क्षेत्र हैं, जहाँ गर्मियों में तापमान 35° तथा उप हिमालय क्षेत्रों में जल का तामपान 6° सेंटीग्रेड तक चला जाता है। इसी प्रकार वे मुश्किल से कुछ मीटर की दूर पर समुद्र स्तर से ऊपर 200 मीटर की ऊँचाई पर पाई जा सकती है। विभिन्न प्रकार के पर्यावरण और भोजन के अनुकूलन लिये यह मछली असाधारण है।
इसमें कोई जोर देने की आवश्यकता नहीं है कि महाशीर विश्व प्रसिद्ध आखेट योग्य एवं भारत की प्रमुख खाद्य मछली के रूप में प्रसिद्ध हैं। यह पूरे विश्व भर के आखेटकों को शिकारमाही में सालमन मछली से अधिक मनोरंजन प्रदान करती है। यह ‘टाइगर इन वाटर्स’ के रूप में भी जानी जाती है। वाणिज्यिक मत्स्य पालन में अपनी अच्छी गुणवत्ता के लिये यह महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। बड़े आकार की वजह से मछुआरों के लिये महाशीर का बड़ा महत्त्व है। एक खाद्य मछली के रूप में यह अत्यधिक सम्मानित है तथा भारत के उत्तर तथा उत्तर पूर्वी बाजार में ऊँची कीमतों पर बिकती है।
एक समय में इनकी बहुतायतता के बावजूद भी प्राकृतिक जलस्रोतों में महाशीर के आकार और संख्या में गिरावट आई है जिससे इसके विलुप्त होने के गम्भीर खतरे पैदा हो गए हैं। अवक्रमित जल पर्यावरण तथा नगरीकरण के साथ-साथ अत्यधिक मत्स्य सन्दोहन मुख्य रूप से मछली पकड़ने के अवैध तरीकों जैसे- विद्युत करंट, विषैले रसायन, डायनामाइट आदि के प्रयोग द्वारा पारिस्थतिकी में जैविकी परिवर्तन के कारण प्राकृतिक जलस्रोतों में इसकी संख्या में गिरावट आई है, जिस कारण निकट भविष्य में यह संकट ग्रस्त हो सकती है। कैप्टिव ब्रीडिंग तथा संवर्धन तकनीक, मत्स्य संरक्षण व सतत मत्स्य उत्पादन को बढ़ावा देने के साधन हैं। अनेक वर्षों के अध्ययन के पश्चात टौर प्युटिटौरा की प्रजनन तकनीकी का विकास डी.सी.एफ.आर. में किया गया है किन्तु संवर्धन तकनीक अभी प्रयोगिक स्तर पर ही है। प्रजनन तकनीकी की सफलता से बीज की उपलब्धता में वृद्धि हुई है तथा प्राकृतिक जलस्रोतों में पुनर्संचयन के द्वारा इनकी संख्या वृद्धि में मदद मिली है। संवर्धन तकनीकियों के विकास से इसके वाणिज्यिक उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा जो प्राकृतिक जलस्रोतों में मात्स्यिक दवाब को कम करेगा तथा अन्ततः प्रकृति में इसकी पैदावार के संरक्षण और रख-रखाव में सहायक सिद्ध होगा साथ ही यह कुल मत्स्य उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ पर्यटन उद्योग के विकास एवं वृद्धि में भी मददगार होगा। स्थानीय मत्स्य पालक अब प्राकृतिक जलस्रोतों में महाशीर की सुरक्षा विशेषकर बरसात के महीनों में अण्ड जनन के समय सुरक्षात्मक मत्स्य पालन के द्वारा कर रहे हैं। साथ ही वे उत्तराखण्ड क्षेत्र की कुछ झीलों व धाराओं के चारों ओर अवांछित मत्स्य प्रग्रहण को रोकने के लिये गश्त भी कर रहे हैं।
वर्गीकरण
वर्तमान अध्ययन के द्वारा टौर वंश के अन्तर्गत 6 विभिन्न प्रजातियों की वैधता की पुष्टि की गई है जो नीचे दी गई हैः-
वैज्ञानिक नाम |
सामान्य अंग्रेजी नाम |
टौर प्युटिटौरा (हैम) |
गोल्डन या प्युटिटौर महाशीर |
टौर टौर (हैम) |
ट्यूरिया या टौर महाशीर |
टौर मोसाल (हैम) |
डीप बाडी महाशीर |
टौर प्रोजिनस (मैक्लीलैड) |
कौपर या मोसाल महाशीर |
टौर खुदरी |
‘‘झुंगा महाशीर’’ |
टौर मुसुल्लाह |
डैकन या खुदरी महाशीर हम्पबैक या मुसल्लाह’’ |
महाशीर की तीन उप्र प्रजातियों टौर मोसाल महानदीकस, टौर खुदरी मालबारीकस एवं टौर खुदरी लौंगिपिनस का भी पता लगा है। आखेटकों द्वारा चौकलेट महाशीर जिसे सामान्यतः असम की बोका अथवा कतली महाशीर के रूप में भी जाना जाता है को महाशीर वर्ग में सम्मिलित किया गया है। इस मछली की नियोलियोचिल्स हैक्सागोनोलोपिज के नाम से वैज्ञानिक रूप में पहचान की गई है। समान्यतः महाशीर का शरीर चपटा व लम्बा होता है। इसकी थूथन नुकीली व जबड़े समान लम्बाई वाले होते हैं। इसके दो जोड़े स्पर्शक होते हैं। डोरसल फिन्स वैन्ट्रल फिन्स के विपरीत होते हैं जबकि कौडल फिन्स (पूँछ वाला पंख) विभाजित होते हैं। शरीर का रंग सुनहरा तथा पृष्ठीय व पार्श्व भाग गहरे ग्रे रंग का होता है। इसके पूरे शरीर पर बड़े-बड़े शल्क होते हैं। पंखों का रंग लाल-पीला होता है।
संघ |
कार्डेटा |
उप संघ |
वर्टिब्रेटा |
वर्ग |
एक्टीनोप्टीरीगी |
उप वर्ग |
निओप्टीरीगीई |
इन्फ्राक्लास |
टिलिओस्टाई |
उपक्रम |
ओस्ट्रीओप्सीई |
क्रम |
साईप्रनीफोर्मस |
सुपर फैमिली |
साइप्रीनिडी |
परिवार |
साइप्रीनिडी |
जाति |
टौर ग्रे 1834 |
प्रजाति |
टौर प्युटिटौरा (हैमिल्टन 1822) |
आकृति विज्ञान
पूर्व में किये गए अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि कार्प जिसके बड़े-बड़े शल्क, मोटे होंठ या खाँचेदार निचले जबड़े, दो जोड़े स्पर्शक, 22 से 28 पार्श्विय शल्क रेखाएँ तथा सिर की लम्बाई शरीर के बराबर अथवा अधिक होती है को ही वास्तविक महाशीर माना जाता है। यह टौर जाति में सम्मिलित है। आखेटकों द्वारा इसके शल्कों, आकार-प्रकार, मुख, थूथन इत्यादि के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की गई है। यद्यपि उनके वर्णनों में थोड़ी बहुत अतिश्योक्ति हो सकती है किन्तु उनके द्वारा किये गए अन्वेषणों को कोई नजरअन्दाज नहीं कर सकता। प्राचीन दिनों से ही मुहावरों द्वारा यह माना जाता था कि महाशीर जैसे हाइपरट्रोफाइड होंठ महिलाओं के होते थे। यह पता चला है कि विभिन्न प्रजातियों में होठों की स्थिति उनके लिंग और आकार के हिसाब से अलग-अलग होती है। यद्यपि कुछ प्रजातियों में बिना पेन्डयूलम लोब्स के सामान्य होंठ तथा कुछ में बड़े होंठ पीछे की ओर मुड़े होना आम विशेषता है। महाशीर के सिर व शरीर की लम्बाई का अनुपात तथा उसका बेलनाकार शरीर, शक्तिशाली मांसल पूँछ, हाइपोट्राफाइड होंठ व कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ उसको तेज बहाव वाली धारा के अनुकूल बनाता है। इसी प्रकार महाशीर के पंख अन्य कार्प प्रजातियों की अपेक्षा अधिक हड्डीयुक्त व शक्तिशाली होते हैं। इसके पंखों का क्षेत्र उसके कुल सतही क्षेत्र से अधिक होता है। इसके चार स्पर्शक मुख के दोनों ओर दो-दो की संख्या में नीचे की ओर लटके रहते हैं जिसका वैज्ञानिक नाम बारबस या बेयर्ड है। यह शब्द लैटिन शब्द ‘बारबा’ से उत्पन्न है जिसका अर्थ है ‘बेयर्ड’ है। इसका ऊपरी होंठ उत्क्षेपणीय अथवा बाहर की ओर उठा हुआ होता है जो कप की आकृति का लगता है तथा किसी सूक्ष्म जीच या मोलस्क आदि को चुसने में सक्षम होता है। इसका मुख्य तेज बहती धारा से अपने शरीर को बचाने में मदद करता है।
सुनहरी महाशीर के जबड़े में मांसाहारी मछलियों की भाँति दाँत नहीं होते। यद्यपि पाँचवे ब्रेंन्कियल आर्क में भोजन को चबाने और माँस को चीरने-फाड़ने के लिये इनमें फेरिजियल दाँत पाये जाते हैं। ये दाँत तीन पंक्तियों में होते हैं। ये एक तरफ ऊपर की ओर, दो मध्य में, तीन तथा नीचे की ओर पाँच की संख्या में होते हैं जिसको 2.3.55.3.2 के दन्त-फार्मूला के रूप परिभाषित किया जा सकता है। ये दाँत उसके अग्रभाग के समीप घूमे हुए नुकीले तथा हुक की भाँति होते हैं। ये फेरेंजियल अस्थि के क्रम में दिखाई देते हैं तथा दाँतों पर एनामिल का आवरण रहता है। समय-समय पर भारत के आखेटकों द्वारा सुनहरी महाशीर के फैंजाइल दाँतों को अपने पास निशानी के तौर पर सुरक्षित रखा है जो इस प्रजाति के दाँतों के आकार प्रकार के बारे में विश्वसनीयता प्रदान करते हैं।
सारणी 1 भारतीय उपमहाद्वीप में वास करने वाली प्रजाति/उपप्रजातियों की सूचीः-
सं. |
प्रामाणिक प्रजातियाँ |
प्रमाणिक उप प्रजातियाँ |
सन्दिग्ध प्रजातियाँ |
1. |
टौर प्युटिटौरा |
टौर खुदरी लौंगीसपिनीज |
बारबस लैक्सास्टीकस |
2. |
टौर टौर |
टौर खुदरी मालावारीकस |
बारबस डुकाई |
3. |
टौर मोसाल |
टौर मोसाल महानदीकस |
बारबस नेइली |
4. |
टौर खुदरी |
टौर प्युटिटोरा मैक्रोलीपिज |
बी. चिलीनोइडिस |
5. |
टौर मुसुल्लाह |
टौर मोयारेंसिज |
|
6. |
टौर प्रोजिनियस |
टौर कुलकार्मी |
|
7. |
एन. हैक्सागोनोलिपिज |
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महाशीर की टौर जाति अथवा केवल उसके समतुल्य की जातियों को ही सम्मानित किया गया है। |
तालिका 1 से यह स्पष्ट है कि कुछ नवीन प्रजातियों/उपप्रजातियों को नाम पद्धति में निर्विवाद रूप से सम्मिलित करने के लिये आगे और अन्वेषण की आवश्यकता है। इस समस्या को हल करने के लिये एक व्यापक कार्य करने का सुझाव है। टौर खुदरी मालाबारीकस की विशिष्ट पहचान करने के लिये रेंडम एम्पलीफाइड पौलिमौरफिक डी.एन.ए. मार्कर (आर.ए.पी.डी.) तकनीकी का प्रयोग किया गया। यह पश्चिमी घाट से टौर प्रजाति की पहचान हेतु RAPD तकनीक के अनुप्रयोग पर पहली रिपोर्ट है जो जैवविविधता के 24 प्रमुख स्थलों में से एक है भारत में पूर्वी हिमालय भी इसी श्रेणी में आता है।
वैज्ञानिक नामों की भाँति महाशीर के देशी नाम भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। भारत में महाशीर के लिये उपलब्ध सामान्य नामों को नीचे सारणी में दर्शाया गया है।
सारणी 2. महाशीर के स्थानीय नाम:-
भाषा/क्षेत्र |
देशीय नाम |
हिन्दुस्तानी |
महाशीर |
हिन्दी |
नहार्म |
पंजाबी |
काकहीता |
मराठी |
काउची मस्ता |
सिन्धी |
जुन्माह, पिटिहा, करिहा |
असमी |
बारापिटिहा, बारापान्ना, झंगाह |
तमिल |
बोम्भिन, पुम्भिन, केन्दाई |
बंगाली |
महासोल |
कनारसी |
पेरूवल, हराली-भिनुई |
मैसूर |
हल्लामिम |
मलयालम |
मेरूवल, चूरा, कट्टी, कोयिल |
तुलू |
हेरागुलू, पेरुवल |
झलम |
ठाकुर तथा क्षखराल |
मध्य भारत |
चाँदनी मछली |
भोजन
व्यस्क स्तर पर महाशीर मछली को सर्वाहारी मछली के रूप में जाना जाता है। प्राचीन दिनों में इसके विशाल आकार और खुले हुए मुख को ध्यान में रखकर इसे मांसाहारी माना जाता था किन्तु इन्हें हरे शैवाल तन्तु कीड़े-मकोड़े, सूक्ष्म मोलस्क तथा चट्टानों पर चिपकी हुई काई आदि को भी खाते हुए पाया गया है। यह पता चला है कि प्राकृतिक आवास स्थलों में महाशीर अंगुलिकाओं के भोजन में कीट 81.4 पादप 15.9 प्रतिशत तथा मत्स्य सहित अन्य पदार्थ 1.6 प्रतिशत सम्मिलित होते हैं।
महाशीर के जैविक पहलुओं पर मूल्यवान और पथ-प्रदर्शक जानकारी आखेटकों की टिप्पणियों अथवा अन्वेषणों के द्वारा प्राप्त हुई है। यह चुन-चुन कर खाने वाली मछली है। प्युटिटौरा महाशीर के पेट से हरे शैवाल तन्तु एवं अन्य जलीय पौधे, श्लैष्मी चट्टानी पपडी, कीट, लार्वा आदि को रिकॉर्ड किया गया है। सूक्ष्म नितल जीव समूहों, नील हरित शैवालों हरे शैवालों आदि तत्वों से निर्मित डायटम युक्त आहार इसका प्रमुख पसन्दीदा भोजन है। विभिन्न प्रजातियों जिसमें नावीकूला कैम्बीला, सेनिद्रा, फ्रेजिल्लैरिआ, ओसिल्लाटोरिया, जिनिमा, साइप्रोगाइरा, ट्रिबोनिमा, एरिल्ला, कीराटिल्ला एवं चिरोनोमस आदि सम्मिलित हैं कि आँतों में भी इन तत्वों को रिकॉर्ड किया गया है। महाशीर के भोजन के बारे में चर्चा करने से पता चलता है कि इसके पेट में सभी प्रकार के जल जन्तु, बैक्टरिया, इण्डिका या पश्चिमी घाट की धूप, लगभग कबूतर के अण्डों के आकार के बीज, दूसरे अन्य बहुत से वृक्षों के बीच जो कि जंगल से ढँकी नदियों में लटकते हैं, बाँस के बीज, मुनष्य द्वारा फेंके गए चावल, भू-कृमि, केकड़े, टिड्डे, सभी प्रकार की छोटी मछलियाँ, झींगें, मोलस्क अथवा ताजे पानी के घोंघे आदि को देखा गया है। महाशीर एक सर्वभक्षी प्राणी हैं। इसके भोजन की सूची में झींगे, क्रस्टेशियन, मोलस्क, कीट-लार्वा अनाज तथा विभिन्न प्रकार के कीट सम्मिलित हैं। यद्यपि यह वनस्पतिक पदार्थों को वरीयता देती है किन्तु यह इन वनस्पतिक पदार्थों की उपलब्धता पर आधारित होता है। इसका मुख्य आहार सूक्ष्म वानस्पतिक पेड़-पौधे हैं। सहायक खाद्य पदार्थों के रूप में यह छोटी मछली कीड़े-मकोड़े, मोलस्क आदि को नगण्य मात्रा में ग्रहण करती है। यह भी पता चला है कि मछली मुख्यतः सूक्ष्म वनस्पतियों से पोषण प्राप्त करती है जिसका उसके कंडीशन फैक्टर के साथ सीधा सम्बन्ध है। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र की नदी परिस्थितिकी तंत्र में सुनहरी महाशीर के भोजन एवं पोषण की आदतों के अवलोकन से पता चला है कि सर्दियों के समय इसका पोषण अच्छा और मानसून के समय बहुत कम होता है। गेस्ट्रोसोमेटिक (GSI) सूचकांक का आकलन भी इस अवलोकन की पुष्टि करता है। साथ ही यह भी पता चला है कि मछली अपने भोजन की तलाश नदी तल पर उपलब्ध जीव-समूहों पर करती है। महाशीर मुख्य रूप से शाकाहारी होने के साथ-साथ कुछ हद तक मांसाहारी भी है। यह शैवाल जन्तुओं, टिड्डों, कीड़ें-मकोड़ों एवं उनके लार्वा, जलीय-खरपतवार व उनके बीजों, केकड़ें, भू-कृमियों, कीटों, झींगों एवं मोलस्क आदि को खाती है। यद्यपि अपनी तरूणावस्था में यह मांसाहारी भोज्य पदार्थों को वरीयता देती है। इसको कौलम फीडर अर्थात मध्य भाग में भोजन ग्रहण वाली और बौटम फीडर अर्थात तलछट में भोजन ग्रहण करने वाली समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। गैस्ट्रोसोमेटिक सूचकांक तथा भोजन की अवस्था के आधार पर जून से अक्टूबर तक इसमें भोजन ग्रहण करने की कम सक्रियता (1.75) दर्ज की गई। तत्पश्चात अक्टूबर के बाद से दिसम्बर तक बढ़ जाती है (2.86)। जनवरी-मार्च में यह सक्रियता शिखर पर होती है। (5.6) किन्तु अप्रैल के बाद से जून तक इसमें गिरावट देखी गई (3.84), जुलाई-सितम्बर में प्रजननकाल की अवधि में भोजन ग्रहण सक्रियता कम देखी गई। हाल ही में किये गए अध्ययनों से पता चला है कि महाशीर अपनी उम्र और आकार के साथ भोजन का चुनाव करती है। प्रारम्भिक अवस्था में यह प्लवकों को वरीयता देती है जो कि प्राकृतिक जल में पर्याप्त मात्रा में होते हैं। बाद में जब मछली बड़ी हो जाती है तो उसकी भोजन की प्रवृत्ति मांसाहार के प्रति बढ़ जाती है। महाशीर के पेट की अँतड़ियों को देखने से पता चला कि उसमें लगभग 50 प्रतिशत तत्व जीव जन्तु के 37 प्रतिशत वनस्पतिक पौधे तथा 13 प्रतिशत गैर चिन्हित पदार्थों का समावेश होता है। प्रतिपूरक आहार जिसमें जीव जन्तुओं के तत्वों का बड़ा भाग तथा अपेक्षाकृत वनस्पतिक पदार्थों का एक छोटा भाग सम्मिलित हो महाशीर की वृद्धि के लिये सबसे उचित आहार हो सकता है।
प्रजनन विज्ञान
विस्थापन एवं अण्डजनन
सुनहरी महाशीर रुक-रुक कर प्रजनन करने वाली मछली है। इसके बारे में यह पता लगा है कि यह वर्ष भर एक मुर्गी की भाँति अन्तराल में अण्डे देती हैं। इसके अण्डों को मुख्यतः मानसून के समय प्राप्त किया जाता है। टौर प्युटिटौरा के इस आन्तरायिक प्रजनन व्यवहार को व्यवहारिक रूप से नेपाल में स्थापित किया गया। गोनेडोसोमेटिक सूचकांक (GSI) के आधार पर यह पता लगा है कि प्राकृतिक जलस्रोतों में इस मछली के परिपक्वन की अवधि मई से अगस्त तक हो सकती है। महाशीर स्वच्छ पानी में अण्डे देना पसन्द करती है। इस हेतु इसके विस्थापन की आदत से सभी लोग परिचित हैं। बाढ़ के दिनों में महाशीर नदी के ऊपरी क्षेत्रों की ओर बढ़ती है और ताजा प्रजनन करने के लिये लम्बी दूरी तय करती है तथा किसी चट्टान के नीचे अण्डों का एक समूह देती है। यह प्रक्रिया मौसम में कई बार दोहराई जाती है। यह देखा गया है कि महाशीर अधिकांशतः बारिश के आरम्भ के समय प्रजनन करती है। प्रजनन के समय जहाँ तक कि पर्वतीय नदियों में अण्डे देने का सवाल है इसके लिये तापमान का विशिष्ट समायोजन, पी.एच., वेग, गन्दलापन एवं वर्षा आदि सामूहिक रूप से मछली को अण्डे देने के लिये अभिप्रेरित करते हैं। सुनहरी महाशीर भी इसी प्रक्रिया का पालन करती है। मादा मछलियों में प्रजनन की पाँच अलग चरणों की पहचान की गई है-
प्रथम चरण - अपरिपक्व लिंग, द्वितीय चरण - परिपक्व लिंग, तृतीय चरण-परिपक्वन, चतुर्थ चरण- परिपक्व एवं पंचम चरण-पूणर्परिपक्व।
कुमाऊँ की झीलों में महाशीर अधिकांशत बरसात के आगमन पर प्रजनन करती है। ये वर्ष में एक बार से अधिक अण्डे देती है। यही कारण है कि महाशीर के सभी आयु वर्ग के जीरा कुमाऊँ क्षेत्र की नदियों में वर्ष भर दिखाई देते हैं। इसी प्रकार पश्चिमी घाट की नदियों में भी सभी मौसमों में महाशीर अंगुलिकाएँ उपलब्ध हैं। महाशीर की जनन ग्रंथी लम्बी, हल्के रंग की पट्टी के आकार की लम्बवत रूप में आँतों के दोनों ओर, पेट की दीवार और एयर ब्लैडर के बीच, एक खाँचे में एक जोड़ी के रूप में होती है। भीमताल झील में टौर प्युटिटौरा के अण्डे देने का मौसम मई से सितम्बर तक होता है। गौला नदी में टौर प्युटिटौरा समूहों में अण्डे देती है। यह समूहों की संख्या पर्यावरण की स्थिति पर निर्भर करता है। इस प्रजाति में मादाओं की संख्या नर मछलियों से अधिक होती है। तथा इसका लिंगानुपात 1.1.29 अंकित किया गया। 190 से 250 मि.मि. लम्बाई वाले अण्डजनकों में कुल गन्दलेपन की सीमा 3987 से 7320 मि.मि. लम्बाई तक थी।
सारणी - 3. सुनहरी महाशीर हेतु जैविक सारणी: - |
|
वितरण |
सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र असम, जम्मू एवं कश्मीर, सिक्किम, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल एवं पाकिस्तान |
प्रजनन काल |
वर्ष में तीन बार जनवरी से फरवरी मई से जून व जुलाई से अक्टूबर। |
भोजन एवं भोजन आदतें |
डिम्बावस्था में सर्वहारी तरूणावस्था में मांसाहारी वयस्कावस्था में शाकाहारी |
परिपक्वता |
नर 2 वर्ष, मादा 2 वर्ष |
गन्दलापन |
3500-8900 संख्या ओवा/किग्रा शरीर के भार का |
अण्डों का रंग |
हल्का पीला-सुनहरा भूरा |
अण्डों का व्यास |
2.5-3.5 मि.मि. |
उवर्रण प्रतिशत निषेचन |
90-99 प्रतिशत |
उदभवन अवधि |
96-140 घंटा 17-24 डिग्री से ग्रे पर |
उद्भवन |
80-85 प्रतिशत |
प्रारम्भिक अवस्था में नर और मादा मछली के जननांग समान आकार प्रकार के होते हैं। जब नर परिपक्व होता है तो Visceral carity में उतनी अधिक वृद्धि नहीं हो पाती जिनती की मादा मछली में होती है। नर मछली के जननांग में वृद्धि की गति बहुत अधिक होती है जिस कारण वह शीघ्र ही प्रजनन करने योग्य हो जाती है। मादा में वृद्धि नहीं होने के कारण यह माना जाता है कि उसका भोजन आपूर्ति के साथ जो पुनर्उत्पादन सम्बन्ध होता है वह मानसून के दौरान कम हो जाता है। जिस कारण उसके अण्डे देने का समय देर से आरम्भ होता है।
यह सर्वविदित है कि महाशीर अण्डे देने के लिये उथले पानी में ऊपर की ओर जाती है। यह देखा गया है कि बाढ़ की अवधि में महाशीर काफी ऊँचाईयों (समुद्र तल से 800-1800 की ऊँचाई) तक चढ़ती है और अण्डे देने के लिये लम्बी-लम्बी यात्राएँ करती है। यह लम्बी यात्राएँ बहुत जोखिमपूर्ण और खतरे से भरी हो सकती है। ये नदियाँ उनको अण्डे देने के लिये यथोचित स्थान एवं ताजे आहार स्थलों को प्रदान करती है। साथ ही उनके अण्डों और जीरों को सेने के समय सुरक्षा भी देती है। मछलियाँ इस पानी में तब तक रहती हैं जब तक पानी का स्तर कम नहीं हो जाता है। जब पानी का स्तर कम हो जाता है तो मछलियाँ अण्डे देने के उपरान्त कम होते हुए पानी के साथ अण्डे देकर ऊँचाई से नीचे की ओर आ जाती हैं। ये अण्डे मानसून के दौरान परिपक्व होकर जीरा बन जाते हैं। टौर प्युटिटौरा के जीरा पत्थरों के किनारों पर रहना पसन्द करते हैं क्योंकि ये पानी में निरन्तर घुलते रहते हैं। महाशीर के अण्डे मिट्टी के बजाये रेत अथवा पत्थरों पर अधिक दिखाई देते हैं। इस प्रजाति के प्रचार-प्रसार के लिये इसके जननकाल का निर्धारण एक अनिवार्य तत्व है। कुछ लेखकों द्वारा विविध जलवायु परिस्थितियों में विविध प्रजातियों का उल्लेख किया गया है। भारत के कुछ भागों में महाशीर की समान प्रजातियों की विभिन्न प्रजनन आदतों के कारण इसके प्रजननकाल के परिक्रमण के सम्बन्ध में विभिन्न विचारधाराएँ हैं। भारत की उत्तर पूर्वी नदियों में महाशीर एक अवधि में तीन बार प्रजनन करती है। उत्तरी भारत के मैदानों में प्युटिटौरा महाशीर के बारे में पता चला है कि प्युटिटौरा महाशीर वर्ष में कई बार प्रजनन करती है। इसके अतिरिक्त महाशीर को विलुप्त होने से बचाने के लिये यह आवश्यक है कि सबका संवर्धन किया जाये तथा इसके बीजों को व्यापक पैमाने पर वितरित कर विभिन्न नदियों, धाराओं, झीलों और जलाशयों में डाला जाये। महाशीर के बीजों को आमतौर पर प्राकृतिक जलस्रोतों से एकत्र किया जाता है किन्तु वर्तमान में कृत्रिम गर्भाधान और हाइपोसैसन के द्वारा भी उत्पादन किया जाता है।
महाशीर बीज उत्पादन इकाई
जल आपूर्ति
सफल मत्स्य पालन कार्यक्रम हेतु फार्म के लिये स्थल का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। फार्म के विकास तथा उसकी उपलब्ध जल की मात्रा की क्षमता को भी ध्यान में रखा जाये। महाशीर पालन के विभिन्न स्तरों पर जल की मात्रा के सम्बन्ध में आदर्श शर्तें नीचे दी गई है।
हैचरी (अण्ड जननशाला) के स्थल का चुनाव
जहाँ तक सम्भव हो सके हैचरी के लिये स्थान अधिक ऊँचाई पर ऐसी जगह पर होना चाहिए जहाँ पर पानी का समुचित प्रवाह हो तथा बाढ़ वाले क्षेत्र से बिल्कुल सुरक्षित हो। हैचरी-फार्म के लिये भू-क्षेत्र और जल आपूर्ति कम ढलान वाली व समान तपीय स्तर वाली होनी चाहिए तथा साथ ही प्रग्रहण क्षेत्र पर कम-से-कम मानवीय गतिविधियाँ होनी चाहिए।
हैचरी निर्माण के लिये ऐसे स्थल को वरीयता देनी चाहिए जहाँ पर जल आपूर्ति का गुरुत्व फार्म एवं हैचरी की ओर हो सकता हो। हैचरी का जलस्रोत अच्छे प्रकार का एवं पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए।
अच्छे पानी का स्रोत
पानी का स्रोत या तो झरने की तरफ लिम्नोक्रीनी अथवा रिओक्रीनी या फिर ऐसे नालों-धाराओं का हो सकता है जिसमें गाद एवं कार्बनिक पोषण तत्वों की मात्रा बहुत कम हो। हैचरी को होने वाली जल की आपूर्ति प्रदूषित नहीं होनी चाहिए जिससे की मछलियों को कोई हानि पहुँचे। महाशीर पालन के लिये झरनों का पानी बहुत आदर्श स्रोत होता है। क्योंकि उसके पानी में तापक्रम के स्तर पर उतार-चढ़ाव नहीं होता। पानी में ऑक्सीजन का महत्त्व सर्वोपरि होता है। पानी का तापक्रम प्रजनन के दौरान 20-25 डिग्री से.ग्रे. तथा पालन पोषण के समय थोड़ा अधिक होना चाहिए।
हैचरी में पानी का वितरण इस प्रकार नियंत्रित होनी चाहिए कि प्रत्येक इकाई जिसमें हैचिंग ट्रफ, नर्सरी टैंक आदि के अलग-अलग प्रवेश मार्ग हैचरी के विभिन्न अंगों जैसे पम्पिंग सुविधायुक्त ओवर हैड टैंक से ऑक्सीजन युक्त पानी ग्रहण कर सकें।
जल प्रवाह |
पालन क्षमता |
1 ली/मि. |
20-28 से. ग्रे. पर 2000 अण्डों का उदभवन एवं पालन |
3-4 ली/मि. |
पोषण 20-27 से.ग्रे. पर 2000 जीरों 0-3 माह का पालन |
4-6 ली/मि. |
पोषण 1500 अंगुलिकाओं का पालन पोषण 4-9 माह के जल प्रवाही पोषणशाला |
ओवरहेड टैंक |
5 मी. की ऊँचाई पर 1000 ली. टैंक व्यवस्था। |
हैचरी टैंक |
200×60×30 से.मी. के आधार की फाइबर की चादर अथवा जंगरोधक लोहे की चादर |
हैचिंग ट्रे |
50×30×10 से.मी. 1 मि.मी. मेस साइज का सिंथैटिक जाल जहाँ पर 5000-6000 अण्डों को रखा जा सके। |
प्रजनन संग्रहों का प्रबन्धन
व्यापक पैमाने पर सुनहरी महाशीर के बीज उत्पादन के लिये उसके प्रजनक भण्डारों का या तो फार्म में या फिर प्राकृतिक जलस्रोतों में उपलब्ध होना पूर्व प्राथमिकता है। यह एक पालतू प्रजाति है। इस प्रजाति के बारे में यह कहा जाता है कि ये कुछ अन्तराल में गुणात्मक आधार पर अण्डे देती है। परिपक्व प्रजनक प्रजननकाल में नदियों, झीलों, धाराओं और जलाशयों में तेज गति से जाती हुई नजर आती है। इसको फाँसा जाल के द्वारा पकड़कर स्ट्रिपिंग विधि से प्रजनक के लिये उपयोग किया जाता है। मछली की यह प्रजाति कृत्रिम प्रजनन के लिये अण्ड प्रस्फुटन जीरों और अंगुलिकाओं के पोषण हेतु नियंत्रित वातावरण में भी व्यावहारिक है।
हैचरी
अण्डों और जीरो के पालन-पोषण के लिये हैचरी एक छत के नीचे तथा अनेक ट्रफों व टैंकों की व्यवस्था सहित होनी चाहिए। हैचरी ऐसी होनी चाहिए जिसका निर्माण वास्तव में इसी उद्देश्य के लिये किया गया हो। फर्श सीमेंट का बना होना चाहिए ताकि उसमें पानी साफ करने की व्यवस्था हो। हैचरी को सूर्य की किरणों के सीधे प्रवेश से सुरक्षित होने के साथ-साथ, साफ-सुथरे कार्य स्थल पर होना चाहिए।
ट्रफ
हैचरी ट्रफों को विभिन्न आकार-प्रकार का होना चाहिए, किन्तु प्रत्येक ट्रफ में पानी रखने की इतनी क्षमता होनी चाहिए कि उसमें अण्डों, लार्वा व अविकसित भ्रूणों को पाला जा सके। आयताकार ट्रफों (220×50×40 से.मी. अथवा 220×60×50 से.मी.) को सामान्यतः ट्राउट हैचरियों में प्रयुक्त किया जाता है। इन ट्रफों को महाशीर के अण्डों से लार्वा व जीरों को बड़ा करने के लिये भी प्रयोग में लाया जा सकता है। महाशीर के जीरों व अण्डों के पालन पोषण के लिये इन ट्रफों की गहराई 10-25 से.मी. भी बढ़ाई जा सकती है। ये ट्रफ सीमेंट, एल्युमिनियम के बनाए जा सकते हैं किन्तु फाइबर ग्लास से निर्मित ट्रफों को ही वरीयता दी जाती है। हैचिंग ट्रफों की व्यवस्था एक लाइन में इस प्रकार से होनी चाहिए कि उद्गम स्रोत से जल पहले अथवा प्रधान ट्रफ में आये तत्पश्चात अन्य ट्रफों में बारी-बारी से आये। प्रत्येक ट्रफ में अवमुक्त ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हेतु अतिरिक्त जल की आपूर्ति को उपलब्ध कराया जा सकता है। प्रत्येक ट्रफ का अलग प्रवेश व निकास द्वार होना चाहिए ताकि ट्रफ में पानी की उचित व्यवस्था की जा सके। एक ट्रफ में कम-से-कम पाँच हैंचिग तश्तरियों को जिसमें 20,000-25,000 निषेचित अण्डे आ सकें रखा जा सकता है।
तश्तरियाँ
तश्तरियाँ फाइबर ग्लास/लकड़ी की आयताकार या वर्गाकार इस प्रकार बनी हो सकती है कि प्रत्येक ट्रफ में 4-5 तश्तरियों को रखा जा सके। प्रत्येक हैचिंग तश्तरियों के नीचे नियमित रूप से पानी के संचालन हेतु सिंथेटिक कपड़े का जाल मेस साइज 2 कि.मी. लगा होना चाहिए तथा प्रत्येक तश्तरी की ऊँचाई 3-4 इंच तक होनी चाहिए। तश्तरी की बाहरी लम्बाई-चौड़ाई ऐसी होनी चाहिए कि उनको प्रत्येक ट्रफ की लम्बाई के साथ एक सीध में रखा जा सके। प्रत्येश तश्तरी में 4000-5000 निशेचित अण्डों को रखने की क्षमता होनी चाहिए।
नर्सरी तालाब
नर्सरी तालाब हैचरी का एक अन्य प्रमुख अंग है। जिसका प्रयोग महाशीर के पूर्व-अविकसित जीरों को पालने के लिये शुरुआती भोजन देने के लिये किया जाता है। इन तालाबों का आकार-प्रकार भिन्न हो सकता है किन्तु ये अधिक गहरे नहीं होने चाहिए। छोटी महाशीर का सफल पालन उथले तालाबों में सम्भव हो सकता है। आयताकार नर्सरी तालाबों का आकार 2.0×0.5×0.6 मी. या 2.0×0.7×0.60 मी. तथा गोलाकार तालाबों का 2.2×0.75 या 0.60 मी व्यास हो सकता है। फाइबर ग्लास के उचित प्रवेश व निकास द्वार युक्त तालाबों के प्रयोग को वरीयता दी जा सकता है।
जीरा तालाब/टैंक
महाशीर अंगुलिकाओं के पालन पोषण के लिये नर्सरी तालाबों में पाले गए विकसित जीरों को निकालकर फार्म क्षेत्र में मिट्टी के तालाबों में स्थान्तरित किया जाता है। इन जीरों के तालाबों/टैंकों के निर्माण में डामरीकरण, सीमेंट अथवा फाइबर ग्लास का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें पानी को निरन्तर बदलने की सुविधा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इसमें पानी के प्रवाह की दर 2-3 ली/मिनट हो तथा क्षमता 1000 मी होनी चाहिए।
सहायक सुविधाएँ
हैचरी में अण्डों के उद्भवन भण्डार सामग्री के पालन पोषण के अतिरिक्त विभिन्न विश्लेषण एवं हैचरी कार्य के संचालन के लिये एक प्रयोगशाला तथा हैचरी उपकरणों को रखने के लिये एक भण्डार का होना भी नितान्त आवश्यक है।
अण्ड जनन के समय तैयार मादा महाशीर की परिपक्वता का अन्दाज उसके कोमल पेट को छूकर, गुहा (एैनस) का गुलाबी रंग देखकर व इसके गर्भाशय पर हल्का दबाव देकर लगाया जा सकता है कि वह अण्डे देने के लिये तैयार है या नहीं। न मछली में इसके गुहा के पास जब हल्का दबाव दिया जाता है तो शुक्र रस (मिल्ट) का तेज प्रवाह इसके परिपक्व होने की पुष्टि करता है।
प्रजनन तकनीकियाँ
प्रजनकों का संग्रह
प्रजनक मछलियाँ प्रजननकाल में नदियों, धाराओं, झीलों व जलाशयों में तेज गति से जाती हुई नजर आती हैं और इनको फाँसा जाल से पकड़ा जाता है। प्रत्येक मछली को जाल से सावधानीपूर्वक निकाला जाना चाहिए ताकि उसको कोई चोट आदि न लगे। अण्डे देते समय गहरी झीलों व जलाशयों में जाल को मुख्य भोजन द्वार पर लगाना चाहिए। जाल में फँसे महाशीर के प्रत्येक बच्चे की नर व मादा के रूप में पहचान कर उसे एक अलग कंटेनर में रखा जाना चाहिए। तालाबों में पाले गए प्रजनकों के सम्बन्ध में दिन के शुरुती घंटों में अण्डे लेने की प्रक्रिया से पूर्व लिंगों को अलग किया जाना चाहिए। अण्ड दोहन के पश्चात प्रजनकों को वापस पौंड में 5 प्रतिशत की दर से Kmno4 के घोल में उचित तरीके डालकर छोड़ देना चाहिए।
अण्ड दोहन प्रक्रिया
निषेचन एवं उर्वरण हेतु केवल महाशीर के जीवित प्रजनकों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। जब वे जाल में फँसे हुए हों तो परिपक्व प्रजनकों से अण्डों को तुरन्त निकाल दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें कोई नुकसान न पहुँचे। आमतौर पर मछलियों से अण्डों का दोहन उर्वरण ‘शुष्क विधि’ के द्वारा किया जाता है। इसमें अण्डों का दोहन एक सूखे पात्र या बेसिन में किया जाता है। इन अण्डों का कृत्रिम निषेचन या तो दो पुरूष विधि या फिर किसी अनुभवी पुरूष द्वारा किया जाता है। पूर्णतः परिपक्व मछली या प्रजनक के पेट पर हल्के से दबाकर अण्डे की एक धारा निकलती है। इस प्रक्रिया को अनेक बार तब तक दोहराया जाता है जब तक परिपक्व अण्डे पूरी तरह बाहर न हीं निकल जाते। कभी-कभार अण्ड दोहन के समय अण्डों के साथ कुछ रक्त भी आ जाता है जो कुछ अण्डों के अपरिपक्व होने, अधिक दबाव डालने आदि के कारण हो सकता है। इसके पश्चात अण्डों का दोहन तुरन्त बन्द कर देना चाहिए। महाशीर के अण्डे का रंग हल्के पीले से लेकर चमकीले नारंगी रंग का तथा उसका व्यास 2.5 से 3.5 मि.मी. होता है सामान्यतः का रंगीनपन मछली के आवास स्थलों को सूचित करता है। ताजे दोहित अण्डे प्राकृतिक रूप से तब तक चिपचिपे होते हैं जब तक कि वे पानी में रहकर कठोर नहीं हो जाते।
अण्डों का निषेचन
अण्डों को दोहने के पश्चात समान कार्य विधि से नर मछली का शुक्र रस निकाला जाता है। 2-3 मादाओं से निकाले गए अण्डों की पर्याप्त मात्रा के निषेचन के लिये एक चम्मच शुक्र रस पर्याप्त होता है। दोनों लिंगों के उत्पादों के मिश्रण के पश्चात उनको निषेचन के लिये तुरन्त एक स्थान पर रखा जाता है। पात्र के अन्दर अण्डों को सूर्य की प्रत्यक्ष किरणों से उचित प्रकार ढँक कर रखा जाना चाहिए और कुछ समय के लिये उसको हिलाना-ढुलाना नहीं चाहिए। अण्डों को पानी से 30-40 मिनट तक कठोर होने के लिये छोड़ देना चाहिए। इसके पश्चात बार-बार धोने के उपरान्त अतिरिक्त शुक्र रस और बाध्य पदार्थ धुल जाते हैं। पानी में कठोरीकरण के पश्चात निषेचित अण्डे 3.5-4.0 मि.मी. तक के हो जाते हैं। निषेचिकरण दर का मूल्यांकन ‘एसिटिक ऐसिड विधि’ के द्वारा किया जाता है तथा कठोरीकृत अण्डों को 5 प्रतिशत ग्लेशियल एसिटिक एसिड के मिश्रण में 24 घण्टे के लिये रख दिया जाता है। अकुंरक्षम अण्डे पारदर्शी हो जाते हैं जबकि अनिषेचित अण्डे कभी भी पारभाषी हो सकते हैं। परिपक्व प्रजनकों का उद्भवन करने के लिये उनका रख-रखाव उचित प्रकार से किया जाना चाहिए ताकि 90 प्रतिशत से अधिक निषेचन हो सके।
अण्डों का परिमाणन एवं उद्भवन
हैचरी में निषेचित अण्डों की कुल संख्या के रख-रखाव तथा विभिन्न स्तरों पर उनकी उत्तरजीवितता व परिमाणन के मूल्यांकन हेतु उनका एक लेखा तैयार कर लिया जाता है। महाशीर के सम्बन्ध में इसके लिये आयतीन और भारमितीय दोनों प्रकार की पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतः सुनहरी महाशीर के अण्डों की संख्याओं की मात्रा प्रति लीटर 35-60 तथा भार 60-100 अण्डे/ग्राम के मध्य होता है। अण्डों के कठोरीकरण की प्रक्रिया के पूर्ण होने तथा निषेचित अण्डों का संख्यात्मक मूल्यांकन करने के पश्चात उनको हैचरी में सेने, उद्भवन एवं पालन पोषण के लिये हस्तान्तरित किया जाता है। हैचरी के अन्दर निषेचित अण्डों को सूर्य की सीधी किरणों से बचाकर उचित प्रकार से सुरक्षित रखना चाहिए। इन निषेचित अण्डों को पर्याप्त ऑक्सीजन युक्त (7.5-9.0 मिग्रा./लीटर) साफ व ताजे पानी की निरन्तर आपूर्ति में उद्भिद् किया जाता है। महाशीर के अण्डों के उद्भवन के लिये जल का तापमान 20-25 डिग्री से.ग्रे. अधिक सुविधाजनक रहता है। हैचरी के अनुकूलतम वातावरण में 20-25 डिग्री से.ग्रे. पर उद्भवन तथा 10-12 दिनों में 80-95 घंटों में अण्डपीत का पूर्ण अवशोषण हो जाता है।
अण्डों एवं जीरों का हवाई परिवहन
सुदूरवर्ती क्षेत्रों में महाशीर के बीजों का सुगमतापूर्वक वितरण एक गिली रूई में उसके अण्डों को रखकर हवाई परिवहन के द्वारा किया जाता है। पानी में कठोरीकरण प्रक्रिया के पश्चात अण्डों को गीली रूई में 2-3 परतों में सावधानीपूर्वक प्लास्टिक के बक्से में पाँक्तिबद्ध रखा जाता है। अण्डों को सेने का समय कम-से-कम 80 घंटों का होता है, जो लम्बी दूरी के लिये अण्डों के परिवहन हेतु पर्याप्त होता है। अण्डों को सेने का कार्य सामान्य प्रक्रिया के द्वारा किया जाता है।
खाली आँतों वाली मछली भरी आँतों की अपेक्षा ऑक्सीजन का उपभोग कम करती है। परिवहन के लिये पाचन के दौरान उत्पादित खराब पानी, अमोनिया, यूरिया, आदि का प्रयोग किया जाता है। परिवहन से पूर्व मछलियों को अत्यधिक तनाव का अभ्यस्थ हो जाना चाहिए। मत्स्य परिवहन के लिये विभिन्न आकार-प्रकार के प्लास्टिक बैगों अथवा कंटेनरों का जो कि पी.वी.सी. फाइबर ग्लास, लोहे या एल्युमिनियम आदि से निर्मित हों को प्रयोग में लाना चाहिए। अनुकूलन एवं परिवहन का समय बहुत अधिक लम्बा हो तो मछलियों को संक्रमण से बचाने के लिये 20-40 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी में प्रतिरोधी (एंटीबायोटिक) दवाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। 0.05-03 प्रतिशत कीचन साल्ट के प्रयोग द्वारा परिवहन के दौरान मछलियों में तनाव संवेदनशीलता और क्रियाशीलता कम हो जाती है। परिवहन के दौरान आवश्यकता से अधिक अर्थात ओवर लोडिंग से बचना चाहिए। परिवहन के पश्चात मछलियों को छोड़ते समय पानी की गुणवत्ता और तापक्रम का समान होना बहुत आवश्यक है।
महाशीर का पालन पोषण (रैंचिंग)
रैंचिंग अर्थात पालन पोषण को ऐसी मत्स्य पालन प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें तरूण महाशीरों को पानी में असुरक्षित भोजन पर छोड़ दिया जाता है तथा जहाँ उसका आकार-प्रकार बाजार में बेचने योग्य हो जाता है। इस प्रकार रैंचिंग मछलियों के पुनः प्रसार की प्रभावपूर्ण विधि है। रैंचिंग के सम्बन्ध में बिल्कुल भी भ्रान्त होने की आवश्यकता नहीं है कि मत्स्य वृद्धि या प्रत्यारोपण अथवा इसके भण्डार में वृद्धि को क्या कहा जाता है। रैंचिंग का अर्थ है नदियों और जलाशयों में जीरों, अण्डों व अंगुलिकाओं को उन स्थानों पर छोड़ा जाना, जहाँ पर वयस्क मछलियाँ उनके अण्डों के विस्थापन के समय उन तक न पहुँच सके अथवा जो पालन-पोषण हेतु उपयुक्त क्षेत्रों को उपलब्ध करा सके। रैंचिंग संकट ग्रस्त मछलियों के समयबद्ध और आशाजनक रूप से पुर्नवासन का कार्य हो सकता है।
महाशीर के लिये उपयुक्त हैचरी तकनीकियों का अभाव तथा इसके बीजों के पालन की प्रमुख समस्या महाशीर पालन के कार्य में एक बड़ी बाधा है। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के शीत जल अनुसन्धान निदेशालय ने सुनहरी महाशीर के बीज उत्पादन की पहल की है और उसके बीजों को भारत सहित विश्व के अन्य देशों की नदियों धाराओं और जलाशयों में संचयित किया है ताकि महाशीर मत्स्य उत्पादन में वृद्धि हो, साथ ही इस निदेशालय ने इस प्रजाति के जननद्रव्य को समाप्त होने से बचाने के लिये इसे सुरक्षित भी रखा है।
हैचरी में उत्पादित बीजों को पश्चिम बंगाल, सिक्किम, व हरियाणा राज्य के मत्स्य विभागों के साथ-साथ अन्य संस्थानों को भी हस्तान्तरित किया जाता है। इस प्रजाति के बीजों को पापुआ न्यू गिनी की रामू तथा स्पिक नदियों में भी संचयित किया गया है। वर्ष 2001 में निदेशालय ने इसके बीजों को उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्र की श्यामलाताल झील में संचयित किया जहाँ आज के पर्याप्त मात्रा में फल-फूल रही है और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बन रही है। इसी प्रकार के क्रार्यक्रमों को उन सभी क्षेत्रों में भी आयोजित किया जाये जहाँ महाशीर पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं।
मत्स्य आखेट एवं पर्यटन
महाशीर एशिया की प्रमुख आखेट योग्य मछली है। एप्टले ने कहा है ‘महा’ अर्थात बड़ा तथा सीर अर्थात सीर अथवा शेर। सभी मत्स्य पालकों के लिये महाशीर को एक प्रतिष्ठा के रूप में माना जाता है। देश और विदेश से लाखों पर्यटक भारतवर्ष के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने आते हैं तथा यहाँ की पर्वतीय नदियों, धाराओं और झीलों में मत्स्य आखेट का आनन्द लेते हैं। वास्तव में समाज के सभी सामाजिक आर्थिक वर्ग तथा सभी आयु वर्ग के लोग मत्स्य आखेट का आनन्द उठाते हैं एवं आज के दिन यह मनोरंजन का प्रमुख आश्रय-स्थल बन चुका है। पर्यटकों के परिवारों के अतिरिक्त इन आखेट-स्थलों के आस-पास रहने वाले स्थानीय लोग मनोरंजन के साथ-साथ भोजन के लिये भी मछलियों का आखेट करते हैं। पर्वतीय क्षेत्र के जलस्रोतों में रहने वाली मछलियों में महाशीर मछली सबसे अधिक आखेट-योग्य मछली है, क्योंकि इसकी खूबियाँ शिकारियों को खूब रिझाती है। भारत में महाशीर का शिकार अपेक्षाकृत रूप से धनाढ्य वर्ग के परिवारों तथा यहाँ घूमने के उद्देश्य से आने वाले पर्यटकों द्वारा ही किया जाता है। यद्यपि हिमालय की नदियों में शिकार योग्य मछलियों के सतत उत्पादन की अपार सम्भावनाएँ लेकिन अब इनका पर्याप्त मात्रा में सन्दोहन किया जा चुका है। बाह्य अथवा निम्न हिमालय क्षेत्र में टेढ़ी-मेढ़ी बहने वाली नदियाँ/धाराएँ सुनहरी महाशीर का अच्छा स्रोत हैं तथा पिछली शताब्दियों में आखेटकों ने इन क्षेत्रों से बड़ी-बड़ी मछलियाँ पकड़ी हैं। अतः आखेट आदि के उद्देश्यों के लिये इन जल क्षेत्रों में महाशीर की वृद्धि हेतु ‘महाशीर जलस्रोतों’ को विकसित करना होगा। हिमलाय की नदियों/धाराओं में व्यास तथा उसके मैदानी क्षेत्र की सहायक नदियों तथा गिरी नदी (हि.प्र.) ताजे वाला (हरियाणा) से डाक पत्थर (उत्तराखण्ड) के मध्य यमुना नदी, टिहरी से ऋषिकेष के मध्य तथा इसकी सहायक नदियों, काली नदी, सरयू, पूर्वी व पश्चिमी रामगंगा, व पश्चिमी नयार, सौंग, कोसी, (समस्त उत्तराखण्ड) चेनाब उसकी सहायक नदियों तवी, ईखनी नाला एवं अंजी (जम्मू एवं कश्मीर) तथा जिया भोरेली, दिवांग, सुवन सिरी मानस (उत्तर-पूर्वी क्षेत्र) आदि नदियाँ महाशीर के सम्बन्ध में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त कुमाऊँ की सभी झीलों (भीमताल, सातताल, नौकुचियाताल, गरूणताल, खुर्पाताल) का महाशीर पालन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है तथा यहाँ पर शिकारमाही अथवा आखेट की अपार सम्भावनाएँ भी हैं किन्तु अधिकांशतः इन जलस्रोतों में आखेट प्रिय लोग शिकार नहीं करते। अध्ययन से पता चला है कि कुमाऊँ की नदियों में कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें आखेट स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है ताकि इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिले और इस क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके।
मत्स्य आखेट को बढ़ावा देने के लिये सुझाव निम्न प्रकार हैं-
- महाशीर हेतु संरक्षण कार्य एवं सम्बद्ध मात्स्यिकी का निर्माण तथा हिमालयी संसाधनों में इन देशी मत्स्य प्रजातियों के ह्रास के कारणों की जाँच।
- इन जल संसाधनों में आखेट-योग्य मछलियों की उपलब्धता हेतु इन क्षेत्रों में मत्स्य बीज उत्पादन इकाइयों एवं हैचरियों की स्थापना।
- आखेटकों और पर्यटकों के अधिकाधिक प्रलोभन हेतु सड़कों के किनारों पर आखेटक स्थलों, विश्राम शिविरों, कुटियाओं आदि का निर्माण।
- सुदुरवर्ती क्षेत्रों में मात्स्यिकी के विभिन्न पहलूओं से सम्बन्धित गहन प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन ताकि स्थानीय जल भी मत्स्य पालन से लाभान्वित हो सके।
- मत्स्य नियमों एवं अधिनियमों का सख्ती से पालन ताकि संकटग्रस्त प्रजाति जैसे महाशीर पालन में वृद्धि की जा सके।
- मत्स्य आखेट प्रतियोगिताओं का आयोजन तथा उसके व्यापक प्रचार-प्रसार हेतु समाचार पत्र, मीडिया, ऑडियो वीडियो आदि का इस्तेमाल ताकि इन क्षेत्रों में अधिक-से-अधिक पर्यटक एवं आखेटक लोग भ्रमण कर सकें।
महाशीर पर अनुसन्धान एवं संरक्षण
यह देखने में आया है कि पर्यावरणीय प्रदूषण एवं मानवीय लालच महाशीर पालन में तेजी से ह्रास के लिये उत्तरदायी हैं। मानवीय जनसंख्या में घातक वृद्धि जैवविविधता के ह्रास एवं प्राकृतिक जलस्रोतों की कमी के मुख्य कारक हैं। महाशीर की समाप्ति के सम्बम्ध में पहले बहुत कुछ कहा जा चुका है। महाशीर भण्डारों की समाप्ति के लिये उत्तरदायी कारक है:
1. जलीय प्रणालियों की पारिस्थितिकी अवस्था में गिरावट
2. तरुण महाशीर एवं प्रजनक भण्डारों का अन्धाधुन्ध सन्दोहन
3. नदी घाटी परियोजनाओं का प्रभाव
4. औद्योगिक एवं मानवीय प्रदूषण
5. विस्फोटकों, जहरीले रसायनों का प्रयोग एवं पानी में करंट छोड़कर शिकार
6. विदेशी प्रजातियों का समावेश
7. संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव
महाशीर के ह्रास के अन्य कारणों में प्रमुख हैं
इनके आवासों में कमी, संख्या में ह्रास, उर्वरता में कमी, मादाओं की मृत्यु तथा जानकारी का अभाव आदि है। इस संकटग्रस्त महाशीर के संरक्षण एवं पुनर्वासन की आवश्यकता है। देश में इसके संरक्षण और प्रचार के लिये कुछ अनुसन्धानात्मक और प्रबन्धात्मक सुझाव दिये गए हैं। अवैध प्रग्रहण तथा जाल चलाने के गलत तरीकों व दोषपूर्ण विधियों पर कठोरता से प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। मछली के एक स्थान से दूसरे स्थान को अर्थात विस्थापन के समय बाधाओं को पार करने की सुगमता के लिये उचित उपकरणों का विकास किया जाना चाहिए। तरुण एवं व्यस्क महाशीर के उपलब्ध संसाधनों का मानचित्रण एवं इस हेतु व्यापक सर्वेक्षण की आवश्यकता पर जोर दिया जाये। बेमौसम महाशीर के व्यावसायिक प्रग्रहण पर प्रतिबन्ध लगाया जाये। महाशीर हेतु उचित अभयारण्यों की पहचान एवं विकास पर ध्यान दिया जाय। प्राकृतिक जलस्रोतों में माहशीर के आवास-स्थलों के आस-पास आधुनिक हैचरियों के विकास पर जोर दिया जाये। महाशीर प्रजनन की तकनीकों को मानकीकृत किया जाये, साथ ही उसके सघन भण्डार तकनीकियों को भी विकसित किया जाये। महाशीर के विभिन्न आयु स्तरों पर उसके लिये कृत्रिम पोषक आहारों का निर्माण किया जाये। महाशीर में तेजी से वृद्धि एवं उसके अच्छे स्वास्थ्य के लिये चयनित प्रजनन को अपनाया जाये। जलस्रोतों में प्राकृतिक प्रजनन एवं विस्थापन के दौरान प्रजनकों के प्रजनन स्थलों के समीप ही केजों (पिंजरों) एवं बाड़ों को लगाए जाये। महाशीर के प्रजनन स्थलों से बालू, पत्थरों, कंकड़ों आदि के निष्कासन पर प्रतिबन्ध लगाया जाये। गेहूँ/चावल की सभी मिलें बिल्कुल व्यवस्थित रूप से होनी चाहिए तथा उनमें उचित प्रकार का मेस साइज का जाल लगा हुआ होना चाहिए ताकि महाशीर के जीरा और अंगुलिकाएँ पानी से होते हुए फिड मील की ओर न जा सके। नदियों/धाराओं में पानी के सूखने के पूर्व ही तरुण महाशीरों को एकत्र कर लेना चाहिए। महाशीर के लिये वैज्ञानिक आधार पर छोटे-बड़े प्रजनन स्थलों की स्थापना एवं विकास किया जाये। महाशीर की सुरक्षा के लिये सघन एवं व्यापक कार्यक्रमों के आयोजन पर जोर दिया जाये तथा उन प्राकृतिक जलस्रोतों में बीजों का संचयन करने के प्रयास किये जाएँ जहाँ पर उचित प्रजनन स्थलों व नर्सरी पालन की सुविधा हो और मछलियाँ स्वयं अण्डे देने में समर्थ हों।
निष्कर्ष
अन्त में, महाशीर जो काफी लम्बे समय से मछुआरों के लिये एक संघर्षशील प्रतिद्वन्दी के रूप में आनन्द प्रदान कर रही थी वह अब वर्तमान समय में झीलों में अपने अस्तित्व मात्र के लिये संघर्षशील है। इस प्राणी को नष्ट होने से बचाने के लिये वैज्ञानिक समुदाय के साथ-साथ योजनाकारों को भी सही दिशा में ईमानदारी से प्रयास करने होंगे। एक आखेट योग्य तथा खेती योग्य मछली के रूप में इस प्रजाति के संरक्षण हेतु आगे और अनुसन्धान व योजनाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस वर्ग की प्रजातियों पर पूर्व के कार्यकर्ताओं विशेषकर गैर भारतीय आखेटकों और मत्स्य जीव-वैज्ञानिकों द्वारा किये गए विस्तृत प्रयासों के प्रति हम कृतज्ञ हैं। यह उनका ही अध्ययन था जिसके परिणामस्वरूप भारत में महाशीर अनुसन्धान की मजबूत नींव रखी गई। शीत जल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय (भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद) भीमताल ने इस दिशा में प्रमुख भूमिका अदा की है।
महाशीर का पोषण
किसी भी जीवित प्राणी के लिये पौष्टिक आहार एक अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह ऊर्जा का स्रोत है जिसमें वृद्धि एवं विकास सहित विभिन्न प्रकार की शारीरिक प्रक्रियाएँ आधारित हैं। प्रजातियों के पौष्टिक आहार को जानकारी सामान्यतः उनके पालन-पोषण अन्य प्राणियों के साथ उनके सह-सम्बन्ध तथा पोषणिक आवश्यकताओं पर अध्ययन आदि के लिये जरूरी है।
जलीय प्राणियों के लिये भोजन एवं पोषण बहुत आवश्यक प्रक्रिया है। महाशीर के भोजन एवं पोषण की जानकारी इस प्रजाति के पालन हेतु बहुत महत्त्वपूर्ण है। भोजन की आपूर्ति, गुणवत्ता एवं मात्रा सहित वृद्धि को प्रत्यक्ष रूप से संचालित करती है। भोजन आदतों के अध्ययन से एक विशेष प्रकार की प्रजाति की भोजन को नियत व सामान्य रूप से पसन्द करने के बारे में जानकारी मिलती है तथा इस जानकारी को पालन पोषण के दौरान सही समय में उचित प्रकार के भोजन को उपलब्ध कराते समय प्रयोग में लाया जा सकता है। भोज्य पदार्थों में पोषण तत्व ऊर्जा के मुख्य स्रोत तथा खनिज वृद्धि पुनर्उत्पादन एवं रख-रखाव के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
पोषण तत्व-प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड, विटामिन तथा खनिज आदि जो अन्य प्राणियों के लिये जरूरी है वह मछली के लिये भी एक ही है। इन तत्वों की माँग कृत्रिम मत्स्य आहार के निर्माण एवं चयन के लिये आधार बनाता है। बेहतर उत्पादन के लिये कृत्रिम आहार में प्रोटीन, लिपिड, कार्बोहाइड्रेट, वसीय अम्ल, विटामिन्स, खनिज, आदि का सन्तुलन आम बात है। कृत्रिम आहार को आवश्यक पोषक तत्वों से युक्त बिना किसी एंटी न्यूट्रीशनल तत्वों से तैयार किया जाता है। मत्स्य पालन में भोजन लागत सबसे अधिक संचालन लागत 50-60 प्रतिशत होती है। पादप और प्राणी मूल के दोनों ही जीवों के लिये सघन मत्स्य पालन में एक ही भोजन सामग्री की एक किस्म का कृत्रिम आहार निर्माण में प्रयोग किया जाता है। आहार में प्रोटीन की मात्रा और गुणवत्ता मछली की वृद्धि को प्रभावित करती है। मछलियों में वृद्धि के दौरान प्रोटीन का अधिकांश भाग मांस में परिवर्तित हो जाता है। प्रोटीन एक महंगा तत्व है तथा इसलिये यह जैविक-जीवों के लिये एक महंगी वस्तु बनता जा रहा है। आहार के रूप में प्रोटीन की आवश्यकता एक विशेष प्रजाति अथवा वर्ग के लिये अलग-अलग है। आमतौर पर पादप मूल के तत्वों में अनाज सरसों की खली, गेहूँ की भूसी होती है। जैविक मूल के तत्वों के फिश मील, कचरा-मछली तथा केंचुएँ आदि होते हैं।
खाद्य मछली के रूप में आखेट योग्य तथा व्यावसायिक दृष्टिकोण से महाशीर एक बेशकीमती मछली है। अतः इस प्रजाति का विस्तार विभिन्न नदियों, धाराओं तथा पूर्व में म्यांमार से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तथा हिमालय के मध्य पर्वतीय क्षेत्र की झीलों तक हैं। विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों में इस मछली के उत्पादन में कमी आने के कारण मात्स्यिक वैज्ञानिकों का ध्यान इसके पुनर्स्थापना की ओर आकृष्ट हुआ है। इसके पुनर्स्थापना के लिये मुख्य रूप से इसके कृत्रिम प्रजनन की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया। सुनहरी महाशीर के बीज उत्पादन कार्यक्रम में मूल रूप से परिपक्व स्पौनर्स को क्रय करके उपलब्ध कराया गया। सुनहरी महाशीर के बीच उत्पादन कार्यक्रम में मूल रूप से परिपक्व प्रजनकों को उपलब्ध कराना, उनका शुष्क अण्ड दोहन विधि के द्वारा कृत्रिम प्रजनन, उद्भवन तथा अण्डों को सेना, जीरों को जल प्रवाही प्रयोगशाला (हैचरी) में पालन, जीरों को प्रतिपूरक आहार खिलाना, रोगों से मुकाबला करने तथा प्राकृतिक जलस्रोतों अथवा प्रायोगिक तालाबों में जीरों/अंगुलिकाओं को संचयित करना शामिल हैं। इन सबमें मछली को पूरे जीवन चक्र में सभी स्तरों पर आहार खिलाना एक सबसे संकटमय कार्य है। फ्राई स्तर पर उसकी अतिरिक्त देखभाल जरूरी होती है। महाशीर के प्रजनन की प्रक्रिया में 22-24 डिग्री सें.ग्रे. पर उवर्रण के पश्चात उनको 80-96 घंटों तक सेना चाहिए। 10-12 दिनों में अण्डपीत के अवशोषण के पश्चात जीरों को उनके शरीर के भार के बराबर 8-10 प्रतिशत की दर से या तो अण्डे की जर्दी अथवा बकरी के लीवर का अर्क दिन में 6-8 बार दिया जाता है। 15-20 दिनों के पश्चात जब जीरों का आकार 10-12 सेमी. (0.0008-0.010 ग्राम) तक हो जाता है तो उनको दिन में दो बार 10-15 प्रतिशत की दर से 40-45 प्रतिशत प्रोटीन युक्त प्रतिपूरक आहार दिया जाता है।
आहार स्वभाव
महाशीर एक सर्वहारी प्राणी है। यह छोटे-छोटे झींगे, क्रस्टोशियन्स, मोलस्क, कीड़े-मकोड़े, अण्डे, चावल के दाने आदि विभिन्न प्रकार के बीज को खाती है। प्राकृतिक रूप से टौर प्यूटिटौरा के जीरों व अंगुलिकाओं के भोजन में डायटम (46.98 प्रतिशत), सड़े हुए कार्बनिक पदार्थ (22.28 प्रतिशत), हरे शैवाल (13.33 प्रतिशत) कीड़े-मकोड़े (10.27), नील हरित शैवाल (1.35 प्रतिशत), प्रोटोजोआ (0.70 प्रतिशत) तथा मछली (0.41 प्रतिशत) सम्मिलित है। महाशीर के भोजन करने की प्राकृतिक आदतों का ज्ञान इस प्रजाति के लिये प्रतिपूरक आहार के विकास का आधार प्रदान करता है। तालाब के मछली को या तो जीवित भोज्य पदार्थ, मछली, शैवाल, कशेरूक आदि दिया जाता है या फिर कृत्रिम आहार। मत्स्य आहार आमतौर पर पादप उत्पादों, पशुओं द्वारा उत्पादित पदार्थों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों आदि को सम्मिलित किया जाता है।
आहार और आहार विधि
शीत जल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय भीमताल (उत्तराखण्ड) द्वारा सुनहरी की प्रारम्भिक अवस्था में पालन पोषण-हेतु उसके पोषण पर अध्ययन किया गया है।
टौर प्युटिटौरा हेतु आहार (हिमालयन सुनहरी महाशीर)
स्विम अप फ्राई
45 प्रतिशत कच्चा प्रोटीन, 13 प्रतिशत ईथर अर्क तथा 20 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेड युक्त आहार देने पर कुल उत्तरजीविता, भोजन ग्राहय क्षमता, रूपान्तरण अनुपात तथा वृद्धि स्तर बेहतर होता है। हाल ही में शीत जल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय, भीमताल द्वारा लार्वा के पालन पोषण हेतु लार्वा आहार ‘नन्हें महाशीर’ का सफलतापूर्वक निर्माण किया है। यह सलाह दी जाती है कि बेहतर वृद्धि प्राप्त करने के लिये मत्स्य जीरों के आहार में खाद्य अवयवों के रूप में प्रोटीन की आधी मात्रा सम्मिलित करनी चाहिए, शीत जल मत्स्य आहार में लिपिड की मात्रा 10-20 प्रतिशत होने पर बेहतर वृद्धि व उत्तरजीविता प्राप्त होती है। जब युवा महाशीर के विभिन्न पारम्परिक आहार यथा-अण्डे का मिश्रण, बकरी के लीवर का कीमा, चावल की भूसी, सरसों की खली का मिश्रण दिया जाता है तो उत्तरजीविता वृद्धि दर तथा भोजन ग्राह्य क्षमता बेहतर होती है। यद्यपि भेड़ बकरी का लीवर युक्त आहार किफायती नहीं होता है। इसके अतिरिक्त अध्ययन में यह भी पता चला है कि जिन मछलियों को बकरी के लीवर का कीमा युक्त आहार दिया गया उनकी तुलना में महाशीर के प्रारम्भिक अवस्था के जीरों को 40 प्रतिशत प्रोटीन युक्त आहार देने पर उनमें बेहतर वृद्धि तथा भोजन ग्राह्य क्षमता बेहतर थी।
जीरे एवं अंगुलिकाएँ
बेहतर वृद्धि प्रदर्शन, पाचन शक्ति एवं आहार उपयोग के आधार पर प्रजातियों में पोषक तत्वों (40 प्रतिशत प्रोटीन, 15 प्रतिशत लिक्विड व 25 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेड) की आवश्यकता का मूल्यांकन किया गया है। फिश मील पर आधारित व्यवहारिक आहार वृद्धि-प्रदर्शन एवं भोजन ग्राह्य क्षमता के सन्दर्भ में बहुत अच्छा पाया गया। यद्यपि आहार की लागत करने के लिये फिशमील में 10 प्रतिशत हौर्स ग्राम तथा 30 प्रतिशत भूने हुए सोयाबीन को दिया जा सकता है। जीरों को दिन में तीन बार आहार दिया जा सकता है। प्रजाति के बेहतर स्वास्थ्य एवं वृद्धि के लिये साइट्रिक अम्ल प्रोबायटिक तथा इम्यून स्टिमुलैट का प्रयोग किया जा सकता है।
वयस्क महाशीर का भोजन
वयस्क स्तर पर महाशीर के भोजन में 35 प्रतिशत प्रोटीन, 15 प्रतिशत लिपिड व 25 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेटस होना चाहिए। फिश मील, सोयाबीन, गेहूं की भूसी, मूँगफली ऑयल केक, खमीर, सूखा हुआ मलाई रहित दूध, विटामिन्स तथा लवण की सूखी गोलियाँ बनाकर उसके शरीर के भार के बराबर 3-5 प्रतिशत की दर से खिलाया जाता है। भोजन लागत कम करने के लिये तालाब में पैराफाइटन के रूप में प्राकृतिक आहार को कटा हुआ नालीदार बाँस, पी वी सी पाइप आदि का प्रयोग करके बनाया जा सकता है।
महाशीर को पिंजड़ों में पालना
जीरा से अंगुलिका, अंगुलिका से खाने योग्य और खाने योग्य से बाजार में बेचने के स्तर तक की मछली को केजों में पाला जाता है क्योंकि पिजड़ों में चारो तरफ से पानी रहता है और उसमें आॅक्सीजन की पर्याप्त मात्रा रहती है। केज के चारों तरफ मेस साइज का सिंथेटिक जाल लगा होता है, जो लम्बे समय के लिये पानी में अपशिष्टों के अपघटन को रोकता है आमतौर पर पिंजड़े छोटे होते हैं। ताजे पानी की झीलों, जलाशयों में 1 वर्ग मीटर से लेकर 500 वर्ग मीटर तक के केज प्रयोग में लाए जा सकते हैं। कुछ छोटे केज को सघन मत्स्य पालन के लिये बैटरी से भी जोड़ा जा सकता है।
ठण्डे पानी में केजों में मत्स्य पालन क्यों?
वर्तमान में हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में मत्स्य पालन गति प्राप्त कर रहा है। किन्तु इस क्षेत्र में मत्स्य पालन हेतु तालाबों की अल्प उपलब्धता की वजह से यह प्रभावित हो रहा है। दरअसल मत्स्य पालन में तीव्रीकरण का मतलब है अधिक-से-अधिक जल क्षेत्र की आवश्यकता। भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 20500 हेक्टेयर प्राकृतिक झीलें 50000 हेक्टेयर प्राकृतिक तथा मानव निर्मित झीलें एवं 2500 हेक्टेयर खारे पानी की झीलें हैं। जिनमें बड़ी संख्या में शीतजल की देशी व विदेशी प्रजातियाँ वास करती हैं। यहाँ मात्स्यिकी की अपार सम्भावनाएँ हैं। कुमाऊँ की झीलें जैसे- सातताल, भीमताल, एवं नौकुचियाताल में सामान्य उत्पादन क्रमशः 13.4, 9.32 तथा 7.4 किग्रा/हेक्टेयर/वर्ष है, जो कि काफी कम है। इन जलस्रोतों में मत्स्य पालन की अत्यधिक वृद्धि के लिये एक स्वस्थ नियमित तथा सतत संग्रहण की नीति बनानी होगी। वर्तमान में शीतजल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय, भीमताल द्वारा हिमालय की समतापीय झीलों में 100 मि.मी. से कम लम्बाई वाली अंगुलिकाओं को केजों में पालने की पहल की गई है।
केजों में मत्स्य पालन के लिये स्थल का चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। स्थलों के चयन में महत्त्वपूर्ण बिन्दू निम्नलिखित हैं-
1. पानी के कौलम की गहराई कम-से-कम 5 मीटर की दूरी पर होनी चाहिए।
2. पानी की गुणवत्ता तथा परिसंचरण अच्छा होना चाहिए तथा स्थानीय और औद्योगिक प्रदूषण से मुक्त होना चाहिए।
3. बड़े और मध्यम आकार के जलाशयों तथा स्थलों को तेज हवाओं से बचाव के लिये आश्रय खण्ड में होना चाहिए, जबकि छोटे जलाशयों में केजों को तेज बहाव से बचाने के लिये क्षेत्र में लंगर डाले जाने चाहिए।
4. वे घास चरने वाले पशुओं तथा स्थानीय जनों से बिल्कुल सुरक्षित होने चाहिए।
5. जल परिवहन तथा भूमि का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
6. वे शैवाल पुष्पों से रहित होने चाहिए।
7. वे जलीय माइक्रोफाइट्स से मुक्त होने चाहिए तथा वहाँ पर खरपतवार मछलियाँ की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए। ताकि इनसे वहाँ पर ऑक्सीजन की मात्रा कम न होने पाये।
8. क्षेत्र पूर्णतः सुरक्षित होना चाहिए।
केजों में मत्स्य पालन के लाभ
ताजे पानी के प्राकृतिक जलस्रोतों विशेषकर झीलों और तालाबों के लिये केजों में मत्स्य पालन सुविधाजनक होता है। इसके प्रयोग में सामान्य तकनीकी तथा केजों के निर्माण के लिये स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग किया जाता है तथा साथ ही यह आर्थिक रूप से किफायती तथा पर्यावरण के अनुकूल होता है। केजों में मत्स्य पालन करने पर भक्षण अर्थात दूसरे पशु-पक्षी केजों की मछलियों का भक्षण नहीं कर पाते हैं। केजों में अंगुलिकाओं की उत्तरजीविता दर बहुत अधिक रहती है। इसमें दैनिक रख-रखाव तथा संचालन आदि के लिये मानवशक्ति का प्रभावी प्रयोग होता है। केजों में मत्स्य उत्पादन बहुत अच्छा, तीव्र, वास्तविक और भली भाँति होता है तथा उत्पादन लागत बहुत कम आती है।
केजों में मत्स्य पालन की कठिनाइयाँ
यदि केजों को सावधानीपूर्वक तथा सही तरीके से नहीं लगाया जाये तो इसके कुछ दुष्परिणाम भी हैं। केजों को जल की ऊपरी सतह पर रखा जाता है। यदि इसे सही स्थिति में ठीक से नहीं लगाया जाये तो यह नौ परिवहन को बाधित करता है तथा झील और जलाशयों की प्राकृतिक सुन्दरता को कम करता है। गलत तरीके से रखे गए केजों के कारण बिना खाये हुए आहार मछलियों के मल आदि से जल प्रदूषण होता है। गर्मियों के महीने में केजों तेज हवाओं और तेज बहाव के कारण क्षतिग्रस्त हो सकते हैं किन्तु केजों के आन्तरिक द्वार में तेज बहाव को रोकने के लिये एक दूसरे से उनको बैटरी से संयोजित करके उन्हें क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है।
मत्स्य भण्डार वृद्धि
मत्स्य भण्डार, प्रबन्धन की एक ऐसी पद्धति है जिसमें संवर्द्धित मछलियों को उनकी वृद्धि, संरक्षण पुनर्संचयन आदि के लिये रखा जाता है। सफलतापूर्वक भण्डारण के लिये जिस मछली का भण्डारण किया जाना होता है उसकी जैविकीय परिस्थितिकी को समझना अति आवश्यक है, ताकि पर्यावरण और आवासीय आवश्यकताओं का मूल्यांकन किया जा सके। सुचारू रूप से पालन-पोषण कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये स्वास्थ्य प्रबन्धन एक जरूरी प्राथमिकता है।
केजों के द्वारा भण्डार में वृद्धि
इस दिशा में शीतजल मात्स्यिकी अनुसन्धान निदेशालय भीमताल ने सुनहरी महाशीर के संरक्षण तथा संवर्धन के उद्देश्य से इसके बीजों का निरन्तर उत्पादन, प्रजनन तथा पालन की नवीन तकनीकियों को विकसित किया। निदेशालय द्वारा असम, सिक्किम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड सहित विभिन्न पर्वतीय राज्यों की शीत जलीय झीलों में सुनहरी माहशीर की अंगुलिकाओं का संचयन किया गया है। अपने भण्डार वृद्धि कार्यक्रम के अन्तर्गत राज्य मत्स्य विभाग मध्य प्रदेश को अपने जलस्रोतों में सुनहरी महाशीर के बीजों को संचयित करने के लिये निदेशालय द्वारा इसके बीजों को वितरित किया गया।
प्रकृतिक जलस्रोतों जैसे-झीलों और जलाशयों में मत्स्य उत्पादन की वृद्धि एक महत्त्वपूर्ण चिन्ता का विषय है। अतः इस दिशा में निदेशालय द्वारा प्रभावकारी कदम उठाए गए हैं।