ज़मीन अधिग्रहण : कीमत क्या हो ?

Submitted by Hindi on Tue, 02/05/2013 - 14:53
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हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, फरवरी 7, 2008, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाजार की शक्ति में यकीन रखने वाले भी उस भूमि अधिग्रहण कानून का सहारा लेने को क्यों जायज़ ठहराते हैं, जिसके तहत कथित जन-उद्देश्यों के लिए सरकार को किसी भी भूमि के अधिग्रहण शक्तियां मिल जाती हैं, और जिस पर कोई प्रश्न भी खड़ा नहीं किया जा सकता ?कब्र पर लगे पत्थर हाइवे से ही दिख रहे थे, जिन पर सभी मृत आदिवासियों के नाम खुदे हैं। इन तेरह पत्थरों से बने चबूतरे के ठीक सामने एक घेरा था। इसके अंदर बचे-खुचे अधजले डंडे पड़े थे। जल्द ही मुझे ये अनुभूति हो गई कि मैं एक कब्रिस्तान देख रही थी। हतप्रभ, मैंने ये भी समझ लिया कि पुलिस फ़ायरिंग में यहीं ये आदिवासी मारे गए होंगे और उसी याद को ताज़ा रखने के लिए इस जगह को पूर्ववत रहने दिया गया था।

हम गोबर घाटी गांव में थे। वही गांव, जहां कलिंग नगर गोलीकांड हुआ था। भुवनेश्वर से कुछ घंटों की दूरी है। धान के हरे-भरे खेतों के बीचोबीच बांस के झुरमुटों से घिरा फूस की झोपड़ियों से बना खालिस आदिवासी गांव। दो साल पहले यहां टाटा स्टील के लिए गांव की ज़मीन छीनी जा रही थी। इसी के विरोध ने हथियारबंद मुठभेड़ का रूप ले लिया था। ये गांव उस औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा है, जिसके लिए राज्य सरकार ने कुछ वर्ष पहले भूमि अधिग्रहित की थी। गोलीबारी के बाद गांव वालों ने साल-भर से ऊपर हाइवे को जाम रखा। इसे तब खोला गया, जब मुख्यमंत्री ने ग्राम प्रतिनिधियों से मुलाकात के बाद आश्वासन दिए, लेकिन कुछ बदला नहीं।

यहां जिन ग्रामीणों से हम मिले, सभी गुस्से में थे। उनका कहना था कि वे अपनी जमीन नहीं छोड़ेगे। जब उनसे पूछा गया कि क्या वे और ज्यादा मुआवज़े के बाद मान जाएंगे, नका टका-सा जवाब था- नहीं। ‘हम गरीब जरूर हैं लेकिन हमारी जमीन से हमारा भरण-पोषण हो जाता है। जब यही हमारे पास नहीं होगा, तब हम क्या करेंगे?’ कंपनी रोज़गार मुहैया कराएगी तो क्या वे मान जाएंगे? उनका जवाब था, ‘हमने आस-पास लगे कारख़ानों को देखा है। हमने देखा है कि जब ज़मीन ली गई थी, तो उन लोगों ने हमारे लोगों को नौकरी का आश्वासन दिया था, लेकिन अब हमारे लोगों के पास न तो नौकरी है न ज़मीन। हमें कहा जाता है कि हम अनपढ़ हैं इसलिए नौकरी नहीं दी जा सकती’

हम पुनर्वास कॉलोनियों में भी गए। इन्हें उन ग्रामीणों के लिए बनाया गया है, जिनकी ज़मीन ली जा चुकी है। कंपनी के अधिकारियों ने बताया कि परिवार के किसी सदस्य को हम नौकरी देने की भी योजना बना रहे हैं। शिक्षा या फिर कौशल के लिए वे ग्रामीणों को वेल्डिंग या इसी जैसे अन्य कार्य में प्रशिक्षित करने जा रहे थे। साथ ही, सरकार भी नकद मुआवज़े की राशि 14,000 रुपए प्रति हेक्टेयर से बढ़ाकर 40,000 रुपये प्रति हेक्टेयर (400 वर्ग मी. का भू-खंड) और बनाने के लिए सहायता राशि डेढ़ लाख रुपये करने पर राजी हो गई है। प्रत्येक परिवार के हरेक वयस्क पुत्र को अलग-अलग समझा जाएगा। यानी अब लाभ कई गुना होगा। कंपनी अधिकारियों की निगाह में ये एक बेहतर सौदा है।

हमने, कॉलोनी में रह रहे युवकों से भी पूछा कि वे कैसे राजी हो गए? उनका कहना था – हमरे पास पहले ही ज़मीन नहीं थी और दूसरी तरफ हमें नौकरी भी दी गई, लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि तब से हम अपने गांव में प्रवेश भी नहीं कर पाए। उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया गया था। स्पष्ट है कि वहां गुस्सा मौजूद था और अच्छी पेशकश के बावजूद विरोध भी।

तो यहां प्रश्न था कि आखिर क्यों? क्या ये केवल कुछ लोगों की हठधर्मिता थी, या फिर प्रतिद्वंदियों के निहित स्वार्थ हैं जो असंतोष को हवा दे रहे थे, या वे साधारण ग्रामीण-जिनसे हम मिले, क्या नक्सलवादी थे, जो राज्य और उद्योग जगत के विरुद्ध एक वैचारिक लड़ाई में संलग्न थे? कारण समझना तब और मुश्किल हो जाता है जब आप इस सच्चाई पर विचार करते हैं कि परिवर्तन का विरोध कर रहे लोग गरीब थे। मिट्टी और फूस की झोपड़ियों में रहते थे और जिनके बगैर उहें पक्का मकान मिल रहा था, दिन-रात वे बारिश की कमी और फसल बर्बादी से दो-चार होते रहते हैं।

लेकिन, यहीं पर हमें स्थिति को अलग तरीके से समझना होगा। गोबरघाटी में मुझे नक्सलवादी या ऐसा ही कोई दिग्भ्रमित व्यक्ति नहीं दिखा। मैं बस ये देख सकी कि लोग समझते हैं कि नई दुनिया में सफलता के लिए जरूरी कौशल उनके पास नहीं है। अपने कड़वे अनुभवों के बाद किसान यह भी समझ गए हैं कि उद्योग जगत को अपने उद्यमों के संचालन के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत नहीं है। उन्हें उनके श्रम की नहीं, केवल ज़मीन, जल और खनिज संपदा की जरूरत है। वादे के मुताबिक ज़मीन के बदले वे घर और मुआवजा भले ही पा जाएं, उनके पास काम नहीं होगा।

वो जगह, ज्यादा दूर नहीं है जहां की बड़ी कंपनी पॉस्को के स्टील प्लांट के कारण विस्थापन का सामना कर रहे ग्रामीणों ने भी अब शर्तें रख दी हैं। घर और खेती की ज़मीन के बदले अब उन्हें मुआवजा चाहिए, वर्तमान पीढ़ी के प्रत्येक वयस्क और भावी पीढ़ी के लिए उन्हें रोजगार चाहिए। साथ ही घर व अन्य सुविधाएं भी।

यही नहीं, नौकरी न कर पाने वाले बूढ़े के लिए वे 1,000 रुपये महीना भत्ता और लाभ में हिस्सा चाहते हैं। हमें यह जरूर समझ लेना चाहिए कि ये उनका लालच नहीं है। उनकी ऐसी मांग के पीछे वो महत्व है, जो वे अपनी भूमि को देते हैं। साथ ही हमें ये भी समझ लेना चाहिए कि आधुनिक उद्योग, आजीविका की दृष्टि से कृषि के साथ मुकाबला नहीं कर सकता। अगर हम ये स्वीकार करते हैं, तब समाधान के लिए भिन्न तरीके से सोच सकेंगे। यह स्पष्ट है कि उद्योगों के लिए भूमि की जरूरत होगी, लेकिन उनके लिए कीमत क्या और कितनी होगी? ये उद्योग जगत है, जो भूमि के लिए व्यग्र है।

प्रश्न यह है कि भारतीय उद्योग जगत, क्योंकर ज़मीन की अपनी मांग को लेकर और किफायती नहीं हो सकता? उद्योग जगत क्यों बातचीत नहीं करता और वो कीमत नहीं अदा करता, जो कीमत लोग अपनी ज़मीन के लिए चाहते हैं? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बाजार की शक्ति में यकीन रखने वाले भी उस भूमि अधिग्रहण कानून का सहारा लेने को क्यों जायज़ ठहराते हैं, जिसके तहत कथित जन-उद्देश्यों के लिए सरकार को किसी भी भूमि के अधिग्रहण शक्तियां मिल जाती हैं, और जिस पर कोई प्रश्न भी खड़ा नहीं किया जा सकता ?