लेखक
श्रद्धांजलि
सन 1983 में केसी साहा ने पश्चिम बंगाल के पानी में जब पहली बार आर्सेनिक की मौजूदगी पर शोध किया था, तो कोई नहीं जानता था कि आखिर यह क्या बला है और क्यों है।
लेकिन, आज पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक बहस का मुद्दा है। यहाँ की एक बड़ी आबादी आर्सेनिक की चपेट में है।
आर्सेनिक जैसे विषय को चर्चा में लाने का सबसे ज्यादा श्रेय अगर किसी व्यक्ति को जाता है, तो वे थे दीपांकर चक्रवर्ती। दीपांकर चक्रवर्ती का निधन 28 फरवरी, 2018 को हो गया। 28 फरवरी को अचानक उनकी तबीयत बिगड़ जाने से उन्हें इलाज के लिये अस्पताल ले जाया गया था, जहाँ उन्होंने अन्तिम साँस ली। वह 72 वर्ष के थे।
वह चुपचाप रहकर जिस तरह आर्सेनिक पर काम करते रहे, उसी तरह खामोशी से इस दुनिया से भी चले गए। बस छोड़ गए तो अपना काम, जो आने वाले समय में आर्सेनिक के शोधकर्ताओं का काम आसान कर देगा।
आज अगर सरकार आर्सेनिक को लेकर थोड़ा-बहुत भी गम्भीर है, तो इसके लिये केवल और केवल दीपांकर चक्रवर्ती को ही शुक्रिया कहना चाहिए।
दीपांकर चक्रवर्ती ने आर्सेनिक पर इतना ज्यादा काम किया है कि उन्हें ‘बंगाल का आर्सेनिक मैन’ तक कहा जाता था।
उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर और पीएचडी की डिग्री ली थी। इसके बाद उसी विश्वविद्यालय में बतौर अध्यापक उन्होंने करियर की शुरुआत की थी। बाद में शोध के सिलसिले में वह विदेश गए और करीब डेढ दशक तक विदेश में शोध कार्य को अंजाम दिया। बाद में वह पश्चिम बंगाल लौटे और फिर यहीं रहकर शोध कार्य करने लगे।
सन 2008 में वह स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंट स्टडीज के डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए, लेकिन शोध कार्य को नेतृत्व देते रहे।
उनके विदेश से लौटने का किस्सा इतना सीधा-सपाट नहीं है। असल में उनके पश्चिम बंगाल लौटने के पीछे दिलचस्प कहानी है, जिससे काम के प्रति उनके समर्पण, अपनी मिट्टी से लगाव और उनकी संवेदनशीलता का पता चलता है।
शोध के सिलसिले में जब वह पश्चिमी देश गए थे, तो पश्चिमी देशों में उन्होंने वहाँ लम्बे समय तक शोध किया, लेकिन बंगाल को लेकर उन्होंने कभी बडे पैमाने पर काम नहीं किया था।
यह सन 1988 की बात है। वह विदेश से कोलकाता लौटे, तो उन्हें बंगाल में आर्सेनिकोसिस से कुछ लोगों के बीमार पड़ने की सूचना मिली। उस वक्त आर्सेनिक के बारे में न तो सरकार को ज्यादा पता था और न ही आम लोगों को। लोग वर्षों से ट्यूबवेल का वही पानी पी रहे थे, जिसमें आर्सेनिक था।
उन्हें जब सूचना मिली, तो उन्होंने आर्सेनिक से बुरी तरह ग्रस्त मालदह जिले के गाँवों में जाने का फैसला किया। जब वह मालदह के गाँवों में गए, तो उन्हें पता चला कि यहाँ आर्सेनिक किस तरह लोगों को मौत के करीब ले जा रहा है। उन्होंने पाया कि यहाँ के कई लोग आर्सेनिक से होने वाले कैंसर से जूझ रहे हैं, लेकिन उन्हें पता ही नहीं है कि यह बीमारी उन्हें हुई कैसे।
मौत के मुँह में जा रहे असहाय लोगों का थका व मायूस चेहरा उनकी आँखों के सामने बार-बार आने लगा। वह बेचैन हो उठे और फिर एक दिन उन्होंने पश्चिम बंगाल में रहकर आर्सेनिक पर काम करने का जोखिम भरा निर्णय ले लिया।
उनका यह निर्णय कुछ-कुछ सन 2004 में आयी शाहरुख खान अभिनीत ‘स्वदेश’ फिल्म के मोहन भार्गव जैसा था। जिस तरह मोहन भार्गव गाँव की समस्याओं को देखकर परेशान हो जाता है और अमेरिका में नासा की नौकरी छोड़कर गाँव आ जाता है। उसी तरह चक्रवर्ती ने भी विदेश का अच्छा खासा काम छोड़ दिया और पश्चिम बंगाल में आकर आर्सेनिक पर काम करने लगे।
विदेश से लौटने के बाद उन्हें यह महसूस हुआ कि आर्सेनिक जिस तरह बंगाल में अपनी जड़ें फैलाए हुए है, उसके लिये छिटपुट काम करने से कोई फायदा नहीं होने वाला, बल्कि इसकी जगह एक अलग ही विंग तैयार किया जाना चाहिए, जो आर्सेनिक पर केन्द्रित हो।
जादवपुर यूनिवर्सिटी में वर्ष 1989 में शामिल किया गया नया विभाग ‘स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल स्टडीज’ उनकी ही सोच का परिणाम था। दूसरे शब्दों में कहें, तो इस विभाग की स्थापना उन्होंने ही की थी। डॉ चक्रवर्ती स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल स्टडीज के डायरेक्टर के पद पर भी रहे।
स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल स्टडीज अभी आर्सेनिक व पर्यावरण को लेकर व्यापक स्तर पर काम कर रहा है।जनकल्याण का काम उनकी प्राथमिकता की सूची में पहले पायदान पर था और यही वजह रही कि कई बार उन्होंने निजी कमाई खर्च कर आर्सेनिक पर काम किया और कराया।
जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंट स्टडीज में आर्सेनिक रिसर्च यूनिट बनाने का श्रेय भी उनको ही जाता है। बताया जाता है कि इस यूनिट की स्थापना करने के लिये उन्होंने निजी कमाई से 1.22 करोड़ रुपए जमा किया था और उसे बैंक में डाल दिया था। बैंक से जो ब्याज मिलता था, उससे कई योजनाओं पर काम किया जाता।
अब यह यूनिट इतना समर्थ हो गया है कि उसे किसी फंड की जरूरत नहीं पड़ती है। इस यूनिट की ओर से गंगा-मेघना-ब्रह्मपुत्र के मैदानी इलाकों में आर्सेनिक के असर को लेकर कई शोध किये जा चुके हैं। इसके अलावा तमाम स्कूल-कॉलेजों के जलस्रोतों की भी जाँच कर पता लगाया गया कि पानी में आर्सेनिक है या नहीं। यही नहीं, ढाका कम्युनिटी अस्पताल के साथ मिलकर आर्सेनिक रिसर्च यूनिट ने बांग्लादेश के 64 जिलों में आर्सेनिक के असर पर भी शोध किया।
आर्सेनिक को लेकर उनकी चिन्ता को इससे भी समझा जा सकता है कि आर्सेनिक पर काम करते हुए उन्हें जो पुरस्कार राशि, कंसल्टेंसी फीस व एनवायरन्मेंटल एनालिटिकल फीस मिलती थी, वह उसे स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल स्टडीज के डेवलपमेंट फंड के हवाले कर देते थे।
अपने फंड से शोध कार्य करने के पीछे उनका एक और तर्क था। वह मानते थे कि किसी दूसरी संस्था के फंड से शोध करने पर शोध पत्र के छपने की सम्भावनाएँ सीमित हो जाती हैं। वहीं, अगर स्वतंत्र रूप से शोध किया जाये, शोध पत्र को बड़ा फलक मिलता है।
फिलहाल आर्सेनिक रिसर्च यूनिट के खाते में 100 से ज्यादा शोध पत्र व तीन पेटेंट हैं। खुद चक्रवर्ती के 200 से अधिक शोध-पत्र अलग-अलग प्रकाशनों में प्रकाशित हो चुके हैं। यही नहीं, वह अब तक 20 से अधिक किताबें भी लिख चुके हैं।
बहरहाल, हम वापस लौटते हैं उस कहानी की तरफ जब वह विदेश छोड़कर पश्चिम बंगाल में रहने का फैसला लेते हैं।
यहाँ आकर उन्होंने सबसे पहले सन 1982 से लेकर 1988 तक विभिन्न अखबारों में छपी उन खबरों को एक जगह संकलित किया, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आर्सेनिक से जुड़ी हुई थीं। इससे उनके सामने पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक के असर की एक तस्वीर आ गई। इसमें उन्होंने कुछ छात्रों की मदद ली, जिन्होंने पूरे समर्पण के साथ छह सालों तक विभिन्न अखबारों में छपी आर्सेनिक की खबरों को इकट्ठा करने का दुरूह कार्य किया।
इससे उन्हें आर्सेनिक पर काम शुरू करने में काफी मदद मिली।
इसके बाद उन्होंने शोध का जिम्मा अपने हाथ में लिया और सन 1995 में बंगाल में आर्सेनिक को लेकर एक अन्तरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस किया। यही नहीं, वे विदेशी प्रतिनिधियों को आर्सेनिक का असर दिखाने के लिये दक्षिण 24 परगना जिले के बारुईपुर के रामगढ़ ले गए। वहाँ मीडियाकर्मी भी पहुँचे और इसके बाद ही बंगाल में आर्सेनिक की समस्या को लेकर गम्भीर विमर्श शुरू हुआ। तब से लेकर अब तक वह लगातार आर्सेनिक को लेकर काम कर रहे थे।
उन्होंने जिस तरह अपने बूते पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक को लेकर काम किया, उसके लिये राज्य सरकार को चाहिए था कि उन्हें पुरस्कृत करती, लेकिन पुरस्कार देना तो दूर राज्य सरकार ने उनके काम को तवज्जो ही नहीं दिया।
इसको लेकर उनमें नाराजगी भी थी, जो कभी-कभी सामने आ जाती थी, लेकिन वह हमेशा उस रास्ते पर जाने से परहेज करते रहे, जिससे सरकार के साथ टकराव की स्थिति बनती। वह विदेश से इसलिये नहीं आये थे कि सरकार से टकराएँ। वह यहाँ आर्सेनिक पर काम करने आये थे, इसलिये सरकार से टकराने की जगह उन्होंने सिर्फ-और-सिर्फ अपना काम किया, किसी भी तरह के सम्मान की आकांक्षा से परे रहकर।
पर्यावरणविद सौमेंद्र मोहन घोष ने करीब एक दशक तक उनके साथ काम किया था। सन 1990 से 95 तक आदि गंगा के आसपास के क्षेत्रों के ग्राउंड वाटर की जाँच में उन्हें दीपांकर चक्रवर्ती की मदद मिली और इसके बाद सन 2000 से 2005 तक वायु प्रदूषण को लेकर दोनों ने काम किया। सौमेंद्र मोहन घोष उन्हें याद करते हुए कहते हैं, ‘सन 1990 से 1995 तक हमने कोलकाता के दक्षिणी हिस्से में काम किया था और आर्सेनिक वाले ट्यूबवेल पर लाल निशान लगाए थे। दीपांकर चक्रवर्ती ने ही कहा था कि कोलकाता आर्सेनिक के बम पर बैठा है।’
घोष आगे कहते हैं, ‘दीपांकर चक्रवर्ती इंटेलिजेंट थे और बिना किसी स्वार्थ के लगातार काम करते रहे। आर्सेनिक पर सरकार के उदासीन रवैए से वह नाराज थे। उनके साथ काम करते हुए मैंने यह महसूस किया था, लेकिन इससे उनके काम पर जरा-सा भी असर नहीं दिखता था।’
दीपांकर चक्रवर्ती का मानना था कि आर्सेनिक की समस्या के समाधान में वाटर बॉडीज की बड़ी भूमिका हो सकती है।
उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘बारिश के पानी का संग्रह कर उनका इस्तेमाल इसका एक समाधान है, लेकिन असल बात यह है कि आर्सेनिकग्रस्त क्षेत्रों में पानी की मौजूदगी है, बस, उनके प्रभावी प्रबन्धन की जरूरत है। आर्सेनिकग्रस्त क्षेत्र में जलाशय हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल न कर भूजल का दोहन किया जा रहा है।’
उन्होंने आगे कहा था, ‘वाटरशेड मैनेजमेंट के साथ ही वाटर रेगुलेशंस, नीति व जागरुकता की आवश्यकता है, क्योंकि सभी जगहों के लिये एक तरह का समाधान कारगर नहीं हो सकता है।’
वह यह भी मानते थे कि आर्सेनिक रिमूवल प्लांट प्रभावी हो सकता है लेकिन इसके लिये बढ़िया प्रबन्धन व जनभागीदारी यानी प्लांट के लाभुकों की भागीदारी होनी चाहिए।
जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंट स्टडीज के वर्तमान डायरेक्टर तरित राय चौधरी ने दीपांकर चक्रवर्ती की देखरेख में पीएचडी की थी। रायचौधरी ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ साइंस (टोक्यो) में 6 वर्षों के लिये शोध किया था। इस शोध कार्य में भी उन्होंने दीपांकर चक्रवर्ती की मदद ली थी।
तरित राय चौधरी उन्हें आर्सेनिक योद्धा मानते हैं। उन्होंने कहा, ‘दीपांकर चक्रवर्ती ने आर्सेनिक को लेकर सन 1989 से काम करना शुरू किया था और जीवन पर्यन्त वे यही काम करते रहे। ऐसा शायद ही कोई वक्त रहा होगा, जब उन्होंने आर्सेनिक व उसके असर के बारे में नहीं सोचा होगा। उन्होंने अपना पूरा जीवन ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक की मौजूदगी, मानव पर इसके प्रभाव और इसकी रोकथाम पर शोध करने में ही खपा दिया।’
आर्सेनिक पर दीपांकर चक्रवर्ती का शोध इतना गहन और प्रभावी था कि नेचर जैसे जर्नल में उनके शोध पत्र को जगह दी गई थी।
तरित राय चौधरी ने बताया कि नेचर के सन 1999 के अंक में वह विस्तृत शोध छपा था और इसमें मैं भी बतौर लेखक शामिल था।
तरित राय चौधरी पिछले तीन दशकों से दीपांकर चक्रवर्ती के साथ काम कर रहे थे। दूसरे शब्दों में कहें, तो वह आर्सेनिक के मुद्दे पर तरित राय चौधरी के ‘गुरू’ थे। राय चौधरी कहते हैं, ‘विज्ञान को लेकर उनमें गजब का उत्साह और समर्पण था। उनमें अथाह ऊर्जा और क्षमता थी। उन्होंने जिस तरह आर्सेनिक की वीभिषिका को पूरे समर्पण के साथ सामने लाया था, वह काबिल-ए-तारीफ है।’
दीपांकर चक्रवर्ती अच्छे कामों के कद्रदान भी थे और कोई बेहतर शोध करता, तो खुलकर उसकी तारीफ करते थे।
तरित राय चौधरी बताते हैं कि जब उन्होंने भोज्य पदार्थों में आर्सेनिक की घुसपैठ पर वृहद शोध किया था, तो दीपांकर चक्रवर्ती ने उस शोध की खूब प्रशंसा की थी।
दीपांकर चक्रवर्ती संप्रति आर्सेनिक को लेकर चल रहे कई शोधों की देखरेख कर रहे थे। उनके जाने से ये शोध कार्य प्रभावित होंगे। तरित राय चौधरी ने कहा, ‘अधूरे पड़े शोध कार्यों को पूरा करना अभी सबसे बड़ी चुनौती है हमारे लिये। जादवपुर विश्वविद्यालय प्रबन्धन अगर मुझे इजाजत देगा तो मैंने पिछले तीन दशकों तक उनके अभिभावकत्व में जो कुछ सीखा है, उसकी बदौलत अधूरे शोध कार्यों को पूरा करने की कोशिश करुँगा।’
किसी व्यक्ति ने विदेश में एक अच्छा-खासा करियर के मौके को छोड़कर अपने खर्च पर अपने देश में आकर शोध किया, ऐसे उदारहण विरले ही होते हैं। दीपांकर चक्रवर्ती ऐसे ही शख्स थे।
आर्सेनिक को लेकर उनका किया गया काम मील का पत्थर है। उनका जाना बहुत बड़ा नुकसान है, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं है।
दीपांकर चक्रवर्ती का जाना केवल उनका जाना नहीं है, आर्सेनिक से लोगों को बचाने और इस महामारी से निबटने की तमाम सम्भावनाओं का जाना है।