जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित होंगे सुन्दरबन के लोग

Submitted by RuralWater on Sat, 08/08/2015 - 11:45
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डाउन टू अर्थ
बंगाल की खाड़ी के डेल्टा क्षेत्र में आलिया, सिड्र, नरगिस और हुदहुद जैसे तूफान ने तबाही मचाई है। आलिया ने इस इलाके में दस लाख लोगों को प्रभावित किया और 1300 किलोमीटर लम्बे पूर्वी तटबन्ध को तोड़ दिया और घर बार खोने वाले लोगों पर कर्ज का भारी बोझ डाल दिया। आलिया के बाद आईबीडी क्षेत्रों से उन समुदायों के स्वस्थ लोगों का पलायन हुआ जो बुरी तरह प्रभावित हुए थे। पिछले सात सालों से भारत और बांग्लादेश के डेल्टा वाले क्षेत्र तूफान और साइक्लोन का उत्तरोत्तर सामना कर रहे हैं।

निस्सन्देह, जलवायु परिवर्तन की परिघटना 21वीं सदी के वैश्विक समुदाय के लिये प्रमुख चिन्ता का विषय बन गई है। वैज्ञानिक साक्ष्यों ने सन्देह से परे जाकर यह साबित किया है कि पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रान्ति के बाद से पर्यावरण में अप्रत्याशित परिवर्तन के लिये मानव की भूमिका अहम है।

एक तरफ जलवायु संकट और उसे कम करने व अपनाए जाने वाले उपायों पर लम्बी बहस चल रही है वहीं, ग्रीन हाउस गैसों (सीएचजी) विशेष तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर भी चर्चा जारी है। दक्षिणी गोलार्ध के वे देश जिन्हें उत्तर के देशों द्वारा लम्बे समय तक औपनिवेशिक शोषण का शिकार होना पड़ा है उनका कहना है कि समस्या के हल के उपाय का खर्च उत्तर के देशों को उठाना चाहिए।

लेकिन यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के लिये कांफ्रेस ऑफ पार्टीज की बैठकों के बाद भी कोई स्वीकार्य समाधान नहीं निकल पाया है। इस बीच दुनिया भर के लोग गर्म हवाओं, साइक्लोन और तूफान, बाढ़, पहाड़ों के गिरने और सूखे के रूप में प्रकृति का प्रकोप झेल रहे हैं। इनमें सबसे बुरी तरह से प्रभावित और आशंकित वे लोग हैं जो डेल्टा में रह रहे हैं।

भारत और बांग्लादेश के बीच दुनिया का सबसे बड़ा डेल्टा है। इसे गंगा- मेघना डेल्टा (जीएमबी) कहते हैं। सुन्दरबन के भारतीय हिस्से में (जिसे बांग्ला डेल्टा या संक्षेप में आईबीडी भी कहा जाता है) और बांग्लादेश सुन्दरबन डेल्टा में लाखों लोग पिछले सात सालों से तेज तूफानों और साइक्लोन का सामना कर रहे हैं।

बंगाल की खाड़ी के डेल्टा क्षेत्र में आलिया, सिड्र, नरगिस और हुदहुद जैसे तूफान ने तबाही मचाई है। आलिया ने इस इलाके में दस लाख लोगों को प्रभावित किया और 1300 किलोमीटर लम्बे पूर्वी तटबन्ध को तोड़ दिया और घर बार खोने वाले लोगों पर कर्ज का भारी बोझ डाल दिया। आलिया के बाद आईबीडी क्षेत्रों से उन समुदायों के स्वस्थ लोगों का पलायन हुआ जो बुरी तरह प्रभावित हुए थे। एक अध्ययन के पायलट सर्वे में पता चला है कि न सिर्फ इस इलाके के लोग पश्चिम बंगाल के करीबी शहरी क्षेत्रों में भाग कर गए बल्कि वे सुदूर तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और अण्डमान निकोबार समूह में भी चले गए हैं।

इन पलायन करने वालों का पारिवारिक जीवन तबाह हो गया और उनका भविष्य अनिश्चित है। वे अपने इलाके में या तो किसानी करते थे या मछली मारते थे इसलिये उन्हें दूसरी जगहों पर निर्माण क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूरी के अलावा कोई और काम नहीं मिलता। राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से इन लोगों को उनके घर के आसपास आजीविका देने की कोई पहल नहीं चल रही है। इस तरह वे पर्यावरणीय शरणार्थी हो गए हैं। इस शब्द को अभी तक संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त, यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑन ह्यूमन राइट्स या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और पश्चिम बंगाल राज्य मानवाधिकार आयोग की तरफ से मान्यता नहीं मिली है।

जलवायु से होने वाले लोगों के विस्थापन को शुरू में भी आईबीडी इलाके में द्वीपों के डूबने के कारण दर्ज किया गया था। इस गणना के अनुसार तीन दशकों के भीतर कम-से-कम 30,000 लोग अपना घर बार छोड़ गए या घोरामारा और लोहाचारा द्वीपों को छोड़कर सुन्दरबन के सागर द्वीपों पर बस गए। वे लोग शरणार्थी कालोनियों में रह रहे हैं। जो लोग शुरू में अपना घर बार छोड़कर आए वे भाग्यशाली थे कि उन्हें ज्यादा जमीनें मिलीं और जो लोग बाद में आए उन्हें कम जमीनें मिलीं।

एक अध्ययन में बताया गया है कि यह लोग संविधान में दिये गए हर मौलिक अधिकार से वंचित हैं। न उनके पास मुफ्त शिक्षा का अधिकार है, स्वास्थ्य का अधिकार है, न काम का अधिकार है और न ही खाद्य का अधिकार है। अगर दुनिया जागकर जलवायु परिवर्तन पर सामूहिक कार्रवाई नहीं करती तो इन शरणार्थियों की दिक्कतें भविष्य में बढ़ती ही जानी है।

(एके घोष पिछले पचास सालों से प्रशासन शोध और प्रशिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। वे सेंटर फार इन्वायरनमेंट एंड डेवलपमेंट कोलकाता (1996 में स्थापित) के संस्थापक निदेशक हैं।)